इराक, अफगानिस्तान और गाजा की महिलायें साम्राज्यवादी युद्धों में बर्बाद हो रही हैं. अमरीका और उसके मित्र देशों में विशाल युद्ध-विरोधी गोलबंदियों की अगुवाई में बड़ी संख्या में महिलायें शामिल हैं.

2004 में दमनकारी ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए)’ के विरुद्ध मणिपुर की महिलाओं का ‘भारतीय सेना हमारा बलात्कार करो’ कहते हुए निर्वस्त्र प्रदर्शन नें एक बार फिर इस तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराया कि राज्य द्वारा अपनी जनता के खिलाफ चलाये रहे युद्ध की सबसे बड़ी शिकार महिलायें ही बनती हैं. बस्तर, शोपियां (कश्मीर), लालगढ़ (पं. बंगाल) या उ.पू. – सभी जगह महिलायें सुरक्षाबलों की ज्यादतियों, बलात्कार और हत्या की कार्रवाइयों का शिकार बन रही हैं. लालगढ़ और नारायणपटना की घटनायें हमें याद दिला रही हैं कि तथाकथित ‘उग्रवादियों’ के लिये चलाये जाने वाले ‘काॅम्बिंग आॅपरेशन’ का मतलब सदैव महिलाओं, विशेषकर आदिवासी महिलाओं, का सुरक्षाबलों द्वारा यौन उत्पीड़न ही होता है. बस्तर में गोम्पाड नरसंहार (जिसमें 7 लोगों की हत्या हुई, एक बूढ़ी महिला का स्तन और एक बच्चे की अंगुली और जीभ काट ली गई) की प्रत्यक्षदर्शी सोदी संभो पैर में पुलिस की गोली से घायल हो गयी. उसको और अन्य प्रत्यक्षदर्शियों को छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा गैरकानूनी हिरासत में रखा गया और उन्हें वकीलों से मिलने तथा स्वतंत्र रुप से कहीं आने जाने से रोका गया. यह सब गवाही बदलने के लिये उन पर दबाव बनाने के लिए किया जा रहा है. सलवा जुडूम और एसपीओ द्वारा बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं को पुलिस द्वारा डराया धमकाया जाता है, जबकि आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं की जाती.

हमने देखा कि कैसे एक मध्यवर्गीय लड़की रुचिका अपने आपको एक पुलिस आफिसर राठौड़ की ताकत के सामने लाचार पाती है. तब कल्पना की जा सकती है कि समाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर तबकों से आई महिलाओं का क्या हश्र होता होगा? सोडी और उसकी आदिवासी बहनों के बस्तर की पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ आरोप किसी एक राठौड़़ की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिये खतरा नहीं, बल्कि खुद भारत सरकार द्वारा छेड़े जा रहे ‘उग्रवाद-विरोधी युद्ध’ की वैधता को ही चुनौती देते हैं.

भारत में महिला दिवस पर शांति के नारे की विरासत को तभी संजोया जा सकता है जब आतंकवाद के विरुद्ध छेड़े गये युद्ध के नाम पर जनता के विरुद्ध युद्ध को रोकने का संघर्ष तेज हो.