यह शर्मनाक है कि कुछ सांप्रदायिक फासिस्टों ने अपने संगठन का नाम भगत सिंह के नाम पर रखा है! भगत सिंह स्वयं नास्तिक थे, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है कि वे और उनके साथी सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ थे.

अप्रैल 1928 में नौजवान भारत सभा की काॅन्फ्रेंस में भगत सिंह और उनके साथियों ने साफ कर दिया कि सांप्रदायिक संगठनों से जुड़े हुए नौजवानों को क्रांतिकारी नौजवान भारत सभा की सदस्यता की इजाजत नहीं दी जा सकती.

भगत सिंह लाला लाजपत राय का बहुत सम्मान करते थे और अंग्रेजी पुलिस द्वारा उनकी हत्या का बदला भी लिया. लेकिन जब लालाजी सांप्रदायिक राजनीति की ओर मुड़े तो भगत सिंह ने उन्हें भी नहीं बख्शा. उन्होंने लाला लाजपत राय की तस्वीर के साथ एक पर्चा निकाला, जिसका शीर्षक ब्राउनिंग की कविता से लिया गया था. शीर्षक था ‘गुमराह नेता’!

1928 में ‘किरती’ पत्रिका में भगत सिंह ने दो लेख लिखे ‘अछूत का सवाल’ और ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’. सांप्रदायिक दंगे वाले लेख में वे दंगा फैलाने में “सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों” की भूमिका को रेखांकित करते हैं. उन्होंने उन तथाकथित राष्ट्रवादी नेताओं का मजाक उड़ाया जो या तो डर के मारे सांप्रदायिकता के प्रश्न पर चुप थे, या फिर सांप्रदायिकता के ज्वार में स्वयं ही बह गये थे.

जब हम आज भगत सिंह के इन शब्दों को पढ़ते हैं तो जी न्यूज और टाइम्स नाउ जैसे चैनल याद आते हैं:

“पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था. आज बहुत ही गन्दा हो गया है … अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है.”

(भगत सिंह, सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज, किरती, जून, 1928)

भगत सिंह ने क्रांतिकारी मार्क्सवाद में सांप्रदायिकता का जवाब देखा. वे लिखते हैंः

“विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है... लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है. गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंड़ों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी ...

जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं. वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर भिड़ते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है. अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए. अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं.

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक उत्साहजनक बात सुनने में आयी. वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया, बल्कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिल कर दंगे रोकने की कोशिशें कीं... वर्ग-चेतना का विकास दंगे रोकने का सबसे खूबसूरत तरीका है...

यह उत्साहजनक समाचार हमें मिला है कि भारत के नवयुवक आज धर्म के आधार पर आपसी घृणा व हिंसा भड़काने की कोशिशों को खारिज कर रहे हैं. वे खुद को हिन्दू, मुसलमान या सिख के रूप देखने की बजाय पहले खुद को इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी. ऐसे विचार भारत के भविष्य को उज्वल बना रहे है.

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सबको मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.”

(भगत सिंह, ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’, किरती, जून, 1928)

ध्यान देने की बात है कि भगत सिंह यहां इन्सानियत को धार्मिक पहचान और यहां तक कि भारतीयता से भी ऊपर रखते हैं, सांप्रदायिक राजनीति को नकारते हैं और राजनीति को धर्म के अलग रखने पर जोर देते हैं. आज राष्ट्रवाद के नाम पर होने वाली अमानवीय हत्याओं और बलात्कारों से उन्हें घृणा हुई होती, साथ ही भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में परिभाषित करने की कोशिशों से भी.

भगत सिंह ने छुआछूत पर सीधा हमला किया. धर्मांतरण के खिलाफ चीख-पुकार के बीच देखिये भगत सिंह का यह कहना था:
“जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहाँ उनसे इन्सानों-जैसा व्यवहार किया जाएगा.”

(भगत सिंह, ‘अछूत का सवाल’, किरती, जून, 1928)

और वे केवल सुधारों और अछूतों के उद्धार भर की बात नहीं करते. बल्कि वे दलितों को स्वयं का उत्थान करने के लिए पुकारते हैं, वे उन्हें “वास्तविक मजदूर वर्ग” के रूप में पुकारते हैं.

“स्वतन्त्रता के लिए स्वाधीनता चाहने वालों को यत्न करना चाहिए. इन्सान की धीरे-धीरे कुछ ऐसी आदतें हो गई हैं कि वह अपने लिए तो अधिक अधिकार चाहता है, लेकिन जो उनके मातहत हैं उन्हें वह अपनी जूती के नीचे ही दबाए रखना चाहता है. कहावत है-- ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते’. अर्थात् संगठनब हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो. तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा. तुम दूसरों की खुराक मत बनो. दूसरों के मुँह की ओर न ताको. लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झाँसे में मत फँसना. यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है. यही पूँजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और गरीबी का असली कारण है. इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना. उसकी चालों से बचना. तब सब कुछ ठीक हो जायेगा. तुम असली सर्वहारा हो... संगठनबद्ध हो जाओ. तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी. बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी. उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो. धीरे-धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा. सामाजिक आन्दोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो. तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो. सोए हुए शेरो! उठो और बगावत खड़ी कर दो.”

(भगत सिंह, ‘अछूत का सवाल’, किरती, जून, 1928)