मोदी सरकार महामारी और लॉकडाउन के बीच सितम्बर 2020 में तीन नये कृषि कानून ले आई.
पूरे देश में किसान और आम नागरिक इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं. क्योंकि इनके माध्यम से किसानों और आम जनता को एक नये ‘‘कम्पनी राज’’ के हवाले कर दिया गया है. अन्तर सिर्फ इतना है कि पहले वाला कम्पनी राज अंग्रेजों का था, इन कानूनों के बाद जो कम्पनी राज बनेगा वह अडानी-अम्बानी-डब्लू.टी.ओ. (WTO) का होगा.
किसानों का कहना है कि ये कानूनः
भारत में कम्पनी राज थोपा जा रहा है. ऐसा कम्पनी राज कि अगर केन्द्र या राज्य सरकार का कोई अधिकारी किसानों के साथ नाइन्साफी या कोई गलत काम करता है तो उसके खिलाफ कोई भी नागरिक अदालत में नहीं जा सकता. ऐसा प्रावधान इन कानूनों में किया गया है. अगर कोई सरकारी अधिकारी भ्रष्ट है एवं वह किसानों व आम जनता के हितों के विरुद्ध किसी निजी कम्पनी को फायदा पहुंचाता है, तब भी आपके पास अदालत में न्याय मांगने के लिए जाने का हक नहीं होगा. उस अधिकारी को केवल इतना कहना होगा कि वह तो इस कृषि कानूनों को ‘पूरी नेकनीयती से’ लागू करने की कोशिश कर रहा था! दसअसल सरकार की मंशा कम्पनियों और सरकार के बीच मौजूद भ्रष्ट गठजोड़ को संरक्षण देने और आगे बढ़ाने की है.
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कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020 - जो एपीएमसी मण्डियों को समाप्त करने के उद्देश्य से बनाया गया है - अर्थात यह ‘एपीएमसी विनाश कानून’ है - की धारा 13 के अनुसार :
‘‘13- इस अधिनियम या उसके अधीन बनाए गए नियमों या किए गए आदेशों के अधीन सद्भावपूर्वक की गई या की जाने के लिए आशयित किसी बात के सम्बन्ध में कोई भी वाद, अभियोजन या अन्य विधिक कार्यवाही केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार या केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार के किसी अधिकारी या किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध नहीं होगी।’’
और कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020 जो कृषि को प्राइवेट कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में देने के लिए बनाया गया है, की धारा 19 में लिखा है किः
‘‘19- किसी सिविल न्यायालय को, किसी ऐसे विवाद के संबंध में, जिसका विनिश्चय करने के लिए उपखंड प्राधिकारी या अपील प्राधिकारी इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन सशक्त है, कोई भी वाद या कार्यवाहियां ग्रहण करने की अधिकारिता नहीं होगी और इस अधिनियम या तद्धीन बनाए गए नियमों द्वारा या उनके अधीन प्रदत्त किसी शक्ति के अनुसरण में की गई या की जाने वाली किसी कार्रवाई के संबंध में किसी न्यायालय या अन्य प्राधिकारी द्वारा कोई व्यादेश मंजूर नहीं किया जाएगा।’’
सीधे-सीधे कहें तो इन कानूनी प्रावधानों का असल मतलब है किसानों के हितों की अनदेखी कर कम्पनियों के स्वार्थ पूरा करने वाले भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारियों को इस बात का संरक्षण दिया जाना कि उनके खिलाफ किसी भी प्रकार की कानूनी कार्यवाही नहीं की जायेगी. जनता के हितों की रक्षा करने की बजाय इन कानूनों में किसानों, किसान संगठनों और आम नागरिकों पर रोक लगाई गयी है कि वे कम्पनियों के एजेण्ट बन कर काम करने वाले ऐसे सरकारी अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की मांग नहीं कर सकते.
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फूड कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया (एफ.सी.आई.) के राज्यवार अनाज खरीद के आंकड़े और नेशनल सेम्पल सर्वे के 2012-13 के आंकड़ों के अनुसार एक अलग ही तस्वीर सामने आती है. एफ.सी.आई. के अनुसार डिसेन्ट्रलाइज्ड प्रोक्योरमेण्ट स्कीम (DCP) के तहत वर्ष 2012-13 से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के बाहर के राज्यों से 25-35 प्रतिशत धान एवं गेहॅूं की खरीद की जा रही है.
एक अध्ययन के अनुसार ‘‘धान खरीद के मामले में छत्तीसगढ़ और ओडिशा सबसे आगे हैं. इन दो राज्यों से देश की कुल सरकारी धान खरीद का 10 प्रतिशत आता है. जबकि मध्यप्रदेश में डिसेन्ट्रलाइज्ड प्रोक्योरमेण्ट को बड़े पैमाने पर लागू किया गया है और गेहॅूं की कुल खरीद का लगभग 20 प्रतिशत वहीं से आता है. साल 2020-21 में मध्यप्रदेश गेहॅूं की सरकारी खरीद के मामले में पंजाब से आगे रहा. धान की सरकारी खरीद व्यवस्था (प्रोक्योरमेण्ट) में आने वाले खेतिहर परिवारों में 9% पंजाब से, 7% हरियाणा से, 11% ओडिशा से, और 33% छत्तीसगढ़ से आते हैं. जबकि गेहॅूं की सरकारी खरीद में 33% मध्यप्रदेश से आते हैं, वहीं पंजाब से 22% और हरियाणा से 18% खेतिहर परिवार हैं.
सच तो यह है कि सरकारी खरीद का लाभ उठाने वालों में छोटे और सीमांत किसानों की संख्या मंझोले और बड़े किसानों से कहीं बहुत ज्यादा है. अखिल भारतीय स्तर पर सरकार को धान बेचने वाले किसानों में मात्र 1% बड़े किसान हैं जिनके पास 10 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन है. 2 हेक्टेयर से कम जमीन वाले छोटे और सीमांत किसानों का प्रतिशत इनमें 70% है और बाकी के मंझोले किसान (2-10 हेक्टेयर वाले) 29% हैं.
गेहूं की सरकारी खरीद में बड़े किसान केवल 3% हैं, जबकि आधे से ज्यादा (56%) तो छोटे और सीमांत किसान ही हैं.
पंजाब और हरियाणा में भी छोटे व सीमांत किसानों की संख्या कम नहीं है. जहां क्रमशः 38% और 58% छोटे व सीमांत किसानों का धान सरकारी खरीद में जाता है. डिसेन्ट्रलाइज्ड प्रोक्योरमेण्ट स्कीम (DCP) को अपनाने वाले राज्यों में राज्य की सरकारी खरीद एजेन्सियों को फसल उत्पाद बेचने वालों की बहुसंख्या छोटे व सीमांत किसानों की है. उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में ऐसे किसानों में 70-80 प्रतिशत छोटे व सीमांत किसान हैं. इसी प्रकार मध्यप्रदेश में गेहॅूं बेचने वाले लगभग आधे (45%) किसान छोटे व सीमांत किसान हैं.
जैसा कि इन आंकड़ों से साफ हो जाता है कि एमएसपी, एपीएमसी मण्डियां और सरकारी खरीद की ठोस व्यवस्था न रहने से भारी संख्या में, और सभी राज्यों में, छोटे व सीमांत किसानों का भारी नुकसान होगा. फिर, कॉरपोरेटों के हक में कांन्ट्रेक्ट खेती की ओर जाने से भारत के ज्यादातर किसानों को भारी क्षति उठानी पड़ेगी. बड़े किसानों की अपेक्षा छोटे और सीमांत किसानों के लिए तो खुले बाजार में दैत्याकार कृषि कम्पनियों व कॉरपोरेटों से टक्कर लेना बहुत मुश्किल होगा.
इसीलिए हम देख रहे हैं कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, या बिहार के भी किसान आज दिल्ली के बॉर्डर पर आन्दोलन में शामिल होने के लिए आ रहे हैं. यह सरकार का सफेद झूठ है कि पंजाब से बाहर के किसान इन तीन किसान विरोधी कानूनों का समर्थन कर रहे हैं. पूरे भारत में इन कानूनों के खिलाफ सभी किसान एकजुट हैं.
कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के लिए जो कानून लाया गया है [ कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020 ] उसमें फसल की कीमतों को एमएसपी या सरकारी खरीद रेट से जोड़ने का प्रावधान नहीं बनाया गया है. इस कानून की धारा 5(ख) के अनुसार केवल ‘‘विनिर्दिष्ट एपीएमसी यार्ड या इलेक्ट्रॉनिक व्यापार और संव्यवहार प्लेटफार्म या किसी अन्य उपयुक्त बैंचमार्क कीमतों में विद्यमान कीमतों से’’ जोड़ने की बात कही गई है. अर्थात खुले बाजार में मौजूद कीमतों के अनुसार ही किसान की फसल का मूल्य तय होगा, और कौन नहीं जानता कि खुले बाजार पर नियंत्रण तो बड़े पूंजीशाहों का ही होता है! जबकि किसान तो वर्षों से स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुरूप सी2+50 फॉर्मूले पर फसल की लागत से डेढ़ गुना एमएसपी की मांग कर रहे थे.
मोदी सरकार लगातार साल-दर-साल कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद की कुल मात्रा एवं खरीद केन्द्रों की संख्या में कमी करती जा रही है और अनाज का भण्डारण व वितरण करने वाली संस्था एफ.सी.आई. (फूड कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया) के बजट में कटौती कर उसे घाटे में डाल रही है. इससे सरकार की मंशा स्पष्ट हो जाती है कि आगे जाकर देश के किसानों और उनकी खेती को निजी कम्पनियों और खुले बाजार के रहम पर छोड़ दिया जायेगा.
साफ है कि सरकार और प्रधानमंत्री एमएसपी और सरकारी खरीद चालू रहने का दावा कर खुलेआम देश को गुमराह कर रहे हैं.
यह सच नहीं है.
सरकार का दावा है कि नये कानूनों के कारण किसानों को एपीएमसी नियंत्रित बाजार के बाहर एमएसपी से ज्यादा मूल्य मिल सकता है. और अगर ऐसा नहीं होता तो किसान अपनी फसल एपीएमसी की मण्डी में बेचने के लिए स्वतंत्र हैं.
दावा गलत है. नीचे दिये गये बिन्दुओं को ध्यान से पढ़ियेः
संक्षेप में कहें तो कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020 दरअसल ‘एपीएमसी विनाश कानून’ है, जो अंततः मण्डी व्यवस्था को पूरी तरह खतम कर देगा और किसानों के पास कोई सुरक्षा तंत्र (सेफटी नेट) नहीं बचेगा. आज घोषित मूल्य पर सरकारी खरीद का प्रावधान है, इन कानूनों के बाद घोषित से कम मूल्य पर कम्पनियों को आपदा बिक्री करने के अलावा किसान के पास और कोई रास्ता नहीं बचेगा.
किसान चाहते हैं कि एपीएमसी मण्डियां उनके प्रति और ज्यादा जवाबदेह व बेहतर बनें, वे उन्हें खत्म तो बिल्कुल नहीं होने देना चाहते.
कृषि में व्यापारियों, दलालों, बिचौलियों आदि का असर खतम करने के उद्देश्य से 70 के दशक में देश में सार्वजनिक मण्डियां बनाने के लिए ‘एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) कानून’ बनाया गया था. लेकिन समय से साथ व सरकारी ढिलाई के चलते इनमें मुट्ठी भर आढ़तियों का प्रभुत्व बनता चला गया और कई जगह तो हालत ऐसे हो गये कि वित्त, व्यापार, प्रसंस्करण और परिवहन समेत कृषि व्यापार के सभी पहलुओं पर उनका प्रभुत्व बन गया. जाहिर है कि मण्डी व्यवस्था को सुधारने व बेहतर बनाने की जरूरत है ताकि किसानों के प्रति उनकी जवाबदेही बढ़े, न कि मण्डियों को ही समाप्त कर दिया जाये.
अगर छोटे व्यापारी, आढ़तिये या बिचौलियों में बनी बनाई व्यवस्था को बिगाड़ने की इतनी क्षमता है, तब जरा कल्पना करिये कि विशालकाय कम्पनियां इस क्षेत्र में आकर क्या-क्या नहीं करेंगी?
कॉरपोरेट खेती से बिचौलिए खत्म नहीं होंगे. बल्कि बड़ी कम्पनियों के आने का मतलब बड़े बिचौलिए आ गये! और इन बहुत बड़े बिचौलियों को किसानों तक पहुंचने के लिए छोटे बिचौलियों की भी जरूरत होगी. जोकि एपीएमसी मण्डियों के मौजूदा आढ़तियों से बेहतर और कौन हो सकता है.
एपीएमसी की मण्डी व्यवस्था में हजार खामियां हो सकती हैं - और किसान उन्हें ठीक करने की लगातार मांग भी करते रहे हैं. लेकिन नये कानूनों का मकसद कुछ और है. ये कानून एक ऐसी व्यवस्था को खत्म करने के लिए लाये गये हैं जिसमें किसानों को भी कुछ फायदा मिलता था, और मौजूदा व्यवस्था की जगह ऐसा तंत्र बनाया जा रहा है जिसमें केवल बड़ी कम्पनियों को फायदा होगा.
इन कानूनों में एक नहीं, पांच जगह बिचौलियों का प्रावधान बनाया गया है. पुराने वाले बिचौलिए कहीं नहीं जायेंगे बल्कि वे नये नामों से इन नयी जगहों को भरेंगेः
कुल मिला कर देखें तो ये कानून बिचौलियों से छुटकारा नहीं दिला रहे, बल्कि बिचौलियों के और बड़े जाल में किसानों को फंसा रहे हैं. ये नये बिचौलिए ज्यादा खतरनाक हैं. पुराने वाले आढ़तियों का किसानों के साथ कम से कम ऐसा संम्बध विकसित हो गया है कि मुसीबत में किसान उनसे मदद व बगैर लिखा-पढ़ी के तत्काल ब्याज मुक्त कर्ज आदि भी ले लेते हैं. अब यह भी नहीं रहेगा. ऐसे में आर्थिक संकट आने पर किसान के पास जमीन बेचने या खेती छोड़ने के अलावा और क्या बचेगा?
इस सन्दर्भ में किसान ठीक ही कह रहे हैं कि किसान और बाजार के बीच के काम करने वाले को ‘बिचौलिया’ नहीं बल्कि ‘सर्विस प्रोवायडर’ कहा जाना चाहिए. इन्हें हटाने की जरूरत नहीं है बल्कि पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी और किसान के प्रति जवाबदेह बनाने की जरूरत है ताकि कोई भी ताकत बाजार को अपने पक्ष में तोड़-मरोड़ न सके.
प्रधानमंत्री सफेद झूठ का कारोबार कर रहे हैं. यह बड़े शर्म की बात है. सच्चाई जानने के लिए नीचे की लाइनों पर गौर करेंः
तब प्रधानमंत्री क्यों जानबूझ कर झूठ फैला कर जनता को गुमराह कर रहे हैं? क्योंकि वे जानते हैं कि इन कृषि कानूनों के बचाव में बोलने के लिए सच से काम नहीं बनेगा, झूठ का सहारा ही एकमात्र रास्ता है.
बिहार में एपीएमसी कानून को 2006 में समाप्त कर दिया गया था.
नवउदारवादी टिप्पणीकार शेखर गुप्ता का मानना है कि एपीएमसी कानून समाप्त होने से बिहार में कृषि विकास दर इतनी ज्यादा बढ़ गई कि पंजाब भी पीछे रह गया. वैसे बिहार के लोग तो खुद ही जानते हैं कि 2006 के बाद से उन्होंने कृषि विकास कितना देख लिया है!
आइये कुछ ऐसे तथ्यों और आंकड़ों पर नजर डालें जिन्हें किसान विरोधी कानूनों के पक्ष में बोलने वाले आपको नहीं बतायेंगेः
बिहार का अनुभव मोदी सरकार और उसके समर्थकों द्वारा इन कानूनों के बचाव में फैलाये जा रहे झूठ की पोल खोल देता है.
बिहार में एपीएमसी कानून खत्म कर देने के बाद भी नये कृषि बाजार बनाने और पहले से मौजूद सुविधाओं को और सुदृढ़ करने की दिशा में निजी पूंजी निवेश हुआ ही नहीं, फलस्वरूप कृषि बाजार की सघनता 2006 के बाद घट गयी. ऊपर से बिहार में अनाज की सरकारी खरीद पहले भी कम थी, अब और घट गई. आज वहां के किसान पूरी तरह से व्यापारियों की दया पर निर्भर हैं जो मनमाने तरीके से अनाज खरीद का मूल्य काफी कम दर पर तय करते हैं. फसल के कम खरीद मूल्य के पीछे संस्थागत व्यवस्था का अभाव और अपर्याप्त बाजार सुविधायें एक बहुत बड़ा कारण है.
बिहार में अब धान एवं गेहूं की एमएसपी मूल्य पर खरीद की जिम्मेदारी पी.ए.सी.एस. (प्राइमरी एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव सोसाइटीज) की है, परन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसी खरीद बस नाममात्र की ही की जाती है. वहां के किसान बताते हैं कि फसल का उचित मूल्य न मिलना बिहार में कृषि विकास दर बढ़ाने की दिशा में बहुत बड़ी बाधा है .
एपीएमसी व्यवस्था समाप्त करने और उसकी जगह पी.ए.सी.एस. (प्राइमरी एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव सोसाइटीज) ले आने के 14 साल बाद बिहार में आज तक कृषि के आधारभूत ढांचा के विकास हेतु निजी क्षेत्र का पूंजी निवेश एक स्वप्न भर है. और फसल का उचित मूल्य हासिल कर पाना तो और भी दूर का सपना बन चुका है.
एन.सी.ए.ई.आर. की रिपोर्ट के अनुसार :
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के सुविख्यात प्रोफेसर सुखपाल सिंह ने 2015 में ही चेतावनी दी थी कि ‘‘बिहार जैसे राज्यों के लिए जहां छोटे एवं सीमांत किसानों की संख्या 90 प्रतिशत से ऊपर है, एपीएमसी मण्डियां बहुत महत्वपूर्ण हैं. चूंकि छोटे किसानों तक न तो बड़े खरीदार और न ही कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग वाली कम्पनियां पहुंचती है, ऐसी मण्डियां ही उनका एकमात्र सहारा हैं. ... कृषि बाजारों में सुधार के नाम पर पूरी मण्डी व्यवस्था को ही समाप्त करने की जरूरत नहीं है. संस्थाओं को खत्म करना बहुत आसान है, असली चुनौती उन्हें बनाने में है. कृषि क्षेत्र और किसान समुदाय को इसके गम्भीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे .’’
बिल्कुल नहीं. कम्पनियां उपभोक्ता सामग्रियों की जमाखोरी करेंगी और बाजार पर उनका एकाधिकार कायम हो जायेगा. वे शुरूआत में बाजार पर प्रभुत्व बनाने के लिए और एपीएमसी तथा एमएसपी व्यवस्था को नाकारा बना देने के लिए हो सकता है कि किसानों को उपज का अधिक मूल्य दें. एक बार जब एपीएमसी और एमएसपी व्यवस्था चरमरा कर खत्म हो जायेगी, तब उन कम्पनियों के लिए एमएसपी से ज्यादा दाम लगाने की कोई बाध्यता नहीं रहेगी, तब वे सस्ता खरीदेंगे और मंहगा बेचेंगे. इससे किसान और आम उपभोक्ता दोनों को ही नुकसान उठाना पड़ेगा.
कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के साथ समस्या यह है कि “किसानों की तुलना में सत्ता संतुलन धन्नासेठों के पक्ष में ही होता है. चाहे वह कॉन्ट्रेक्ट की शर्तें तय करने की बात हो, या उसे लागू करने का मामला हो. और तो और, बड़ी कम्पनियां कुछ खास फसलों में ही निवेश करती हैं जोकि शहरी और वैश्विक मांग के हिसाब से होगा. हमारे देश में पहले से ही कमजोर फसलों की विविधता को और भी क्षति पहुंचेगी” .
भारत के किसान बहुत पहले ही कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को आजमा चुके हैं और कटु अनुभवों के आधार पर उसे खारिज कर चुके हैं. नब्बे के दशक की शुरूआत में पंजाब में पेप्सी फूड्स द्वारा टमाटर, और मिर्च की खेती के साथ कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की शुरूआत हुई. उस दशक का अंत आते आते इस प्रयोग के पैरोकार और उसमें शामिल भारतीय किसान यूनियन, अकाली दल, पंजाब एग्रो इण्डस्ट्रीज कॉरपोरेशन और वोल्टास आदि का कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से पूरी तरह मोहभंग हो चुका था .
• 1997 तक पेप्सी कम्पनी किसानों से टमाटर और मिर्ची की फसल खरीदती थी, फिर उसने अपनी टमाटर की फैक्ट्री हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड को बेच दी और अब सिर्फ कुछ दर्जन किसानों के साथ ही काम करती है.
• नब्बे के दशक के अंत में पेप्सी ने आलू की कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग शुरू की. पर अब उसके द्वारा आलू की खरीद का मात्र 10% हिस्सा कॉन्ट्रेक्ट उत्पादकों से आता है.
ये हैं कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से पीड़ित किसानों के कुछ बयानः
दिल्ली बॉर्डर पर किसानों के संघर्ष में तरन तारन से आये 68 वर्षीय किसान सज्जन सिंह ने ‘न्यूजक्लिक’ के रिपोर्टर को बताया कि “मेरे जैसे छोटे किसानों के लिए कॉरपोरेटों के साथ कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग करना सम्भव नहीं है ... क्योंकि एक-दो साल तो कॉरपोरेट अच्छी कीमत देते हैं, उसके बाद बाजार पर कन्ट्रोल बना लेने के बाद वे कीमतें अपने हिसाब से तय करने लगते हैं.”
पंजाब के ही एक गांव से आये कंवलजीत सिंह ने ‘इण्डिया टूडे’ को बताया कि उन्होंने 6 साल तक कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की और लगातार समस्याओं से जूझते रहे. कभी बीज खराब मिलता था, तो कभी रखरखाव में समस्या रहती थी, लेकिन कम्पनी कभी भी जवाबदेही नहीं लेती थी. अगर नये कानून के हिसाब से गेहूं और धान की कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग भी शुरू हो गई तो किसानों की दिक्कतें और बढ़ जायेंगी क्योंकि वे कॉरपोरेटों के दबाव और शोषण के आगे टिक नहीं पायेंगे.
एपीएमसी विनाश कानून की धारा 6 में लिखा है कि ‘बाजार शुल्क/ टैक्स या लेवी नहीं ली जायेगी’ जबकि एपीएमसी एक्ट या राज्यों के अन्य कानूनों के हिसाब से यह लिया जाता है. लेकिन इस कानून की धारा 5(1) के अनुसार “इलैक्ट्रानिक व्यापारिक और संव्यवहार प्लेटफार्म स्थापित और प्रचालित करने वाला व्यक्ति, व्यापार की रीति, फीस ... जैसी उचित व्यापार पद्धतियों और ऐसे अन्य विषयों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत तैयार करेगा और उनका क्रियान्वयन करेगा”. इसका अर्थ हुआ कि मण्डी या बाजार की फीस तो जरूर होगी परन्तु उसका निर्धारण सरकार नहीं करेगी! इतना ही नहीं, किसानों के लिए तो बाजार शुल्क रहेगा, और कम्पनियों का तो टैक्स आमतौर पर माफ कर दिया जाता है.
कृषि -- व्यपार के लिए अडानी द्वारा मोदी राज में बनाई गई कम्पनियां
मोदी सरकार बनने के बाद से 2014 और 2018 के बीच मोदी के दोस्त पूंजीपति गौतम अडानी ने करीब 20 कृषि व्यापार कम्पनियां स्थापित कर ली हैं. उससे पहले अडानी के पास ऐसी मात्र 2 कम्पनियां ही थीं. साल 2019 में ही अडानी ने 9 नई कृषि व्यापार कम्पनियां खड़ी कर लीं.
कृषि बाजारों के डिरेगुलेशन से अडानी जैसों की कम्पनियों को फायदा पहुंचेगा इसमें किसी को कोई संदेह नहीं है.
यदि सरकार इन कानूनों को रहने दे और साथ में एमएसपी पर खरीद की गारंटी का कानूनी अधिकार भी दे दे, जैसा कि किसान पहले से ही मांग कर रहे थे, तब आप क्या कहेंगे?
यह मंजूर नहीं. क्योंकि जब तक नये कानूनों के माध्यम से आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की जमाखोरी होती रहेगी और एपीएमसी मण्डियों को कमजोर करने वाला कानून भी रहेगा, तब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानूनी अधिकार केवल कागजी जुमला ही बना रहेगा.
क्यों? यह आप श्रम कानूनों के उदाहरण से समझ सकते हैं जिनमें न्यूनतम मजदूरी कानूनी प्रावधान है लेकिन उसे लागू नहीं किया जाता. सरकार की प्राथमिकता निजीकरण करने और ठेका प्रथा मजबूत बनाने की है, इसलिए श्रम कानून मात्र कागजी कानून बन कर रह गये हैं. यही हाल न्यूनतम समर्थन मूल्य (डैच्) का होगा अगर एपीएमसी मण्डियां और सरकारी खरीद दोनों की व्यवस्था को मजबूत नहीं बनाया गया.
जब सरकार का हाथ सर पर है तो कम्पनियां एमएसपी गारंटी कानून बन जाने पर भी किसानों की बांह मरोड़ कर उन्हें कम कीमत पर अनाज बेचने को मजबूर कर ही देंगी. उदाहरण के लिए, कम्पनियां मनमाने क्वालिटी मानदण्ड बना कर किसान की फसल को खरीदने से मना कर सकती हैं. एक बार अफ्रीका में वालमार्ट ने ऐसा ही किया था. किसानों से सेव के बाग लगवा लिए, फिर उन बागों की जगह पर नई वैरायटी के सेव के पेड़ लगाने के लिए कह दिया क्योंकि सेवों के ट्रांसपोर्ट में कम्पनी द्वारा इस्तेमाल होने वाले ट्रकों का नाप बदल गया था. गुजरात में पेप्सिको के खिलाफ किसानों की शिकायतें अक्सर आती रहती हैं कि उनकी आलू की फसल को कम्पनी यह कह कर खारिज कर देती है कि उनके आलू 40-45 मि.मी. से छोटे आकार के हैं . अगर किसी किसान की फसल को खारिज कर दिया जाय तो वह हताशा में सस्ते दाम पर भी बिक्री के लिए राजी हो जायेगा.
इन तीन नये कानूनों के रहते यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी का एक चौथा कानून भी बना दिया जाय तो वह केवल एक बेअसर मीठी गोली की तरह होगा जो मूल बीमारी को दूर नहीं कर सकती. फसल की कुल लागत से डेढ़ गुना की दर से एमएसपी मिलने का कानूनी प्रावधान जरूरी है - लेकिन इन तीनों नये कानूनों को रद्द करके ही उसे हासिल किया जा सकेगा.
सरकार का दावा है कि देश की खाद्य सुरक्षा और गरीबों की राशन वितरण प्रणाली पर इन कानूनों का कोई असर नहीं पड़ेगा. क्या यह सच है?
एसेन्शियल कमोडिटीज अमेण्डमेण्ट एक्ट कम्पनियों को मनमाफिक मात्रा में खाद्यान्न एवं अन्य वस्तुओं की जमाखोरी करने की छूट देता है. इसका सीधा मतलब है कि खाद्य सामग्री की कीमतों, जमाखोरी की सीमा और काला बाजारी पर अब कोई कन्ट्रोल नहीं रहेगा. बाजार पूरी तरह से बड़े कॉरपोरेशनों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नियंत्रण में आ जायेगा. इसका यह भी मतलब है कि पीडीएस योजना से लाभ उठाने वालों को अब डाइरेक्ट कैश ट्रान्सफर योजना में ले आया जायेगा. खाद्य सुरक्षा में डाइरेक्ट कैश ट्रान्सफर का लगातार विरोध हो रहा है, फिर भी अब पीडीएस से लाभ उठाने वाले गरीबों को सीधे खुले बाजार से खाद्यान्न खरीदने को मजबूर किया जायेगा.
इस कानून में साफ साफ लिखा है कि यह पीडीएस और टारगेटेड पीडीएस योजनाओं में ‘फिलहाल लागू नहीं किया जायेगा’. यहां ‘फिलहाल’ शब्द का चयन खतरे की घंटी का काम करता है - इसमें इस बात का इशारा है कि राशन (पीडीएस) व्यवस्था भी ‘फिलहाल’ के लिए ही है.
देश के गरीब किसानों की फसल की उचित मूल्य पर खरीद की गारंटी और आम गरीबों को सस्ता राशन उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से 1964 में संसद में एक कानून पारित कर 1965 में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया (एफ.सी.आई.) की स्थापना की गई थी. यह सरकारी कॉरपोरेशन आज भी भारत की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने का सबसे बड़ा इंजन है. मोदी सरकार निजी पूंजीपतियों के हितों को साधने के लिए एफसीआई को बरबाद करने पर तुली हुई है. इन तीन कानूनों ने तो एफसीआई का डेथ वारण्ट ही लिख दिया है.
सरकार दावा कर रही है कि किसानों की जमीनों पर कॉरपोरेट कम्पनियों से कोई खतरा नहीं है. अतः किसानों को जरा भी डरने की जरूरत नहीं है.
जबकि आन्दोलनरत किसानों का कहना है कि नये कृषि कानूनों के कारण बड़ी कम्पनियां उनकी जमीनों पर भी कब्ज़ा कर लेंगी .
सरकार और शासक पार्टी भाजपा किसानों से सफेद झूठ बोल रहे हैं.
अगर फसल बरबाद होने के कारण किसान कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में कम्पनी की तय शर्तों को पूरा नहीं कर पाया तब क्या होगा?
कहने को तो कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग कानून की धारा 15 में लिख दिया गया है कि ‘किसान की कृषि भूमि से’ बकाया की कोई वसूली नहीं होगी. लेकिन इसी कानून की धारा 9 क्या कहती है? धारा 9 में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग एग्रीमेण्ट को बीमा की रकम या कर्ज से जोड़ दिया गया है. इसका सीधा मतलब हुआ कि किसान की जमीन को गिरवी रख कर किसी वित्तीय सेवा प्रदाता से कर्जा लिया जा सकता है और कर्ज न चुका पाने की स्थिति में हो सकता है कि जमीन की जब्ती हो या बेचनी पड़े.
कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग एग्रीमेण्ट में कम्पनी से बीज व अन्य लागत सामग्री खरीदनी पड़ती है, इसके लिए किसान कर्ज लेता है. फसल बर्बाद होने पर भी कम्पनी को लागत सामग्री का पेमेण्ट करना ही पड़ेगा जिसके लिए किसान के पास जमीन गिरवी रखने के अलावा और क्या रास्ता होगा? यह भी हो सकता है कि कम्पनी किसान की फसल को कम गुणवत्ता का बता कर नहीं खरीदे, फिर भी लागत सामग्री का पेमेण्ट करना ही होगा. घाटा होने की हालत में किसान के पास जमीन बेचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा. तब पूरी सम्भावना है कि कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग वाली कम्पनी ही जमीन खरीदने के लिए सबसे पहले आगे आये.
फसल बीमा की व्यवस्था पहले से ही बड़ी कम्पनियों के हाथ में दे दी गई है और किसानों को फसल नष्ट होने की स्थिति में समुचित मुआवजा नहीं मिल पाता है. इसके पीछे कारण यह है कि भारत में फसल बीमा की पूरी प्रणाली डब्लू.टी.ओ. के “एग्रीमेण्ट ऑन एग्रीकल्चर” (AoA) के हिसाब से बनायी जा चुकी है जिसमें बीमा क्षेत्र के बड़े कॉरपोरेट किसानों के हितों से खिलवाड़ कर अकूत मुनाफा कमा रहे हैं.
भारत में विशाल आबादी की आजीविका कृषि पर निर्भर है फिर भी 2011-12 और 2017-18 के बीच कृषि क्षेत्र में सरकार का निवेश कुल जीडीपी का 0.3% से 0.4% के बीच रहा है. इसकी तुलना में बड़े-बड़े धन्नासेठों की कॉरपोरेट कम्पनियों के लिए इसी दौरान टैक्स छूट व अन्य छूटें देने में जीडीपी का 6% खर्च हुआ. इसके अलावा उन्हें कर्ज माफी, सस्ते में जमीनें, पानी व अन्य प्राकृतिक संसाधन आदि अलग से दिये गये हैं. देश के टैक्स-पेयर्स को मांग करनी चाहिए कि उनके द्वारा चुकाये गये टैक्सों की रकम का इस्तेमाल किसानों के लाभ के लिए किया जाय, बड़ी कम्पनियों को देने के लिए नहीं.
खेती में किसानों का मुनाफा बहुत कम होता है. 2012-13 में भारत में एक किसान परिवार की औसत आमदनी रु. 6,427 प्रति माह थी. ऐसे में उन्हें अडानी और अम्बानी जैसे पूंजीपतियों - जिन्हें सरकार ने एकाधिकार जमाने वाली नीतियां और सरकारी संरक्षण भेंट में दे रखा है - के साथ खुले बाजार की प्रतिद्वंदिता में उतरने के लिए कहा जा रहा है!
अडानी और अम्बानी इलेक्टोरल बॉण्ड के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी को छुप कर पैसा देते हैं. बदले में भाजपा की सरकार किसानों की आजीविका और गरीबों की खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगा कर इनकी कम्पनियों का मुनाफा बढ़ाने वाली नीतियां बना रही है.
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जब किसान विरोधी कानूनों का विरोध चल रहा है, तब भी मोदी सरकार विभिन्न तरीकों से भारत के किसानों पर हमला जारी रखे हुए है. सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आयात शुल्क में रियायत देकर उनके अतिरिक्त विदेशी कृषि उत्पादों को भारत में लाने दे रही है. ऐसे उत्पाद जो हमारे देश में भी पैदा होते हैं और उनके आयात से भारतीय किसानों के बाजार व आय पर नकारात्मक असर होगा. जब किसान दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे, इसी बीच सरकार ने आयात शुल्क में 15% रियायत देकर रु. 3,200 प्रति कुंटल की दर से 5 लाख टन मक्का के आयात का आदेश दे दिया. जबकि भारत में एमएसपी पर यही सरकार अपने किसानों से मक्का रु. 1,850 प्रति कुंटल की दर पर खरीद रही है. हालात इतने खराब हैं कि बिहार में तो किसान अपनी मक्का की उपज को रु. 500 प्रति कुंटल पर बेचने को मजबूर हैं.
अमेरिका में ट्रम्प की सरकार वहां के कृषि क्षेत्र को 4,600 करोड़ डॉलर की सब्सिडी देती है. यह राशि वहां की समग्र कृषि आमदनी के लगभग 40% के बराबर है. वहां सब्सिडी सीधे कृषि क्षेत्र से जुड़ी कम्पनीयों व बैंकों के खाते में दी गईं. जितनी बड़ी कम्पनी उतनी ज्यादा सब्सिडी.
भारत की सरकार सब्सिडी क्यों नहीं बढ़ा सकती? और ऐसी फसलों के आयात पर रोक क्यों नहीं लगाती जिनका उत्पादन भारत में भी होता है? ऐसा कई मौकों पर यूरोपियन यूनियन के देशों ने किया है और तब डब्लू.टी.ओ. ने उनसे कुछ नहीं कहा और न ही नीतियों में बदलाव के लिए उन देशों पर कोई दबाव बनाया!
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इन तीन कृषि कानूनों के पारित होने के तुरन्त बाद से ही उनके खतरनाक परिणाम आने शुरू हो गये हैं. कई राज्यों की मण्डियों में धान का खरीद मूल्य एमएसपी से काफी नीचे चला गया. उत्तर प्रदेश की मण्डियों में 47% धान की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर बिकी. वहीं गुजरात में 83%, कर्नाटका में 63% और तेलंगाना में 60% धान की फसल एमएसपी से कम पर बिकी. छत्तीसगढ़ धान का बहुत बड़ा उत्पादक राज्य है जहां इस वर्ष कम से कम 4.4 लाख टन धान एमएसपी के नीचे की दरों पर बिका.
लेकिन सरकारी प्रोपेगैण्डा तो उल्टे आंकड़े दिखा रहा है! सरकार का कहना है कि इस साल खरीफ की फसल खरीद ‘बिल्कुल ठीक तरह से’ चली है और पिछले साल से 22.5% ज्यादा धान खरीद की गई है. यह कैसे सम्भव हुआ? इसका जवाब है कि प्राईवेट व्यापारी किसानों से कम दाम पर फसल खरीद कर रहे हैं और फिर उसे एफसीआई अथवा अन्य सरकारी एजेन्सियों को एमएसपी के रेट पर बेच रहे हैं. किसानों को कम कीमत मिल रही है और सरकार व्यापारियों को एमएसपी पर भुगतान कर रही है . कॉरपोरेट-परस्ती इसी को कहते हैं.
मोदी सरकार अमेरिकी प्रभुत्व वाले विश्व व्यापार संगठन (डब्लू.टी.ओ.) के दबाव में भारत की कृषि में ढांचागत बदलाव कर रही है. यही काम मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार भी कर रही थी. देश के किसान डब्लू.टी.ओ. के दबाव में नीतियां बनाने का विरोध कांग्रेस के राज में भी कर रहे थे और आज मोदीराज में भी कर रहे हैं. किसान आन्दोलन को इससे कोई मतलब नहीं कि पहले इन्हीं नीतियों का कांग्रेस समर्थन कर रही थी या नहीं. किसानों को तो अपने जीवन और अस्तित्व की लड़ाई लड़नी है. सभी पर्टियों को, चाहे वे शासन में हों या विपक्ष में, किसानों की मांगों को मान लेना चाहिए. आज विपक्ष की पार्टी के रूप में इन कानूनों को वापस लेने की मांग कर कांग्रेस कम से कम यह काम तो कर रही है. भाजपा को भी यही करना चाहिए था.
भारत सरकार हमेशा ही यह दावा करती रही है कि वह डब्लू.टी.ओ. में देश के किसानों के हितों की रक्षा कर रही है. सार्वजनिक रूप से तो यही कहा जाता है लेकिन पीछे के दरवाजे से सरकार डब्लू.टी.ओ. के आगे आत्मसमर्पण करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही. मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीनों कृषि कानून भारत की कृषि और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालने की डब्लू.टी.ओ. की साजिश का हिस्सा हैं ताकि बड़े कॉरपोरेटों का मुनाफा बढ़ सके.
दो साल पहले 2018 में मंदसौर में किसानों पर चलाई गई गोलियों के विरोध में देश के किसान सम्पूर्ण कर्ज माफी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर एमएसपी लागू करने की मांगों के साथ सड़कों पर आ गये. उस समय अमेरिका ने भारत का यह कह कर विरोध किया कि हमारे यहां ज्यादा सब्सिडी दी जा रही है, जो कि डब्लू.टी.ओ. द्वारा थोपी गयी सीमा, कुल उत्पादन का अधिकतम 10% से अधिक है. जबकि सच्चाई यह है कि अमेरिका में प्रति किसान सालाना सब्सिडी 61,286 डॉलर मिलती है और भारत में यह राशि मात्र 282 डॉलर ही है. अमेरिका दबाव बना रहा है कि भारत अपने किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूं व धान आदि खरीदना बंद करे. इससे अमेरिकी कम्पनियों को भारतीय बाजार में अपना अनाज बेचने का मौका मिलेगा. अमेरिका और आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे अन्य कई ताकतवर पूंजीवादी देश चाहते हैं कि भारत मण्डियों में एमएसपी पर सरकारी खरीद की गारंटी देना बंद करे और गरीबों के राशन की गारंटी करने वाली जनवितरण प्रणाली को भी खत्म कर दे. इसीलिए डब्लू.टी.ओ. भारत में कृषि सब्सिडी और पीडीएस राशन दोनों की जगह डाइरेक्ट कैश ट्रांसफर देने के लिए दबाव बना रहा है. डब्लू.टी.ओ. का यह भी दबाव है कि भारत की सरकार कृषि के आधारभूत ढांचे के विकास में निवेश न करे और उसकी जगह कॉरपोरेट सेक्टर की फसल बीमा कम्पनियों को कृषि क्षेत्र में खेलने का पूरा मौका दे.
ऊपर से तो सरकार जनता को लगातार झूठे आश्वासन दे रही है, लेकिन अन्दरखाने वह डब्लू.टी.ओ. के हिसाब से कृषि नीतियों और कानूनी ढांचे में बदलाव कर रही है. इसकी तैयारियां बहुत पहले से चल रही हैं. 2019 में संसदीय चुनाव से पहले स्व. अरुण जेटली ने संकेत दिया था कि भारत की कृषि नीतियों को डब्लू.टी.ओ. के अनुरूप बदलने की दिशा में सब्सिडी की जगह कैश ट्रांसफर स्कीम को लाया जायेगा. तब एक सरकारी अधिकारी ने कहा था कि “डाइरेक्ट इनकम ट्रांसफर के वायदे की तार्किक परिणति कृषि सब्सिडी और अनाज की सरकारी खरीद को खत्म करने में होनी है, क्योंकि यह डब्लू.टी.ओ. के नियमों के अनुरूप नहीं है और उत्पाद मूल्य के 10% सब्सिडी की सीमा को हम जल्द ही पार कर जायेंगे जोकि भारी चिन्ता का विषय है.”
न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), सरकारी गल्ला खरीद, एपीएमसी मण्डियां और जनवितरण प्रणाली को इन तीन कृषि कानूनों के जरिए एक साथ खत्म करके और कृषि को कॉरपोरेटों के हवाले करके हमारी सरकार वास्तव में डब्लू.टी.ओ. की इच्छा पूरी कर रही है.
देश के किसान ऐसा न होने देने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यह लड़ाई केवल उनके अधिकारों के लिए ही नहीं है वरन् यह भारत की सम्प्रभुता, आजादी और खाद्य सुरक्षा को बचाने की लड़ाई है.
नब्बे के दशक से ही भारत की सरकारें कृषि और किसानों पर कॉरपोरेट शिकंजा मजबूत बनाने के लिए काम कर रही हैं.
भारत के किसान केवल इन तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की लड़ाई ही नहीं लड़ रहे. पिछले तीन दशकों में थोड़ा-थोड़ा करके सरकार ने कम्पनियों के पक्ष में बहुत से नीतिगत बदलाव कर दिये हैं, जो किसानों की बरबादी का कारण बन गये हैं. लेकिन इन तीन कानूनों के माध्यम से सरकार ने किसानों के ऊपर निस्संदेह अब तक का सबसे बड़ा और बर्बर हमला किया है. जब किसान इन कानूनों को रद्द कराने के संघर्ष को जीत लेंगे तब भी डब्लू.टी.ओ. निर्देशित व कॉरपोरेट परस्त नीतियों को सम्पूर्ण रूप में खारिज कराने के लिए उनका संघर्ष जारी रहेगा.
आज सम्पूर्ण देश को कृषि क्षेत्र में भारी पैमाने पर सरकारी निवेश के जरिए किसान हितों की रक्षा करने वाली कृषि नीतियों को लाने की मांग पर किसानों के संघर्ष में साथ देने की जरूरत है.
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बहकाए-भटकाए लोग
कहाँ-कहाँ से आए लोग
दिल्ली की बेरहम दीवारें,
दरवाजे खड़काए लोग
अच्छे दिन का घना अंधेरा
है किसान का ये संजोग
इनकी खेती, इनकी मेहनत
साहेब-शाह लगावें भोग
जिन फसलों से पेट भरें हम
उनकी कीमत गिरे धड़ाम
सेठों की बस रहे चकाचक
और बचे ना कोई काम
इसी रास्ते मुल्क हांकने
आया है अबकी कानून
चौपट खेती-बाड़ी करना
चाहे पड़े बहाना खून
अंगरेजों का लाल बहादुर
नाम सभी का लेता है,
इसको नक्सल, उसको चीनी
तमगा सबको देता है
इसी जुगत में लगे हैं तब से
सभी मीडिया और मिनिस्टर
गाँवों के गबरू पर मारें
पानी की बौछारें कसकर
सुना है मोदी जी की खातिर
बनने को है नया महल
नए इंडिया की गोदी में
खूब है कीचड़, खूब कमल
आर-पार की हुई लड़ाई
कमर बांध के आए लोग
खूब डटे हैं सर्दी में भी
जुमलों से झल्लाए लोग
- इण्टरनेट से मिली एक कविता.
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