‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया?’ में अम्बेडकर ने लिखाः

“भारत के शासक वर्ग ने अपने आप को कांग्रेस आंदोलन के अगुवा दस्ते में स्थापित कर लिया है और यह सभी को कांग्रेस के भीतर लाने की जद्दोजहद कर रहा है. ... यह वर्ग, इस बात को समझ रहा है कि वर्गीय विचारधारा, वर्गीय हितों, वर्गीय सवालों और वर्गीय टकरावों पर आधारित राजनीतिक अभियान इसका खात्मा कर देगा. यह जानता है कि निम्न वर्गों को रास्ते से भटकाने और उन्हें मूर्ख बनाने का सबसे बढ़िया तरीका है राष्ट्रवाद की भावना और राष्ट्रीय एकता का खेल. और यह वर्ग, महसूस करता है कि शासक वर्ग के हितों की सबसे बेहतर तरीके से रक्षा का बेहतरीन मंच कांग्रेस का मंच है.”

उपरोक्त उद्धरण में कांग्रेस की जगह भाजपा-संघ परिवार को रख दीजिये. क्या आपको आज की तस्वीर नहीं दिखने लगेगी? इस तस्वीर में एक पहलू और जुड़ा है- आज राष्ट्रवाद के नाम पर, भाजपा/संघ परिवार राष्ट्रवाद को अल्पसंख्यकों और असहमति की आवाजों के खिलाफ हमलावर हिन्दू बहुसंख्यक के रूप में परिभाषित कर रहे हैं.

वास्तविक लोकतन्त्र के लिए जाति-उन्मूलन अपरिहार्य

हिन्दू कोड बिल, जाति आधारित प्रतिनिधित्व और आरक्षण सहित तमाम बेहद जरूरी सुधारों की वकालत करते हुए भी अम्बेडकर की लोकतन्त्र की अवधारणा में जाति-उन्मूलन का सवाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण था. अपनी ‘जाति-उन्मूलन’ (1936) नामक किताब में अम्बेडकर इस सवाल से विस्तार से और बेहद क्रांतिकारी तरीके से जूझते हैं. यह किताब उस भाषण का संस्करण है, जिसे बाबासाहब को जात-पांत तोड़क मण्डल, लाहौर में देना था, पर यह कार्यक्रम बाद में आयोजकों द्वारा रद्द कर दिया गया था. यहां अम्बेडकर ब्राह्मणवाद के सारतत्व जाति-वर्ण व्यवस्था के शर्मिंदगी भरे परिचित तर्कों कि (क) वर्ण व्यवस्था अच्छी है और जातिवाद बुरा (ख) जाति जरूरी है लेकिन छुआछत बुरी है, को पूरी तरह ध्वस्त कर देते हैं.

अपनी इसी किताब में अम्बेडकर ने लिखाः

“असल में हिन्दू समाज जैसी कोई चीज है ही नहीं। यह सिर्फ जातियों का समूह है. हर जाति अपने अस्तित्व को लेकर चैतन्य है. इनके अस्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है इनकी उत्तरजीविता. ये जातियाँ एक संघ तक नहीं बनातीं. एक जाति दूसरी जाति से कोई संबंध नहीं महसूस करती. इसका अपवाद सिर्फ तभी होता है जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते हैं. दूसरे सभी मौकों पर एक जाति अपने को दूसरी से अलग करने और अन्य जातियों में विशिष्ट होने की कोशिश करती है. हरेक जाति न सिर्फ शादी-ब्याह, खान-पान आपस में ही करती है बल्कि पोशाक तक अपनी खास पहनती है.”

‘जाति-उन्मूलन’ किताब में अम्बेडकर अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने की कोशिशों की तारीफ करते हैं. क्योंकि “सिर्फ रक्त के मिश्रण से ही सगोत्र-सपिंड होने की भावना पैदा हो सकती है. जब तक सगोत्र-सपिंड होने की यह भावना स्थायी नहीं होती, तब तक अलगाव की भावना, जाति द्वारा पराया बना दिये जाने की भावना नहीं समाप्त होगी.”

आगे वे यह भी लिखते हैं किः

“आपस में खान-पान न करने, आपस में विवाह न करने या कभी-कभार अंतरजातीय भोज आयोजित करने और अंतरजातीय विवाहों का उत्सव मनाने के लिए लोगों की आलोचना करने या उनका मज़ाक उड़ाने से वांछित लक्ष्य हासिल हो ही नहीं सकता. शास्त्रों की शुचिता पर विश्वास का नाश इसका वास्तविक तरीका है...

महात्मा गांधी सहित अस्पृश्यता खत्म करने के लिए किए गए सुधार यह समझ नहीं पाते कि शास्त्रों के जरिये लोगों के दिमाग में बैठा दिये गए विश्वासों के चलते ही लोग ऐसे काम करते हैं. लोग अपना व्यवहार तब तक नहीं बदलेंगे जब तक शास्त्रों की शुचिता पर विश्वास करना नहीं छोड़ देते, जिस आधार पर उनके विश्वास की नींव रखी है. इसलिए सहज ही है कि सुधार के ऐसे प्रयास बेनतीजा रहेंगे. अंतरजातीय भोज और अंतरजातीय विवाह आयोजित करवाना और उसके लिए आंदोलन करने के काम कृत्रिम साधनों द्वारा जबरिया किए गए काम हैं. हर पुरुष और स्त्री को शास्त्रों की दासता से मुक्त बनाइये, शस्त्र आधारित घातक विचारों से उनके दिमाग को मुक्त करिए, तब वह पुरुष या स्त्री खुद ही बिना आपके निर्देशों के अंतरजातीय भोज या अंतरजातीय विवाह करेगा.”

इसीलिए, बाबासाहब ने मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन आयोजित किया और हिन्दू धर्म को नकारते हुए बौद्ध हुए.

‘शिक्षित बनो, आंदोलन करो, संगठित हो’

इसी क्रम में कहे गए ये शब्द (अक्सरहाँ इसका क्रम गड़बड़ा दिया जाता है) अम्बेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘बहिष्कृत भारत’ के मुखपृष्ठ पर अंकित थे. दरअसल यह यूटोपियाई समाजवादी फेबियन सोसाईटी का नीति-वाक्य था, जिसे अम्बेडकर ने आॅक्सफोर्ड के अपने शिक्षक जाॅन डेवी से ग्रहण किया था. सन 1942 के जुलाई महीने में नागपुर में आयोजित आल-इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेज कान्फरेंस के भाषण में उन्होने कहा था -- “आपको मेरी आखिरी सलाह है -- शिक्षित बनो, आंदोलन करो, संगठित हो, अपने पर भरोसा रखो.”

अम्बेडकर ने कभी भी अपने को दलितों का मसीहा नहीं समझा. अपने समेत किसी भी सुप्रीमो नेता पर अंधा विश्वास करने की बजाय वे आजाद तार्किक सोच पर जोर देते रहे। उन्होंने कहा था कि “आपको अपनी दासता से खुद मुक्त होना होगा, दासता से मुक्ति के लिए ईश्वर या महामानव पर मत निर्भर रहिए.” हमारे देश में व्याप्त गुरु-पूजा के बिलकुल विरोध में अम्बेडकर खड़े हैं. यह बात बुद्ध के कहे उनके प्रिय उद्धरण में अभिव्यक्त होती थी -- आत्म दीपो भव.

दलितों को खुद को शिक्षित करना होगा, अपने हक-हुकूक के लिए स्वाधीनतापूर्वक संघर्ष करना होगा, और अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए संगठित होना होगा -- बाबासाहब का यह सिद्धान्त मार्क्सवादी सिद्धान्त के बेहद नजदीक है, जिसके मुताबिक सर्वहारा को अपनी मुक्ति खुद हासिल करनी होगी. अस्पृश्यों के बीच गांधी की क्रिया-पद्धति से यह विचार बिलकुल उलट है.