1. पार्टी का नाम व झंडा : पार्टी का नाम है – भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी). इसे संक्षेप में भाकपा(माले) या सीपीआई(एमएल) या ‘माले’ कहते हैं. राष्ट्रीय निर्वाचन आयोग के यहां यह इस नाम से रजिस्ट्रीकृत है – कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (लिबरेशन). पार्टी का झंडा है – आयताकार लाल झंडा, जिसकी लंबाई-चौड़ाई का अनुपात 3:2 हो और जिसके बीच सफेद हंसिया और हथौड़ा अंकित हो.

2. प्रस्तावना : भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) अपने सर्वोच्च वर्ग लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्षरत भारतीय सर्वहारा का सर्वोच्च संगठन है. इसका गठन जनता के अगुआ दस्तों को लेकर हुआ है. यह लिंग, जाति, धर्म-सम्‍प्रदाय, भाषा या राष्ट्रीयता का भेद किए बिना स्वतंत्र नागरिक के रूप में भारतीय जनता की सामंती बेड़ियों और बड़ी पूंजी एवं साम्राज्यवादी लूट और वर्चस्व से मुक्ति पाने तथा समान अधिकार और तीव्र प्रगति हासिल करने के संघर्ष में नेतृत्व-केन्द्र का कार्य करती है.

भारत में नवजनवादी क्रांति को पूरा करने से शुरू करके पार्टी समाजवादी रूपांतरण और साम्यवाद लाने के कार्यक्रम तक, मानव द्वारा मानव के शोषण के सभी रूपों के खात्मे के अंतिम लक्ष्य के प्रति अपने-आपको समर्पित करती है.

पार्टी अपना विश्व-दृष्टिकोण मार्क्सवादी दर्शन से ग्रहण करती है और मार्क्सवाद-लेनिनवाद व माओत्सेतुंग विचारधारा की एकल प्रणाली को अपने कामकाज के मार्गदर्शक उसूल के बतौर स्वीकार करती है.

यह समूची दुनिया के मजदूरों, उत्पीड़ित जनगण और राष्ट्रों के संघर्ष का समर्थन करती है तथा समूची मानवजाति की पूर्ण मुक्ति के अंतिम लक्ष्य के साथ साम्राज्यवादी और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के विरूद्ध होनेवाले तमाम आंदोलनों में अपने को साझीदार मानती है.

पार्टी कार्यशैली के तीन आधारभूत उसूल हैं – सिद्धांत को व्यवहार के साथ मिलाना, जनसमुदाय के साथ घनिष्ठ संपर्क बनाए रखना और आलोचना, आत्मालोचना तथा समयोचित सुधार करने पर अमल करना. पार्टी अपने व्यवहार को उन्नत करने के लिए हमेशा तथ्यों से सत्य की तलाश करने तथा गहन जांच-पड़ताल व गंभीर अध्ययन संचालित करने की नीति का अनुसरण करती है.

पार्टी सदस्य जनता से असीम प्यार करते हैं, भारतीय समाज की तमाम उत्कृष्ट क्रांतिकारी परंपराओं का पक्षपोषण करते हैं तथा खुद अपनी जान की बाजी लगाकर भी सत्य और साम्यवाद का झंडा बुलंद करने का साहस रखते हैं.

3. पार्टी का जन्म व विकास : भारत में 1925 में सीपीआई (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) का गठन किया गया. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भगत सिंह कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित हुए और 1931 में देश में एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की बात कही. लेकिन, उनकी शहादत के कारण उनका कार्य अधूरा रह गया.

सीपीआई ने तेलंगाना में हैदराबाद निजाम के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चलाया, लेकिन बाद में उसने वर्ग समझौतावादी रुख अख्तियार कर लिया. इस सवाल पर सीपीआई में मतभेद बढ़ा. वह 1964 में टूट गई और सीपीआई(एम) [भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी] का गठन हुआ. 1964 में जब विभाजन हुआ तो तमाम क्रांतिकारी कम्युनिस्ट सीपीआई(एम) में शामिल हो गए. लेकिन, सीपीआई(एम) ने भी तुरंत ही दुलमुलपन दिखाना शुरू कर दिया. उसने भी संशोधनवादी रास्ता अख्तियार कर लिया. अतः सीपीआई(एम) के अंदर प्रारंभ से ही एक अंतःपार्टी संघर्ष शुरू हो गया. का० चारु मजुमदार के सुप्रसिद्ध ‘आठ दस्तावेज’ इस बहस से निकलकर सामने आए. लेकिन का. चारु मजुमदार उस समय पार्टी में बहस चलाने के साथ-साथ बंगाल के दार्जिलिंग जिले में भूमिहीन-गरीब किसानों को संगठित भी कर रहे थे.

1967 में पश्चिम बंगाल में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी जिसमें सीपीआई(एम) प्रमुख घटक थी. सरकार कायम होते ही हर जगह कतारों में क्रांतिकारी जोश उमड़ पड़ा. पार्टी ने कहा भी था कि संयुक्त मोर्चा सरकार संघर्ष का हथियार है. पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों में भूमि संघर्ष फूट पड़े. नक्सलबाड़ी में बटाईदार गरीब-भूमिहीन किसान जमीन से बेदखली के विरोध में जमींदार-पुलिस के  खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध में उतर पड़े और राज्य मशीनरी के खिलाफ खड़े हो गए. आंदोलन को कुचलने के लिये खूनी उपायों का सहारा लिया गया. संयुक्त मोर्चा सरकार संघर्ष नहीं दमन का हथियार बन सामने आई. नक्सलबाड़ी में शांतिपूर्ण जुलूस पर पुलिस ने गोलियां चलाकार 11 गरीब-भूमिहीन महिला-पुरुष-बच्चों की हत्या कर दी. नक्सलबाड़ी की यह घटना 25 मई 1967 को हुई. इससे समूची पार्टी के अंदर विरोध भड़क उठा. का० चारु मजुमदार ने संसदवाद के बरखिलाफ सशस्त्र क्रांति का नारा दिया और नक्सलबाड़ी की चिनगारी पर पूरे देश में फैल गई. नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के समर्थकों को लोग ‘नक्सलवादी’, ‘नक्सलपंथी’, ‘नक्सलाइट’ नाम से पुकारने लगे. सीपीआई(एम) विभाजित हो गई.

सीपीआई(एम) से अलग होकर कम्युनिस्ट क्रांतिकारी शक्तियों ने सबसे पहले अपने को कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की अखिल भारतीय समन्वय समिति (एआईसीसीसीआर) में संगठित किया जो 22 अप्रैल 1969 को, लेनिन के जन्म दिवस पर, एक नई क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी “भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी)” के रूप में सामने आई. का० चारु मजुमदार पार्टी के प्रथम महासचिव बने. यही हमारी अपनी पार्टी है.

नवगठित भाकपा(माले) के खिलाफ केन्द्र व विभिन्न राज्यों की सरकारों ने भयानक दमन-चक्र चलाया. 28 जुलाई 1972 को कोलकाता के लाल बाजार थाने में पुलिस हाजत में का० चारु मजुमदार की हत्या कर दी गई. इसी तरह का० सरोज दत्त सहित कई अन्य वरिष्ठ नेताओं की हत्या सीपीआई(एम) सरकार ने कर दी. का० नागभूषण पटनायक को फांसी की सजा सुनाई गई. सर्वोच्च नेतृत्व समेत हजारों-हजार पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा भारतीय क्रांति की बलिवेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिए जाने की वीरता और दिलेरी की यह महागाथा हमारी एक महत्वपूर्ण विरासत है. 1960 के दशक के आखिरी और 1970 के शुरूआती वर्षों में हमारी पार्टी के नेतृत्व में संचालित सशस्त्र संघर्ष को भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में भारत में सशस्त्र क्रांति संगठित करने के अब तक के प्रयासों में सर्वाधिक गंभीर प्रयास के रूप में याद किया जाएगा.

बहलहाल, सशस्त्र संघर्ष को गहरा धक्का लगा. पार्टी भी बहुतेरे टुकड़ों में बंट गई. पुरानी लाइन पर पार्टी को पुनर्जीवित और एकताबद्ध करने के तमाम प्रयास असफल रहे. कई धड़े अवसरवाद और पतन की दलदल में गले तक डूब गए तो कुछ अन्य धड़े पक्के अराजकतावादी ग्रुपों में विकसित हो गये. पीपुल्सवार और एमसीसी (आज सीपीआई-माओवादी) इनमें सबसे प्रमुख हैं. बिखराव, भ्रम व नेतृत्वविहीनता के उस माहौल में 1974 में का० जौहर (सुब्रत दत्त) के नेतृत्व में भाकपा(माले) का पुनर्गठन किया गया. तीन सदस्यीय केंद्रीय कमेटी का गठन हुआ. जिसमें  का० जौहर के अलावा का० विनोद मिश्र व का० स्वदेश भट्टाचार्य थे. इन सबसे मुश्किल दौरों में भी पार्टी ने खुद को कदम-ब-कदम पुनर्गठित किया और बिहार के भोजपुर में नक्सलबाड़ी की मशाल को जलाए रखा. का० जौहर 1975 में भोजपुर के बाबूबांध में पुलिस की गोली से शहीद हो गए. अब का० विनोद मिश्र पार्टी के तीसरे महासचिव बने.

पार्टी के पुनर्गठन का काम जारी रहा. यह देश में आपातकाल का दौर था और इंदिरा तानाशाही के खिलाफ देश भर में जनआंदोलन की ऊंची-ऊंची लहरें उठ रही थीं. बदली हुई राष्ट्रीय परिस्थिति में नई पहलकदमी समय की मांग बन गई थी. अंततः पार्टी ने 1978 में शुद्धिकरण आंदोलन चलाया, मौजूदा परिस्थिति का व्यापक व गहरा अध्ययन किया तथा अपनी तमाम कार्यवाहियों की गंभीर समीक्षा की. 1979 में पार्टी का विशेष सम्मेलन हुआ और सशस्त्र क्रांति की अवधारणा पर अडिग रहते हुए जनआंदोलन की कार्यनीति अख्तियार की गई. इसके बाद कई तरह के जनसंगठनों का निर्माण शुरू हुआ. तुरन्त ही मध्य बिहार के जिलों में विराट किसान आंदोलन उठ खड़ा हुआ. इंदिरा निरंकुशता के खिलाफ इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) के गठन ने इन आंदोलनों को और भी नई ऊंचाई व राजनीतिक पहचान प्रदान की. बाद में आईपीएफ के बैनर से चुनाव में सक्रिय हस्तक्षेप किया गया. 1989 में पहली बार आरा लोकसभा क्षेत्र से का० रामेश्वर प्रसाद निर्वाचित हुए और 1990 में बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी के सात विधायक विजयी हुए. सीपीआई-सीपीआई(एम) के संसदीय व्यवहार के बरखिलाफ चरम क्रांतिकारी विपक्ष का संसदीय व्यवहार विकसित करने का प्रयास शुरू हुआ. इस तरह दुश्मन के किला के बाहर और भीतर दोनों जगह इस व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष चलने लगा. भारत में गैरसंसदीय व संसदीय संघर्षों को मिलाने का अनोखा प्रयोग पार्टी ने शुरू किया.

सोवियत रूस के पतन के बाद जब चारों ओर पूंजीवादी लोग मार्क्सवाद के ही खत्म होने का प्रचार करने लगे, 1992 में पार्टी खुलकर सामने आ गई. का० विनोद मिश्र ने भाकपा(माले) को देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी बनाने का लक्ष्य रखा.

दिसंबर 1998 को लखनऊ में आयोजित पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की बैठक के दौरान हृदय गति रुक जाने से  का० विनोद मिश्र का निधन हो गया और हमने भारतीय क्रांति का एक महान नेता खो दिया. उनके निधन के बाद  का० दीपंकर भट्टाचार्य पार्टी के महासचिव बने और पार्टी का कारवां आगे बढ़ता रहा.