फासीवाद और इसका राज्य रूप – बुर्जुआ जनतंत्र और संसदीय प्रणाली जैसे अन्य रूपों की तरह ही – वर्ग संघर्ष का एक उत्पाद है. मगर वर्ग संघर्ष का रास्ता हर एक देश से दूसरे देश में व्यापक रूप से बदलता रहता है और उसी के अनुसार उसके नतीजे भी.

1848 में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के रचनाकारों के पास यह घोषित करने के पर्याप्त कारण थे कि जर्मन सर्वहारा संभवतः समाजवादी क्रांति करने वाला दुनिया का पहला देश होगा. मगर यथार्थ में यह रूस में घटित हुआ और विजयी रूसी कम्युनिस्टों को उम्मीद थी कि अगला विजय ध्वज पड़ोसी जर्मनी का मजदूर वर्ग फहरायेगा. प्रथम विश्व युद्ध के बाद का जर्मनी सबसे भयावह आर्थिक संकट, सामाजिक उथल-पुथल, और राजनीतिक तंत्र के ध्वस्त होने के भंवर में फंसा दो नितान्त विपरीत संभावनाओं के दोराहे पर खड़ा था : समाजवादी क्रांति या फिर पूंजीवादी सुदृढ़ीकरण. जर्मनी के सबसे अगुआ मजदूर वर्ग तबकों ने बुलन्दी के साथ समाजवादी क्रांति का रास्ता लिया. बड़े बुर्जुआ ने जुन्कर भूस्वामियों के साथ गंठजोड़ कर के प्रतिक्रांति से इसका जबाब दिया. वाम असफल रहा और जैसा कि क्लारा ज़ेटकिन ने 1923 में ही कह दिया था (परिशिष्‍ट-1 देखें), उसे इसकी सज़ा फासीवाद के रूप में मिली. इसलिए हम अपने अध्ययन की शुरुआत जर्मनी के गृहयुद्ध से करेंगे क्‍योंकि यही गृहयुद्ध फासीवाद के उभार की पूर्व पीठिका बना.

जर्मनी में क्रांति और प्रतिक्रांति

जब प्रथम विश्व युद्ध का अंत हो रहा था, जर्मनी की राजशाही पूरी तरह बदनाम और अलग-थलग पड़ चुकी थी. व्यापक जन असंतोष और उथल-पुथल उफान पर था. साल 1918 की शुरुवात अमन, रोटी और साम्राज्यवादी कैसरशाही सरकार की बर्खास्तगी की मांग के साथ दस लाख से ज्यादा मजदूरों की आम हड़ताल से हुई. बर्लिन के मजदूर सोवियत जैसी काउंसिलों में संगठित हो रहे थे. क्रान्तिकारी विक्षोभ की आग समूची सेना में फ़ैल चुकी थी. लगता था, देश पूरी तरह रूस के रास्ते पर चल पड़ा था.

आसन्न पराजय को देखते हुए जर्मनी शांति वार्ता के लिए लालायित था मगर अमेरिका पूर्वशर्त के रूप में पराजित आक्रान्ता देश में नागरिक सरकार की स्थापना पर अड़ गया. विदेशी विजेताओं और घर में व्यापक जन असंतोष के दबाव में चान्सलर मैक्स वॉन बादेन की अगुवाई वाले शासन तंत्र ने अक्टूबर 1918 में एक तथाकथित जनतांत्रिक गठबंधन सरकार स्थापित कर दी. सरकार की कमान खुद प्रिंस बादेन के हाथ में थी जिसमें शायदेमान जैसे सामाजिक जनवादी शामिल थे. स्वाभाविक रूप से इसका मकसद क्रांति की सम्भावना को ख़त्म करना और विजेताओं को एक ऐसे संवैधानिक सुधार के जरिये संतुष्ट करना था, जिसमें आर्थिक ढ़ांचा और राजनीतिक सत्ता संरचना यथावत बनी रहें.

स्पार्टाकस लीग और जनवरी 1918 की हड़ताल में चुनी गयीं क्रन्तिकारी परिषदों के प्रतिनिधियों ने इस विश्वासघाती सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए एक और आम हड़ताल और सशत्र विद्रोही उभार का आह्वान किया. जनवरी 1919 में बर्लिन पूरी तरह आम हड़ताल की गिरफ्त में था: बर्लिन की सड़कों पर कब्ज़ा किये हुए हथियारबंद मजदूरों के साथ सैनिक भी शामिल हो चुके थे. विद्रोही उथल-पुथल चलती रही. नवम्बर में जहाजियों ने क्रांति की ज्वाला तमाम प्रमुख तटवर्ती शहरों और मुख्य भूमि में म्‍यूनिक, फ्रैंकफर्ट, हनोवर आदि तक फैला दी. 9 नवम्बर को कैसर गद्दी छोड़ कर भाग गया और उसी दिन स्पार्टाकस लीग के नेता कार्ल लीबनेश्‍त ने सोशलिस्ट रिपब्लिक की घोषणा कर दी. जबाबी कार्यनीति के रूप में शायदेमान ने “फ्री जर्मन रिपब्लिक” का नारा बढ़ाया. म्‍यूनिक और देश के अन्य तमाम प्रमुख शहरों में मजदूरों और सैनिकों की परिषदों का गठन होने लगा (बर्लिन में ये पहले ही बन चुकी थीं). मगर एस. एल. (स्पार्टाकस लीग) के पास परिषदों में बहुमत जीतने और उन्हें मजदूर वर्ग व व्यापक श्रमशील जनता के सच्चे हितों की प्रतिनिधि संस्थाओं में बदलने की क्षमता नहीं थी. परिषदों में बहुमत हासिल कर के सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी और निर्दलीय (अथवा आई.एस.डी.पी. – सोशल डेमोक्रेटों का मध्यमार्गी गुट) के अवसरवादी नेताओं ने परिषदों को अपनी लाइन पर चलने को मजबूर कर दिया. बर्लिन परिषदों की जनरल असेंबली द्वारा 10 नवम्बर को चुनी गयी “दि काउन्सिल ऑफ़ पीपुल्स कमिसार्स” में ऍफ़. एबर्ट व शायदेमान  सहित दक्षिण पंथी सोशल डेमोक्रेटों के तीन प्रतिनिधि, और तीन निर्दलीय शामिल थे, मगर एस. एल. से कोई नहीं था. काउन्सिल ने कैसर के अधिकारियों को अपने पदों पर बने रहने दिया और राजशाही सेना के प्रमुख पी. वाॅन. हिन्‍डेन्बर्ग के साथ गठबंधन बना लिया.

दिसंबर 16-21, 1918 को हुई वर्कर्स काउंसिलों की पहली आल जर्मन कांग्रेस में सोशल डेमोक्रेटिक नेता बुर्जुआ संविधान सभा के लिए चुनाव कराने और सरकार को विधायी शक्ति हस्तांतरित करने के प्रस्ताव पारित कराने में सफल हो गए. क्रांतिकारियों ने सत्ता दखल के लिए विद्रोही बगावत शुरू की. शायदेमान सरकार ने क्रांतिकारी मजदूरों के खिलाफ खुले और निर्मम दमन का रास्ता लिया. 15 जनवरी 1919 को इसने दक्षिण पंथी पैरामिलट्री “फ्राइकोर’’ के सदस्यों के जरिये क्रांति के दो सबसे अगुआ नेताओं- कार्ल लीबनेश्‍त और रोज़ा लक्‍ज़ेम्बर्ग की हत्या करवा दी.

इस बीच म्‍यूनिक में सोशलिस्ट रिपब्लिक ऑफ़ बावेरिया की घोषणा हो गयी. बिना किसी समुचित तैयारी के बने इस रिपब्लिक को भी मई 1919 की शुरुवात में सेना द्वारा बुरी तरह से कुचल दिया गया. आगे उसी साल वेइमार शहर में हुई संविधान सभा की बैठक ने नया संविधान पारित करते हुए वेइमार रिपब्लिक के रूप में एक संसदीय गणतंत्र की औपचारिक नींव रख दी. राजशाही की जगह एक अधपके बुर्जुआ गणतंत्र ने ले ली और बड़े जुन्कर भूस्वामी यथावत अछूते रहे. अवसरवादी राजनीति से विचारधारात्मक रूप से प्रभावित और सांगठनिक रूप से बंटा हुआ मजदूर वर्ग इस हैसियत में नहीं था कि वह क्रांति का समाजवाद की मंजिल की ओर नेतृत्व कर सकता. इसके बावजूद प्रशिया पर हाउस ऑफ़ होहेंजोलेर्न के चार सौ साल और जर्मनी पर तीस साल के शासन को देखते हुए अपनी सारी कमियों (प्रेसिडेंट के पास चान्सलर की नियुक्ति और बर्खास्तगी और राजाज्ञाएं जारी करने के लगभग एकाधिकार आदि) के बावजूद रिपब्लिक इस अर्थ में सापेक्षिक रूप से प्रगतिशील संस्था थी कि इसमें वर्ग संघर्ष के कहीं ज्यादा खुले और मुक्त विकास की गुंजाईश थी. यह संघर्ष ठीक-ठीक कैसे खुद को राजनीतिक अखाड़े में अभिव्यक्त करेगा और – कौन सा पक्ष जीतेगा – यह मुख्यतः प्रतिद्वन्दी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के राजनीतिक व्यवहार पर निर्भर करेगा.


रोज़ा लक्जे़म्बर्ग के अंतिम शब्द

rosa(पार्टी के अन्दर रोज़ा लक्जे़म्बर्ग का मत था कि जब दक्षिण की ताकतें अपनी ताकत बटोर रहीं हो, तब जन विद्रोह संगठन के लिए घातक हो सकता है. मगर जब वह शुरू हो गया, उसने यह तर्क देते हुए अपने कामरेडों का साथ दिया कि अब चीज़ें गति में थीं और इस समय किनारे खड़े रह कर सही समय का इन्तजार करना कहीं ज्यादा भयावह भूल होगी. चन्द दिनों बाद ही, लक्जे़म्बर्ग और लीबनेश्‍त को फ़्रीकार्प्स ने गिरफ्तार कर के बेरहमी से क़त्ल कर दिया. लीबनेश्‍त का मृत शरीर गुमनाम रूप से शहर के लाशघर में फेंक दिया गया और लक्जे़म्बर्ग की लाश महीनों बाद लैंडव्हेर नहर में उतराई पाई गयी. अपने क़त्ल की शाम को, विद्रोह की विफलता और अपनी आसन्न मृत्यु को लगभग सुनिश्चित जानते हुए रोज़ा ने लिखा):

“नेतृत्व विफल हो गया है. इसके बावजूद भी, नेतृत्व जन समुदायों से और जन समुदायों के बीच से ही फिर से खड़ा किया जा सकता है और निश्चय ही किया जाना चाहिये. जन समुदाय ही निर्णायक तत्व हैं, वे वह चट्टान हैं जिस पर क्रांति की अंतिम निर्णायक विजय खड़ी की जायेगी ... बर्लिन में व्यवस्था का शासन है ! तुम मूर्ख जल्लादों ! तुम्हारी व्यवस्था बालू पर बनी है. कल को क्रांति पूरी गड़गड़ाहट के साथ खुद को फिर से खड़ा कर चुकी होगी और पूरे उत्साही आवेग के साथ तुम्हें आतंकित करते हुए यह घोषणा कर रही होगी: “मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूंगी !”


वर्ग सहयोग की दलाली से फासीवादी दखल तक

हर असफल क्रांति शासक वर्ग (जो खतरे में तो है मगर नष्ट नहीं हुआ है) की ओर से दोहरी प्रतिक्रिया को जन्म देती है. पहला: क्रांतिकारी पार्टी को दबा कर ख़त्म कर देने के लिए बर्बरतम दमन; और दूसरा: क्रांति के भावी प्रयासों को रोकने और जन समुदायों में अपना सामाजिक आधार बढाने के उद्देश्य से कुछेक सुधार. जर्मनी में दमन का निशाना एस. एल और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ जर्मनी (के.पी.डी.) थे और राज्य का सुधार वेइमर रिपब्लिक के रूप में पेश किया गया. पहली और आगे की सरकारें लिबरल बुर्जुआ पार्टियों और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एस.पी.डी.) के गठबंधन से बनीं. स्पष्टतः ये वर्ग सहयोग की सरकारें थीं. क्रांति की अभी भी सुलगती राख को दबाने के लिए एस. पी. डी नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने वे कदम उठाये जिन्हें आजकल श्रमशील जनता के लिए सामाजिक सुरक्षा नेट कहा जाता है. पूंजीपतियों ने भी इसके खिलाफ मूर्खतापूर्ण आत्मघाती टकराव के बजाय इसे एक परिणामवादी तात्कालिक समायोजन के रूप में स्वीकार कर लिया. जून 1919 में एक प्रमुख जर्मन उद्योगपति ने अपने साथी पूंजीपतियों के बीच इस बात को कुछ इस तरह से स्पष्ट किया :

“महोदयों, रूस में घटनाओं ने गलत मोड़ ले किया था और शुरुआत से ही उद्योग ने क्रांति को खारिज करने की नीति ले ली थी. अगर हमने भी, और यह संभव भी था, असहयोग का रुख ले लिया होता, तो मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि आज हमारे सामने भी वही स्थितियां होतीं जो रूस में हैं.”

लेनिन ने भी यह इंगित किया कि बड़े बुर्जुआ ने रूस के उदाहरण से सीख ले कर एक बेहतरीन रणनीति अख्तियार की थी. आर्थिक सहूलियत की एक छोटी सी कीमत दे कर उन्होंने और जुन्कर भूस्वामियों ने खुद को रूस से फैलती क्रांति के खतरे से बचा लिया. एस.पी.डी. और इससे जुड़े ट्रेड यूनियन नेताओं ने भी (जिनके पास मजदूरों के विशाल समुदाय का समर्थन था), क्रांति को फिर से आगे बढ़ाने के लिए वर्ग संघर्ष तेज करने की कोशिश नहीं की.

जैसा कि हम जानते हैं, राजनीतिक समझौते दो संघर्षरत पार्टियों/पक्षों के बीच अस्थायी युद्ध विराम भर होते हैं – वह समय जिसमें लड़ाई परोक्ष-सूक्ष्म तरीकों से चलती रहती है, और हर पक्ष दूसरे को चालाकी से मात देने की कोशिश में रहता है. एक पक्ष जीतता है, दूसरा हारता है. सोशल डेमोक्रेटों ने 1914 में कैसर की युद्धनीति को दिए गये समर्थन के अपने विश्वासघाती चरित्र को बनाये रखते हुए, इस बार सरकार का इस्तेमाल वर्ग संघर्ष के आयाम को विस्तार देने में करने के उलट अपने खुद के भूमि सुधार कार्यक्रम से भी किनारा कर लिया. उनकी नीति वर्ग शांति को मजबूत करने के जरिये बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था में पद से चिपके रहने की थी. ऐसे में, उन्होंने क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को अपने लिए एक बड़ी बाधा के रूप में लेते हुए राजनीतिक व हथियारबंद क्रांति और हथियारबंद प्रतिक्रांति के सीधे टकराव के दौर में उन्हें भौतिक/षड्यंत्रकारी तरीकों से भी रास्ते से हटाने का प्रयास किया.

बड़े बुर्जुआ के साथ समझौतों, लिबरल बुर्जुआ के साथ गंठजोड़ों और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के साथ संघर्ष पर आधारित सोशल डेमोक्रेटिक प्रतिरूपों के साथ एक और प्रतिरूप जो आने वाले दशकों में पूरी दुनिया में दुहराया जायेगा – नवजात एस.एल. – के.पी.डी. की तर्ज का होगा जिन्होंने “लेफ्ट विंग कम्युनिज्म: ऐन इन्फेनटाइल डिसआर्डर” की अपने हिस्से की अदायगी की थी. उन्होंने जनतांत्रिक क्रांति से समाजवादी क्रांति की ओर निर्बाध संक्रमण की जरूरत को बिलकुल सही रेखांकित किया, मगर जारी गृह युद्ध में वर्ग शक्तियों के समवेत संतुलन का सटीक आकलन कर पाने से शुरुवात में चूक गए, जरूरत से कहीं ज्यादा तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश की और भारी नुकसान उठाया. इसने क्रांति की सम्भावना को और भी कमजोर कर दिया. बहरहाल, रिपब्लिक की स्थापना के बाद, उन्होंने जनतंत्र की रक्षा की दिशा में सोशल डेमोक्रेटों के हर कदम का समर्थन किया और साथ ही उनके घुटने टेकने के हर कदम का विरोध भी किया. फासीवाद के खिलाफ संघर्ष में दोनों पार्टियों के एकजुट होने की विफलता ने प्रतिक्रियावादी बड़े बुर्जुआ को धीरे-धीरे अपना वर्चस्व वापस हासिल करने में मदद की (1920 दशक के मध्य में आठ घंटे काम के दिन को ख़ारिज करना, जो रिपब्लिक की स्थापना के बाद जल्दी ही लागू किया गया था, और 1932 में ओट्टो ब्राउन के नेतृत्व वाली प्रशिया की सोशल डेमोक्रेटिक सरकार को बर्खास्त करना आदि). संसद के अन्दर और बाहर नेशनल सोशलिस्टों के सबसे मजबूत दक्षिण पंथी और दुर्दांत वाम-विरोधी व मजदूर विरोधी पार्टी के रूप में उभरने के साथ-साथ बड़े बुर्जुआ और नात्जि़यों का लगातार निकटतर सम्बन्ध बनता गया. वेइमार रिपब्लिक की जगह हिटलर के “थर्ड राइक” की स्थापना के साथ बड़े बुर्जुआ का निर्णायक वर्चस्व स्थापित हो गया.

1920 दशक में जर्मनी

1920 दशक के आर्थिक संकट ने, जिसकी परिणति 1929 की महामंदी में हुई और जिसने व्यापक पैमाने पर आर्थिक तबाही मचाते हुए वर्ग संघर्ष को आवेग दिया, इटली, फ्रांस, अमेरिका, आस्ट्रिया, रोमानिया, पुर्तगाल, इंग्लैंड और स्पेन जैसे देशों में फासीवादी गुटों के उभार की साझी पृष्ठभूमि तैयार की. इनमें से कई फासिस्ट समूहों ने सत्ता भी दखल की. मगर यह जर्मनी था जिसे सबसे नृशंस रूप में एक बर्बर व सफल नस्लीय जनसंहारी फासिस्ट सत्ता का बसेरा बनने का दुर्भाग्य मिला.

ऐसा अपवाद सरीखे सामाजिक-राजनीतिक विकासक्रमों के संश्रय और एक असाधारण राजनीतिक नेता के चलते संभव हो सका जो अपने मिशन को किसी भी कीमत पर हासिल करने पर आमादा था. अभूतपूर्व आर्थिक संकट की तकलीफें, निजी और सामाजिक जीवन में उथल-पुथल और आहत राष्ट्रीय गर्व, जो युद्ध में पराजय व वर्साय संधि की अपमानजनक शर्तों के चलते उपजा था और जिसने औद्योगिक सर्वहारा का गर्वीला अपवाद छोड़ कर सारे वर्गों व सामाजिक संस्तरों को फासीवादी प्रोपेगैंडा का आसान शिकार बना दिया, आदि सहायक वस्तुगत कारक काफी जाने-पहचाने हैं, इसलिए हम इनके विस्तार में नहीं जायेंगे. इसके बजाय, हम फासीवाद की राजनीति की पड़ताल करेंगे. यह समझने की कोशिश करेंगे कि ठीक-ठीक कैसे, किस रणनीतिक परिप्रेक्ष्य, कार्यनीतिक चालबाजियों और कार्य पद्धति के साथ हिटलर युद्धोत्तर जर्मनी की राजनीति में तूफानी समुद्रों को पार करता हुआ इतनी तेजी और इतने मारक प्रभाव के साथ राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने लक्ष्य तक पहुँच सका.

एक मामूली सैनिक कैसे राजनीतिज्ञ बना

एडोल्फ़ हिटलर का जन्म 20 अप्रैल 1889 को ऊपरी आस्ट्रियाई सीमान्त शहर ब्रौनाऊ एम इन् में हुआ था जो म्यूनिख से बहुत दूर नहीं था. उसने 30 अप्रैल 1945 को बर्लिन के एक भूमिगत बन्कर में अपनी जीवन लीला खुद ख़त्म की जब उसे खबर मिली कि उससे प्रतिशोध लेने के लिए रूस की लाल सेना शहर में दाखिल हो चुकी है. हिटलर का पिता अलोइस हिटलर एक मझले दर्जे का कस्टम कर्मचारी था. अपनी युवावस्था में हिटलर ने दो बार अकादमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स में दाखिला लेने की असफल कोशिश की. इसके बावजूद वह विएना के दृश्यों की जलरंग पेंटिंग बना कर अपनी आजीविका किसी तरह कमाता रहा. वह अपने अभिभावकों की छोड़ी अच्छी-खासी विरासत उड़ा चुकने के बाद सालों तक बेघर-बार आश्रयों में गुजारा करता रहा. उन्हीं दिनों उस पर जर्मन नस्लवादी व यहूदी विरोधवादी धाराओं का प्रभाव पड़ा. 25 साल की उम्र में वह युद्ध में एक “प्राईवेट” (सबसे निचले दर्जे का सिपाही) के रूप में शामिल हुआ और मार्च 1920 में वर्साय संधि लागू होने के बाद अन्य लोगों के साथ “डिसचार्ज” हुआ.

1918-1919 में, क्रांतिकारी उभारों और प्रति-क्रन्तिकारी प्रतिक्रियाओं के दौर में हिटलर म्‍यूनिक में रह रहा था जो चरम दक्षिण राष्ट्रवादी ताकतों का गढ़ था. वह न तो क्रांति का समर्थक था और न ही विरोधी. प्रारंभिक क्रांतिकारी ज्वार के दौर में वह सुविधाजनक-अवसरवादिता के साथ सोशल डेमोक्रेटों के खेमे में नज़र आता था. मगर कुल मिला कर वह बच-बचा कर रहने की नीति पर ही चलता रहा[1]. हाँ, बाद में वह हमेशा इसकी और इसके उत्पाद वेइमार रिपब्लिक की आलोचना और साथ ही उन एस पी डी नेताओं- नोस्के, एबर्ट, शायदेमान, और बावेरियाई नेता अउएर आदि की सराहना भी करता रहा जिन्होंने “भूले से भी कभी क्रांति की चिंगारी जगाने की नहीं सोची”.

हिटलर सितम्बर 1919 से सक्रिय राजनीति में आया जब उसने जर्मन वर्कर्स पार्टी (डी.ए.पी) की एक सभा में शिरकत की.  डी.ए.पी. उन बहुतेरे नस्लवादी – उन्मादी अंधराष्ट्रवादी गुटों में से एक था जो 1918 के बाद से म्‍यूनिक में उभरने लगे थे. उसके भाषण की काफी सराहना हुई और जल्दी ही उसे पार्टी में शामिल होने का निमंत्रण मिला. वह झटपट तैयार भी हो गया क्योंकि भले ही  डी.ए.पी अभी एक छोटे, प्रभावहीन और शुरुवाती दौर में था, यह उसके लिये तेजी से आगे बढ़ने और पार्टी को अपने अनुसार ढाल लेने का सुनहरा मौका था. “स्टार वक्ता” के रूप में हिटलर के साथ डी.ए.पी. की सभाओं में भीड़ बढ़ने लगी. हिटलर के कट्टर अति-राष्ट्रवाद और संवाद अदायगी की नाटकीय शैली ने पार्टी नेताओं का ध्यान खींचा और आश्चर्यजनक रूप से उसे अपनी रेजिमेंट के शिक्षा अधिकारी के सहायक की नियुक्ति मिल गयी.

जनोन्माद उकसाने वाला वक्ता

hitlerवाक् पटुता का वरदान हिटलर के राजनीतिक कैरियर के उभार का सबसे बड़ा हथियार था.

आम धारणा के विपरीत, हिटलर ने कभी बिना तैयारी के भाषण नहीं दिया. वह अपने सारे जन संबोधनों के लिए शातिर चतुराई के साथ तैयारी करता था. अपने दो से तीन घंटों के नाटकीय भाषणों पर केन्द्रित रहने के लिए वह दर्जनों पन्ने जुमलों और नारों से भर कर रखता था. लोगों में उत्सुकता की उत्तेजना बढाने के लिए वह आम तौर पर सभाओं में देर से पहुँचता था. उसके भाषण एक बंधे-बंधाये ढर्रे पर होते थे. ज्यादातर वह शुरुवात धीरे-धीरे, जैसे हिचकिचाते हुए करता था. इतिहासकार जॉन तोलैंड के अनुसार वह करीब दस मिनट एक मंजे हुए अदाकार की तरह श्रोताओं का मन भांपने में लगाता था. उनके मूड के प्रति आश्वस्त हो जाने के बाद वह इत्मीनान से अपना धाराप्रवाह शुरू करता. इसके बाद वह अपनी लाइनों के बीच अपनी नाटकीय अदायें भरता – सर को पीछे झटकना, दायाँ हाथ आगे बढ़ाना-तानना-लहराना, खास कर मसालेदार वाक्यों में अपने आक्रोश को दिखाने के लिए – वक्ता मंच पर मुट्ठियाँ मारना ... शब्दों का चयन और लहज़ा लगातार आक्रामक होता जाता. उसकी खुद की उत्तेजना जैसे संक्रमण की तरह फैलती. उत्तरोत्तर चरम पर पहुँचती उत्तेजना के साथ जब वह अपना भाषण पूरा करता, समूचे श्रोता उन्माद के नशे में पागल हो रहे होते और वक्ता भी पसीने में तर-ब-तर अपने बनाए माहौल का अभिवादन स्वीकार कर रहा होता.

ऐसे तमाम कारक थे जिन्होंने हिटलर की वक्तृत्व शक्ति में योगदान किया : समूचे शरीर से बोलती हुई लचकदार बोली उसका सबसे बेहतरीन हथियार था जिसका उसने भरपूर और शातिर इस्तेमाल किया. उसने “युद्ध के बाद के सताये अकिन्चन की भाषा-बोली” पर पूरी तरह महारत हासिल कर ली थी. अपने भाषणों में वह न सिर्फ भूतपूर्व सिपाही की उजड्ड शब्दावलियों, बल्कि व्यंग और विडंबनाओं के भी मसाले भरता. वह धार्मिक छवियों और भावों के इस्तेमाल के जरिये अपने श्रोताओं के विचारों व भावनाओं को व्यक्त कर सकने में भी खूब माहिर था : उसने न सिर्फ उनके भय, पूर्वाग्रहों, आक्रोश-असंतोष, बल्कि उनकी आशाओं-उम्मीदों-आकांक्षाओं का भी भरपूर शोषण किया. हिटलर का पहला जीवनीकार, कोनार्ड हीदेन कहता है कि हिटलर “खुद से सम्मोहित” – अपने शब्दों से इस कदर अविछिन्न व्यक्ति था कि जब वह सरासर झूठ बोल रहा होता तब भी उसके श्रोता उसे पूरी तरह सच मान रहे होते.”

हिटलर के भाषण आमतौर पर श्रोताओं को “युद्ध के पहले के फलते-फूलते-खुशहाल अद्भुत जर्मनी” में ले जाते. वह बार-बार श्रोताओं का ध्यान “1914 के महान शौर्यवान समय” की ओर ले जाता, जब जर्मनी के लोग अभूतपूर्व रूप से एकजुट थे और उन्हें बाहरी ताकतों द्वारा जबरन थोपे गए युद्ध में घसीट लिया गया था. इस महिमामंडित अतीत का इस्तेमाल हिटलर वर्तमान को निपट अँधेरे का रंग देने के लिए करता. उसके भाषणों का स्थायी सन्दर्भ यह था कि 1918-19 की क्रांति जर्मनी को पतन और गुलामी की ओर ले गयी. इसके लिए यहूदी और “वाम” जिम्मेदार थे जिन्हें वह “क्रांतिकारी” अथवा “नवम्बर के अपराधी” कहता : “गजब की निर्भीक सेना” की पीठ पर “यहूदी-सोशलिस्टों” द्वारा छुरा भोंका गया, जिन्हें यहूदी पैसे की घूस मिलती थी. यह हिटलर का वह वक्तव्य था जिसे यू.पी.एस.डी. के पर्चे में अप्रैल 1920 में उद्धृत किया गया था. तीसरी सुप्रीम कमांड के भूतपूर्व प्रमुखों – पॉल वॉन हिन्‍डेन्बर्ग और एरिच लुदेन्दोर्फ़ ने इस “पीठ में छुरा” जुमलेबाजी की शुरुवात की जो दक्षिण पंथी राष्ट्रवादियों के प्रोपेगेंडा शस्त्रागार का स्थाई तत्व बन गया.

वर्साय संधि पर जबदस्त हमले हिटलर के अभियानों का केन्द्रीय हिस्सा थे. निहायत शर्मनाक और अपमानजनक शांति संधि के रूप में पेश कर के इसका इस्तेमाल लोगों में व्याप्त कड़वाहट को भरपूर हवा देने में होता. हिटलर लगातार अपने श्रोताओं के दिलो-दिमाग में इसे “गुलामी” के रूप में बैठाने के लिए प्रहार करता और इसे वेइमार रिपब्लिक व उसके नेताओं के खिलाफ नफ़रत-हिकारत भरे हमलों के काम में लाता. इसके जरिये वह जर्मनी की नयी जनतांत्रिक व्यवस्था की बारी-बारी से “नीच-दुष्टों की रिपब्लिक”, “बर्लिन की यहूदी सरकार” और “अपराधियों की रिपब्लिक” के रूप में भर्त्सना करता.

नात्‍ज़ीवाद के निर्माता तत्व

अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुवात से अंत तक हिटलर की विश्व दृष्टि और राजनीति के तीन आधारभूत तत्व थे:

(i) रेडिकल यहूदी विरोधवाद[2] (ii) आक्रामक बोल्शेविकवाद /साम्यवाद /मार्क्सवाद विरोध और (iii) नस्लीय / राष्ट्रीय पुनरुत्थानवाद और अंध राष्ट्रवाद जिसके साथ “पूर्वी इलाकों में रहने के लिए स्थान” का आक्रामक उन्माद अविछिन्न रूप से जुड़ा था. जर्मनी की उस समय की दक्षिण पंथी राजनीति में ये सारी बाते कोई नयी नहीं नहीं थी, मगर हिटलर ने इनकी अतुलनीय रूप से बेहतर “पैकेजिंग और मार्केटिंग” की. तीसरा तत्व – भयावह-तीक्ष्ण, श्रेष्ठतावादी राष्ट्रवाद उसके भाषणों और लेखों में हमेशा ही मौजूद रहता, मगर इसी के साथ वह स्थान और श्रोताओं की जरूरत के हिसाब से इस या उस तत्व पर विशेष बल दिया करता.

1920 के एक भाषण में उसने कहा : राज्य बना सकने में असमर्थ यहूदी घुमंतू ... अन्य लोगों के शरीरों पर परजीवियों ... अन्य नस्लों के अन्दर एक नस्ल और अन्य राज्यों के अन्दर एक राज्य की तरह रहते थे. अपनी दो सबसे खास नस्लीय प्रवृत्तियों – “धन लोलुपता और भौतिकतावाद” के चलते उन्होंने और तमाम नश्वर मनुष्‍यों की तरह जरूरी पसीना और श्रम लगाये बिना ही अकूत धन-सम्पदा जमा कर ली है. इसी के साथ हिटलर अपने प्रिय विषय-अंतर्राष्ट्रीय “महाजनी और स्टॉक मार्केट पूँजी” पर आ जाता है – जिसने “कल्पनातीत रूप से बढ़ते चले जाते पैसे और सबसे खराब बात यह कि इसके जरिये सारे ईमानदार प्रयासों को भ्रष्ट करते हुए व्यवहारतः समूची दुनिया पर अपना कब्ज़ा” जमा रखा है. हिटलर ने दावा किया “यहूदी समुदाय के खिलाफ अपने लोगों की सहज घृणा की प्रवृत्ति को जागृत, संवर्धित और आवेगित करने के जरिये” नेशनल सोशलिस्ट इस विनाशकारी ताकत से लोहा लेने के लिए आगे आये हैं. यहाँ से – “स्टॉक मार्केट और महाजनी पूँजी के जर्मनी को अपने शिकंजे में जकड़ने” से – हिटलर आराम से “विश्वव्यापी यहूदी साजिश” के त्रासद आतंक की ओर मुड़ जाता.

24 फरवरी 1928 को पार्टी कार्यक्रम की आठवीं वर्षगाँठ पर हिटलर ने घोषणा की : “अगर वह (यहूदी) सुधर जाता है, वह रह सकता है – अगर नहीं तो उसे निकाल बाहर करो” (लगता है गोलवलकर ने मुसलमानों के लिए अपनी कुख्यात चेतावनी सीधे यहीं से ली थी). मगर उसी साँस में वह यह भी दावा करता है कि “हम अपने घर के मालिक हैं” और फिर यह कातिल चेतावनी जारी करता है “परजीवियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं हो सकती, उन्हें सिर्फ नष्ट ही करना होता है”.

1920 के एक अन्य भाषण में हिटलर कहता है : “जो रूस में आज शीर्ष पर हैं वे मजदूर नहीं, बल्कि बिना किसी संदेह के हीब्रू हैं. हिटलर ने “यहूदी तानाशाही” और रूसी जनता के जीवन से प्राण सोख लेने वाली “मास्को यहूदी सरकार” की बातें करते हुए एन.एस.डी.ए.पी. से “यहूदी बोल्शेविज्म के गन्दे भोजन” के खिलाफ “कूट कर कीमा बना देने वाले जर्मन चरित्र वाला प्रहारक” बनने का आह्वान किया.

आखिर किस आधार पर कोई “यहूदी बोल्शेविज्म” या “मास्को यहूदी सरकार” की बात कर सकता था? यह सही है कि कई बोलशेविक नेता यहूदी पृष्ठभूमि के थे, और ऐसा कई अन्य देशों के कम्युनिस्ट नेताओं के साथ भी था. हिटलर इस तथ्य का इस्तेमाल करके यह दावा करने वाला अकेला नहीं था कि बोल्शेविज्म का निर्देशन-संचालन यहूदी कर रहे थे. ऐसा कर के वे अपने दो दुश्मनों को एकाकार कर रहे थे. बानगी के लिए देख सकते हैं कि विन्स्टन चर्चिल बोल्शेविकों के खिलाफ कैसा विष वमन करता है (बॉक्स देखें).

मार्क्सवाद को ले कर हिटलर का मानना था कि इसे नष्ट कर के वह वर्ग संघर्ष का नामो-निशान मिटा कर एक “सच्चे एथनिक – लोकप्रिय समुदाय” का निर्माण कर सकेगा. इसी के साथ वह लगातार राष्ट्रवाद और समाजवाद के समागम” के लिए दिमाग के श्रमिक और मुट्ठियों के श्रमिक “की एकजुटता के नये-नये जुमले भी ईजाद कर रहा था. नेशनल सोशलिज्म न तो बुर्जुआ को जानता था न ही सर्वहारा को, वह सिर्फ “अपने लोगों के लिए काम करते जर्मन” को जानता था.

अक्सर हिटलर नफ़रत के अपने दोनों शिकारों को मिला दिया करता था; 1927 में उसने लिखा : “यहूदी दुनिया का दुश्मन है और रहेगा, और उसका सबसे बड़ा हथियार, मार्क्सवाद मानवता के लिए प्लेग है और रहेगा”.

ईसाइयत को हड़पना

नेशनल सोशलिज्म खुद को एक राजनीतिक धर्म के तौर पर निरुपित करता था. गोएबेल्स ने अपनी डायरी में लिखा : “ईसाइयत का आज हमारे लिए क्या अर्थ है? नेशनल सोशलिज्म एक धर्म है”. यह दृष्टिकोण पार्टी के एक “आस्था के समुदाय” में विस्तार और इसके कार्यक्रम को “विचारधारात्मक पंथ” बनाने की नीति की पूरी संगति में था. बाइबिल प्रचारकों की तरह, फ्यूरर के शिष्यों का काम नात्‍ज़ी सिद्धान्तों को “अपने लोगों में ईसाई धर्म शिक्षा की तरह” फैलाना था. यह एक बड़ा कारण था कि हिटलर एन.एस.डी.ए.पी. के पच्चीस सूत्री मूल मेनिफेस्टो में किसी भी तरह के संशोधन पर विचार करने से हमेशा इनकार करता रहा. उसके निकटतम विश्वस्‍त हैन्फ्स्तेगल ने एक बार उसे इनमें कुछ व्यवहारिक संशोधन करने का सुझाव दिया था जिस पर उसने जबाब दिया : “हरगिज़ नहीं. यह जैसा है वैसा ही रहने जा रहा है. न्यू टेस्टामेंट भी अंतर्विरोधों से भरा पड़ा है, मगर इससे ईसाइयत के प्रसार में कोई बाधा नहीं आयी”. नात्‍ज़ी पार्टी के 1925 के क्रिसमस समारोह में उसने शुरुवाती ईसाइयत और अपने “आन्दोलन” के बीच साम्य को रेखांकित किया. ईसा मसीह का भी शुरू में उपहास उड़ाया गया, इसके बावजूद ईसाई आस्था एक विशाल-व्यापक वैश्विक आन्दोलन बन गया था. एन.एस.डी.ए.पी. के चेयरमैन ने गर्जना की : “हम वही चीज राजनीति के क्षेत्र में हासिल करना चाहते हैं”. साल भर बाद वह खुद को खुले तौर पर जीसस के उत्तराधिकारी के रूप में पेश कर रहा था जो अपना काम पूरा कर के रहेगा. हिटलर ने घोषित किया : “नेशनल सोशलिज्म क्राइस्ट की शिक्षाओं के अनुपालन के अलावा कुछ भी नहीं है.”

अपने भाषणों, खासकर इनके चरम उत्तेजना के प्रलापों में हिटलर अक्सर धार्मिक शब्दावलियों का इस्तेमाल किया करता था. वह धार्मिक उद्घोष “आमेन”, या फिर “नए पवित्र जर्मन साम्राज्य के प्रति आस्था घोष” अथवा “सारे राक्षसों की चुनौती का मुकाबला करते हुए मुझे अपना कर्तव्य करते रहने की शक्ति देने के किये हमारे प्रभु से याचना” के आह्वान के साथ अपना भाषण पूरा किया करता. वह अपने अनुयाइयों को बराबर आगाह करता कि उनके मार्ग में बलिदानों की कभी कमी नहीं रहेगी. यहाँ भी वह शुरुवाती ईसाइयत के साथ साम्य बनाता था : “चलते रहने के लिए हमारे पास काँटों से भरा पथ है और हमें इस पर गर्व है”. हिटलर ने वादा किया कि वे “रक्त साक्षी” जिन्होंने नात्‍ज़ी आन्दोलन के लिए अपना जीवन बलिदान किया है, वही सम्मान और गौरव पायेंगे जो कभी क्रिश्चियन शहीदों के लिए सुरक्षित हुआ करता था.


“... स्पार्टाकस-वेइशाउप्‍ट दिनों से ले कर कार्ल मार्क्स, और ट्रात्स्‍की (रूस), बेला कुन (हंगरी), रोज़ा लक्जे़म्बर्ग (जर्मनी), और एम्मा गोल्डमान (अमेरिका) तक, सभ्यता को उखाड़ फेंकने और समाज के अवरुद्ध विकास, ईर्ष्यालु विद्वेष, और असम्भव समानता पर आधारित समाज के पुनर्निर्माण की विश्वव्यापी साजिश लगातार बढ़ती जा रही है...

बोल्शेविकवाद के निर्माण और रूसी क्रांति को सचमुच साकार करने में इन अंतर्राष्ट्रीय और ज्यादातर अनीश्वरवादी यहूदियों द्वारा अदा की गयी भूमिका को बढ़ाने-चढ़ाने की जरूरत नहीं है....लेनिन के उल्लेखनीय अपवाद के साथ, प्रमुख नेतृत्वकारी लोग यहूदी ही हैं.”

image_1– विन्स्टन लियोनार्ड स्पेंसर चर्चिल
ज़ायनवाद बनाम बोल्शेविकवाद

(“इलस्ट्रेटेड संडे हेराल्ड”, 8 फरवरी, 1920)


फ़ासिस्ट मेनिफेस्टो

डी.ए.पी. नेता अन्तोन ड्रेक्स्लर के साथ मिल कर, जिससे उसने राष्ट्रवाद और समाजवाद को मिलाने, मजदूर वर्ग को मार्क्स की झूठी शिक्षाओं से मुक्त कराने, और उन्हें राष्ट्रवादी पाले में खींच लाने का विचार हासिल किया था, हिटलर ने पार्टी कार्यक्रम पेश किया जो उस समय के जातीय-अंधराष्ट्रवादी व यहूदी-विरोधी हलकों-तबकों में प्रचलित विचारों की जबर्दस्त अभिव्यक्ति था. एजेंडा के शीर्ष पर सारे जातीय जर्मनों से एक वृहत्तर जर्मनी के अन्दर एकजुट होने का आह्वान था. इसके बाद वर्साय संधि को रद्द करने और जर्मनी के उपनिवेशों को वापस करने की मांगे थी. चौथा बिंदु पार्टी की घोर यहूदी-विरोधी दृष्टि की प्रतीकात्मक अभिव्‍यक्ति थी : “केवल एक जातीय साथी (Volksgenosse) ही नागरिक हो सकता है. केवल वही जो जर्मन रक्त का हो, उसका धर्म चाहे जो हो, एक जातीय साथी हो सकता है. इसलिए कोई भी यहूदी जातीय साथी नहीं हो सकता.” इसके बाद जर्मनी में रह रहे सारे यहूदियों को कानूनन विदेशी मानने और आगे भविष्य में किसी भी यहूदी को जर्मनी में न आने देने की मांगें थी.

इनके अलावे “कार्यहीन, प्रयासहीन आमदनी को जड़ से मिटाने” (यहूदी साहूकारों और बैंकरों के खिलाफ) और बिना किसी अपवाद के युद्ध काल का सारा मुनाफा जब्त करने की मांग थी. मजदूर वर्ग को लुभाने के लिए बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण, मुनाफे में हिस्सेदारी और पेंशन व्यवस्था के विस्तार की भी मांगे शामिल की गयी थीं. मध्यम वर्ग को लुभाने के लिए बड़े डिपार्टमेंटल स्टोरों के सामुदायीकरण और किसानों के लिए भूमि सुधारों का वादा था. कार्यक्रम में “सामुदायिक कल्याण, स्वार्थ से पहले”, “केन्द्रीय प्राधिकार को मजबूत करने” जैसे नारे “भ्रष्‍टकारी संसदीय व्यस्था के खिलाफ संघर्ष” की प्रतिज्ञा के साथ शामिल थे.

कुल मिला कर, इस कार्यक्रम/मेनिफेस्टो से पूरी तरह स्पष्ट था कि सर्वोपरि उद्देश्य नवजात वेइमार रिपब्लिक के जनतंत्र से छुटकारा पाना और सजातीय समुदाय के लिए एक ऐसे अधिनायकवादी शासन की स्थापना करना था जिसमें यहूदियों के लिए कोई जगह नहीं थी. इसी के साथ इसमें वैसे छींटे भी थे जिन्हें हम आजकल “निम्बुई समाजवाद” (lemon Socialism) कहते हैं (जैसे कुछेक चीज़ों का राष्ट्रीयकरण आदि)[3]. 24 फरवरी 1920 को दो हजार की जनसभा में इसे पढ़ा गया जिसका बहुसंख्या द्वारा भारी हर्षध्वनि के साथ स्वागत और वहां काफी संख्या में मौजूद राजनीतिक वाम द्वारा जबरदस्त विरोध भी किया गया.

यह हिटलर की राजनीतिक चतुराई थी कि उसने एक निष्प्राण “जर्मन वर्कर्स पार्टी’ के साथ “नेशनल सोशलिस्ट” शब्दावली जोड़ी (जिससे “नात्‍ज़ी “शब्द निकला). राष्ट्रवाद और समाजवाद उस समय की दो सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक धारायें थीं, और उसने दोनों ही धाराओं के लोगों को ठगने – आकर्षित करने का प्रयास किया. इस तरह पार्टी का नया नामकरण “नेशनल सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी ऑफ़ जर्मनी” (एन.एस.डी.ए.पी.) पड़ा और उपरोक्‍त सभा नात्‍ज़ी आन्दोलन का आधार रखने वाली कार्यवाही बनी. हिटलर ने Mein Kampf (मेरा संघर्ष) के पहले खंड के अंत में लिखा : “आग जला दी गयी थी, जिसके अंगारों से निश्चय ही वह तलवार निकलेगी जो जर्मन सिएग्फ़्रिएद (जर्मन दंत कथाओं का महानायक) को आज़ाद और जर्मन राष्ट्र के लिए जीवन की पुनर्स्थापना करेगी... हाल धीरे-धीरे खाली होता गया. आन्दोलन ने अपना रास्ता ले लिया था”.

हिटलर के लिए समाजवाद निश्चित रूप से एक मुखौटा भर था. मगर कुछ लोग थे जिन्होंने इसे ज्यादा गंभीरता से ले लिया- जैसे जोसेफ गोएबेल्स और ग्रेगोर स्त्रास्सेर. गोएबेल्स ने अपनी डायरी में लिखा : “नेशनल और सोशलिस्ट! इसमें क्या प्राथमिक है और क्या बाद में आता है ? यहाँ पश्चिम में हमारे बीच जबाब को ले कर कोई संशय नहीं है. पहले सोशलिस्ट मुक्ति और फिर उसके बाद राष्ट्रीय मुक्ति एक ताकतवर तूफ़ान की तरह आएगी.” 1925 में उन्हें इस लाइन पर पार्टी कार्यक्रम को संशोधित करने का विचार आया. इसके लिए उन्होंने “वर्किंग असोसिएशन नार्थ-ईस्ट” की स्थापना की जिसमें हिटलर को स्पष्ट रूप से अपना नेता स्वीकार किया गया था. जब उन्होंने एक सम्मलेन में अपना संशोधन प्रस्तुत किया, वे हिटलर की सहमति के प्रति आश्वस्त थे. मगर हिटलर ने इन सब की जबरदस्त मलामत करते हुए पार्टी कार्यक्रम को पवित्र और असंशोधनीय घोषित कर दिया. नार्थ-ईस्ट की वर्किंग असोसिएशन भंग कर दी गयी. मगर बहुत जल्दी ही फिर हिटलर ने गोएबेल्स और स्त्रास्सेर दोनों को ही अपना मित्र-अनुयायी बना कर जीत लिया. यह आखिरी बार था जब पार्टी की राजनीतिक दृष्टि को ले कर कोई खुली बहस हुई, हालाँकि कार्यनीति को ले कर विभेद फिर उभरेंगें.

फुट नोट :

1. अपनी पूरी ऊर्जा केवल अपने एजेण्‍डा और संगठन पर केन्द्रित करना और किसी अन्‍य दल अथवा आन्‍दोलन के साथ एकता को नकारना, यहां तक कि महत्‍वपूर्ण मोड़ों पर भी, उसका यह रुख उसकी राजनीति का स्‍थायी लक्षण बना रहा.

2. विश्‍व के कई हिस्‍सों में यहूदी विरोध की प्रवृत्ति विभिन्‍न प्रकार से माैजूद थी. उदाहरण के लिए अमेरिकी कार निर्माता हेनरी फोर्ड ने एक नस्‍लवादी पर्चा निकाला जिसका शीर्षक था – “अंतर्राष्‍ट्रीय यहूदी, दुनिया की सर्वप्रथम समस्‍या” – 1922 में इसका जर्मन अनुवाद आते ही यह खूब बांटा गया. कहा जाता है कि इस पर्चे का हिटलर पर काफी प्रभाव हुआ.

3. ‘पूंजीवाद विरोधी रुझान’ – इस प्रकार (राष्‍ट्रीय) समाजवाद – साफतौर पर सूदखोरी में लगी पूंजी से जोड़ कर देखा जाता था, इसे हिटलर ‘बिना मेहनत और पसीना बहाये’ सम्‍पत्ति बढ़ाने वाला कहता था परन्‍तु यह दरअसल इस व्‍यवसाय में प्रभुत्‍वशाली यहूदी समुदाय के खिलाफ लक्षित था. यहूदी विरोधी पूर्वाग्रह लम्‍बे समय से यूरोप में मौजूद थे (मर्चेन्‍ट ऑफ वेनिस को याद कीजिये), अत: ऐसी परिस्थितियां थीं कि हिटलर द्वारा यहूदियों को जब बलि का बकरा बनाया गया तो बहुतों ने उसे सच मान लिया. यह 'पूंजीवाद-विरोधी' जुमला बाद के सालों में भी चलता रहा ताकि एक मजदूर हितैषी व गरीब-पक्षीय छवि बन सके (हालांकि इस पर जोर कभी नहीं था और न ही इस दिशा में कोई ठोस काम हुआ, और व्‍यापार के महारथियों के साथ बन्‍द दरवाजों के पीछे होने वाली मुलाकातों में यह पीछे हो जाता था)

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अंग्रेज इतिहासकार ई एच कार के अनुसार “इतिहास, अतीत और वर्तमान के बीच कभी न खत्म होने वाला संवाद” है. भारत में मोदी-योगी-भागवत गिरोह के विनाशकारी उभार की वर्तमान पृष्ठभूमि में यहाँ हम एडोल्फ़ हिटलर के धूमकेतु सरीखे उभार और अंत की कहानी फिर से कहने की कोशिश करेंगे. यह उस सतत संवाद का हिस्सा है जिसमें हम सवाल करते हैं, हासिल जबाबों पर फिर से काम करते हैं और फिर इनके सबक को अपने आगे बढ़ने का नया रास्ता तैयार करने के काम में लगाते हैं जिससे भगवा फासिस्टों को उनके सर्वसत्तावादी हिन्दूराष्ट्र के चिर वांछित लक्ष्य तक पहुँच पाने के बहुत पहले ही पराजित किया जा सके. इतिहास हमारे लिए भविष्य की सकारात्मक सक्रिय दृष्टि के साथ अतीत और वर्तमान के बीच अंतर्क्रिया है.

इस अध्ययन में हमने नात्‍ज़ीवाद और फासीवाद को एक-दूसरे में परिवर्तनीय अर्थों में इस्तेमाल किया है: नात्‍ज़ीवाद, अपने मूल, फासीवाद का ही एक विशिष्ट रूप है. उम्बर्तो ईको 1995 के अपने लेख “उर फासिज्म” (शाश्वत फासीवाद) में इंगित करता है कि “नात्‍ज़ीवाद केवल एक था जब कि फासीवादी खेल बहुतेरे रूपों में खेला जा सकता है और खेल का नाम वही रहेगा.” उपन्यासकार-संकेतशास्त्री ईको फासीवाद को परिभाषित करने के बजाय मोटे तौर पर इसकी “परम्परा पूजन”, “आधुनिकता का निषेध”, “असहमति को राष्ट्रद्रोह मानने”, “परिभाषा और प्रवृत्ति में नस्लवादी होने” आदि पंद्रह विशेषतायें गिनाता है. इनमें से ज्यादातर, थोड़े-बहुत स्थानीय अन्तर के साथ (जैसे हमारे देश में जाति श्रेष्ठतावाद हिन्दुत्व फासीवाद की एक अतिरिक्त विशेषता है) इटली, जर्मनी और भारत में देखे-पहचाने जा सकते हैं.

निश्चित रूप से पिछले सौ वर्षों से, जब से इसने इटली में जन्म लेने के बाद जर्मनी में अपनी ठोस – परिपूर्ण शक्ल ली, फासीवाद ने विभिन्न समय और राष्ट्रों के सन्दर्भों में खुद को बहुतेरे रंगों-आयामों में ढाला है. मगर इन सारे बदलावों में इसने अपनी मूल चारित्रिक विशिष्टताओं-प्रवृत्तियों को हमेशा बरकरार रखा है जो इसे दक्षिणपंथी पापुलिज्म, अधिनायकवाद, सैन्यशासन आदि तमाम मिलती-जुलती प्रवृत्तियों से अलग और विशिष्ट श्रेणी में ला देती है. इन तमाम विशेषताओं में सबसे निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण है – नस्लीय/साम्प्रदायिकतावादी/श्रेष्ठतावादी राष्ट्रीय-उग्र अंधराष्ट्रवादी जनोन्‍माद को सत्ता के गलियारों में अपनी घुसपैठ के लिए उकसाना-हवा देना और फिर समूचे राज्य तंत्र पर सम्पूर्ण फासीवादी कब्जे की कोशिश को अंजाम देना है. इस समूची प्रक्रिया में फासीवाद जनोन्माद और आतंक के शातिर और धूर्त संयोजन का सहारा लेते हुए लगातार बड़ी पूँजी का समर्थन हासिल करता जाता है. इस पुस्तिका में हम हिटलर की जर्मनी के, जहाँ फासीवाद अपने चरम पर पहुँचा था, क्लासिक सन्दर्भों में इन कुछेक विशेषताओं का सार रूप में अध्ययन करेंगे. हमारा मानना है कि मूल का गहन-गंभीर ज्ञान हमें उससे निकले वर्तमान रूप, जिसका हम यहाँ अभी सामना कर रहे हैं यानी वर्तमान भारतीय संस्करण को बेहतर समझ पाने में मददगार होगा.

क्या हिटलर के तेज उभार को सचमुच नहीं रोका जा सकता था? क्यों इस उभार को रोक पाने में वाम और जन तांत्रिक ताकतें बुरी तरह असफल रहीं? और वह भी उस देश में, जिसे दुनिया के सबसे अगुआ मजदूर वर्ग आन्दोलनों में एक होने और मार्क्स, एंगेल्स और उनके आगस्त बेबेल, विल्हेल्म, कार्ल लीबनेश्‍त, रोज़ा लक्जे़म्बर्ग व क्लारा ज़ेटकिन जैसे अनुयाईयों के नेतृत्व का गौरव हासिल था. क्या हम तब के जर्मनी और आज के भारत के परिदृश्‍य में भारी अन्तर के बावजूद उस अनुभव से दो-एक चीजें सीख सकते हैं ?

अपने देश में फासीवाद का प्रतिरोध करने और उसे हराने के विशिष्ट राजनीतिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, इस पुस्तिका में हमने एडोल्फ़ हिटलर के उभार और पराभव की समूची कहानी के बजाय फासीवादी उत्कर्ष के काल खंड: 1920 (जब हिटलर की अगुवाई में राजनीतिक ताकत के रूप मे नात्‍ज़ीवाद का जन्म हुआ) से 1933 तक की (जब हिटलर ने चान्सलर बन कर संसदीय जनतंत्र को ध्वस्त कर के सर्वसत्तावादी फासीवादी तानाशाही के अभियान की शुरुआत की) कहानी कहने का प्रयास करेंगे.

यह पुस्तिका किसी मूल शोध का दावा नहीं करती. जीवनी कथा-क्रम और उससे जुड़े तथ्य मुख्यतः वोल्कर उलरिश के “हिटलर: एसेन्‍ट – 1889 -1939 (पेन्‍गुइन रेण्‍डम हाउस एल.एल.सी., न्यूयॉर्क, 2016 ) और कुछ और क़िताबों व लेखों – विलियम एल. शायरर की “दि राईज एंड फाल ऑफ़ द थर्ड राइक, अ हिस्ट्री ऑफ़ नात्‍ज़ी जर्मनी (सायमन एण्‍ड शुस्‍टर, 1960) और कुर्ट गॉसवेइलेर की “इकोनोमी एंड पालिटिक्स इन द डिस्ट्रकशन ऑफ़ वेइमार रिपब्लिक” (मार्गित कोवेस और शास्वती मजूमदार द्वारा सम्पादित व लेफ्ट वर्ल्ड बुक्स, नयी दिल्ली, 2005 से प्रकाशित संकलन “द रजिस्टिबल राइज: अ फासिज्‍म रीडर” का एक लेख) से लिए गए हैं. हम शुरुआत में ही इन लेखकों और प्रकाशकों के प्रति अपना आभार ज्ञापित कर रहे हैं, क्योंकि हम कार्यकर्ताओं की इस पुस्तिका को विस्तृत उद्धरणों से बोझिल नहीं करना चाहते. हमने परिशिष्‍ट में क्लारा ज़ेटकिन, जो न सिर्फ कम्‍युनिस्ट महिला आन्दोलन की महानतम अगुआ थीं, बल्कि फासीवाद के खिलाफ संघर्ष की भी प्रमुख सिद्धान्तकर और योद्धा थीं, के फासीवाद पर लेख के कुछ अंश दिए हैं. अगस्त 1923 में प्रकाशित यह लेख फासीवाद के सबसे पहले कम्युनिस्ट आकलनों और इससे लड़ने के मार्गदर्शक लेखों में से एक है. अपने राजनीतिक अर्थ, निष्कर्षों, और सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण का दायित्व स्वाभाविक रूप से लेखक पर है.

Memorial for book burning

हैस, जर्मनी में फ्रेंकफर्ट सिटी हॉल के सामने रोमेरबर्ग स्‍क्‍वायर में
1933 में किताबें जलाने की त्रासदी की याद में बना स्‍मारक, इस पर लिखा है -

“जहाँ वे किताबें जलाते हैं,
अंत में,
एक दिन,
वे वहीं लोगों को जलायेंगे ”

-हाइनरिक हाइन, 1820

हिटलरशाही का उभार
मोदी के भारत से एक नज़र

 

अरिन्दम सेन

अनुवाद : वी के सिंह

लिबरेशन प्रकाशन

अगस्‍त 2018

 

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“विभ्रम
सामूहिक चेतना में
सबसे जि़द्दी खर-पतवार है :
इतिहास सिखाता तो है,
मगर इसका कोई शिष्य नहीं हैं”

फ़ासीवाद पर अन्तोनियो ग्राम्शी (1921)

 

विषय सूची :

विनोद मिश्र

नवम्बर 1847 में लंदन में सम्पन्न हुई कम्युनिस्ट लीग की कांग्रेस ने मार्क्स-एंगेल्स को एक विस्तारित सैद्धान्तिक व व्यावहारिक पार्टी कार्यक्रम तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी, तदनुरूप मार्क्स -एंगेल्स ने जनवरी 1848 में इस घोषणापत्र का प्रारूप तैयार किया और 24 फरवरी को फ्रांसीसी क्रांति के कुछ हफ्तों पहले इसका पहला जर्मन संस्करण प्रकाशित हुआ.

घोषणापत्र लिखे जाने के लगभग पच्चीस वर्षों बाद आधुनिक उद्योग की जबर्दस्त तरक्की, उसके साथ-साथ मजदूर वर्ग के पार्टी संगठन की उन्नति व विस्तार को देखते हुए और खासकर1871 के पेरिस कम्यून से प्राप्त अनुभवों की रोशनी में मार्क्स -एंगेल्स ने महसूस किया कि यह कार्यक्रम कुछेक तफसीलों में पुराना पड़ गया है. दूसरे अध्याय के अंत में वर्णित कार्यक्रम के सिलसिले में उन्होंने लिखा कि आज यह हिस्सा काफी बदले हुए रूप में लिखा जाता. समाजवादी साहित्य की आलोचना भी 1847 तक सीमित है, इसलिए यह भी अधूरी है. घोषणापत्र में वर्णित अधिकांश राजनीतिक पार्टियां इतिहास के गर्भ में विलीन हो चुकी हैं. विपक्ष की विभिन्न पार्टियों के साथ कम्युनिस्टों के संबंध के बारे में टिप्पणियां भी राजनीतिक परिस्थिति के पूरी तरह बदल जाने की वजह से पुरानी पड़ गई हैं.

आज घोषणापत्र के 150 वर्ष पूरे होने को हैं. इस बीच विश्व पूंजीवाद बड़े-बड़े संकटों से गुजरा, विश्व बाजार पर कब्जा जमाने के लिए पूंजीवादी राज्यों के बीच दो-दो महायुद्ध हुए, समाजवादी क्रान्तियां हुईं, समाजवादी राष्ट्र बने, फिर भी समाजवाद व पूंजीवाद के बीच विश्व के पैमाने पर चल रहे संघर्ष में बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में बाजी पूंजीवाद ने ही मार ली. एकध्रुवीय विश्व, नई विश्व अर्थव्यवस्था, खगोलीकरण की तीव्र गति, बहुराष्ट्रीय निगमों का चैतरफा दबदबा, वैज्ञानिक-तकनीकी क्रान्ति व हाल-फिलहाल की सूचना क्रान्ति की बदौलत समूचे विश्व का सिमटकर एक गांव में तब्दील हो जाना आज के युग की प्रधान विशिष्टताएं हैं. मजदूर वर्ग की अंतरराष्ट्रीय एकजुटता में दरारें, एथनिक, नारीवादी, पर्यावरणवादी आंदोलनों का दौर, उत्तर-आधुनिकता का दर्शन, ये सब कुछ मार्क्सवाद व कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं. पूरा विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन ही जब चौराहे पर खड़ा है, तब एक बार फिर मार्क्सवादी बुद्धिजीवी मार्क्सवाद की शास्त्राीय रचनाओं के पुनर्अध्ययन की ओर लौट रहे हैं. आज के सवालों के जवाब के दिशा निर्देशन के लिए. इस संदर्भ में हर प्रगतिशील व्यक्ति के लिए कम्युनिस्ट घोषणापत्र का पुर्नअध्ययन व गंभीर मंथन अनिवार्य हो उठा है.

कम्युनिस्ट घोषणापत्र कहता है, “उत्पादन प्रणाली में निरन्तर क्रांतिकारी परिवर्तन, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल, शाश्वत अनिश्चयता और हलचल, ये चीजें पूंजीवादी युग को पहले के सभी युगों से अलग करती हैं. सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध, जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों तथा मतों की एक पूरी शृंखला होती है, मिटा दिए जाते हैं, और सभी नए बनने वाले संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं, जो कुछ भी ठोस है, वह हवा में उड़ जाता है; जो कुछ भी पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है और आखिरकार ठंडे दिमाग से सोचने पर मनुष्य जीवन की वास्तविक स्थितियों और दूसरे मनुष्यों से आपसी संबंधों से रू-ब-रू होने के लिए मजबूर हो जाता है.”

और भी, “पुरानी स्थानीय व राष्ट्रीय पृथकता व आत्मनिर्भरता का स्थान चौतरफा अंतःसंपर्क और समस्त राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता ने ले लिया है और भौतिक उत्पादन की ही तरह बौद्धिक उत्पादन के जगत में भी यही परिवर्तन घटित हुआ है.”

“उत्पादन के तमाम औजारों में तीव्र उन्नति और संचार साधनों की विपुल सुविधाओं के कारण पूंजीपति वर्ग सभी राष्ट्रों को, यहां तक कि बर्बर से बर्बर राष्ट्रों को भी, सभ्यता की परिधि में खींच लाता है. संक्षेप में, पूंजीपति वर्ग सारे जगत को अपने ही सांचे में ढाल देता है... जिस तरह पूंजीपति वर्ग ने देहातों को शहरों का आश्रित बना दिया है, उसी तरह उसने बर्बर और अर्ध-बर्बर देशों को सभ्य देशों का, कृषक राष्ट्रों को पूंजीवादी राष्ट्रों का, पूरब को पश्चिम का आश्रित बना दिया हैं.”

इन पंक्तियों में प्रबुद्ध पाठक आज के खगोलीकरण की जीती-जागती तस्वीर देख सकते हैं.

पूंजी के खगोलीकरण के विपरीत श्रमजीवियों के अंतर्राष्ट्रीयतावाद की जो तस्वीर इस घोषणापत्र में मार्क्स-एंगेल्स ने खींची है, उसमें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय, वर्गों और राष्ट्रों के बीच के जटिल अंतर्संबंध कितनी स्पष्टता के साथ उभरते हैं.

“मजदूरों का कोई स्वदेश नहीं है, जो उनके पास है ही नहीं, उसे उनसे कौन छीन सकता है? चूंकि सर्वहारा वर्ग को सबसे पहले राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करना है, राष्ट्र में प्रधान वर्ग का स्थान ग्रहण करता है, खुद अपने को राष्ट्र के रूप में संघटित करना है, अतः इस हद तक वह स्वयं राष्ट्रीय चरित्र रखता है, हालांकि इस शब्द के पूंजीवादी अर्थ में नहीं.”

“जिस अनुपात में एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण खत्म होगा, उसी अनुपात में एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण भी खत्म होगा.”

“जिस अनुपात में एक राष्ट्र के अंदर वर्गों का विरोध खत्म होगा उसी अनुपात में राष्ट्रों का आपसी बैर-भाव भी दूर होगा.”

घोषणापत्र में कहा गया था, “आधुनिक राज्य की कार्यपालिका दरअसल समूचे पूंजीपति वर्ग के सामान्य मामलों का इंतजाम करने वाली एक कमेटी के सिवा और कुछ भी नहीं हैं. “संसदीय लोकतंत्र के अपने उदारतम व व्यापकतम स्वरूप में भी आधुनिक राज्य इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता. इसके विपरीत सर्वहारा राज्य आम जन के वास्तविक लोकतंत्र की हिमायत करता है, इसके बावजूद पूंजीपति वर्ग ने अगर समाजवाद की पराजय को लोकतंत्र की जीत के रूप में स्थापित करने में सफलता पायी है तो इसका कारण हमें गहराई से खोजना ही होगा. पेरिस कम्यून (1871) से, जहां पहली बार सर्वहारा वर्ग पूरे दो महीने तक राजनीतिक सत्ता पर काबिज रहा था, मार्क्स ने महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला था कि “मजदूर वर्ग राज्य की बनी-बनाई मशीनरी पर केवल कब्जा करके उसका उपयोग अपने मकसद की पूर्ति के लिए नहीं कर सकता.”(फ्रांस में गृहयुद्ध)

काउत्सकी के साथ बहस में लेनिन अपनी सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति राज्य और क्रांति में सवाल उठाते हैं. मूल प्रश्न यह है कि क्या पुरानी राज्य मशीनरी रहेगी या उसका ध्वंस कर दिया जाएगा? पेरिस कम्यून से निकाले गए मार्क्स के उपरिवर्णित निष्कर्ष का हवाला देते हुए लेनिन इस प्रश्न का जवाब देते हैं, “पुरानी राज्य मशीनरी का ध्वंस करना ही होगा क्योंकि बुर्जुआ राज्य जनता से सत्ता के विच्छेद व अलगाव पर ही निर्भर करता है.”

लेनिन के मुताबिक पूंजीवादी समाज में लोकतंत्र हमेशा ही पूंजीवादी शोषण की सीमाओं से घिरा रहता है, उसमें जनसंख्या के बहुसंख्यक हिस्सों को सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में भागीदारी से वंचित रखा जाता है. (राज्य और क्रांति)

जहां काउत्सकी सर्वहारा के राजनीतिक संघर्षो के लक्ष्य को संसद में बहुमत हासिल करने व राज्य मशीनरी पर संसद का नियंत्रण कायम करने तक सीमित कर देते हैं, वहीं लेनिन संसद के विपरीत सर्वहारा की ऐसी प्रतिनिधि सभा की अवधारणा पेश करते हैं, जिसमें, “निर्वाचकों को प्रतिनिधि वापसी का अधिकार होगा, जो सभा एक ही साथ विधायिका व कार्यपालिका दोनों की भूमिका अदा करेगी, जिसके प्रतिनिधियों को श्रम से जुड़ना होगा, अपने द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करने की भी जिम्मेदारी लेनी होगी, वास्तविक जीवन में उसके प्रतिफल को जांचना भी होगा और अपने निर्वाचक मंडल के प्रति प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार भी होना होगा.” (राज्य और क्रांति)

“आम जनता स्वतंत्र दावेदारी के लिए उठ खड़ी होगी, न सिर्फ वोट व चुनाव में, बल्कि राज्य के दैनंदिन प्रशासन में भी. समाजवाद में बारी-बारी से हर कोई शासन करेगा और जल्दी ही समाज बिना किसी के शासन का अभ्यस्त हो जाएगा.” (राज्य और क्रांति)

लेनिन के मुताबिक कम्यून ऐसी ही एक संस्था थी और रूसी क्रांति के बाद सोवियतें भी ऐसी ही संस्था के बतौर उभरी थीं. राज्य के बारे में तो लेनिन यहां तक कहते हैं कि साम्यवादी समाज के पहले दौर में समाजवादी राज्य खुद भी बुर्जुआ राज्य का अवशेष है.

“पूंजीपति जब न रह गए हों, वर्गों का भी विलोप हो गया हो, तब किसी वर्ग को दबाने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती है. इन अर्थों में अवश्य ही राज्य विलुप्त हो जाता है. फिर भी राज्य पूरी तरह विलुप्त नहीं होता क्योंकि तब भी ‘बुर्जुआ अधिकार’ (अर्थात् प्रत्येक को उसकी जरूरत के अनुसार मिले, इसके बजाय प्रत्येक को उसके श्रम के अनुसार मिलने की नीति), जो वास्तविक विषमता को पवित्रता का जामा पहना देता है,की रक्षा का सवाल बाकी रह जाता है. इसलिए “अपने पहले दौर में (अर्थात् समाजवाद के दौर में) साम्यवाद आर्थिक तौर पर अभी भी परिपक्व नहीं हो सकता और न ही पंूजीवाद की परम्पराओं व चिन्हों से पूरी तरह मुक्त हो सकता है” और क्योंकि, उपभोग की वस्तुओं के वितरण के मामले में बुर्जुआ अधिकार जब तक है, तब तक बुर्जुआ राज्य का रहना भी अनिवार्य है, क्योंकि किसी भी अधिकार को लागू करने में सक्षम एक मशीनरी के बिना इस अधिकार का कोई अर्थ ही नहीं हो सकता. इसलिए “साम्यवाद में भी एक समय तक न सिर्फ बुर्जुआ अधिकार रहता है, बल्कि यहां तक कि बिना बुर्जुआ वर्ग के बुर्जुआ राज्य भी रहता है.” (राज्य और क्रांति)

पेरिस कम्यून से लेकर सोवियत और चीनी क्रांति तक सर्वहारा राजसत्ता के बहुतेरे प्रयोग चले हैं. चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति में सर्वहारा राजसत्ता के स्वरूप पर सजीव बहसें चलीं. हाल के वर्षों में समाजवाद को लगे धक्कों ने इन बहसों को और भी तेज कर दिया है.

सामाजिक जनवाद जहां संसदीय लोकतंत्र को ही लोकतंत्र की अंतिम सीमा मान लेता है, वहीं अराजकतावाद संसदीय लोकतंत्र के आदिम निषेध के जरिए लोकतंत्र का ही निषेध कर बैठता है. मार्क्सवादियों के सामने बुनियादी चुनौती संसदीय लोकतंत्र की सीमाओं से परे सर्वहारा लोकतंत्र के उस व्यापकतम स्वरूप की पड़ताल करना है, जहां अगली शताब्दी में विश्व पूंजीवाद की पराजय समाजवाद ही नहीं, लोकतंत्र की जीत के रूप में भी स्थापित होगी.

विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के 150 वर्षों के अनुभवों से उपजे हुए सवालों के परिप्रेक्ष्य में कम्युनिस्ट घोषणापत्र में व्यापक तब्दीलियां की जा सकती थीं, लेकिन जैसा कि मार्क्स -एंगेल्स ने 1872 के जर्मन संस्करण की भूमिका में लिखा था, “घोषणापत्र एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुका है. इसमें परिवर्तन करने का हमें कोई अधिकार नहीं रह गया है.” वाकई यह अधिकार अब किसी को नहीं है, विशेषतया इस वजह से कि इसमें वर्णित आम उसूल, मोटे तौर पर, आज भी उतने ही सही हैं, जितने कि वे 150 वर्ष पहले थे. जहां तक इन उसूलों को व्यवहार में लागू करने का प्रश्न है, वह देशकाल व समयविशेष की ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है.

( कामरेड विनोद मिश्र ने यह लेख समकालीन प्रकाशन,
पटना, द्वारा नवम्बर 1998 में प्रकाशित
कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र
के हिन्दी संस्करण के लिए लिखा था. )

 


सभ्यता और उद्योग के
विकास ने जंगलों का
इतना भीषण विनाश किया है
जिसकी तुलना में
उनके संरक्षण और उत्पादन के
लिए अब तक किये गये
सभी काम बेहद नगण्य हैं.

- ‘पूंजी’, भाग 2

अरिंदम सेन

हमारे समय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण जन नेता मार्क्स के घटनाओं भरे मेधावी जीवन की विराट कहानी को कुछ पृष्ठों में समेट देने का मक़सद सिर्फ़ यह है कि पाठक इस संक्षिप्त परिचय से आगे बढ़कर मार्क्स की रचनाओं को ऐतिहासिक संदर्भों में तफ़सील से पढ़ें.

मार्क्स के जीवन के बहुत सारे पहलू हैं पर जैसा उनके दोस्त एंगेल्स ने उनके बारे में कहा था कि महान सिद्धांतकार मार्क्स सबसे बढ़कर एक ‘क्रांतिकारी’ थे. आइए, जीवन और काम-काज में वैज्ञानिक सिद्धांत को क्रांतिकारी व्यवहार से मिलाने वाले ऐसे दार्शनिक से मिलते हैं जिसके लिए ‘सुख’ का मतलब ‘संघर्ष करना’ था, ‘दुर्गति’ का मतलब जिसके लिए ‘समर्पण करना’ था और जिसने ‘उद्देश्य की एकनिष्ठता’ को अपनी ‘प्रमुख विशेषता’ घोषित किया[1].

शुरुआती जीवन

ठीक-ठाक जीवन स्थितियों वाले वक़ील पिता की संतान कार्ल हेनरिक मार्क्स का जन्म 05 मई 1818 को प्रशिया के त्राएर शहर में हुआ जहाँ स्थानीय जिम्नेजियम में उन्होंने शुरुआती पढ़ाई-लिखाई की. सत्रह साल की उम्र में स्कूल छोड़ते हुए उन्होंने एक युवा के पेशे के चुनाव विषय पर निबंध लिखा जिसमें उनकी समझ साफ़ दिखाती है: “अगर वह सिर्फ़ अपने लिए काम करता है तब वह बहुत सीखा-पढ़ा आदमी बन सकता है, महान संत हो सकता है, शानदार कवि हो सकता है, लेकिन पूरी तरह सच्चा महान आदमी नहीं बन सकता.” दूसरी तरफ़ अगर कोई व्यक्ति अपनी ज़िंदगी में ऐसा मक़ाम चुनता है जो उसे इंसानों की सेवा का बेहतरीन मौक़ा देता हो तो अहम् के तुच्छ और सीमित आनंद की बजाय उसकी ख़ुशी लाखों लोगों से जुड़ जाएगी; और कोई भी बोझ उसे झुका नहीं सकेगा[2]. आज़ादी और इंसानियत को प्यार करने के ये उद्धत विचार हीगेल के आदर्शवाद का आधार पाकर मार्क्स में तब तक बढ़ते रहे जब वे बॉन और बर्लिन में विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे. उनके विषय थे: विधि, दर्शन और इतिहास. बर्लिन में वे ‘युवा हीगेलवादी’ समूह के प्रमुख सदस्य थे. यह समूह हीगेल के दर्शन से नास्तिक और क्रांतिकारी निष्कर्ष तलाशने की कोशिश करता था. हीगेल के दर्शन में इसाई कट्टरपंथ ढूँढने और मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को उचित ठहराने वाले दक्षिणपंथी हीगेलवादियों का विरोध करते थे. हालाँकि इन समूहों के बीच की बहस धर्मशास्त्रीय और अकादमिक उद्देश्य से संचालित लगती है पर इस बहस का एक ठोस राजनीतिक मतलब भी था. ये युवा हीगेलवादी धर्म को दैवी इलहाम नहीं मानते थे. वे धर्म को इंसानी मिज़ाज का उत्पाद मानते थे. वे मानते थे कि हक़ीक़त को आलोचना द्वारा बदला जा सकता है. ऐसा करते हुए ये युवा प्रशियाई निरंकुशता से लड़ रहे थे. इन्हीं कारणों से उनका दर्शन क्रांतिकारी जर्मन बुर्जुवा का दर्शन बन गया.

1841 में दर्शन में शोध पूरा करने के बाद मार्क्स पढ़ाने के लिए बॉन शहर पहुँचे. पर वहाँ निरंकुश शासन के विरोध के चलते पहले ही लुडविग फ़ायरबाख और ब्रूनो बेवर जैसे वरिष्ठ अध्यापकों को बाहर निकाला जा चुका था. ऐसे में मार्क्स ने अकादमिक दुनिया में जाने के विचार को अलविदा कह दिया. इसी बीच 1841 में फ़ायरबाख का निबंध ‘इसाईयत का सारतत्व’ छपा. मार्क्स सहित अन्य युवा हीगेलवादी फ़ायरबाख के आक्रामक भौतिकवादी विचारों की तरफ़ बेतरह आकर्षित हुए. फ़ायरबाख पहले व्यक्ति थे जो, सीमित दायरे में ही सही, युवा हीगेलवादियों के आदर्शवाद से छुटकारा पाने में सफल रहे थे. मार्क्स उत्साहपूर्वक दर्शन के अध्ययन और अपनी दार्शनिक पद्धति व व्यवस्था को विकसित करने में लगे हुए थे. इसी बीच राइन सूबे के क्रांतिकारी बुर्जुवा समूह ने 1842 की शुरुआत में ‘रेनिशे जेतुंग’ नाम का विपक्षी अख़बार निकाला और ऊपर वर्णित दार्शनिक एकजुटता के चलते मार्क्स और ब्रूनो बेवर को सम्पादकीय दायित्व सम्भालने का न्योता दिया. दोनों ने यह न्योता स्वीकार किया और मार्क्स अक्टूबर 1842 में यह दायित्व सम्भालने कोलोन शहर चले गए. अख़बार में विभिन्न विषयों पर उनके लेखन, मसलन किसानों की दशा पर उनके लेखन को प्रशिया के प्रतिबंध कानूनों और सरकार का सामना करना पड़ा. यह अख़बार लगातार क्रांतिकारी-जनवादी दिशा में आगे बढ़ता गया जिसके चलते पहले मार्क्स को इस्तीफ़ा देना पड़ा और फिर 31 मार्च 1843 को अख़बार बंद हो गया. हालाँकि छोटे पर महत्वपूर्ण असली जीवन संघर्षों के इस पहले स्कूल ने मार्क्स पर गहरा असर डाला. इसने एक तरफ़ तो मार्क्स के संज्ञानात्मक क्षितिज का विस्तार किया वहीं दूसरी तरफ़ राजनीतिक अर्थशास्त्र में उनके ज्ञान की कमी को उघाड़ा भी. अब उन्हें महसूस हुआ कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की समाज में प्राथमिक भूमिका है, इसलिए इसका गहन अध्ययन किया जाना चाहिए. इससे उन्होंने यह भी समझा कि समाज और राज्य के बारे में हीगेल की आदर्शवादी धारणा के आलोचनात्मक विश्लेषण की ज़रूरत है. [राज्य के बारे में हीगेल की समझ थी कि वह सारवत्रिक तर्क का मूर्त रूप है और समूचे समाज के हित में है.] यहीं मार्क्स को उन असली कारणों की तलाश की भी ज़रूरत महसूस हुई जो सामाजिक प्रगति के पीछे काम कर रहे हैं.

इस रचनात्मक प्रयास में लगे मार्क्स ने दर्शन और इतिहास पर बहुतेरी चीज़ें लिखीं. इसी दौर में उनकी शादी जेनी से हुई जो उनकी बचपन की दोस्त थी और एक कुलीन परिवार में पैदा हुई थीं. जेनी अपनी आख़री साँस तक उनके साथ रहीं और उनकी प्रेरणा का स्रोत बनी रहीं. कुछ महीनों बाद ही मार्क्स अर्नाल्ड रूग के साथ एक क्रांतिकारी पत्रिका प्रकाशित करने के उद्देश्य से पेरिस पहुँचे. ‘डच फ़्रंसूजेसे याबूशर’ नाम का यह अख़बार 1844 के आख़िर में छपा और यही इसका आख़िरी अंक भी साबित हुआ. जर्मनी में इस अख़बार का वितरण और रूग के साथ असहमतियों की कठिनाई के चलते यह अख़बार बंद हो गया. जो हो, अख़बार में छपे मार्क्स के लेख में पहली बार नयी क्रांतिकारी दृष्टि के मुख्य तत्व शामिल थे. मसलन: पुरानी दुनिया का ध्वंस कर नई दुनिया बनाना आधुनिक सर्वहारा की ऐतिहासिक नियति है, समाज के क्रांतिकारी बदलाव के लिए जनांदोलनों के हाथ में आगे बढ़ा हुआ सिद्धांत एक ताक़तवर हथियार की तरह होता है. उन्होंने लिखा: “हालाँकि आलोचना का हथियार, हथियारों द्वारा आलोचना का कोई विकल्प नहीं है और भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति से ही उखाड़ा जा सकता है, पर सिद्धांत जनता के हाथों में जाकर ख़ुद ही भौतिक शक्ति में बदल जाता है[3].”

इस अख़बार में लंदन के सम्वाददाता के रूप में फ़्रेडरिक एंगेल्स के भी दो लेख छपे थे, जिनकी मार्क्स से पहली मुलाक़ात अगस्त 1844 में हुई थी. और यही से दो महान क्रांतिकारियों की शानदार दोस्ती की शुरुआत हुई. साथ-साथ [हालाँकि ज़्यादातर खतों की मार्फ़त] उन्होंने पेट्टी बुर्जुवा समाजवाद की विभिन्न धाराओं के खिलाफ गहरा संघर्ष छेड़ दिया. जब प्रशिया के अधिकारियों के लगातार दबाव बनाने के बाद मार्क्स को पेरिस से फ़रवरी 1845 में निर्वासित कर दिया गया तब भी यह संघर्ष लगातार जारी रहा. 1844 से 46 के दौर के उनके सबसे महत्वपूर्ण कामों में ‘1844 की आर्थिक और राजनीतिक पांडुलिपियाँ’, पेरिस से निकलने वाली पत्रिका ‘वॉरवार्ट्स!’ में कई लेख, एंगेल्स के साथ मिलकर लिखी गई किताब ‘पवित्र परिवार’, जिसमें युवा हीगेलवादी आदर्शवाद और निष्क्रियता पर निर्णायक प्रहार किया गया था, ‘फायरबाख पर निबंध’ [अप्रैल 1845 में मार्क्स ने थोड़ी जल्दबाज़ी में 11 निबंध लिखे, जिसका अंत इस तरह था कि ‘दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से दुनिया की केवल व्याख्या की है, जबकि सवाल यह है कि इसे बदला कैसे जाए.’], ‘जर्मन दर्शन’ [जिसका अधिकांश अप्रैल 1846 में एंगेल्स के सहयोग से पूरा किया गया] आदि शामिल हैं. अपने इस लेखन के जरिये मार्क्स और एंगेल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद या साम्यवाद के सिद्धान्त और रणनीतियों को गढ़ा. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ‘जर्मन विचारधारा’ मार्क्स के जीवन काल में प्रकाशक न मिलने के कारण प्रकाशित न हो सकी. मार्क्स ने 1859 में लिखा: ‘हमने अपनी पाण्डुलिपि चूहों द्वारा कुतर कर आलोचना किए जाने के लिए छोड़ दी क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य खुद की स्पष्टता हासिल करना था जो पूरा हो चुका था[4].’ स्पष्ट दृढ़ विश्वास के साथ मार्क्स अपनी जिंदगी के नए चरण के लिए तैयार थे.

पहली सर्वहारा पार्टी और पहला मार्क्सवादी कार्यक्रम

1840 में जर्मनी 38 स्वतंत्र सामंती एकाधिवारवादी राज्यों का समूह था जो कि आधिकारिक तौर पर जर्मन संघ से जुड़े हुए थे. समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ठहराव ने विभिन्न प्रतिपक्ष [विभिन्न बूर्जुवा और निम्न बूर्जुवा समूह जो यूटोपियाई समाजवाद में यकीन रखते थे] आंदोलनों को जन्म दिया, खासकर प्रशिया के राइन सूबे ने. इनमें से जर्मन मजदूरों और दस्तकारों का एक भूमिगत संगठन ‘लीग ऑफ द जस्ट’, जिसका प्रभाव खासकर लंदन और पेरिस में था और जो संकीर्णतावादी साम्यवाद और षड्यंत्रकारी रणनीतियों में यकीन रखता था. इन हालात ने मार्क्स और एंगेल्स के सामने दो प्रमुख कार्यभार रखे: समाजवादी दिशा और मजदूरों की राजनीतिक व सांगठनिक स्वतन्त्रता पर आधारित सर्वहारा आंदोलन और सर्वहारा संगठन का निर्माण, तथा इसके आधार पर आम लोकतान्त्रिक आंदोलन पर सर्वहारा की छाप छोड़ना.

पहले कार्यभार को पूरा करने की शुरुआत उन्होंने जनवरी 1846 में ‘ब्रुसेल्स कम्युनिस्ट करेस्पांडेंस कमेटी [बीसीसीसी]’ की स्थापना के साथ की. इसने मजदूरों व अन्य समाजवादी नेताओं और संगठनों के जीवंत सैद्धान्तिक व राजनीतिक सवालों के बीच संवाद स्थापित किया. उसी साल जून तक मार्क्स और एंगेल्स ने ‘लीग ऑफ द जस्ट’ के नेताओं को सीसीसी की स्थापना के लिए तैयार कर लिया तथा पेरिस में भी एक कमेटी गठित कर ली गई. ये सारी कमेटियाँ अपने संघटन और अंतर्वस्तु में अंतर्राष्ट्रीय थीं. उन्होंने इंग्लैंड के चार्टिस्ट आंदोलन के साथ गहरा रिश्ता विकसित कर लिया और पेट्टी बुर्जुवा धड़े के साथ सर्वहारा धड़े के संघर्ष को तीखा करने में मदद की. बीसीसीसी के मार्गदर्शन में जर्मनी के कई औद्योगिक केन्द्रों पर कमोबेश सभी स्थानीय लोकतान्त्रिक आंदोलनों में समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने अपना मजबूत आधार बना लिया और एक हद तक अपनी संकीर्ण मानसिकता को पीछे छोड़ने में कामयाब रहे. मार्क्स और एंगेल्स को कई गलत किन्तु प्रभावशाली प्रवृत्तियों से इस तरह संघर्ष करना पड़ा कि वे उनके जनाधार को जीत सकें. इनमें वेटलिंग का ‘दस्तकार साम्यवाद’, ग्रुन् का ‘सच्चा समाजवाद’, प्रूधोंवाद[5] तथा क्रेग और अन्य शामिल थे. इन सभी व्यापक गतिविधियों के सहारे मार्क्स और एंगेल्स ने यूरोपीय और अमरीकी मजदूर वर्ग आंदोलनों व समाजवादी विमर्शों पर गहरा असर डाला. अब वे पार्टी निर्माण के मोर्चे पर एक छलांग लेने को तैयार थे.

यों जून 1847 में लंदन अधिवेशन में ‘लीग ऑफ जस्ट’ का नाम बदलकर ‘कम्युनिस्ट लीग’ कर दिया गया जिसमें ‘लीग ऑफ जस्ट’ के आदर्श वाक्य ‘सभी आदमी भाई-भाई हैं!’ [बूर्जुवा और मजदूर कभी भाई-भाई नहीं हो सकते] को बदल दिया गया. नई कम्युनिस्ट लीग का वर्ग-चेतन आदर्श वाक्य था ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो!’. विभिन्न देशों में फैली लीग की शाखाएँ भूमिगत ही रहीं लेकिन वे खुले में काम करने वाली मजदूर शिक्षण सोसाइटियों से घिरी हुई थीं, जो मजदूरों के लिए पुस्तकालय, समूह गान और व्याख्यानों का आयोजन करती थीं[6]. विभिन्न देशों में पहले से मौजूद सीसीसी का लीग के संगठन में विलय हो गया. इस तरह कम्युनिस्ट प्रचार और जनता के बीच कामकाज के वर्गीय आंदोलन के एकीकरण का नया दौर शुरू हुआ जिसमें मार्क्स और एंगेल्स द्वारा निकाले गए दो अखबारों की महत्वपूर्ण भूमिका थी. कम्युनिस्ट लीग का दूसरा महाधिवेशन नवंबर-दिसंबर 1847 में लंदन में हुआ. तीखी बहसों के बाद मार्क्स और एंगेल्स के सर्वहारा सिद्धान्त को निर्णायक जीत हासिल हुई और महाधिवेशन ने इस सिद्धान्त को अपने कार्यक्रम घोषणापत्र में शामिल करने का निर्णय लिया. इस काम के लिए मार्क्स और एंगेल्स स्वाभाविक पसंद थे और इस तरह ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ लिखा गया.

  • “साफ़गोई और अद्भुत प्रतिभा के साथ लिखा गया यह घोषणापत्र एक नए विश्व की अवधारणा पेश करता है, जिसमें सामाजिक जीवन के यथार्थ को समाहित किए हुए सुसंगत भौतिकवाद, विकास का सर्वाधिक गहन और व्यापक सिद्धान्त, द्वन्द्वात्मकता, वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त और सर्वहारा की वैश्विक स्तर पर ऐतिहासिक क्रांतिकारी भूमिका को रेखांकित किया गया है. यह नए कम्युनिस्ट समाज को जन्म देने वाला था.”

- कम्युनिस्ट घोषणापत्र पर लेनिन[7]

सामान्य लोकतान्त्रिक आन्दोलन में सर्वहारा प्राणतत्व भरने के मकसद से मार्क्स और एंगेल्स ने नवंबर 1847 में ‘ब्रुसेल्स डेमोक्रेटिक एसोसिएशन’ [बीडीए] की स्थापना की जिसमें एक बुर्जुवा गणतंत्रवादी को चेयरमैन तथा मार्क्स व एक फ्रांसीसी समाजवादी को वाइस चेयरमैन बनाया गया. मार्क्स के जबर्दस्त प्रयासों के चलते बीडीए ने चार्टिस्ट पार्टी के साथ गहन रिश्ता विकसित किया और धीरे-धीरे पूरे यूरोप के लगभग सभी आम लोकतान्त्रिक आंदोलनों के संयोजन और नेतृत्व का केंद्र बन गया. इसी समय एसोसियेशन के भीतर और बाहर सर्वहारा लोकतंत्रवादियों व पेट्टी बुर्जुवा लोकतन्त्रवादियों तथा बूर्जुवा गणतंत्रवादियों [चेयरमैन समेत] के बीच दो लाइन का संघर्ष भी चलता रहा.

पेरिस के जून विद्रोह की पराजय के साथ ही प्रति क्रान्ति हर जगह बढ़तरी हासिल करने लगी. इस दौरान मार्क्स सितंबर 1848 में व्यापक आधार वाली लोकतान्त्रिक ‘सुरक्षा कमेटी’ व नवंबर में व्यापक आधार वाली ‘जन कमेटी’ की स्थापना में, हथियार संग्रह की देखभाल में, भंग पड़े ‘सिविल गार्ड’ की पुनः स्थापना करने और विभिन्न रैलियों को संबोधित करने जैसे काम में लगे रहे. मार्क्स ने नवंबर 1848 में ‘टैक्स नहीं देने के आंदोलन’, फरवरी 1849 में चुनावों के क्रांतिकारी इस्तेमाल तथा चुने हुए डेपुटियों की निगरानी के लिए जन कमेटी की स्थापना आदि कामों में जबर्दस्त रणनीतिक और कार्यनीतिक नेतृत्व प्रदान किया. इसी समय वे फ्रांस, इटली और हंगरी जैसे देशों के क्रांतिकारी आंदोलनों का विचारधारात्मक और राजनीतिक मार्गदर्शन भी कर रहे थे.

फिलहाल प्रतिक्रांति अपने उभार पर थी. मई 1849 में ‘न्यू रेनेशे जेतुंग’ को बंद कर दिया गया और प्रतिक्रियावादी अदालतों में मार्क्स पर कई मुकदमे चलाये गए. फरवरी 1849 में कोलोन में चलाया गया मुकदमा सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था. मार्क्स, एंगेल्स और ‘न्यू रेनेशे जेतुंग’ के प्रकाशक पर आरोप था कि उन्होंने चीफ पब्लिक प्रोसीक्यूटर और पुलिस की मानहानि की है. हालांकि मार्क्स और एंगेल्स के पास बचाव के लिए वकील था पर प्रतिपक्ष को अपने हथियारों से ध्वस्त करने का जिम्मा मार्क्स व एंगेल्स ने खुद संभाला. इसमें वे कामयाब रहे. अपने विरोधियों से प्रशंसा और गैलरी में मौजूद खचाखच भीड़ से समर्थन हासिल करते हुए मार्क्स ने आरोपों का कानूनी विश्लेषण किया और यह साबित किया कि कानून की निगाह में ये आरोप नहीं ठहरते. उन्होंने प्रेस की आजादी और जनक्रान्ति के विचार को फैलाने के लिए इस मुकदमे का इस्तेमाल किया. उन्हें बरी करना पड़ा लेकिन अगले ही दिन मार्क्स व कुछ अन्य लोगों को फिर से अदालत में पेश किया गया. इस बार गणतंत्रवादियों के राइन डिस्ट्रिक्ट कमेटी के कुछ हिस्सों में विद्रोह भड़काने का आरोप लगाया गया था. मार्क्स ने एक लंबे भाषण में प्रशिया के तत्कालीन तख़्तापलट के पीछे के कारणों और उसकी प्रकृति के बारे में गहन सैद्धान्तिक विवेचना की. उन्होंने डिस्ट्रिक्ट कमेटी की रणनीति के पक्ष में तर्क देते हुए इस विचार को खारिज किया कि क्रान्ति को कानून के दायरे के भीतर सीमित हो कर करना होगा. राइन डिस्ट्रिक्ट कमेटी द्वारा जनता से टैक्स न देने के लिए की गई अपील का हवाला देते हुए मार्क्स ने इतिहास से कई उदाहरण पेश करते हुए दिखाया कि यह तरीका जनता के हितों के खिलाफ जाने वाली सरकार के विरुद्ध जनता द्वारा आत्मरक्षा में उठाया गया लोकप्रिय और वैध तरीका है. उन्होंने आगे कहा “यदि सत्ता प्रतिक्रांति करती है तो जनता को यह हक है कि वह इसका जवाब क्रान्ति से दे’.

जैसा कि बाद में एंगेल्स ने रेखांकित किया कि मार्क्स ने बुर्जुवा अदालत का सामना एक कम्युनिस्ट के बतौर किया और यह दिखा दिया कि जिन बातों के लिए उन पर मुकदमा चलाया जा रहा है, उन्हें बुर्जुवा को खुद ही करना चाहिए था. अदालत मार्क्स से इतनी प्रभावित थी कि उन्हें बरी करते हुए मुख्य जज ने ज्ञानवर्धक व्याख्या के लिए मार्क्स को धन्यवाद दिया.

एक के बाद एक मुकदमों के धराशायी होने के बाद सरकारें एक के बाद एक देश से मार्क्स को परिवार समेत निर्वासित करती रहीं. अंततः वे लंदन में बसे जहां अगस्त 1849 से लेकर अपनी मृत्यु तक रहे.

अनुभव व सैद्धान्तिक उपलब्धियों का सार

लंदन में मार्क्स कम्युनिस्ट लीग और जर्मन वर्कर्स एजुकेशनल सोसाइटी आदि में सांगठनिक रूप से सक्रिय रहे तथा ‘न्यू रेनेशे जेतुंग, पॉलिटिक्स, इकानोमिक्स रिव्यू’ की स्थापना की. इसके जरिये उन्होंने 1848-49 की क्रांतियों के सबक़ों के सार को प्रचारित किया. इसमें ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष’ सबसे महत्वपूर्ण किताब है जो रिव्यू में धारावाहिक रूप से छपी थी. उन्होंने ‘यूनिवर्सल सोसाइटीज़ ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज़’ की स्थापना में केंद्रीय भूमिका निभाई जो कम्युनिस्ट लीग, वामपंथी चार्टिस्टों और ब्लैंक्विस्ट शरणार्थियों को एक मंच पर ले आई. 02 दिसंबर 1851 को प्रेसिडेंट लुई बोनापार्ट द्वारा किए गए तख्तापलट के ठीक बाद मार्क्स ने ‘लुई बोनापार्ट की 18वीं ब्रूमेयर’ नामक किताब लिखी. ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष’ के साथ ही यह किताब ऐतिहासिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद का बेहतरीन संदर्भ ग्रंथ आज भी है. नवंबर 1852 में प्रतिक्रांति ने उन्हें कम्युनिस्ट लीग को भंग करने के लिए विवश कर दिया. फिर भी मार्क्स चार्टिस्ट आंदोलन तथा अमेरिकी मजदूर आंदोलन के साथ निकट संबंध में रहे और ‘न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून’ समेत विभिन्न प्रगतिशील बूर्जुवा अखबारों में लिखते रहे. ‘भारत में अंग्रेजी राज’ तथा ‘भारत में अंग्रेजी राज के भावी परिणाम’ शीर्षक लेख इसी ‘ट्रिब्यून’ में छपे थे. लेकिन इस समय उनका सबसे ज्यादा ध्यान राजनीतिक अर्थशास्त्र पर था. इसमें ‘1857-58 की आर्थिक पांडुलिपियाँ’ बहुत महत्वपूर्ण है जिसके कुछ हिस्से मार्क्स की मृत्यु के बाद ‘गुंड्रीज’ में प्रकाशित हुए. लेनिन के मुताबिक ‘[मार्क्स ने] ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योग’ (1859) व पूंजी (खंड एक 1867) में इस विज्ञान को क्रांतिकारी ढंग से आगे बढ़ाया’[8].

मार्क्स ने यह सब उपलब्धियां उस दौर में हासिल कीं जब वे प्रतिक्रिया और तंगहाली के चक्के तले पिस रहे थे. उनके अपने शब्दों में उन्हें ‘पैंट और जूतों’ तक की किल्लत थी, उनके कई बच्चे कुपोषण से मौत के शिकार हुए. यहाँ तक कि अपनी एक मृत बच्ची के लिए वे ताबूत तक नहीं खरीद सके थे. एंगेल्स की लगातार निस्वार्थ आर्थिक मदद के बिना शायद मार्क्स के लिए ‘पूंजी’ पूरा करना तो दूर, अपने शरीर और आत्मा को एक साथ रखना भी संभव न होता.

  • ‘… मैं लगातार मौत की कगार पर था. इसलिए मुझे अपनी किताब पूरी करने के लिए हर उस क्षण का इस्तेमाल करना था जिसमें मैं काम कर सकता था. इस किताब के लिए मैंने अपने स्वास्थ्य, खुशी और परिवार, सबका बलिदान किया है. … मैं तथाकथित ‘व्यावहारिक’ लोगों और उनकी समझदारी पर हँसता हूँ. जाहिर है, यदि कोई सूअर बनाना चाहता है तो उसे मनुष्यता के उत्पीड़न की ओर पीठ फेर लेनी होगी और अपनी खाल की चिंता करनी होगी’[9].

‘पूंजी’ का पहला खंड छपवाने के बाद भी वे मृत्यु तक उसी विषय पर काम करते रहे और उनकी मृत्यु के बाद मार्क्स द्वारा छोड़ी गई कच्ची पाण्डुलिपियों को एंगेल्स ने बड़े जतन से ठीक करके ‘पूंजी’ का दूसरा और तीसरा खंड प्रकाशित करवाया.

आईडब्ल्यूए से लेकर पेरिस कम्यून तक

एक तरफ मार्क्स सैद्धान्तिक और राजनीतिक सवालों में डूबे हुए थे वहीं दूसरी तरफ पचास के दशक के अंत और साठ के दशक की शुरुआत में लोकतान्त्रिक आंदोलनों के फिर से उभरने के कारण मार्क्स को एक बार फिर से व्यवहारिक राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय होना पड़ा. 28 सितंबर 1864 को इन्टरनेशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन [आईडब्ल्यूए] की लंदन में स्थापना हुई और जल्दी ही मार्क्स इसके सबसे प्रसिद्ध नेता बन गए. उन्होंने इसका ‘उदघाटन भाषण’, ‘फौरी नियम’ और कई प्रस्ताव व घोषणाएँ लिखीं. मार्क्स के आईडब्ल्यूए में प्रभावशाली योगदान के बारे में लेनिन ने कहा ‘विभिन्न देशों के मजदूर आंदोलन को एकताबद्ध करने, विभिन्न गैर-सर्वहारा पहलकदमियों के रास्ते बनाने, मार्क्सवाद के पहले के समाजवाद [मैजिनी, प्रूधों, बाकुनिन, ब्रिटेन का उदारवादी ट्रेड यूनियनवाद, जर्मनी में लासालेन के दक्षिणपंथी विचलन आदि] और इन सभी धाराओं व विचार सरणियों के सिद्धांतों का प्रतिवाद करने के क्रम में मार्क्स ने विभिन्न देशों में मजदूर वर्ग के सर्वहारा संघर्षों की एक जैसी रणनीति को रूप दिया’.[10]  आईडब्ल्यूए का काम विकसित पूंजीवादी देशों में फैल गया और 1871 का पेरिस कम्यून इसकी गतिविधियों का चरम बिन्दु था. आईडब्ल्यूए की तरफ से मार्क्स पेरिसवादियों के गहरे संपर्क में थे. इन्टरनेशनल के नाम जारी उनकी ‘फ्रांस में गृह युद्ध’ किताब कम्यून की गहन क्रांतिकारी व्याख्या पेश करती है जिसे वे सर्वहारा की तानाशाही का पहला ऐतिहासिक रूप मानते हैं.

अपनी अभूतपूर्व उपलब्धियों के बावजूद पेरिस कम्यून दो महीने से कुछ ही अधिक दिनों तक कायम रह सका. इसके ध्वस्त होते ही आईडब्ल्यूए के भीतर विभिन्न विचार सरणियों के बीच विचारधारात्मक संघर्ष ने अपनी सारी हदें पार कर दीं जिसे एंगेल्स ‘सभी धड़ों के बचकाने गठजोड़’ के रूप में याद करते हैं[11]. यह गठजोड़ टूटने लगा. मार्क्स और एंगेल्स, दोनों ने इसे सहज रूप में स्वीकारा और भविष्य की ओर देखा. इन्टरनेशनल के बारे में उनका विचार था कि इसका गौरवशाली अतीत था परंतु ‘अपने पुराने रूप में यह अपनी उपयोगिता पूरी कर चुका था. …मुझे यकीन है कि अगला इंटरनेशनल [जब मार्क्स का लेखन कुछ वर्षों तक अपना प्रभाव पैदा कर चुका होगा] सीधे तौर पर कम्युनिस्ट होगा और हमारे सिद्धांतों को खुलकर अपनाएगा[12].’

एंगेल्स सही थे जब उन्होंने कहा ‘इन्टरनेशनल के बिना मूर [मार्क्स का पारिवारिक नाम] का जीवन वैसे ही होता जैसे हीरे के बिना हीरे की अंगूठी.‘ अगर पाठक आईडब्ल्यूए और पेरिस कम्यून के बारे में अधिक जानना चाहते हों तो अक्तूबर और नवंबर 2014 तथा जनवरी 2015 में लिबरेशन में तीन भागों में छपे ‘पहले इन्टरनेशनल के सबक़ों को रचनात्मक ढंग से लागू करो!’ शीर्षक लेख देखें.

आखिरी सांस तक सर्वहारा योद्धा

आईडब्ल्यूए के इर्द-गिर्द मार्क्स और एंगेल्स के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक-राजनीतिक कामकाज के सामने मार्क्सवाद के पूर्ववर्ती पेट्टी बूर्जुवा समाजवादियों के पराजित हो जाने के बाद एक बार फिर मार्क्स ‘पूंजी’ पूरी करने के लिए गहन वैज्ञानिक शोध में उतर पड़े. लेकिन दशकों के भयानक काम के बोझ [जिसमें से अधिकांश भयानक गरीबी में किए गए] के चलते वे अपंगता की कगार पर पहुँच गए. लेकिन उनकी पत्नी और एंगेल्स जैसे दोस्तों व साथियों के प्यार और देखभाल तथा स्वास्थ्य लाभ के लिए कुछ विदेश यात्राओं के चलते वे सक्रिय बने रह सके. वे जर्मनी समेत दूसरे कई देशों की समाजवादी पार्टियों और समूहों के साथ संपर्क में बने रहे. सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी जिसे मार्क्स और एंगेल्स गहराई से जुड़े हुए थे और लसालियन जनरल एसोसिएशन ऑफ जर्मन वर्कर्स के बीच एकता की जरूरत हर किसी के द्वारा महसूस की जा रही थी. चूंकि मार्क्स और एंगेल्स का मानना था कि लसालियन की प्रतिगामी हठधर्मिता की आलोचना जरूरी थी और यह समय लेने वाला काम था इसलिए उन्होंने सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी के नेताओं को सुझाव दिया कि वे तत्काल सांगठनिक विलय पर ज़ोर देने की बजाय पहलकदमियों में एकता की ओर ठोस शुरुआत करें. यह सुझाव शुरुआत में तो माना गया पर बाद में क्षुद्र रणनीतिक कारणों से लीब्नेख्त जैसे नेताओं ने इसे दरकिनार कर दिया. बड़े सैद्धान्तिक सवालों पर छूट देते हुए 1875 की शुरुआत में एकीकरण का कार्यक्रम बनाया गया. मार्क्स और एंगेल्स ने सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी के नेताओं का ध्यान इस गलती के परिणामों की ओर खींचा लेकिन इसका कोई प्रभाव न पड़ा. मार्क्स ने अपनी आलोचना के मुख्य बिन्दुओं को जिस रूप में पेश किया, बाद में उसे ही ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना’ के नाम से जाना गया[13]. वैज्ञानिक साम्यवाद के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यक्रम को एंगेल्स ने 1891 में प्रकाशित कराया, जब एकीकरण कार्यक्रम पुनर्विचार के लिए आया था.  

पिछले कुछ वर्षों में मार्क्स अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मजदूर वर्ग के आंदोलनों का विचारधारात्मक मार्गदर्शन करने के साथ-साथ अभूतपूर्व शोधकार्य में डूबे हुए थे, जिसके परिणाम ‘पूंजी’ के भाग दो और तीन [दोनों ही अपूर्ण रह गए और मार्क्स की मृत्यु के बाद एंगेल्स ने उन्हें छापने लायक रूप में तैयार किया]. ‘क्रोनोलाजिकल नोट्स’ [यूरोप, एशिया और अफ्रीका के विभिन्न देशों का इतिहास, शुरुआत में उनकी मंशा पूरे दुनिया का इतिहास लिखने की थी] और विभिन्न देशों की पत्र-पत्रिकाओं में अनेक लेखों के रूप के भी रूप में यह शोध सामने आया. 12 दिसंबर 1881 को संगिनी जेनी मार्क्स की मृत्यु और सबसे बड़ी बेटी जेनी की जनवरी 1883 में मृत्यु ने मार्क्स को गहरा धक्का पहुंचाया. उनका स्वास्थ्य सुधार से परे चला गया.

और तब 14 मार्च 1883 का वह भयानक दिन आया जब मार्क्स अपने कमरे में अकेले शांतिपूर्वक गुजर गए.

“कल दोपहर 02:30 बजे …मैं पहुंचा और पूरा घर आंसुओं में डूबा हुआ था. …माँ से अधिक उनकी देखभाल करने वाली लेंचेन ऊपर गईं और फिर नीचे आयीं. उन्होंने कहा कि वे आधा सो रहे हैं, आप ऊपर चलकर देख लीजिये. जब हम कमरे में पहुंचे, वे वहाँ सो रहे थे, कभी न उठने के लिए. उनकी नब्ज और साँसे थम चुकी थीं. …

हो सकता है कि चिकत्सकीय मदद ने उन्हें कुछ साल और का अपंगता भरा जीवन, एक असहाय जीवन बख्श दिया होता, हो सकता है कि चिकित्सक की कला उन्हें अचानक न मरने देती पर रोज ब रोज इंच दर इंच वे मरते जाते. हमारे मार्क्स उसे कभी बर्दाश्त नहीं करते. असमाप्त पड़े हुए कामों और उन्हें पूरा करने की जबर्दस्त इच्छा के बावजूद पूरा कर पाने की असमर्थता हमसे उन्हें छीन लेने वाली इस अचानक मौत से हजार गुना ज्यादा कड़वी होती.…

पर सच यही है. मनुष्यता से सिर्फ एक आदमी नहीं गया, वह आदमी गया जो हमारे दौर का सबसे महान आदमी था. सर्वहारा का आंदोलन चलता रहेगा लेकिन हमारे बीच से वह केंद्र बिन्दु चला गया है जिसके पास फ्रांसीसी, रूसी, अमरीकी, जर्मन निर्णायक क्षणों में स्पष्ट सलाह लेने के लिए आते थे और वह जीनियस ज्ञान का उत्कृष्ट स्रोत उन परिस्थितियों के अनुरूप उन्हें परामर्श देता था… अंतिम विजय निश्चित है लेकिन भटकाव और स्थानीय गलतियाँ [जिनसे ऐसे भी नहीं बचा जा सकता] अब पहले से ज्यादा हुआ करेंगी. हमें इसे संभालना होगा अन्यथा यहाँ हम किस लिए आए हैं? और इसके चलते हम अपना साहस तो कतई नहीं खो सकते.”

–  एफ़ए सोर्ज से एंगेल्स
15 मार्च 1883[14]

लंदन में हाइगेट कब्रगाह में मार्क्स की अन्त्येष्टि के मौके पर विभिन्न मजदूर पार्टियों के प्रतिनिधियों और लिब्नेख्त जैसे बुजुर्गों की मौजूदगी में एंगेल्स ने बहुत प्रभावशाली ढंग से मार्क्स की बहुआयामी प्रतिभा को सामने रखते हुए उन्हें वैज्ञानिक और क्रांतिकारी योद्धा बताया. उन्होंने कहा ‘एकाधिकारवादी और गणतंत्रवादी सरकारों ने उन्‍हें अपनी सीमाओं से बाहर धकेला. रूढ़िवादी और अति लोकतान्त्रिक, दोनों तरह के बुर्जुवा ने मार्क्स के खिलाफ़ झूठ का अंबार लगाने में एक-दूसरे की मदद की. उन्होंने इस सबको इस तरह नजरंदाज कर दिया मानो वे मकड़ी के जाले हों और तभी जवाब दिया जब बहुत जरूरी था. जब उनकी मृत्यु हुई है तो साइबेरिया और कैलीफोर्निया की खदानों से लेकर यूरोप और अमेरिका के सभी हिस्सों के लाखों क्रांतिकारी सहयोगी उन्हें प्यार कर रहे हैं, सम्मान दे रहे हैं और उनकी मृत्यु का शोक मना रहे हैं. मैं साफ-साफ कह सकता हूँ कि उनके बहुत से विरोधी थे लेकिन व्यक्तिगत दुश्मन कोई न था.

उनका नाम सदियों तक रहेगा और उनका काम भी.[15]

( मार्क्स की शतवार्षिकी पर सितंबर 1983 के लिबरेशन के विशेषांक में छपे लेख का संशोधित रूप )

 

“ ... संपत्तिशाली वर्गों की
सामूहिक शक्ति के खिलाफ
मजदूर वर्ग एक वर्ग के रूप में
कुछ नहीं कर सकता
जब तक कि वह
खुद को एक ऐसे राजनीतिक
दल में संगठित न कर ले,
जो सबसे अलग
और संपत्तिशाली वर्गों द्वारा गठित
सभी पुरानी पार्टियों
के विरोध में हो.”

– ‘कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल द्वारा 1871 में
लंदन सम्मेलन द्वारा परित प्रस्ताव से.

पाद लेख :
1. 1865 में इंग्लैंड और जर्मनी में वितरित प्रश्नों का मार्क्स का जवाब, ‘मार्क्स एंड एंगेल्स: ऑन लिट्रेचर एंड आर्ट’ में उद्धृत.

2. ‘कार्ल मार्क्स: ए बायोग्राफी’ - रूसी संस्करण का अंग्रेजी अनुवाद, मास्को 1968, सीपीएसयू सेंट्रल कमेटी के मार्क्सवाद-लेनिनवाद संस्थान की ओर से पीएन फेदोसेयेव व अन्य द्वारा लिखित.

3. ए कंट्रिब्यूशन टू द क्रिटिक ऑफ हीगेल्स फिलोसोफी ऑफ राइट, कार्ल मार्क्स, भूमिका

4. ए कंट्रिब्यूशन टू द क्रिटिक ऑफ पोलेटिकल इकॉनमी की भूमिका - मार्क्स और एंगेल्स की चुनी हुई रचनाएँ, प्रोग्रेस पब्लिशर, मॉस्को, खंड एक

5. ‘गरीबी का दर्शन’ के लेखक, फ्रांसीसी अराजकतावादी राजनीतिज्ञ पियरे जोसेफ प्रूधों के नाम पर रखा गया. इसी किताब के जबर्दस्त आलोचना मार्क्स ने अपनी किताब ‘दर्शन की दरिद्रता’

6. इन्हीं सोसाइटियों में दिये गए मार्क्स के एक भाषण से उनका बहुचर्चित पर्चा ‘मजदूरी, श्रम और पूंजी’ तैयार हुआ था.

7. कार्ल मार्क्स, लेनिन [संकलित रचनाएँ, प्रोग्रेस पब्लिशर, मॉस्को, खंड 21]

8. कार्ल मार्क्स, लेनिन [वही]

9. सिगफ्रेड मेयर को पत्र, 30 अप्रैल 1867. देखें: मार्क्स-एंगेल्स: चुने हुए पत्र

10. कार्ल मार्क्स, लेनिन [वही]

11. फ़्रेडरिक एडोल्फ सोर्ज को पत्र, सितंबर 1874, मार्क्स-एंगेल्स: चुने हुए पत्र

12. वही

13. गोथा वह जगह थी जहां मई 1875 में एकीकरण का महाधिवेशन हुआ.

14. मार्क्स-एंगेल्स: चुने हुए पत्र

15. कार्ल मार्क्स की कब्र पर दिया गया भाषण, संकलित रचनाएं, भाग तीन

दीपंकर भट्टाचार्य

हम मार्क्स के जन्म की द्विशतवार्षिकी मना रहे हैं. एक ऐसे समय, जब संघ ब्रिगेड ने लोकतंत्र पर जहरीला हमला कर दिया है और वह समूचे देश तथा समाज पर संघ की विचारधारा को जबर्दस्ती थोप देने की कोशिश कर रहा है, तब मार्क्स की 200 वीं जन्मवार्षिकी हमें उनके क्रांतिकारी विचारों को व्यापक रूप से प्रसारित करने और उन पर चर्चा करने तथा लोकतंत्र, आजादी और बराबरी के लिये एक सशक्त संग्राम छेड़ देने का बहुत बड़ा मौका दे रही है.

मार्क्स की ताकत को फासिस्ट लोग खूब जानते हैं. पूरी बीसवीं सदी में, दुनिया में जब कभी और जहां कहीं फासिस्टों ने अपना कुत्सित सिर उठाया है, मार्क्स के अनुयाइयों ने दिलोजान से उनसे लड़ाई चलाई है और उनको इतिहास के कूड़ेदान में दफ्न कर दिया है. उनके प्रतीक-पुरुष हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ की लाल फौज ने ही शिकस्त दी थी. यह महज कोई सामरिक विजय नहीं थी, बल्कि सबसे बढ़कर यह एक महान विचारधारात्मक विजय थी, जिसने दुनिया भर में स्वतंत्रता, लोकतंत्र तथा समानता की शक्तियों को प्रेरित किया था और उनको शक्ति प्रदान की थी. आज जब हम भारत में सत्ताधारी फासिस्टों का प्रतिरोध कर रहे हैं तो हमारे पास मार्क्स जैसा एक महान मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक मौजूद है.

सचमुच, मार्क्स अपने जीवनकाल में भारत के एक महान मित्र और शुभाकांक्षी रहे थे. संघ ब्रिगेड की सोच है कि वे बस इतना कहकर कि मार्क्स तो विदेशी थे, उनको हमसे दूर रख सकते हैं. सच है कि मार्क्स जर्मन थे और उन्होंने कभी भारत का दौरा नहीं किया था, लेकिन 1850 के दशक से शुरू करके 1883 में अपने जीवन की अंतिम सांस गिनने तक, वे लंदन में बसे थे जो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की राजधानी था और ये ब्रिटिश भारत को लूट रहे थे तथा उसका दमन कर रहे थे. लंदन में बैठकर मार्क्स पूंजी पर पड़े रहस्य का पर्दा हटा रहे थे और तमाम देशों के मेहनतकश वर्गों को पूंजी के शोषण के खिलाफ लड़ने के लिये प्रोत्साहित कर रहे थे. भारत में अभी तक आधुनिक मजदूर वर्ग का काफी हद तक उदय नहीं हुआ था, मगर उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन शुरू हो चुके थे और मार्क्स बड़ी उम्मीद के साथ उन आंदोलनों पर नजर टिकाये थे.

ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने अपने औपनिवेशिक शासन को सभ्यता प्रसार के महान मिशन के आवरण में लपेटकर पेश करने की कोशिश की थी. उन्होंने भारत में अपने शोषण को विकास और सशक्तीकरण के एक महान प्रयास के बतौर दिखाने की कोशिश की. मार्क्स ने सुनियोजित ढंग से इस झूठे आख्यान को चुनौती दी और भारत में औपनिवेशिक शासन के असली चरित्र का पर्दाफाश किया. जुलाई 1853 में ही, महान संथाल विद्रोह (हूल) के दो वर्ष पहले और 1857 के ऐतिहासिक विद्रोह से चार वर्ष पहले मार्क्स भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की समाप्ति का सपना देख रहे थे, जो उनकी नजर में या तो ब्रिटेन में सर्वहारा क्रांति के जरिये या फिर भारतवासियों के औपनिवेशिक जुआ उतार फेंकने लायक पर्याप्त शक्तिशाली हो जाने के जरिये साकार हो सकता था. एक तरह से यह भारत की स्वतंत्रता की पहली राजनीतिक दृष्टि थी, भारत पर औपनिवेशिक कब्जे के वास्तविक तौर पर समाप्त होने के लगभग एक शताब्दी पहले ही.

जहां मार्क्स ने ब्रिटेन द्वारा अपने देश में लोकतंत्र की डींगें हांकने और उपनिवेशों को बर्बर पुलिस राज्य में तब्दील करके शासन करने के ब्रिटिश पाखंड का पर्दाफाश किया, वहीं वे ब्रिटिश-पूर्व भारतीय व्यवस्था के भी प्रशंसक नहीं थे. उनके लिये स्वयं-सम्पूर्ण ग्रामीण समुदायों का मिथक आदर्श नहीं था, वे भारत में जाति व्यवस्था और सामाजिक गुलामी के बारे में भी इतना जानते थे कि उन्होंने भारतीय समाज प्रणाली को पूरब की स्वेच्छाचारी निरंकुश प्रणाली के बतौर वर्णित किया था. फुले जैसे भारतीय चिंतकों ने भी औपनिवेशिक भारत की आंतरिक सामाजिक स्थिति का वर्णन करने के लिये ‘गुलामगिरी’ जैसे कठोर शब्दों का इस्तेमाल किया है. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के किसी सच्चे विवरण में औपनिवेशिक शासकों से स्वतंत्रता और मार्क्स के शब्दों में पूरब की स्वेच्छाचारी निरंकुश प्रणाली, जिसे फुले गुलामगिरी कहते हैं, के खात्मे पर समान रूप से केन्द्रित करना जरूरी है.

सोवियत संघ के पतन के बाद समूची दुनिया में पूंजीवाद के पैरोकारों ने विजयोल्लास से घोषणा कर दी कि उन्होंने अब हमेशा के लिये मार्क्स को दफ्न कर दिया है, लेकिन जैसे ही इक्कीसवीं सदी का सवेरा आया और पूंजीवाद ने खुद को अपने एक सबसे बड़े संकट में फंसा पाया, तो मार्क्स एक जबर्दस्त धमाके के साथ फिर वापस आ गये. हर बार जब पूंजीवाद एक नये संकट के सामने खड़ा होता है, तो पूंजी के प्रबंधक भी इस संकट को समझने के लिये मार्क्स को दोबारा पढ़ते हैं. हां जरूर, सोवियत संघ का पतन बीसवीं सदी के अंत में कम्युनिस्ट शिविर के लिये एक बड़ा धक्का था, मगर इसने मार्क्स और मार्क्सवाद को सोवियत माॅडल की जकड़न से मुक्त कर दिया है और दुनिया भर में कम्युनिस्टों को मजबूर किया है कि वे सोवियत पतन के बाद वाली दुनिया की स्थितियों का मुकाबला करें और अब हमारे पास सोवियत पतन के बाद उभरने वाले मार्क्सवादियों की एक पीढ़ी है जो सोवियत पतन के बोझ तले नहीं दबी हुई है.

अपने जीवनकाल में मार्क्स ने खुद को किसी एक माॅडल के साथ सम्पूर्णतः सीमित नहीं रखा. यूरोप में प्रगतिशील क्रांतियों का पूर्वाभास करके उन्होंने अपने सबसे घनिष्ठ सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर फरवरी 1848 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र की रचना की. ये क्रांतियां 1789 की फ्रांसीसी  क्रांति से, जिसने दुनिया को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का आह्नान दिया था, से एक कदम आगे बढ़कर होने वाली थी, लेकिन वास्तविक जीवन में 1848 की क्रांतियां यूरोप के लिये पीछे मुड़ने का बिंदु बन गईं, जहां पूंजीवादी शासनों ने मजदूर वर्ग के आगे बढ़ने की संभावनाओं पर लगाम लगाते हुए खुद को और सुदृढ़ कर लिया. इसके बाद से लेकर 1871 के पैरिस कम्यून तक यूरोप को मजदूर वर्ग के विद्रोह की कोई झलक नहीं मिली और यहां तक कि पैरिस कम्यून का उभार भी सत्तर दिनों से ज्यादा नहीं टिका रह सका, हालांकि उसने समाजवादी स्वप्नदृष्टि को ठोस आकार देने में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान किया. मजदूर वर्ग के आंदोलनों को इंटरनेशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन, जिसे दुनिया के इतिहास में प्रथम इंटरनेशनल के नाम से जाना गया, के बैनर तले एक साथ लाने का मार्क्स का ध्येय, पैरिस कम्यून के पतन के धक्के को तथा उसके बाद शुरू होने वाले कार्यनीतिक बहस-मुबाहसे को नहीं बर्दाश्त कर सका और टिक नहीं पाया. यह हमें दिखलाता है कि मार्क्स के विचार कभी भी व्यावहारिक सफलता के तथाकथित बड़े-बड़े माॅडलों के आधार पर नहीं लोकप्रिय हुए, बल्कि वे इन धक्कों और दमन को धता बताते हुए लगातार इसलिये फैलते रहे क्योंकि वे अनुभूत की जा रही आवश्यकताओं और सामाजिक बदलाव की तीव्र साझी आकांक्षा को प्रतिबिम्बित करते थे, जिसका लक्ष्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना था जो पूंजीवाद के संकटों और अस्तव्यस्तता से तथा उसकी बर्बरता से परे हो.

अपने जन्म के दो सौ वर्ष बीतने के बावजूद मार्क्स का नाम आज भी लोगों के कानों में गूंजता है तो इसकी वजह यह है कि वह बदलाव के दार्शनिक और जोशीले हिमायती थे. पूरे जीवन भर वे अपनी इस कथनी को करनी में बदलते रहे कि दार्शनिकों ने तमाम तरह से दुनिया की व्याख्या की है, मगर सवाल इसको बदलने का है और उन्होंने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखने से पहले ही जिस पद्धति को सूत्रबद्ध किया था, उससे खुद भी बंधे रहे: जो कुछ भी विद्यमान है उसकी निर्मम आलोचना. यह निर्ममता दो अर्थों में होगी – खुद आलोचना के परिणामों को भोगने के अर्थ में और शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाने वाली सरकारों द्वारा किये जाने वाले दमन को बर्दाश्त करने के अर्थ में. मगर मार्क्स ने समानता और मुक्ति पर आधारित किसी समाज के निर्माण की विस्तृत रूपरेखा या योजना पेश करने का कभी प्रयास नहीं किया. विस्तृत रूपरेखा बनाने के काम को आने वाली पीढ़ियों के लिये छोड़ दिया गया. मार्क्स के सामने महत्वपूर्ण काम था वर्तमान में बदलाव के लिये इसी जगह लड़ाई चलाना, इसमें इतिहास ने उनके सामने चाहे जो भी सामग्री जुटा रखी हो या जो भी परिस्थितियां पेश कर रखी हों. उनके विचार से प्रकृति और सामाजिक जीवन में परिवर्तन ही एकमात्र बने रहनी वाली चीज थी और यह परिवर्तन एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. यह प्रक्रिया निरंतर तो है मगर रेखिक गति में चलने वाली नहीं है, क्योंकि जीवन हमेशा टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलता है और उतार-चढ़ाव से गुजरता रहता है. अतः मार्क्स के विचार से परिवर्तन के लिये न तो कोई न्यूनतम प्रस्थान बिंदु होता है और न ही कोई भी संदर्भ परिपूर्ण होता है. मार्क्सवाद हमें किसी भी परिस्थिति में बदलाव के लिये लड़ने को प्रेरित करता है और उसकी शक्ति प्रदान करता है.

मार्क्स ने हमारे सामने पूंजी के रहस्य को खोलकर रख दिया, वह पूंजी जिसका सृजन विकास के क्रम में मानव समाज द्वारा किया गया था और अब वही पूंजी मानव जाति चाहे कुछ भी करे, सब कुछ की शर्तें तय कर देती है. हमें सिखाया जाता है कि हम पूंजी को उत्पादन का एक प्रमुख तत्व अथवा जमीन या प्राकृतिक संसाधन एवं मानव श्रम के अलावा उत्पादन का एक संघटक मानें, लेकिन प्राकृतिक संसाधन या जीवित श्रम से भिन्न, पूंजी में कुछ भी प्राकृतिक तत्व नहीं है. मार्क्स हमें पूंजी के निर्माण और संचय की प्रक्रिया तक ले जाते हैं, वे उस निर्दयता और हिंसा का, लूट-खसोट का, गुलामी और अमानवीकरण का पर्दाफाश करते हैं जो मार्क्स के शब्दों में पूंजी के आदिम संचय के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है और जिसे हम आज भी दुनिया भर में, खासकर पूंजी-निर्देशित विकास की दौड़ में पीछे रह गये देशों और अंचलों में, लोगों से उनके संसाधनों को जबरन छीने जाने के विभिन्न रूपों में आज भी जारी देखते हैं. मार्क्स के अविस्मरणीय शब्दों में, अगर मुद्रा एक गाल में खून का सहजात धब्बा लेकर इस दुनिया में आती है, तो पूंजी सिर से पैर तक, अंग-अंग में खून और कीचड़ में लथपथ रूप में सामने आती है.

हमें यह पढ़ाया जाता है कि विकास की जड़ें पूंजी में निहित हैं, पूंजी ही आधुनिक मानव सभ्यता का केन्द्र है , न कि उत्पादन और रोजगार का स्रोत पूंजी है. मार्क्स हमें बताते हैं कि पूंजी की केन्द्रवस्तु और कुछ नहीं मुनाफा है. वही एकमात्र उद्देश्य है जिसके लिये पूंजी का अस्तित्व है और मार्क्स ने अपनी सहमति जताते हुए अपने जमाने के एक ट्रेड यूनियन नेता का वक्तव्य उद्धृत किया है, यह दिखाने के लिये कि कैसे मुनाफे का हिस्सा बढ़ाते जाने में पूंजी अपना असली चरित्र दिखला देती है. अगर 10 प्रतिशत मुनाफा निश्चित हो तो पूंजी कहीं भी लग जायेगी, 20 प्रतिशत मुनाफा मिले तो पूंजी यकीनन बेचैन हो उठेगी और 50 प्रतिशत मुनाफे पर तो पूरी तरह उद्दंडता दिखलाने लगेगी और 100 प्रतिशत मुनाफा मिलेगा तो वह तमाम मानवीय कानूनों को बूटों तले कुचलने को तैयार हो जायेगी. 300 प्रतिशत मुनाफा मिलने पर तो कोई ऐसा अपराध नहीं है जिसे करने में पूंजी हिचकेगी, कोई ऐसा जोखिम नहीं जिसे पूंजी न उठायेगी, यहां तक कि अपने मालिक के फांसी के फंदे में लटकने का जोखिम तक उठायेगी. पूंजी के स्वरूप बदलते गये हैं, अब उसकी गति इलेक्ट्राॅनिक हो गई है, अब वह सचमुच समूचे विश्व को अपना मंच मानती है और कोई सीमा या बाधा नहीं मानती. अमरीकी आविष्कर्ता टाॅमस अल्वा एडिसन का सुप्रसिद्ध कथन था कि जीनियस बनने में एक प्रतिशत हिस्सा प्रेरणा का होता है तो निन्यानबे प्रतिशत पसीना बहाने का होता है. उनके ही कथन की तर्ज पर आज कहा जा सकता है कि पूंजी का कारोबार आज एक प्रतिशत उत्पादन और निन्यानबे प्रतिशत सट्टेबाजी हो गया है. जब पूंजी उत्पादन में लगती है तो वह श्रमशक्ति से अतिरिक्त मूल्य बटोर लेती है और वास्तविक उत्पादन का झंझट मोल लेने के दायरे से बाहर जाकर सट्टेबाजी के जरिये बुलबुले पैदा करने लगती है जो समय-समय पर फूट जाते हैं और क्रमशः अधिक से अधिक वैश्वीकृत होते अर्थतंत्र को और भी गहरे एवं व्यापक संकटों में धकेल देते हैं.

मार्क्स हमें बताते हैं कि मुद्रा या मशीनें पूंजी की अंतर्वस्तु नहीं हैं, पूंजी की अंतर्वस्तु उस सामाजिक शक्ति में निहित है जिसके जरिये पूंजी के मालिकों को काम करने की जरूरत नहीं होती और जिनके पास पूंजी नहीं है वे अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिये श्रमशक्ति बेचने को मजबूर हो जाते हैं, चाहे वह शारीरिक हो या बौद्धिक श्रमशक्ति. पूंजी के शासन को राज्य द्वारा लागू किया जाता है. मगर ठीक जैसे पूंजी एक सामाजिक संरचना है, वैसे ही राज्य भी सामाजिक संरचना है और एक ऐसे समाज की कल्पना करना तथा उसे हासिल करना संभव है जो पूंजी और इसी तरह राज्य से परे जा सकती है, जहां समाज स्वतंत्र उत्पादकों का संघ होगा या स्वाधीन रूप से जुड़े हुए व्यक्तियों का समुदाय होगा, एक ऐसा संघ जहां प्रत्येक व्यक्ति का उन्मुक्त विकास तमाम लोगों के स्वतंत्र विकास की पूर्वशर्त होगा. यही मार्क्स की स्वप्नदृष्टि में साम्यवाद या कम्युनिज्म था, जहां हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार समाज में योगदान करेगा और समाज उसे उनकी आवश्यकता के अनुसार प्रदान करेगा.

मार्क्स हमें पूंजी और पूंजीवाद से परे एक समाज की कल्पना और उसके निर्माण के लिये प्रेरणा देते हैं. इसको समझने के लिये आइये, हम किसी खेतिहर समाज का सहजलब्ध उदाहरण लें, जहां अर्थतंत्र में कृषि उत्पादन की प्रधानता है. हमें कृषिकार्य के लिये क्या चाहिये? हमें खेती योग्य जमीन चाहिये, हमें खेती के उपकरण और लागत सामग्री चाहिये, हमें खेती करने की तकनीक चाहिये और निश्चित तौर पर हमें श्रम की भी जरूरत है, अब चाहे किसान खुद अपना श्रम दे या फिर भाड़े पर लिये गये कृषि-श्रमिकों के जरिये हासिल करे, लेकिन क्या हमें किसी जमींदार की भी जरूरत है जिसके पास सैकड़ों एकड़ जमीन हो? आज इसका जवाब स्वाभाविक रूप से उपलब्ध है कि ऐसी जरूरत नहीं है, जब जमींदारी का कानूनी तौर पर विलोप कर दिया गया है और हम जानते हैं कि जमींदारी के विलोप ने कृषि के विकास में वास्तव में योगदान ही किया है. इस तरह, अगर खेतिहर अर्थतंत्र के संदर्भ में जमींदार को अनावश्यक बना दिया गया है, तो क्या हमें औद्योगिक उत्पादन, व्यापक रूप से विस्तृत सेवा क्षेत्र और विशिष्ट ज्ञान पर आधारित आधुनिक अर्थतंत्र के लिये वास्तव में किसी पूंजीपति या पूंजी के निजी मालिक की जरूरत है? इसका जवाब भी नकारात्मक ही होना चाहिये. हमें फैक्टरियों और कार्यस्थलों की जरूरत है, हमें मशीनों और तकनीक की भी जरूरत है, हमें आपस में घनिष्ठ समन्वय रखकर काम करने वाले मजदूरों की जरूरत है, हमें वैज्ञानिकों और इंजीनियरों और निरीक्षकों की जरूरत है जो उत्पाद की गुणवत्ता का निरीक्षण-परीक्षण करें और यहां तक कि कार्य और कामगारों का संगठन एवं प्रबंधन करने के लिये विभिन्न उपायों की भी जरूरत है. हमें जिस व्यक्ति की जरूरत नहीं है, वह है कारोबारी साम्राज्य का मालिक जिसे उत्तराधिकार में कारोबार मिल जाता है, जो वास्तव में परजीवी की भूमिका निभाता है जो उत्पादन प्रक्रिया एवं समग्र अर्थतंत्र के हर आवश्यक पहलू और संघटक अंग पर वर्चस्व कायम किये रहता है. श्रम के समाजीकरण के साथ ताल मिलाकर मालिकाने का हस्तगतकरण करके समाजीकरण कर दिया जाय, तो पूंजीवाद अपनी जड़ों से हिल जाता है.

पूंजी के अमानवीयकरण करने वाले शासन से शुरू करके सर्वसम्पूर्ण मानव स्वतंत्रता के इस राज्य तक का सफर छोटे और बड़े किस्म के तमाम बदलावों से, छोटे-छोटे और बड़े-बड़े कदमों से, सुधारों और क्रांतियों से भरा पड़ा है और यही वह संदर्भ है जिसमें मार्क्स वर्ग संघर्ष की बात करते हैं, जो क्रांतिकारी सिद्धांत और व्यवहार की मुख्य गतिशीलता है. वर्ग संघर्ष की शुरूआत तो वर्गों में विभाजित समाज और वर्गीय शासन के उदय के साथ होती है और मार्क्स ने इसके आविष्कार के श्रेय का कोई दावा नहीं किया. उनका ऐतिहासिक योगदान वर्ग संघर्ष की गतिशीलता को कम्युनिज्म की नियति के साथ जोड़ देने में निहित है.

स्वभाविक तौर पर मार्क्स किसी फौरी किस्म के और विशेष हित को लेकर परस्पर लड़ रहे दो विरोधी वर्गों के सीमित संदर्भ में वर्ग संघर्ष की बात नहीं कर रहे हैं. वह तो अक्सर वर्ग संघर्ष का पहला कदम होता है, और जब श्रम एवं पूंजी के बीच चलने वाली निरंतर छापामार लड़ाई के बीच से ट्रेड यूनियनें आकार ग्रहण करती हैं, तो मजदूर आम तौर पर यह पहला कदम बिल्कुल सहजात प्रवृत्ति के बतौर उठाते और सीखते हैं. मार्क्स सामाजिक बदलाव के हथियार के रूप में वर्ग संघर्ष की बात करते हैं. वे हमें वर्गीय शासन के गोपनीय रहस्य से परिचित कराते हैं और वर्ग संघर्ष के जरिये वे वर्तमान वर्गीय शासन को चुनौती देना तथा उसे सम्पूर्ण रूप से उखाड़ फेंकने की कोशिश करते हैं. जब हम वर्गीय शासन की बात करते हैं तो हम आम तौर पर उसके दो स्तम्भों की बात करते हैं – पूंजी और राज्य. पूंजीवादी समाजों में चंद हाथों में पूंजी का केन्द्रीकरण और इसी कारण से हमेशा बढ़ती जाती असमानता ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें व्यापक तौर पर स्वीकारा जाता है. ‘अकुपाई वाॅल स्ट्रीट’ आंदोलन ने इसकी अभिव्यक्ति शिखर पर बैठे 1 प्रतिशत लोगों की सत्ता और विशेषाधिकार के खिलाफ 99 प्रतिशत वंचितों की लड़ाई के रूप में की थी. ब्रिटेन में कोर्बिन के प्रचार अभियान ने अपनी अभिव्यक्ति के बतौर इस नारे का इस्तेमाल किया था: चंद लोगों के लिये नहीं, बहुसंख्यकों के लिये जब राज्य सांस लेने काबिल स्वच्छ हवा और पीने योग्य पानी की खातिर किसी प्रदूषणकारी प्लांट को बंद करने की मांग करते निहत्थे लोगों पर गोली चलाता है तो वर्चस्वशाली वर्ग के शासन के अंग के बतौर राज्य की भूमिका बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है.

मगर यदि हम मार्क्स को थोड़ा ध्यान से पढ़ें तो हम पायेंगे कि वे हमारा ध्यान एक तीसरे स्तम्भ की ओर खींच रहे हैं. विचारों का परिक्षेत्र, मार्क्स कहते हैं कि हर जमाने में शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं. दूसरे शब्दों में शासक वर्ग निरंतर विचारों के परिक्षेत्र में अपने शासन को जायज ठहराते रहते हैं. चोम्स्की इसको सहमति का परिनिर्माण कहते हैं. अतएव, वर्चस्वशाली वर्ग के शासन को चुनौती देने तथा उसे उखाड़ फेंकने के लिये सभी मोर्चों पर लड़ाई लड़ना आवश्यक है. आर्थिक नियंत्रण के खिलाफ, राजनीतिक नियंत्रण के खिलाफ और साथ ही विचारधारात्मक नियंत्रण के खिलाफ. कई लोग जो सोचते हैं कि मार्क्स को भारत में इसलिये लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि भारत में जाति और धर्म का वर्चस्व है, वास्तव में वर्ग संघर्ष के इस अत्यंत महत्वपूर्ण विचारधारात्मक आयाम को भूल ही जाते हैं.

भारत में प्रभुत्वशाली विचार क्या हैं? हम आसानी से देख सकते हैं कि भारत में अधिकांश प्रभुत्वशाली विचार बदलाव और सामाजिक गतिशीलता के खिलाफ बड़े जोरदार ढंग से खड़े हैं. हमें लगातार यही बताया जाता है कि हर चीज भाग्य के जरिये पर पहले से तय है, आपको इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिये कि इस जिंदगी में आपको कब क्या मिल रहा है, क्योंकि यह निर्धारित है कि आपको उपयुक्त समय पर, उपयुक्त मात्रा में, उपयुक्त वस्तु मिल जायेगी. हमें बताया जाता है कि अभी हमें जो कुछ मिल रहा है, वह हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का फल है और आज हम जो अच्छे काम कर रहे हैं उनका पुरस्कार हमें अगले जन्मों में मिलेगा. हमें फल या पुरस्कार की चिंता किये बगैर काम करते जाने को प्रोत्साहित किया जाता है. हमें बताया जाता है कि जीवन में आम हिन्दू का स्थान उसके जन्म के समय ही उसकी जाति के जरिये निर्धारित हो जाता है क्योंकि जाति ईश्वर द्वारा निर्धारित की गई संस्था है और उसकी सीमाओं या बंधनों को नहीं लांघना चाहिये. महिलाओं को हर तरीके से यह बताया जाता है कि वे पुरुषों से निम्नतर हैं और उनका काम समुदाय, जाति और परिवार की कठोर सीमाओं में बंधकर जीवन भर पुरुष की सेवा करना है, उनकी खामोशी और बलिदान को महिमामंडित किया जाता है जबकि स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में अपने अधिकारों को हासिल करने की उनकी हर कोशिश पर प्रतिबंध लगाया जाता है और उन्हें दंडित किया जाता है. यकीनन मनुस्मृति इन प्रतिगामी विचारों को सूत्रबद्ध आकार देने वाली संभावित सबसे निर्मम संहिता है तथा मनुस्मृति एवं ब्राह्मणवाद के अन्य ग्रंथ; वेद-पुराण-उपनिषदद्ध भारत में नारी-विद्वेष, अस्पृश्यता और सामाजिक गुलामी के विचारधारात्मक स्रोत हैं.

अतः वर्ग संघर्ष का कोई मार्क्सवादी सिद्धांत और उसके व्यवहार को अवश्य ही इन तमाम वर्चस्वशाली तथा जड़ जमाये बैठे विचारों के खिलाफ जोशीला संघर्ष छेड़ना होगा, जो विचार यथास्थिति को जायज ठहराते हैं और किसी भी किस्म के सामाजिक परिवर्तन एवं गतिशीलता में बाधा डालते हैं. इस तरह से देखा जाय तो जाति और वर्ग के बीच कोई चीन की दीवार नहीं खड़ी है. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मार्क्स ने फुले के बारे में और फुले ने मार्क्स के बारे में सुना था या नहीं, सच्चाई यह है कि फुले ने 1873 में भारत में जातिगत और लैंगिक दोनों पहलुओं से सामाजिक गुलामी के खिलाफ जो लिखा था वह आज भी विचारधारा के परिक्षेत्र में वर्ग संघर्ष को किया गया एक प्रमुख योगदान है. इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि अंततः अम्बेडकर मार्क्स से किस हद तक सहमत हुए थे, 1936 में जाति के विनाश का उनका उदात्त आह्नान जो संदेश दे गया उसे भारत के वर्ग संघर्ष में एक प्रमुख जोर देने वाले विषय के बतौर स्वीकार किया जाना चाहिये और आत्मसात किया जाना चाहिये. सचमुच, जब अम्बेडकर कहते हैं कि जाति श्रम-विभाजन से नहीं बल्कि श्रमिकों के विभाजन से सम्बंधित है, तो वे वास्तव में जाति-विरोध के आधार पर मजदूरों की एक वर्ग के बतौर एकता के निर्माण का ही आह्नान करते हैं. जाति का विनाश भारत में वर्गीय ध्रुवीकरण को अंजाम देने के लिये सबसे महत्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी कदमों में से एक है. सचमुच, कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने अपनी भविष्य-दृष्टि से देखा था कि सर्वहारा, जो समाज का सबसे निचला तबका है, का उत्थान अपनी पीठ पर लदे समूचे सरकारी समाज को हवा में तितर-बितर कर उड़ा देगा. जातिगत ऊंच-नीच अनुक्रम और पुरुषसत्ता भारत में सरकारी समाज के प्रमुख स्तम्भ हैं और सर्वहारा केवल तभी सिर उठा सकता है जब वह इस सरकारी समाज की समूची इमारत को निर्णायक चोट देकर गिरा दे.

कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने मजदूर वर्ग को लोकतंत्र की लड़ाई को जीतने और स्वयं को एक राष्ट्र के बतौर घोषित करने का कार्यभार सौंपा था. किसी वर्ग-विभाजित समाज में मजदूर वर्ग के नेतृत्वकारी या शासक वर्ग के रूप में उभरने का यही प्रमुख महत्व है. आज भारत में हमारे सामने न सिर्फ पूंजी का आम किस्म का वर्गीय शासन चल रहा है, बल्कि हम जिस चीज का मुकाबला कर रहे हैं वह किसी फासिस्ट शासन से कम नहीं, जो सबसे निर्लज्ज किस्म के क्रोनी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की ताबेदारी को आक्रामक बहुसंख्यकवाद तथा जातिगत एवं लैंगिक हिंसा व उत्पीड़न के साथ मिलाकर सत्तारूढ़ है. भारत के संविधान में रोज-ब-रोज तोड़फोड़ की जा रही है और उसे ताक पर रख दिया गया है. राजसत्ता एवं शासक पार्टी के खुले संरक्षण तथा संरक्षकत्व में भीड़-हत्या गिरोह शासन चला रहे हैं और हर पूंजीवादी गणराज्य की बुनियादी आधारशिला कहे जाने वाले कानून के राज की जगह यही रोजमर्रे की बात बन गई है. भारत के इतिहास में सर्वाधिक प्रतिगामी विचार और प्रवृत्तियां, जिनका स्थान उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के दौरान मुख्यतः हाशिये पर ही रहता था, अब संसदीय तख्तापलट के जरिये सत्ता में आ गई हैं और चुनावी जीत को राजसत्ता को अपने अनुरूप ढालने तथा सर्वाधिक प्रतिगामी आधार पर समाज को कतारबद्ध करने के लाइसेन्स के बतौर इस्तेमाल कर रही हैं.भारतीय जनता की व्यापकतम एकता कायम करके और सबसे साहसिक प्रतिरोध खड़ा करने के जरिये इस फासीवादी साजिश को शिकस्त देने के लिये मार्क्स की सामग्रिक समझदारी रखना आज बहुत जरूरी हो गया है.

(लिबरेशन, अगस्त 2018 का सम्पादकीय)

दीपंकर भट्टाचार्य

दार्शनिकों ने अब तक केवल विश्व की विभिन्न तरीकों से व्याख्या की है, मगर मसला यह है कि इसे कैसे बदलना है. कार्ल मार्क्स (5 मई 1818 - 14 मार्च 1883) अपने जीवन के काफी शुरूआती दिनों में, जब वे केवल 27 साल के थे, इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे. अपने जीवन की आखिरी सांस तक वे अनवरत इसी लक्ष्य की प्राप्ति के काम में लगे रहे और इस दौरान उन्होंने उस दुनिया को, जिसमें हम रह रहे हैं, समझने और बदलने के मकसद से किये जाने वाले मानवीय प्रयास की सबसे समृद्ध और सबसे प्रेरणादायक विरासत का सृजन किया. कम्युनिस्ट घोषणापत्र, जिसकी रचना उन्होंने महज 30 वर्ष की उम्र में अपने आजीवन सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर 1848 में की थी, से लेकर अपने सुप्रसिद्ध महाग्रंथ दास कैपिटल (पूंजी) तक, जिसका पूर्ण रूप से प्रकाशन केवल उनकी मृत्यु के बाद ही हो सका था, मार्क्स की सभी रचनाओं में ‘जो कुछ भी विद्यमान है उसकी निर्मम आलोचना’ – जैसा उन्होंने कहा था, ‘उसका परिणाम क्या होगा ... और इसके लिये सत्ताधीशों से कैसा टकराव मोल लेना पड़ेगा! इन दोनों बातों से नहीं डरने के मायनों में’ – ‘निर्मम’ आलोचना के अपने भाव पर वह सदा अविचल बने रहे .

निर्मम आलोचना के इस भाव और दुनिया को बदलने के अदम्य संकल्प ने मार्क्स को तत्कालीन दुनिया की अधिकांश सरकारों से टकराव में खड़ा कर दिया था. यूरोप के कई देशों द्वारा उनको देशनिकाला दिये जाने के बाद उन्होंने अंततः लन्दन को अपना घर बनाया. उन दिनों लंदन दुनिया के सबसे ज्यादा विकसित पूंजीवादी देश और दुनिया की सबसे बड़ी उपनिवेशवादी ताकत की राजधानी भी था. लंदन में बैठकर मार्क्स ने न सिर्फ खुद को अध्ययन, शोध और लेखन में डुबो दिया, बल्कि उतनी ही तन्मयता से वे दुनिया भर में मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलनों को बढ़ावा देने और उनके बीच अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता विकसित करने के काम में भी जुट गये. उन्होंने मजदूर वर्ग के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय संगठन (इंटरनेशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन) का गठन करने और उन शुरूआती वर्षों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग के आंदोलन में सक्रिय कई वैचारिक धाराओं के एक मंच के रूप में इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन को विकसित करने में भी केन्द्रीय भूमिका निभाई. भारत में 1857 के उपनिवेशवाद-विरोधी विद्रोह से लेकर 1871 में हुए पेरिस कम्यून तक, उन्होंने दुनिया के हर हिस्से में स्वतंत्रता और समाजवाद के उफान को बारीकी से देखा, उसका विश्लेषण किया तथा उसको प्रोत्साहित किया.

समाज का अध्ययन करने के दौरान मार्क्स ने वर्गों को केन्द्रीय कर्ता की भूमिका में रखा और वर्गों के बीच के संघर्षों को सामाजिक विकास की मुख्य चालक शक्ति के बतौर माना. किसी समाज में जो वर्ग शासक की हैसियत रखते हैं, वे केवल संसाधनों और भौतिक उत्पादन पर अपने नियंत्रण के कारण ही यह हैसियत नहीं हासिल करते, बल्कि वे राज्य और उसके कानूनों एवं दमनकारी मशीनरी पर भी नियंत्रण रखने तथा मानसिक उत्पादन अथवा विचारों के उत्पादन और नियमन के जगत पर भी नियंत्रण रखने के चलते इस हैसियत में होते हैं. हर युग में शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, यानी, जो वर्ग समाज में शासक भौतिक शक्ति होता है वही वर्ग उस समाज की शासक बौद्धिक शक्ति भी होता है. मार्क्स 1845 में ही अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक जर्मन विचारधारा में इस बात को लिख चुके थे. इस प्रकार, वर्ग संघर्ष का मार्क्सवादी खाका हर कोण से शासक वर्ग के प्रभुत्व को चुनौती देता है, आर्थिक एवं राजनीतिक कोणों से और साथ ही सामाजिक, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक कोणों से भी.

पूंजीवाद के दौर में शासक विचार वह विचार है जो पूंजी को एक चिरन्तन, शाश्वत और प्राकृतिक, जादुई एवं अपराजेय बताकर उसको रहस्य के पर्दे में ढक देता है, जिससे वह बुर्जुआ यानी पूंजीपति वर्ग को सबसे सभ्य वर्ग तथा बुर्जुआ शासन को सर्वोत्कृष्ट और सबसे लोकतांत्रिक बताकर उसका गौरवगान करता है. अपनी तमाम रचनाओं में मार्क्स ने इस मुखौटे को तार-तार करके रख दिया है. उन्होंने हर उस अंतर्विरोध का विश्लेषण किया जो बुर्जुआ शासन के प्राकृतिक, स्थायी और सर्वोच्च होने के दावे को चुनौती देता है और इस प्रकार उन्होंने पूंजी की गति के अब तक अज्ञात ऐसे नियमों को खोज निकाला, जिनके अनुसार पूंजी अनिवार्यतः समय-समय पर आने वाले संकटों को जन्म देती है, और इसमें उन्होंने हर उस पाखंड को उधेड़ कर रख दिया जो गुलामी को आजादी बताता है, युद्ध को शांति बताता है, लूट-खसोट को समृद्धि और विनाश को विकास बताता है. मौजूदा सामाजिक शक्तियों की इस वास्तविक गति और विचारों के इस अनवरत जारी युद्ध के जरिये किसी अमूर्त सिद्धांत और काल्पनिक सपने के आधार पर नहीं. मार्क्स ने समाजवाद और कम्युनिज्म की ओर, सम्पूर्ण मानव मुक्ति की ओर मानवता के मार्च की दृष्टि विकसित की.

उनके जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के बाद से, मार्क्स को बारम्बार अप्रासंगिक और पुराना या अनुपयोगी घोषित किया गया है. लेकिन हर बार वे वापस आ जाते हैं, जब सिलसिलेवार ढंग से आने वाली हर पीढ़ी उनकी रचनाओं में कोई नई रोशनी खोज लेती है, जिनसे उन्हें उस दौर की समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने की कोशिश में मदद मिलती है. अपनी जीत के उन्माद में मस्त बुर्जुआ वर्ग, जिन्होंने सोचा था कि सोवियत संघ के पतन के बाद उन्होंने अंतिम रूप से मार्क्स के विचारों को कब्र तक पहुंचाने में सफलता हासिल कर ली है, उनके लिये इतिहास एक निष्ठुर शिक्षक साबित हुआ है. जैसे ही उन्होंने इतिहास के अंत की घोषणा की, ठीक उसी समय तत्कालीन वैश्विक पूंजीवाद को एक भारी झटका लगा. 1930 की महामंदी के बाद से अब तक के सबसे दीर्घकालीन और सबसे गहरे संकट से त्रस्त बुर्जुआ विचारक भी अव्यवस्था और उथल-पुथल की वर्तमान स्थिति का कोई मायने-मतलब ढूंढ पाने की कोशिश में आज एक बार फिर मार्क्स की ओर वापसी कर रहे हैं.

जहां भारत में विभिन्न वैचारिक धाराओं के सभी प्रगतिशील और विचारवान लोगों की बहुसंख्या के बीच मार्क्स व्यापक रूप से जाने जाते हैं, उनका सम्मान किया जाता है और उनको पढ़ा जाता है, वहीं मार्क्स को ही सबसे ज्यादा गलत भी समझा जाता है और गलत मायनों में प्रस्तुत भी किया जाता है. उपनिवेशवाद के पैरवीकार और उसके विरोधी, दोनों तर्क देते हैं कि मार्क्स ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद को अवरुद्ध एवं पिछड़ेपन से ग्रस्त भारत में इतिहास का प्रगतिशील हस्तक्षेप माना था. भारत के बारे में मार्क्स के विचारों का गलत अर्थ निकालने और उन्हें गलत मायनों में पेश करने का इससे बड़ा नमूना संभवतः दूसरा नहीं मिलेगा. मार्क्स इसके बारे में बिल्कुल स्पष्ट थे कि पूंजी का परिचालन केवल पूंजीवादी देशों के प्रतीयमान रूप से विधि-विधान से नियमबद्ध वातावरण में ही नहीं होता बल्कि वे औपनिवेशिक लूट-खसोट के यथार्थ के बारे में और समूची दुनिया से हिंसात्मक तरीके से पूंजी के संचय के बारे में भी पूरी तरह से वाकिफ थे, जिसने वास्तव में पूंजीवाद के उभरने की स्थितियों का सृजन किया था. वे बारीकी से जानते थे कि अगर मुद्रा सहजात रूप से अपने एक गाल पर खून का धब्बा लेकर दुनिया में आती है, तो पूंजी सिर से पैर तक खून से सराबोर होकर दुनिया में आती है, जिसके रोम-रोम से खून और गंदगी टपकती रहती है. (पूंजी, खंड 1, अध्याय 31: औद्यागिक पूंजीपति का जन्म-वृत्तांत)

भारत के विशिष्ट संदर्भ में, मार्क्स ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की बर्बरता, उसकी लूट-खसोट और यातना के मर्मभेदी और जबर्दस्त आलोचक थे, जो स्पष्ट रूप से स्वीकार करते थे कि ब्रिटेन द्वारा हिंदुस्तान पर जो दुर्गति थोपी गई है, वह उन तमाम दुर्दशाओं से, जिन्हें हिंदुस्तान को पहले भोगना पड़ा है, मूल रूप से पूर्णतः भिन्न और अत्यधिक तीखी किस्म की है... अगर हम अपनी नजरों को बुर्जुआ सभ्यता के अपने घर, जहां वह सम्मानजनक चोला ओढ़ लेती है, से उपनिवेशों की ओर घुमा लें, तो बुर्जुआ सभ्यता का अथाह पाखंड और उसकी सहजात बर्बरता नग्न रूप से हमारी आंखों के सामने आ जाती है. मार्क्स ने ये पंक्तियां न्यूयार्क हेराल्ड ट्रिब्यून अखबार के लिये जून 1853 में भेजे गये अपने लेख ‘भारत में अंग्रेज़ी राज्य’ में लिखी थीं. उसी समय, मार्क्स के लिये भारत के ग्राम समुदाय शांति और समृद्धि के रमणीय द्वीप नहीं थे, इसके बजाय वे जाति और गुलामी के भेदभाव से प्रदूषित समुदाय थे और जातियां भारतीय प्रगति और भारतीय शक्ति के सामने निर्णायक अवरोध के रूप में मौजूद थीं.

मार्क्स इसके बारे में पूर्णतः स्पष्ट थे कि अंग्रेज पूंजीपति वर्ग चाहे कुछ भी करने पर मजबूर हो जाये, मगर उससे व्यापक जनसमुदाय को न तो मुक्ति हासिल होगी और न ही उनकी किसी सामाजिक स्थिति में भौतिक रूप से सुधार होगा. उन्होंने यह बात 1853 में ही लिख दी थी, जब ब्रिटिश शासक भारत में एक क्रांतिकारी विकास के बतौर रेलवे के निर्माण के श्रेय का दावा कर रहे थे. उसी लेख में, जिसका शीर्षक ‘भारत में अंग्रेजी राज के भावी परिणाम’ था, मार्क्स ने यह तर्क पेश किया कि ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग द्वारा समाज में जो नये तत्व बिखेरे गये हैं, भारतीय जनता उनकी फसल तब तक नहीं काट सकेगी जब तक कि खुद ग्रेट ब्रिटेन में वर्तमान शासक वर्गों को हटाकर उनकी जगह औद्योगिक सर्वहारा न आ जाय, या फिर जब तक खुद भारतीय इतने शक्तिशाली न हो जायें कि वे अंग्रेजी जुए को पूरी तरह अपनी गर्दन से उतार न फेंकें. इस प्रकार, मार्क्स ने जुलाई 1853 में ही पूर्ण भारतीय स्वाधीनता का सवाल पेश कर दिया है, जो कि भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम छेड़ने के लिये भारतीयों के एक हिस्से द्वारा विद्रोह में उठ खड़ा होने से चार साल पहले की बात है.

अक्सर यह सुना जाता है कि मार्क्स ने धर्म को ‘जनता के लिये अफीम’ कहकर नीची नजरों से देखा था और तमाम धर्मों पर प्रतिबंध लगाने का आह्नान किया था. इसे अगर हम धर्म के बारे में मार्क्स के विचारों की शरारत भरी गलतबयानी न भी कहें, तो भी यह एक चुनिन्दा किस्म का सरलीकरण तो जरूर है. ‘जनता के लिये अफीम’ का मुहावरा एक पैराग्राफ के अंत में आता है, जिसमें कहा गया है, धार्मिक पीड़ा एक ही साथ वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति भी है और वास्तविक पीड़ा के खिलाफ प्रतिवाद भी है. धर्म उत्पीड़ित मनुष्य की आह है, हृदयहीन विश्व का हृदय है और निष्प्राण स्थितियों की आत्मा है. यह जनता के लिये अफीम है. इसीलिये मार्क्सवाद ने हमेशा हृदयहीन विश्व को तथा इसकी निष्प्राण स्थितियों को बदलने पर अपने कार्यभार को केन्द्रित किया है और धर्म को व्यक्ति का निजी विषय मानने तथा उसे राज्य एवं राज्य द्वारा किये जाने वाले सार्वजनिक कार्यों से सख्ती से अलग रखने पर जोर दिया है.

आज जब हम मार्क्स के जन्म की द्विशतवार्षिकी मना रहे हैं, तो भारत में हम सबसे धर्मान्ध और दकियानूसी शासकों की जमात का शासन झेल रहे हैं, जो वैचारिक बहसों का जवाब घृणा-प्रचार, झूठ और हिंसा से देने की कोशिश कर रहे हैं. हाल ही में त्रिपुरा में मिली आश्चर्यजनक जीत के नशे में उन्मत्त इन अहंकारी लोगों ने लेनिन की मूर्ति को यह कहते हुए गिरा दिया कि वह एक विदेशी प्रतिमा है, जिसका भारत से कोई सम्बन्ध नहीं है. यही बात वे मार्क्स के बारे में भी कहेंगे. ये ऐसे लोग हैं जो विदेशी कम्पनियों को न्यौता देते हैं कि वे भारत आएं और भारतीय संसाधनों की लूट-खसोट करें, जो ट्रम्प को दुनिया का सर्वोच्च शासक मानकर उसके सामने घुटने टेक देते हैं और अगर हम इतिहास में वापस जायें तो हमें मिलेगा कि उनके वैचारिक पूर्वज ब्रिटिश उपनिवेशवादी मालिकों के साथ हमेशा सांठ-गांठ के बंधन में बंधे रहे.

और ताकि हम इस मूर्खतापूर्ण भेदाभेद के बहकावे में न आयें कि कोई विचार या हस्ती भारतीय मूल का है या विदेशी मूल का, हमें हमेशा यह भी याद रखना चाहिये कि आर.एस.एस ने हमेशा विदेशी प्रतीक-पुरुषों को ही अपना आदर्श बनाया है. घटनाक्रम से वे जिस प्रतीक-पुरुष की पूजा करते हैं, वह एक अन्य जर्मन व्यक्ति ही था, जिसका नाम था एडोल्फ हिटलर और ये लोग, जो मार्क्स तथा लेनिन का विरोध करते हैं, वे ही अम्बेडकर और पेरियार का भी विरोध करते हैं. स्पष्ट है कि वह केवल विचार के मूल उत्पत्ति-स्थान का मामला नहीं है, बल्कि खुद वह विचार है जो विरोध का असली मुद्दा है. वे सभी लोग जो समानता और न्याय, स्वतंत्रता और भाईचारे के पक्षधर हैं और उसके लिये लड़ते हैं, उन्हें हमेशा मार्क्स से प्रेरणा मिलती रहेगी, जबकि समानता के दुश्मन हमेशा इस क्रांतिकारी महापुरुष से प्रचंड भयभीत रहेंगे. मार्क्स के विचारों और उनकी विरासत को और अधिक शक्ति हासिल हो!

(लिबरेशन, मई 2018 का सम्पादकीय)

कार्ल मार्क्स की समाधि पर भाषण

फ़्रेडरिक एंगेल्स
हाइगेट क़ब्रिस्तान, लन्दन
17 मार्च, 1883

14 मार्च को तीसरे पहर, पौने तीन बजे, संसार के सबसे महान् विचारक की चिन्तन-क्रिया बन्द हो गयी. उन्हें मुश्किल से दो मिनट के लिए अकेला छोड़ा गया होगा, लेकिन जब हम लोग लौट कर आये, हमने देखा कि वह आरामकुर्सी पर शान्ति से सो गये हैं, परन्तु सदा के लिए.

इस मनुष्य की मृत्यु से यूरोप और अमेरिका के जुझारू सर्वहारा वर्ग की, और ऐतिहासिक विज्ञान की अपार क्षति हुई है. इस ओजस्वी आत्मा के महाप्रयाण से जो अभाव पैदा हो गया है, लोग शीघ्र ही उसका अनुभव करेंगे.

जैसे कि जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव-इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का पता लगाया था. उन्होंने उस सीधी-सादी सच्‍चाई से जनता को परिचित कराया, जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढकी हुई थी – कि राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म आदि में लगने के पूर्व मनुष्य-जाति को खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए. इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलतः किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की मात्रा ही वह आधार है, जिस पर राजकीय संस्थाएँ, कानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि धर्म सम्बन्धी धारणाएँ भी विकसित होती हैं. इसलिए उसके प्रकाश में इन सब की व्याख्या की जा सकती है, न कि इसके विपरीत, जैसा कि अब तक होता रहा है.

इतना ही नहीं, मार्क्स ने गति के उस विशेष नियम का भी पता लगाया, जिससे उत्पादन की वर्तमान पूँजीवादी प्रणाली और इस प्रणाली से उत्पन्न पूँजीवादी समाज, दोनों ही नियंत्रित हैं. अतिरिक्त मूल्य के आविष्कार से एकबारगी उस समस्या पर प्रकाश पड़ा, जिसे हल करने की कोशिश में किया गया अब तक का सारा अन्वेषण, चाहे वह पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों ने किया हो या समाजवादी आलोचकों ने, अन्ध-अन्वेषण ही था.

ऐसे दो आविष्कार एक जीवन के लिए काफ़ी हैं. वह मनुष्य भाग्यशाली है, जिसे इस तरह का एक भी आविष्कार करने का सौभाग्य प्राप्त होता है. परन्तु जिन क्षेत्रों में भी मार्क्स ने खोज की, उनमें से एक में भी वह सतही छान-बीन करके नहीं रह गये. यहाँ तक कि गणित में भी उन्होंने स्वतंत्र खोजें कीं.

ऐसे वैज्ञानिक थे वह. परन्तु उनका यह वैज्ञानिक रूप उनके समग्र व्यक्तित्व का अर्द्धांश भी न था. मार्क्स के लिए विज्ञान एक ऐतिहासिक रूप से गतिशील, क्रान्तिकारी शक्ति था. वैज्ञानिक सिद्धान्तों में किसी नयी खोज से, जिसके व्यावहारिक प्रयोग का अनुमान लगाना अभी सर्वथा असंभव हो, उन्हें कितनी भी प्रसन्नता क्यों न हो, जब उस खोज से उद्योग-धन्धों और सामान्यतः ऐतिहासिक विकास में कोई तात्कालिक क्रान्तिकारी परिवर्तन होते दिखाई देते थे, तब उन्हें बिल्कुल ही दूसरे ढंग की प्रसन्नता का अनुभव होता था. उदाहरण के लिए बिजली के क्षेत्र में हुए आविष्कारों के विकास-क्रम का और मरसैल देप्रे के हाल के आविष्कारों का मार्क्स बड़े ग़ौर से अध्ययन कर रहे थे.

मार्क्स सर्वोपरि क्रान्तिकारी थे. जीवन में उनका असली उद्देश्य किसी न किसी तरह पूँजीवादी समाज और उससे पैदा होने वाली राजकीय संस्थाओं के ध्वंस में योगदान करना था, आधुनिक सर्वहारा वर्ग को आज़ाद करने में योग देना था, जिसे सबसे पहले उन्होंने ही अपनी स्थिति और आवश्यकताओं के प्रति सचेत किया और बताया कि किन परिस्थितियों में उसका उद्धार हो सकता है. संघर्ष करना उनका सहज गुण था. और उन्होंने ऐसे जोश, लगन और सफलता के साथ संघर्ष किया जिसका मुक़ाबला नहीं है. प्रथम Rheinische Zeitung[1] (1842) में, पेरिस Vorwärts![2] (1844) में, Deutsche-Brüsseler- Zeitung (1847) में, Neue Rheinische Zeitung[3] (1848-1849) में, New-York Daily Tribune[4] (1852-1861) में उनका कार्य , अनेक उत्साहपूर्ण पुस्तिकाओं की रचना, पेरिस, ब्रुसेल्स और लन्दन के संगठनों में कार्य और अन्ततः उनकी चरम उपलब्धि – महान अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ[5] की स्थापना – यह इतनी बड़ी उपलब्धि थी कि इस संगठन का संस्थापक, चाहे उसने कुछ और न किया हो, उस पर उचित ही गर्व कर सकता था.

मार्क्स अपने युग के सबसे अधिक विद्विष्ट तथा लांछित व्यक्ति थे. निरंकुशतावादी और जनतंत्रवादी, दोनों ही तरह की सरकारों ने उन्हें अपने राज्यों से निकाला. पूँजीपति, चाहे वे रूढ़िवादी हों या चाहे घोर जनवादी, मार्क्स को बदनाम करने में एक दूसरे से होड़ करते थे. मार्क्स इस सब को यूँ झटककर अलग कर देते थे जैसे वह मकड़ी का जाला हो, उसकी ओर ध्यान नहीं देते थे, आवश्यकता से बाध्य होकर ही उत्तर देते थे और अब वह इस संसार में नहीं हैं. साइबेरिया की खानों से लेकर कैलिफ़ोर्निया तक, यूरोप और अमेरिका के सभी भागों में उनके लाखों क्रान्तिकारी मज़दूर साथी जो उन्हें प्यार करते थे, उनके प्रति श्रद्धा रखते थे, आज उनके निधन पर आँसू बहा रहे हैं. मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि चाहे उनके विरोधी बहुत से रहे हों, परन्तु उनका व्यक्तिगत शत्रु शायद ही कोई रहा हो.

उनका नाम युगों-युगों तक अमर रहेगा,उसी प्रकार उनका काम भी अमर रहेगा !

( एंगेल्स द्वारा हाइगेट क़ब्रिस्तान, लन्दन, में
17 मार्च, 1883 को अँग्रेजी में दिया गया भाषण. )

पाद लेख :

1. Rheinische Zeitung : एक दैनिक समाचारपत्र, जो कोलोन से 1 जनवरी, 1842 से 31 मार्च 1843 तक निकलता रहा. अप्रैल 1842 के बाद से मार्क्स ने इस पत्र के लिए लेख लिखे और उसी वर्ष अक्टूबर में उसके एक सम्पादक बन गये.

2. Vorwärts! : एक जर्मन अर्द्ध-साप्ताहिक समाचारपत्र जो जनवरी 1844 से दिसंबर 1844 तक निकलता रहा और जिसके लिए मार्क्स और एंगेल्स लिखा करते थे.

3. Neue Rheinische Zeitung : एक दैनिक समाचारपत्र जो कोलोन से 1 जून 1848 से 19 मई 1849 तक निकलता रहा. मार्क्स इसके प्रधान संपादक थे और एंगेल्स संपादक-मंडल के सदस्य.

4. New-York Daily Tribune : प्रगतिशील पूँजीवादी समाचारपत्र जो 1841 से 1924 तक निकलता रहा, और जिसके लिए मार्क्स और एंगेल्स अगस्त 1851 से मार्च 1862 तक लेख लिखे थे.

5. अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ (पहला इंटरनेशनल) : सर्वहारा वर्ग का पहला अन्तर्राष्ट्रीय संगठन (1864-1876), जिसका निर्देशन मार्क्स और एंगेल्स करते थे. इसने प्रमुख पूँजीवादी देशों के आगे बढ़े हुए मज़दूरों के बीच वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों का प्रचार किया और पूँजी पर क्रान्तिकारी प्रहार की तैयारी के लिए मज़दूरों के एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की बुनियाद रखी.

 

karl-marx-200महान क्रांतिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स की 200वीं जन्मशती के वर्ष में मार्क्स की परम्परा पर प्रकाश डालने वाले कुछ लेखों का संकलन हम इस पुस्तिका में प्रस्तुत कर रहे हैं.

इसकी शुरूआत हमने कार्ल मार्क्स को दफनाने के समय उनकी कब्र पर उनके अभिन्न मित्र और साथी फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा दिये गये वक्तव्य से की है जिसमें उन्होंने अपने कामरेड की विरासत का बेहद भावुक लेकिन बिल्कुल सटीक चित्रण किया है.

भाकपा(माले) महासचिव कामरेड दीपंकर भट्टाचार्य के लेख मार्क्स द्विशताब्दी के अवसर पर देश के विभिन्न भागों दिये गये उनके वक्तव्यों पर आधारित है जिनमें समकालीन भारत में मार्क्स की प्रासंगिकता और फासीवादी राजनीति को शिकस्त देने की चुनौती पर चर्चा की गई है.

भाकपा(माले) के पोलित ब्यूरो सदस्य अरिन्दम सेन द्वारा 1983 में लिखी गई मार्क्स की जीवनी को भी हमने इस संग्रह में शामिल किया है.

अंत में कामरेड विनोद मिश्र का लेख है जो उन्होंने नवम्बर 1998 में समकालीन प्रकाशन, पटना द्वारा प्रकाशित कम्युनिस्ट घोषणापत्र के हिन्दी संस्करण की भूमिका के लिए लिखा था.

हमें उम्मीद है कि यह पुस्तिका मार्क्स को प्रथम बार पढ़ने व उनके बारे में ज्यादा जानने की उत्कंठा रखने वालों और साथ ही मार्क्सवादी सिद्धांत व राजनीतिक व्यवहार में लम्बे समय से सक्रिय, दोनों के लिए ही उपयोगी होगी और भारत में मार्क्स की जीवंत विरासत को उसकी लय एवं गति के साथ पाठकों से परिचित करायेगी.

– प्रकाशक

“सत्तारूढ़ वर्गों के विचार ही हर युग के
सत्तारूढ़ विचार होते हैं, यानी जो वर्ग समाज
की सत्तारूढ़ भौतिक शक्ति है, वही उस काल
की शासक बौद्धिक शक्ति भी है. जिस वर्ग का
भौतिक उत्पादन के साधनों पर कब्जा है, उसका
ही मानसिक उत्पादन के साधनों पर भी एक ही
समय में नियंत्रण होता है, जिससे आम तौर पर उन
लोगों के विचार, जिनके पास मानसिक उत्पादन
के साधन नहीं होते, उनके अधीन हो जाते है.
दरअसल सत्तारूढ़ विचार प्रभुत्वशाली भौतिक संबंध
की अभिव्यक्ति से अधिक कुछ नहीं हैं, और इन
प्रभुत्वशाली भौतिक संबंधों की अभिव्यक्ति को ही
आम विचार मान लिया जाता है .”

- कार्ल मार्क्स; जर्मन विचारधारा, 1845

 

लिबरेशन प्रकाशन

सितम्बर 2018

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