(लिबरेशन: अप्रैल, मई, जून एवं अगस्त 1993 के अंकों से)

1942 में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका पर काफी कीचड़ उछाला गया है और कुछ ही साल हुए श्री अरुण शौरी ने राष्ट्रीय अभिलेखागार की धूल फांककर उस दौर में सीपीआई की तथाकथित गद्दारी का भंडाफोड़ किया था. हां, इस क्रम में यहां-वहां उन्होंने चंद मनगढ़ंत बातें भी घुसा दी थीं. हम मंजूर करते हैं कि उस दौर में कम्युनिस्ट पार्टी ने एक भयानक कार्यनीतिक गलती की  थी और भारत के तमाम कम्युनिस्ट संगठन इसे स्वीकार करते हैं. इस छोटे से व्यतिक्रम के सिवा कम्युनिस्ट हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा बने रहे. आजादी के सबसे लड़ाकू योद्धाओं को प्रेरणा या तो सोवियत संघ की विजयी अक्तूबर क्रांति और कम्युनिस्ट विचारधारा से अथवा भगत सिंह जैसे नेताओं से मिली और उन्होंने बड़ी संख्या में कम्युनिज्म की दीक्षा ली.

आधुनिक हिंदुत्व के पहले प्रचारक विनायक दामोदर सावरकार ने ब्रिटिश विरोधी संघर्ष की शैशवावस्था में जरूर बहादुराना भूमिका निभाई. लेकिन, 1920 के दशक के मध्य से हिंदू महासभा का नेता बनते ही उन्होंने अंग्रेजों के साथ साफ-साफ एक समझौता की लाइन अपनाई और इस दिशा में वे इस हद तक बढ़ गए कि 1942 के आंदोलन के दौरान उन्होंने स्थानीय स्वायत्तशासी संस्थाओं, विधानमंडलों और सरकारी नौकरियों में काम करनेवाले हिंदू महासभा के सदस्यों को साफ-साफ निर्देश दिया, “अपने-अपने पदों पर बने रहो और अपनी-अपनी नियमित ड्यूटी बजाना जारी रखो.” सावरकर और उनकी हिंदू महासभा ने जिस मुस्लिम विरोधी जहरीले प्रचार और ‘राजनीति का हिंदूकरण करने और हिंदूवाद का सैन्यीकरण करने’ के आह्वान का आश्रय लिया था, उसका व्यावहारिक अर्थ था अंग्रेजों के साथ पूर्ण युद्धकालीन गठबंधन. (देखिए, ऐतिहासिक वक्तव्य, विनायक दामोदर सावकर, अंग्रेजी संस्करण, 1957). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशवराम बलिराम हेडगेवार ने कांग्रेस के अंदर जरूर काम किया था किंतु हिंदुत्व से अपनी गांठ जोड़ते ही वे और उनका संगठन आजादी की लड़ाई की मुख्यधारा से दूर, और दूर भागता गया.

1920 के दशक के पहले वर्षों में असहयोग आंदोलन की जो आंधी उठी थी वह आजादी की लड़ाई के समूचे इतिहास में ब्रिटिश विरोधी एकता का चरम बिंदु थी. लेकिन गांधी और कांग्रेस नेतृत्व ने इससे गद्दारी की और 1922 में इसे वापस ले लिया. इस महान आंदोलन को गालियां देते हुए श्री हेडगेवार कहते हैं, “महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप देश का उत्साह ठंढा पड़ता जा रहा था और सामाजिक जीवन में उस आंदोलन के द्वारा पैदा की गई बुराइयां खतरनाक रूप से सिर उठा रही थीं ... असहयोग का दूध पीकर पले हुए यवननाग अपनी जहरीली फुफकारों से समूचे राष्ट्र में दंगे भड़का रहे थे.” (भिशिकर, 1979, पृष्ठः 7)

1927 में, जब स्वतंत्रता आंदोलन में पुनरुज्जीवन के ताजे लक्षण दिखने लगे और साइमन कमीशन के आगमन के विरुद्ध एक शक्तिशाली आंदोलन विकसित  हुआ, तो आरएसएस ने अपने को इस लहर से दूर ही रखा, बल्कि वह नागपुर में अपना पहला ट्रेनिंग कैंप लगाने में उलझा रहा. सितंबर 1927 में नागपुर में हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ और आरएसएस इस दंगे को और अधिक भड़काने में जी-जान से जुड़ा रहा.

लाहौर अधिवेशन द्वारा पूर्ण स्वराज को कांग्रेस का राष्ट्रीय लक्ष्य घोषित करने की पृष्ठभूमि में शुरू किए गए 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघी लापता हो गए. हेडगेवार ने आरएसएस की शाखाओं को हुक्म दिया कि वे कांग्रेस के निर्णयानुसार 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस के रूप में ही मनाएं, मगर ‘भगवा झंडा’ की पूजा करते हुए. और सबसे मजेदार बात तो यह है कि जहां देश में आमतौर पर हर जगह स्वाधीनता दिवस मनानेवालों को भीषण दमन का सामना करना पड़ रहा था, वहां आरएसएस के लठ्ठधर कार्यकर्ताओं को इस दिवस के संघी संस्करण को मनाते वक्त औपनिवेशिक पुलिस के साथ कहीं बतरस भी नहीं करनी पड़ी.

1940 में हेडगेवार के बाद माधवराव सदाशिव गोलवलकर सरसंघ चालक बने और उन्होंने हिंदूवाद की मुस्लिमविरोधी ब्रिटिशपरस्त धार पर और सान चढ़ाई. गोलवलकर कह्ते हैं, “भु-भागीय राष्ट्रवाद और साझा दुश्मन के सिद्धांत ने, जो राष्ट्र की हमारी धारणा की बुनियाद का निर्माण करत है, हमें हमारे सच्चे हिंदू राष्ट्रवाद की सकारात्मक व प्रेरक अंतर्वस्तु से वंचित कर दिया है तथा उसने आजादी की अनेक लड़ाइयों को वस्तुतः ब्रिटिश विरोधी लड़ाईयां बना दिया है. ब्रिटिश-विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के समतुल्य बना दिया गया है. इस प्रतिक्रियावादी विचार ने स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दौर में उसके नेताओं और आम जनता पर बड़ा हानिकारक प्रभाव डाला है.” (गोलवलकर, 1966, पृष्ठः 142-43)

शायद यह देशभक्ति और राष्ट्रवाद की आरएसएस की परिभाषा का सबसे बड़ा भंडाफोड़ है. देखने में यह बड़ा आजीब लग सकता है, लेकिन सच यह है कि हिंदूवाद का यह सिद्धांतकार औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने के लिए चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की उठती लहर के ऐन बीचोबीच ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रवाद की निंदा करता है. आरएसएस की तमाम ‘राष्ट्रवादी, देशभक्तिपूर्ण’ चिल्ल-पों और भावोद् गारों का निशाना निस्संदेह मुस्लिम प्रभुत्व की अतीत की स्मृतियां थीं. उसके लिए अंतिम महान मुगल बादशाह औरंगजेब के खिलाफ शिवाजी की लूटपाट के बाद इतिहास का चक्का थम-सा चुका था. ब्रिटिश विष्कंभक (नाटक के बीच-बीच में मूल कहानी को आगे बढ़ाने में मददगार प्रहसन दृश्य) ने चूंकि मुगलिया सल्तनत के आखिरी अवशेषों को धूल में मिलाने में मदद की थी, इसलिए वह मित्र था. शिवाजी की लड़ाई को तबतक जारी रखा जाना था, जबतक कि हिंदू राष्ट्र का निर्माण नहीं हो जाता. आरएसएस अपने होठों पर मराठी स्वरों का पुट लपेट महाराष्ट्र से उभरा और वह जानबूझकर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के हाथों में खेलने लगा, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम फूट को बढ़ावा देकर हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन में तोड़फोड़ करने की कोशिश की.

इसलिए अचरज करने की जरूरत नहीं कि बाद में आरएसएस कभी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल नहीं हुआ, न 1940-41 के नागरिक अवज्ञा आंदोलन में और न 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में; न आजाद हिन्द फौज में और न आइएनए बंदियों की रिहाई तथा बंबई की नौसेना बगावत को केन्द्र कर 1945-46 में हुए राष्ट्रव्यापी उभार में ही.

आज, बदली परिस्थितियों में, फिर इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है. आज जब उन्हीं पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों की ओर से देश नवऔपनिवेशीकरण के गंभीर संकट के सामने खड़ा है तो संघ परिवार एक बार फिर अपने साम्राज्यवादी आकाओं का हुक्म पालन करने के लिए तत्पर है. भारत पर अमरीकी वर्चस्व तथा आइएमएफ-विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रभुत्व के विरोध से उनके राष्ट्रवाद और उनकी देशभक्ति का कोई लेना-देना नहीं. उनके तमाम जोश-खरोश के निशाने हैं मुस्लिम शासन के प्रतीक, जो शासन इतिहास में कब का खो चुका है. यह न केवल आर्थिक दासता, राजनीतिक स्वतंत्रता पर मंडराते खतरों तथा (जनता के जनवादी समाज के हक में) निरंकुश शासन व्यवस्था से मुक्ति के लिए भारत की दूसरी आजादी की लड़ाई को क्षतिग्रस्त करता है, बल्कि वह कम्युनिस्ट चुनौती के ध्वंस के बाद तथाकथित इस्लामी खतरों के नए इलहाम से लैस साम्राज्यवादी आकाओं का भी हितसाधन करता है.

हिंदू राष्ट्र का दर्शन नाजीवाद से उधार लिया गया है

आरएसएस और भाजपा के प्रचारक रात-दिन कम्युनिस्टों पर यह आरोप लगाते हुए नहीं थकते कि उन्होंने मार्क्स नामक एक जर्मन से एक विदेशी विचारधारा उधार ली है. जबकि वे अपने को खांटी देशी माल कहते हैं. लेकिन सच यही है कि एक जर्मन ने ही (हां, आस्ट्रियन मूल का) अपनी विचारधारा और अपने संगठन को आकार देने में गोलवलकर पर गहरा असर डाला था. इस जर्मन का नाम था एडोल्फ हिटलर.

हम अथवा हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा में गोलवलकर लिखते हैं, “आज जर्मनी का राष्ट्रीय गौरव चर्चा का मुख्य विषय बन गया है. राष्ट्र और उसकी संस्कृति की शुद्धता की रक्षा करने के लिए जर्मनों ने अपने देश को सेमिटिक नस्लवालों – यहूदियों – से मुक्त करके समूची दुनिया को हिला दिया है. यहां राष्ट्रीय गौरव अपने शिखर पर अभिव्यक्त हुआ है. जर्मनी ने यह भी दिखला दिया है कि एक-दूसरे से मूलतः पृथक नस्लों और संस्कृतियों को एक एकल समग्र में समेटना कितना असंभव है. हमारे लिए यह काफी शिक्षाप्रद है और हमें हिंदुस्तान में इससे खीखना और लाभ उठाना चाहिए.”

नाजीवाद के इस भारतीय प्रतिरूप का अर्थ है कि गैर हिंदुओं को अपनी पहचान का हर कतरा त्याग देना चाहिए – चाहे वह भाषा हो, संस्कृति हो, धर्म हो, या कोई और चीज. अगर वे ऐसा करने से इनकार करते हैं तब भी गोलवलकर इस देश में उन्हें रहने देना जरूर चाहते हैं मगर इस शर्त पर कि वे “इस देश में कुछ न मांगते हुए, किसी सुविधा का हकदार न होते हुए, किसी भी प्रकार की प्राथमिकता पाए बिना, यहां तक कि नागरिकता के अधिकारों के बिना ही हिंदू राष्ट्र के अधीन रहें.”

लिहाजा, हिंदू राष्ट्र का संपूर्ण दर्शन जर्मन नाजी राज्य से उधार लिए गए संस्करण के सिवा और कुछ नहीं है.

मिथकीय नायक राम को राष्ट्रनायक में बदलने के पीछे भाजपा की योजना

वाल्मीकि कि रामायण और तुलसीदास के रामचरितमानस, दोनों लोकप्रिय महाकाव्य बुराई पर अच्छाई की विजय को एक विशिष्ट रूप से चित्रित करते हैं – लोकप्रिय मिथकीय पात्र राम को भगवान के अवतार का दर्जा देते हुए. इस प्रकार राम हिंदू जनसमुदाय के आध्यात्मिक और धार्मिक दुनिया के अंग बन जाते हैं. उनके चरित्र की संपूर्णता– मर्यादा पुरुषोत्तम – और उनके शासन के मानदंड –रामराज्य– को अक्सर नैतिक मूल्यों और सामाजिक न्याय पर जोर देने के लिए जनभाषा में याद किया जाता है. आधुनिक हिंदूवाद के उत्थान के पूर्व किसी ने राम के राष्ट्रीय नायक में बदलने का ख्याल भी नहीं किया था. हिंदुत्व की विचारधारा के संस्थापक-जनक सावरकर हिंदू भारत के प्रतीक की उन्मादपूर्ण तलाश करते हुए लिखते हैं, “हमलोगों में से कुछ उन्हें अवतार मानते हैं, कुछ उन्हें वीर और योद्धा मानकर उनकी प्रशंसा करते हैं, सबके सब उन्हें हमारी नस्ल के सर्वाधिक यशस्वी प्रतिनिधि मानकर उनसे प्यार करते हैं.” तबसे हिंदुत्व के पैरोकार ‘हमारी नस्ल के इस सर्वाधिक यशस्वी प्रतिनिधि’ का राग अलापते रहे हैं. 1927 में विजयदशमी को आरएसएस के स्थापना-दिवस के बतौर चुना गया. भगवा झंडे को राम का झंड़ा मानकर आरएसएस के झंड़े के बतौर चुना गया.

अंत में, बाबरी मस्जिद, जिसके बारे में कहा गया कि राम के मंदिर को तोड़कर बनाया गया था, संघ परिवार के हाथों में एक गड़बड़झाला तैयार करने का बहाना बन गया – राम को बाबर के खिलाफ खड़ा कर दिया गया. इस प्रकार एक सांस्कृतिक-धार्मिक-मिथकीय पात्र से राष्ट्रनायक में राम का रूपांतरण पूरा हुआ, जिसके हाथों के धनुष-बाण मुस्लिम ‘हमलावरों’ की ओर निशाना साधे हुए हैं.

अगर रामकथा के रावण ने सीता को कैद कर रखा था तो संघ परिवार के रावणों ने अपनी राजनीतिक चालबाजियों के लिए खुद राम को कैद कर लिया है. राम को उनके चंगुल से आजाद कराना होगा ताकि उन्हें उनके पुजारियों के आध्यात्मिक-धार्मिक जगत में पुनर्स्थापित किया जा सके.

आरएसएस बार-बार मुसलमानों को उपदेश देता है कि वे राम को अपना नायक मानें और उन्हें आश्वस्त करता है कि तब उनकी सारी समस्याएं खतम हो जाएंगी. लेकिन यह मांग न केवल अत्यंत उद्दंडतापूर्ण और हास्यास्पद है जिसमें वह मुसलमानों से अपनी मान्यताओं को त्याग देने और मुर्तिपूजा अपनाने को कहता है – क्योंकि किसी अन्य तरीके से मुसलमान राम को अपना नायक नहीं मान सकते – बल्कि यह प्रतिगामी मांग भी है, खासकर उनके हिंदू प्रवृत्तियां जब एकेश्वरवाद की ओर बढ़ी हैं और भगवान को निराकार के रूप में देख रही हैं.

अन्य मिथकीय पात्रों के विपरीत, निम्न जातियों के बीच जीवन गुजारनेवाले और उनकी मदद से ब्राह्मण राजा रावण को हरानेवाले  निर्वासित राम का महाकाव्य राम के साथ आम जनसमुदाय का लोकप्रिय तादात्म्य स्थापित कर देता है. तथापि हिंदुओं के विभिन्न पंथों और धर्मों के बीच राम की छवि एक समान नहीं है. हिंदुओं के कुछ हिस्से, खासकर दलित, उनके कुछ कामों के प्रति आलोचनात्मक रुख रखते हैं और उन्हें उन कामों में सवर्ण लाक्षणिकता की बू आती है.

हिंदू और मुसलमान ठीक ही 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम और ब्रिटिश विरोधी संघर्षों के शहीदों को अपना राष्ट्रीय नायक मानते हैं. संघ परिवार से भी यही भावना प्रदर्शित करने की मांग की जानी चाहिए, क्योंकि गोलवलकर के लाख चिल्लाने के बावजूद भारतीय राष्ट्रवाद की उत्पत्ति केवल ब्रिटिश विरोधी संघर्ष से ही हुई है.

हिंदू गौरव का मिथक

संघ परिवार का एक लोकप्रिय नारा है ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’. इस नारे के जरिए हिंदुओं को प्रेरित किया जाता है कि वे गर्व के साथ अपनी हिंदू पहचान का ऐलान करें. संघ के सिद्धांतकारों के अनुसार एक के बाद दुसरे होने वाले विदेशी आक्रमणों के आगे हिंदुओं द्वारा दब्बुओं की तरह आत्मसमर्पण करते जाने का कारण हिंदू गौरव का विनाश ही था. लिहाजा हिंदू गौरव के पुनरुद्धार के लिए हिंदुओं के अपमान के प्रतीकों को नष्ट कर देना अत्यधिक जरूरी है. इस प्रकार, बीसवीं सदी के आखिरी छोर पर हिंदुओं का जेहाद बाबरी मस्जिद के विध्वंस से शुरू होता है. स्पष्टतः सूची लंबी है और इसमें काशी व मथुरा की मस्जिदों से लेकर जामा मस्जिद और यहां तक कि ताजमहल भी शामिल हैं.

आइए, हम इस तथाकथित हिंदू गौरव के सारतत्व की तलाश करने के लिए हिंदूवाद की उत्पत्ति के इतिहास पर दोबारा एक नजर डाल लें. विङबना ही है कि भारत पर पहले ज्ञात हमलावर खुद आर्य ही थे जो इसापूर्व लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले ईरान के पठार से आए थे. हिंदू भारत के अपने दावे की पुष्टि करने के लिए संघ परिवार खुद इतिहास को गलत ठहराने की गहरी साजिश में जुटा है और आर्यों को इसी देश का मूल निवासी सिद्ध करने के नए सिद्धांतो की पैरोकारी के क्रम में तमाम ज्ञात ऐतिहासिक तत्थों को झुठला रहा है.

वह सौ फीसदी गलत है. भारत के मूल निवासी सिंधु घाटी के मोहनजोदड़ी और हड़प्पा सभ्यता वाले लोग थे, जिनकी सभ्यता आर्यों की सभ्यता से उन्नत थी. भारत की आर्यपूर्व सभ्यता बहुत संभव है कि द्रविड़ सभ्यता थी. आर्य कबीले अर्द्धखानाबदोश पशुपालक कबीले थे और उनके अंदर विकसित पितृसत्तात्मक गोत्र प्रथा और सैनिक जनवाद मौजूद था. अन्य शब्दों में, वे वर्गपूर्व समाज से वर्गसमाज में संक्रमण की मंजिल में थे. सिंधु घाटी और उत्तर पश्चिम भारत से वे धेरे-धीरे गंगा के मैदान और उत्तर पूर्व भारत में फैले. तथापि इस फैलाव के दौरान उन्हें स्थानीय जनता के साथ अनगिनत लड़ाईयां लड़नी पड़ीं. इस समूचे संक्रमणकालीन दौर का प्रतिबिंब ऋग्वेद व अन्य वेदों में मिलता है.  

इस मंजिल में आर्यों के धर्म को वैदिक धर्म कहा गया है. शुरूआती अवस्थाओं के सुर और असुर दोनों दो परस्पर शत्रु खेमों के देवता थे. बाद में असुर दुरात्माएं बन गए – अन्य इंडो-आर्यन लोगों के ठीक उल्टा. स्थानीय शत्रुतापूर्ण द्रविड़ कबीलों को राक्षस कहा गया.

वैदिक आर्य अनेकेश्वरवादी थे, जहां देवता प्राकृतिक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे और खासकर इंद्र को केंद्रीय स्थान मिला हुआ था. कोई मंदिर नहीं था, न ही कोई पेशेवर पुरोहित था और न मृत्यु के उपरांत कर्मफल भोगने की अवधारणा ही विद्यमान थी. तबतक शरीर से अलग आत्मा का विचार भी विकसित नहीं हुआ था. वर्ण व्यवस्था का उदय जरूर हो गया था जो सामाजिक श्रम विभाजन के ढांचे को प्रतिबिंबित कर रहा था. संक्षेप में, वैदिक धर्म आर्यों के समाज की संक्रमणकालीन मंजिल का प्रतिबिंब था और उसका रिश्ता मरणोपरांत जीवन की अपेक्षा धरती पर के जीवन से ही अधिक था.

जैसे ही आर्य कबीले स्थायी तौर पर बसे और कृषिजीवी समुदायों में विकसित हुए, ईसा पूर्व एक हजार की शुरूआत में अनेक निरंकुश, शुरुआती दास-मालिक राज्यों का उदय हुआ. इस मंजिल में वैदिक धर्म का स्थान ब्राह्मणवाद ने ले लिया.

वर्ण व्यवस्था ने एक सामाजिक कठोरता हासिल कर ली और ब्राह्मणों के, जो वेदों में पारंगत थे, एक अलहदा सामाजिक समूह का उदय हुआ जिनके हाथों में बड़ी मात्रा में विशेषाधिकार केंद्रित थे. ईसा पूर्व पांचवीं सदी में मनु के बनाए नियमों ने वर्ण और जाति प्रथा को ईश्वरीय घोषित किया और ब्राह्मण जाति को व्यवहारतः देवतुल्य बना दिया. वैदिक देवताओं को गौण स्थानों पर ढकेल दिया गया और नए देवता सामने चले आए, जिनमें सबसे आगे ब्रह्मा था. चूंकि धीर-धीरे स्थानीय आबादी विजेता आर्यों के साथ घुलमिल गई, इसलिए उनके देवताओं ने भी ब्राह्मण देवकुलों में प्रवेश पाया. जाति व्यवस्था के कठोर होते ही भिन्न-भिन्न देवता भी भिन्न-भिन्न जातियों के देवता बन गए. उपनिषदों के आगमन के साथ-साथ आत्मा के आवागमन का विचार हावी हुआ और कर्म का चिंतन पुनर्जन्म का सैद्धांतिक आधार बन गया. ब्राह्मण काल का वर्णन उपनिषद काल के बतौर भी किया गया है जिसके दौरान षडंदर्शन या शास्त्र विकसित हुए. वेदांत, जो आत्मा के ब्रह्म से मिलन की वकालत करता था जो कि एक गूढ़ रहस्यवादी दर्शन है, ब्राह्मणों का मुख्य सहारा था. क्षत्रियों ने, जो ब्राह्मणों के साथ प्रतिद्वंद्विता कर रहे थे, सांख्य का पक्ष लिया जो कि वस्तुवाद का करीबी दर्शन है.

शास्त्रीय दर्शन की परिधि के बाहर चार्वाक और लोकायत के भौतिकवादी दर्शन उभरे जिन्होंने यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व से भी इनकार कर दिया. वे ब्राह्मणी प्रभुत्व के आम जनता द्वारा ठुकराए जाने को प्रतिबिंबित कर रहे थे.

ब्राह्मणवाद खुद अपने वजन से चरमरा रहा था और व्यापक आम जनता ने उत्पीड़नकारी जाति प्रथा के विरुद्ध अचेतन प्रतिरोध के एक रूप में ईसापूर्व छठी और पांचवीं शताब्दी में प्रतिद्वंद्वी धार्मिक प्रवृत्तियों – बौद्ध धर्म और कुछ हद तक जैन धर्म के पीछे गोलबंद होना शुरू किया.

इन दोनों प्रवृत्तियों ने जाति प्रथा और संगठित पुरोहितकर्म को ठुकराया. मुख्यतः बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणवाद की जगह ले ली और ईसापूर्व तीसरी शताब्दी व पहली और दूसरी ईस्वी शताब्दी के बीच मौर्च एवं कुषाण वंशीय राजाओं के दौर में तो वह राजकीय धर्म भी बन गया. जटिल उपासना पद्धतियों और आम जनता से अलगाव के चलते ब्राह्मणी कुलीनतंत्र बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के सामने अत्यंत हल्का साबित हुआ.

बौद्ध धर्म के विरुद्ध अपने संघर्ष के दौरान ब्राह्मणवाद ने आदि शंकराचार्य के नेतृत्व में अपने स्वरूप में भारी रद्दो-बदल किया. इस प्रकार, वह दौर शुरू हुआ जिसे आज हिंदू धर्म के नाम से जाना जाता है. बौद्धों ने ही सबसे पहले मंदिरों की अवधारणा पेश की थी. जनसमुदाय को भावाभिभूत कर देने के लिए विशालाकाय हिंदू मंदिर बनाए गए और उनमें देवताओं की दैत्याकार प्रतिमाएं स्थापित की गईं. तीर्थ स्थानों की नींव ङाली गई तथा जनगोलबंदी की गारंटी करने के लिए सार्वजनिक महोत्सवों और धार्मिक जुलूसों की शुरूआत की गई. देवताओ को जनसमुदाय के करीब लाने के ख्याल से अवतारों की अवधारणा का जन्म हुआ. राम और कृष्ण जैसे लोकप्रिय वीरों को देवताओं के अवतार का और इस प्रकार मोक्षदाता का दर्जा दिया गया. बुद्ध को भी विष्णु का एक अवतार मान लिया गया. बड़े अचरज की बात है कि जहां बौद्ध धर्म चारों ओर फैला और विश्व धर्म बन गया, वहां खुद अपनी जन्मभूमि में वस्तुतः इसका नामोनिशान मिट गया.

मूल हिंदू धर्म का मकसद था जनसमुदाय को प्रभावित करने और उसे नियंत्रित करने के नए तरीकों के साथ पुरानी जाति प्रथा को बनाए रखना. सामाजिक स्तरीकरण, जाति व नस्ली विविधता और वर्ग संबंधों की जटिलता के विकास के चलते हिंदू लोग परस्पर विभाजन की एक अनंत प्रक्रिया के जरिए विभिन्न पंथों में बंटते चले गए.

कुछ लोगों ने ‘सर्वपंथ समभाव’ – बाद में जिसे ‘सर्वधर्म समभाव’ बना दिया गया और जिसे भारतीय धर्मनिरपेक्षता का आधार घोषित किया गया – कायम करने के असफल प्रयत्न किए. परवर्ती दौर में इस्लाम और बाद में ईसाई धर्म के असर से धार्मिक सुधार आंदोलनों का उदय हुआ.

कबीर, नानक, चैतन्य और अन्य ढेरों सुधारकों ने – जिनका योगदान मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के नाम से जाना जाता है – जातिप्रथा पर और हिंदू धर्म के जटिल कर्मकांडों पर हमला किया.

कबीर इन तमाम सुधारकों के बीच सबसे विशिष्ट हैं. उन्होंने आम जनता की ओर से अंधविश्वास और ब्राह्मणों के पाखंड पर अत्यंत कटु प्रहार किए. ब्रिटिश दौर में राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती और विवेकानन्द सुधार के मुख्य प्रवक्ता थे. उन सबों ने वेदांत धारा के कर्वेश्वरवादी दर्शन की हिमायत की और जाति प्रथा की कठोरता को दूर करने का प्रयत्न किया.

तथापि, इनमें से प्रत्येक की उपलद्धि मात्र यही रही कि उन्होंने हिंदू धर्म में एक-एक पंथ और जोड़ दिए. अपनी इस तथाकथित ईश्वरीय कठोर जातिप्रथा के चलते हिंदू धर्म ने अपने दरवाजे सदा-सर्वदा के लिए बंद कर लिए हैं और वह मूलतः एक राष्ट्रीय धर्म बनकर रह गया है, जबकि बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म और बाद में इस्लाम धर्म विश्व धर्मों के रूप में विकसित हुए. लिहाजा विश्व हिंदू परिषद एक झूठा नामकरण है, हिंदू धर्म को एक विश्व धर्म के रूप में प्रदर्शित करने का एक स्वांग है.

हिंदू धर्म के तमाम प्रगतिशील सुधार आंदोलनों ने मिथ्या हिंदू गौरव को हवा देने से कहीं अधिक हिंदू धर्म को एक उदारवादी, आधुनिक चेहरा प्रदान करने की कोशिश की और उसके जाति ढांचे की कठोरता को दूर करने पर खासतौर से जोर दिया. हिंदू रूढ़िवादियों ने परंपराओं और परंपरागत संस्थाओं के बल पर इन सबों का कमोबेश सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया. जबकि पहली बार संघ परिवार की छत्रछाया में एक उल्टा आंदोलन उभरा है जिसका लक्ष्य है, सुधारों ने जो भी प्रभाव डाला है उन सबों को खारिज कर देना. अगर कोई हिंदुत्व के मौजूदा उभार से हिंदू धर्म में सामाजिक सुधार की उम्मीद करता है तो कहना होगा कि वह बज्रमूर्ख है. अबतक तो यह आंदोलन हमें केवल इतिहास की जानबूझकर की गई तोड़-मरोड़, साधुओं और महंतों की सामाजिक गिरफ्त और रानजीतिक घुसपैठ की बढ़ोतरी, ऊंची जाति के हिंदुओं का नए सिरे से आक्रामक बनना और, अधिक से अथिक बजरंग दल और शिवसैनिकों की लंपट सेना ही प्रदान कर सका है. संघ परिवार के सिद्धांतकार इसी की बड़ाई हिंदुत्व के उभार, खालसा की तरह हिंदू धर्म के अंदर क्षत्रियत्व के उत्थान और हां, हिंदू गौरव की अभिव्यक्ति के बतौर करते हैं.

जैसा कि ठीक ही कहा गया है, धर्म अपने परिवेश के समक्ष मुनष्य की शक्तिहीनता की अभिव्यक्ति है. धार्मिक फंतासी परिवेश द्वारा लादी गई सीमाओं और बंधनों को तोड़े जाने का भ्रम प्रदान करती है. लिहाजा आम जनता, खासकर विपत्तियों से  घिरने पर, धर्म की शरण में हमेशा दौड़ जाती है.

लेकिन भ्रम तो भ्रम ही होते हैं. वे यथार्थ का स्थान कभी नहीं ले सकते. हिंदू गौरव को उभार कर और एक बंदर-भगवान की अतिमानवीय भूमिका से प्रेरणा लेकर एक जीर्णशीर्ण ढांचे को ढाह देना तथा हजारों निहत्थे निर्देश लोगों की हत्या करना या उन्हें अपंग बना देना जरूर संभव है लेकिन उससे नवऔपनिवेशिक शक्तियों के आक्रमण को रोका नहीं जा सकता. यह आक्रमण अक्षुण्ण रूप से जारी है और विडंबना ही है कि हिंदू गौरव की धूनी रमानेवाली ये शक्तियां इस विदेशी आक्रमण में सहयोगी भूमिका ही निभा रही हैं.

‘धर्मनिरपेक्ष’ हिंदूवाद का मिथक

संघ परिवार द्वारा अक्सर दोहराया जानेवाला अन्य तर्क है कि भारत के धर्मनिरपेक्ष होने का कारण भारतीय आबादी की विशाल बहुसंख्या का हिंदू होना है. प्रसंगवश, भारत में आधिकारिक तौर पर ‘धर्मनिरपेक्ष’ कहे जानेवाले लोग भी हिंदू धर्म के अंदर तथाकथित अंतर्निहित सहिष्णुता को धर्मनिर्पेक्षता के समतुल्य करार  देते हैं. लिहाजा भारत में धर्मनिरपेक्षता के हर तरह के प्रचार में लगातार बुनियादी हिंदू विश्वासों की दुहाई दी जाती है.

हिंदुत्व के मौजूदा उभार के साथ-साथ हिंदू जनसमुदाय के अंदर धार्मिक उन्माद की दिल दहला देनेवाली मात्रा में वृद्धि, राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में साधुओं और महंतों की बढ़ती दखलंदाजी, समाज के हर तरह के कूड़े-कचरों का बजरंग दल और शिवसेना जैसे संगठनों में खतरनाक ढंग से सुसंगठित होते जाना, मुस्लिम विरोधी नरसंहारों की तेज होती बाढ़, राज्य की विभिन्न शाखाओं द्वारा सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों का खुला प्रदर्शन और शिक्षा जगत में किसी भी किस्म के विरोधी विचारों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता भी नजर आ रही है. यह पक्के तौर पर दिखाता है कि शुद्ध हिंदू राज्य का अर्थ केवल जनवाद और धर्मनिर्पेक्षता का निषेध ही हो सकता है.

दूसरे, अनेक विकसित देश जहां ईसाई धर्म अथवा बौद्ध धर्म बहुसंख्यकों के धर्म हैं, वे भारत से काफी अधिक धर्मनिरपेक्ष हैं. खासकर ईसाई धर्म पूरी तरह रूढ़िवादी और असहिष्णु धर्म था – धार्मिक अदालतों की याद थोड़ी ताजा कीजिए – और कतिपय युरोपियन देशों में चर्च अत्यंत शक्तिशाली संस्था थी. तथापि, आगे चलकर ईसाई धर्म के अंदर से विभिन्न प्रवृत्तियों का उदय हुआ और सफल पूंजीवादी क्रांतियों ने चर्च को राज्य से अलग कर दिया. दरअसल धर्म और राज्य के अलगाव पर आधारित धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा खुद पश्चिम की सफल पूंजीवादी क्रांतियों से उत्पन्न हुई.

तथापि, हिंदू धर्म के तथाकथित अंतर्निहित धर्मनिरपेक्ष चरित्र के प्रचारक इसकी तुलना में केवल इस्लाम धर्म की तथाकथित अंतर्निहित असहिष्णुता को खड़ा करते हैं. इस्लाम धर्म के बारे में हिंदुओं की विशाल बहुसंख्या की धारणा भी यही है. लिहाजा, इस्लाम धर्म के अभ्युदय की गहरी जांच-पड़ताल जरूरी है.

छठी शताब्दी में अरब में रहनेवाले कबीले परस्परघाती टकराहटों में उलझे थे. कारवां के जरिए होनेवाले व्यापार में गिरावट आ चुकी थी और नतीजे के तौर पर लोगों में जमीन की भूख बढ़ गई थी. इस परस्परघाती युद्ध के पीछे जमीन की यह भूख ही मुख्य कारक थी. इस्लाम का उदय उस सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति में परस्पर युद्धरत कबीलों को एक करने के आंदोलन के बतौर हुआ. इसी ऐतिहासिक परिस्थिति में मुहम्मद ने विभिन्न कबीलाई पंथों को एक दूसरे के साथ मिल जाने और एक ही सर्वोच्च भगवान – आल्लाह – के सामने नतमस्तक होने का उपदेश देना शुरू किया. प्रारंभ में खुद उनके अपने कुरैशी कबीले के सरदार और व्यापारी भद्रजन उनके विचारों के खिलाफ थे. लिहाजा उन्हें मक्का भाग जाना पड़ा. मदीना के लहलहाते खेतों से भरे मरुद्यानों की जनता की मक्का के रईसजादों के साथ ठनी हुई थी और उन्होंने मुहम्मद को एक शक्तिशाली समर्थन आधार प्रदान किया. अंततः उनकी मदद से मुहम्मद ने मक्का पर कब्जा कर लिया. मक्का के एक महत्वपूर्ण धार्मिक व राष्ट्रीय केंद्र बन जाने के बाद कुरैशी भद्रजनों ने न केवल इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया, बल्कि वे इसके नेता बन गए.

एंगेल्स ने लिखा है कि इस्लाम धर्म एक ऐसा धर्म था जो एक ओर शहरी व्यापारियों और कारीगरों का धर्म था तो दूसरी ओर यायावर बद्दुओं (अरब में लूटपाट करनेवाली एक जाति) का.

इस्लाम धर्म, जिसका उदय अरबों के राष्ट्रीय धर्म के बतौर हुआ था, जल्दी ही विश्व धर्म में बदल गया. 8वीं और 9वीं शताब्दी तक इस्लाम धर्म स्पेन से लेकर मध्य एशिया तक फैला और भारत की सीमाओं तक पसरे विशाल भूभाग में एकमात्र धर्म बन गया. परवर्ती शताब्दियों में यह उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर फैल गया. इसके बाद यह इंडोनेशिया, काकेशिया और बाल्कन राज्यों के कुछ लोगों के बीच भी फैल गया.

जेहादों में हासिल फतह और एकताबद्ध होने और नई धरती पर कब्जा करने की अरब आवश्यकता ने इस्लाम धर्म के प्रसार में  प्रमुख भूमिका निभाई. लेकिन अगर बैजेंटाइन और सिसमद साम्राज्य जैसे अनेक राज्यों के बाशिन्दों ने उनका कोई प्रतिरोध नहीं किया तो इसका कारण स्थानीय सामंती सरदारों द्वारा उनका भयानक शोषण था. अरबो ने जिन-जिन देशों को जीता वहां-वहां उन्होंने किसान जनसमुदाय – खासकर जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया – पर से देनदारियों का बोझ उल्लेखनीय तौर पर घटा दिया. भारत में अमानवीय ब्राह्मणवादी जाति-उत्पीड़न ने इस्लाम के प्रसार को सहज बना दिया. इस्लाम धर्म के इतने प्रसार का श्रेय कुछ इसकी सादगी को भी है जो पूरब के पितृसत्तात्मक सामंती राज्यों के किसान जनसमुदाय को अनायास आकृष्ट कर लेता था.

बाद में मुस्लिम धर्मज्ञों और धर्मनिरपेक्ष उलेमाओं ने जेहाद के ईश्वरादेशों की पुनर्व्यख्या की है. यहां तक कि एक पवित्र पुस्तक और राम व कृष्ण को अपने-अपने युगों के देवदूतों के रूप में पेश करते हुए हिंदू धर्म की भी पुनर्व्यख्या करने के प्रयत्न किए गए हैं. इस संदर्भ में पाठक भूले नहीं होंगे कि बिहार के मुस्लिम धर्मज्ञ मंडली के अंदर हाल में एक बहस चली थी जिसमें एक मुस्लिम उलेमा ने हिंदुओं पर चस्पां काफिर लेबुल को वापस ले लेने का आह्वान किया था.

इस्लाम ने धार्मिक कानूनों के आधार पर दीवानी और फौजदारी कानूनों को संहिता का रूप देने की कोशिश की है जो शरीयत के नाम से मशहूर है. पितृसत्तात्मक कबीलाई रुख ने इस्लाम धर्म में पारिवारिक नैतिकता पर सचमूच अपनी छाप छोड़ी है और महिलाओं को पुरुषों के मातहत रखा गया है. संभवतः सभी धर्मों में ऐसा ही किया गया है. तथापि, अरब की तत्कालीन ठोस सामाजिक परिस्थितियों में कुरान ने अपनी पत्नी के प्रति पति के क्रूर आचरण की निंदा करके और महिलाओं के संपति-संबंधी अधिकारो – देहज और विरासत – का ब्यौरा पेश करके वस्तुतः महिलाओं की हैसियत को बुलंद किया है.

हालांकि इस्लाम ने धर्म के झंडे तले बड़े पैमाने पर लोगों को एकताबद्ध किया, तथापि मुस्लिम देशों में राष्ट्रीय और वर्ग अंतर्विरोधतीखे होते गए. यह इस्लाम धर्म के अंदर विविध प्रवृत्तियों और पंथों के उदय के जरिए प्रतिबिंबित हुआ.

एक ऐसी ही सबसे शुरूआती और सबसे बड़ी प्रवृत्ति शिया पंथ रही है. यह मुहम्मद के वारिशों के बीच सत्ता संघर्ष के रूप में अरबों के आपसी संघर्ष के बतौर शुरू हुआ. लेकिन जल्दी ही इसने अपने अरब विजेताओं के खिलाफ फारसी (ईरानी) असंतोष की अभिव्यक्ति का रूप धारण कर लिया. शिया पंथ आजतक ईरान का राजकीय धर्म है. दुनिया के अधिकांश मुसलमान यद्यपि सुन्नी पंथ के अनुयायी है. 8वीं और 9वीं शताब्दियों में मोतजलों ने, जो कि सुन्नियों का एक पंथ हैं, मुस्लिम सिद्धांतों की वैज्ञानिक भावना से व्याख्या करने की कोशिश की और यह कहा कि कुरान आदमी द्वारा लिखी गई किताब है, अल्ला-ताला द्वारा नहीं तथा हर आदमी को अपनी स्वतंत्र इच्छा रखने का हक है. धार्मिक सूत्रों की शाब्दिक व्याख्या पर आधारित विचारधारा के खिलाफ खुद इस्लाम के अंदर कुछ ऐसी विचारधाराएं उभरीं जिन्होंने इस्लाम धर्म की बुनियादी बातों की अधिक उदारवादी व्याख्या की इजाजत दी. मुस्लिम विश्व के अपेक्षाकृत विकसित अंचलों में इसे अच्छा समर्थन मिला.

सूफी पंथ शिया पंथ से उत्पन्न हुआ लेकिन इसने सुन्नियों को भी समेटा. सूफी पंथ के अनुयायी सतही कर्मकांडों पर अधिक ध्यान नहीं देते थे और ईश्वर के साथ रहस्यवादी सम्मिलन की आकांक्षा रखते थे. सच कहा जाए तो भगवान के बारे में उनकी सर्वेश्वरवादी अवधारणा कुरान से दूर हट गई थी. प्रारंभ में रूढ़िवादी मुसलमानों ने उन्हें बड़ा सताया. लेकिन बाद में उनसे समझौता कर लिया गया.

19वीं और 20वीं शताब्दी में जनवादी क्रांतियों और साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों के युग से तालमेल करते हुए मुस्लिम परंपराओं में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए. कई मुस्लिम देशों में शरीयत के असर की हद बांध दी गई है, कानूनी मानदंडों को धर्मनिरपेक्ष बना दिया गया है और राज्य को मुस्लिम मौलवियों की गिरफ्त से आजाद कर दिया गया है. 1920 के दशक में तुर्की में कमाल पाशा के नेतृत्व में जनवादी क्रांति हुई और गणतंत्र की स्थापना के बाद क्रांतिकारी सुधार लागू किए गए.

भारत एक शास्त्रीय उदाहरण है जहां इस्लाम धर्म हिंदू धर्म के साथ-साथ शताब्दियों तक रहा जो कि मूर्तिपूजक व अनेकेश्वरवादी धर्म है. धार्मिक विश्वासों के स्तर पर इन दोनों के बीच शायद ही कोई मिलनबिंदु नजर आता है, लेकिन ग्रासरूट स्तर पर दोनों धर्मों के लोग मिलजूलकर जी रहे हैं, साझी अभिलाषाएं पाल रहे हैं और कई साझे विश्वासों की डोर से भी बंधे हुए हैं. देश को चूंकि हिंदू-मुस्लिम आधार पर बांटा गया इसलिए स्वभावतः भारत में रहनेवाले मुसलमानों के दिल में पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति रहेगी, ठीक वैसे ही जैसे कि कोई पाकिस्तानी अथवा बांग्लादेशी हिंदू भारत से सहानुभूति रखता है. तथापि, विभाजन के बाद भारतीय मुसलमानों की राजनीति आमतौर पर कांग्रेस के गिर्द चक्कर काटती रही है. अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए कांग्रेस ने मुस्लिम कट्टरपंथी शक्तियों के साथ – अक्सर उसने हिंदू कट्टरपंथियों के साथ जो समझौते किए हैं उन्हें संतुलित करने के लिए – राजनीतिक व सामाजिक समझौते किए. इस खेल की स्पष्टतः सीमाएं थीं और हाल में घटी घटनाओं ने मुस्लिम समुदाय के अंदर कांग्रेस के प्रति जो मोह था उसे दूर कर दिया है. जनता दल जैसी पार्टियां कांग्रेस की दुर्दशा से फायदा बटोरने आगे आई  हैं, तथापि वे भी उन्हीं मुस्लिम कट्टरपंथी शक्तियों के साथ गठजोड़ कर रही हैं.

भाजपा द्वारा की जा रही हिंदू राज्य की वकालत और उसका धार्मिक पागलपन केवल, हालांकि नकारात्मक रूप से, मुसलमानों के भीतर की कट्टरपंथी शक्तियों को ही ताकतवर बना रहा है. प्रगतिशील सामाजिक सुधार के बतौर द्विविवाह अथवा बहुविवाह का विरोध एक बात है, लेकिन उसे मुस्लिम आबादी की वृद्धि के साथ जोड़ना बिलकुल जुदा बात है. ज्यादा बच्चे पैदा करना सामंती समाज की विशेषता है और इसका धर्म के साथ कोई रिश्ता नहीं है. भारत में मुसलमानों की कोई बड़ी संख्या शायद ही एक से अधिक विवाह करती है. इससे भी बढ़कर, दिमाग से थोड़ा-सा भी काम लेने पर यह समझना मुश्किल नहीं है कि पुरुष और स्त्री आबादी का जो अनुपात है उससें किसी समाज में न तो यह आम परिघटना हो सकती है और न ही यह किसी प्रकार आबादी की वृद्धि के लिए उत्तरदायी ही हो सकती है. समरूप नागरिक संहिता और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के प्रति भाजपा की चिंता निपट धोखा है और मुस्लिम पहचान पर सामग्रिक आक्रमण का अंगमात्र है. शाहबानो के मुकदमे में टांग अड़ाकर इसने मुसलमानों के अंदर केवल रूढ़िवादी प्रतिगमन को ही निमंत्रित किया और एक प्रगतिशील सामाजिक सुधार को धक्का पहुंचाया अन्यथा उसे मुसलमानों के बीच भी अच्छा समर्थन हासिल था.

हिंदू भारत में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की वकालत करके भाजपा मुसलमानों के अंदर केवल पाकिस्तानपरस्त भावनाओं को ही शक्तिशाली बना रही है. इसी प्रकार, मुस्लिम पहचान को हिंदू, ‘सांस्कृतिक’ पहचान में शामिल कर देने की मांग, हिंदू पहचान को भारतीयता की पहचान के समतुल्य बना देने की भाजपाई चालबाजी के बावजूद, मिश्रित भारतीय पहचान का सीधासीधी निषेध है. संघ परिवार के विचारधारात्मक आक्रमण भारतीय मुसलमानों के बीच पाकिस्तान के मिथक को शक्तिशाली बनाएंगे और उसे केवल अमरता ही प्रदान करेंगे.

भारतीय मुसलमानों के बीच पाकिस्तान और पाकिस्तानी मिथक भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के सुस्पष्ट हिंदू पूर्वाग्रह के चलते पैदा हुए थे और संघ परिवार की हिंदुत्व की सनक के बल पर आज भी जिंदा है और उससे यह नई खुराक पाता जा रहा है.

स्वतंत्रता संघर्ष में उन्होंने जैसी विश्वासघाती भूमिका निभाई थी, ठीक उसी तरह आज वे नवऔपनिवेशिक खतरों के खिलाफ भारतीय जनता के प्रतिरोध को विभाजित करने और उसे कमजोर करने के लिए फिर उसी विश्वासघाती भूमिका को दोहरा रहे हैं. संघ परिवार फिर अपने मालिक की खिदमत में हाथ जोड़े हाजिर है, आज ठीक उस घड़ी में जबकि उसके खिदमत की उसके मालिक को सबसे ज्यादा दरकार है. तथापि, भाजपा भारतीय मुसलमानों के तकदीर की आखिरी इबादत नहीं लिखने जा रही है. मुस्लिम नौजवानों की नयी पीढ़ियां पाकिस्तान के साथ कोई गहरा जज्बाती जुड़ाव नहीं रखती हैं और भारत में वे अपनी जगह भारतीय मुसलमानों के बतौर बनाना चाहती हैं. वे धर्मनिरपेक्ष राज्य के विचारों के प्रति बड़े आग्रही हैं. हाल की घटनाओं ने उन्हें वामपंथ के  करीब ला दिया है. प्रगतिशील और जनवादी मुस्लिम बुद्धिजीवी मुस्लिम समाज के अंदर जनवादी सुधार के लिए आवाज उठा रहे हैं तथा आधुनिक शिक्षा और खासकर मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को ऊंचा उठाने पर जोर दे रहे हैं. तमाम धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को चाहिए कि वे भारतीय मुसलमानों के अंदर की इस विकासमान धारा को अवश्य शक्तिशाली बनाएं जो कि भारत के भाग्य का फैसला करने में उन्हें समान साझीदार बना देगा. एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य पाकिस्तान के अस्तित्व के मूलाधार को निस्संदेह नष्ट कर देगा और अगर तब भी पाकिस्तान बना रहा तो मुतमईन रहिए, भारतीय मुस्लिम नौजवान किसी क्रिकेट मैच में पाकिस्तान पर भारत की विजय का त्यौहार उसी जोश-खरोश से मनाएगा जिस जोश-खरोश के साथ कोई हिंदू भाई मनाएगा.

उपसंहार के बदले में

संभवतः मार्च में एक कामरेड ने मुझे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव के दौरान एबीवीपी द्वारा जारी एक प्रश्नावली दी और आग्रह किया कि मैं उन्हें ‘मुहतोड़’ जवाब दूं. प्रश्न कम्युनिस्टों के खिलाफ अक्सर दोहराए जानेवाले आरोपों, उनकी विदेशी जड़ों, भारत छोड़ो आंदोलन, भारत विभाजन और यहां तक कि इमर्जेंसी के दौरान उनकी भूमिका आदि की पुनरावृत्ति भर थे. एबीवीपी को बड़ा उचरज है कि सोवियत संघ के विध्वंस के बाद मार्क्सवाद की भला भारत में क्या प्रासंगिकता है. परम आश्चर्य! एबीवीपी को खुद बीएचयू में जल्दी ही करार जवाब मिलना था!

बीएचयू कैंपस की लड़ाई ने स्पष्टतः विचारधारात्मक आयाम ग्रहण कर लिया है. एबीवीपी को आइसा के हाथों करारी हार सहनी पड़ी. यह विजय एकमात्र आइसा की विजय थी, क्योंकि सीपीआई और सीपीआई(एम), जनता दल, मुलायम यादव और यहां तक कि भूतपूर्व नक्सलपंथियों के छात्र संगठन, सभी आइसा को हराने के लिए कार्य कर रहे थे. बीएचयू की जीत नैनीताल और इलाहाबाद में मिली जीतों की अगली कड़ी के बतौर हुई थी और इसने प्रचार माध्यम का बड़े पैमाने पर ध्यान आकृष्ट किया.

संघ परिवार के सिद्धांतकार कल तक मार्क्सवाद की ‘मृत्यु’ का रसास्वादन कर रहे थे और इस तथ्य की पुष्टि में पश्चिम बंगाल और केरल में अपने प्रभाव विस्तार की शेखियां बघार रहे थे. उत्तरप्रदेश के बौद्धिक केंद्रों में मार्क्सवाद के पुनरुत्थान ने उन्हें बड़ी सांसत में डाल दिया. इस तरह प्रत्याक्रमण के लिए परिस्थिति परिपक्व थी. और यों इस लोकप्रिय लेखमाला के विचार का जन्म हुआ.

दुर्भाग्यवश संघ परिवार के सांप्रदायिक दर्शन के विरुद्ध लिखे गए अधिकांश लेख उदारवादी हिंदू विचार प्रणाली के चौखटे में फंसे हुए थे. धर्मनिर्पेक्ष आत्मरक्षा की मुख्यधारा थी राम के गुणें का बखान, हिंदू सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव की विषयवस्तु तथा इसी के साथ-साथ गांधी और विवोकानंद की उदार हिंदू छवि को सामने लाना तथा संप्रदायवादियों के विवेक को झकझोरना. वामपंथी नेताओं ने भी धर्म की भूमिका के हाल में हुए अहसास की आड़ में इसमें योगदान किया. यहां तक कि सीपीआई और सीपीआई(एम) वालों के अतिप्रिय नेहरू भी प्रतिबंधित हो गए और धर्मनिरपेक्ष वाम साहित्य में उनकी जगह चुपचाप गांधी ने दखल कर ली. निस्संदेह यह छद्म धर्मनिरपेक्षता है!

बेशक, हिंदू राष्ट्र के फासिस्ट मतलब को ठीक ही पहचाना गया और इसी तरह धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की व्यापक एकता का निर्माण करने की आवश्यकता भी ठीक ही महसूस की गई. लेकिन वाम केंद्रक को शक्तिशाली बनाने पर नए सिरे से जोर डालने के अभाव  में इसने विचारधारात्मक और राजनीतिक अवसरवाद की बाढ़ आने का रास्ता साफ कर दिया. कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्याक्रमण की तीक्ष्ण धार से वंचित समूचा धर्मनिरपेक्ष प्रचार सांप्रदायिक आक्रमण की पराकाष्ठा के सामने निष्फल हो जा सकता है. तब चुनौती कौन स्वीकार करेगा? जवाबदेही निस्संदेह मार्क्सवादी-लेनिनवादियों के कंधों पर आ जाती है.

सांप्रदायिक फासिज्म के विरुद्ध अपने लोकप्रिय प्रचार के दौरान हमने सवाल खड़ा किया –

(क) स्वतंत्रता संघर्ष में हिंदू प्रतीकों, खासकर रामराज्य को लाने के गांधीवादी तरीके पर, और कहा कि मुसलमानों को विमुख करने के पीछे यही मुख्य कारण था.

(ख) सर्वधर्म समभाव के रूप में धर्मनिरपेक्षता की राधाकृष्णन द्वारा की गई परिभाषा पर – जो सरकारी मत भी बन गया है – और कहा कि धर्म के प्रति आधुनिक राज्य की नीति केवल ‘सर्वधर्म विवर्जिते’ ही हो सकती है.

(ग) एक धार्मिक चरित्र राम को राष्ट्रीय नायक घोषित करने की वैज्ञानिकता पर, और कहा कि यह मर्यादा केवल जननायक भगत सिंह को दी जा सकती है.

(घ) देश की एकताकारी शक्ति के बतौर हिंदू राष्ट्र की उपयुक्तता पर, और कहा कि अगर इतिहास से सीखा जाए तो हिंदू राष्ट्र निश्चित रूप से देश को छोटे-छोटे रियासतों में तोड़ देगा. हिंदू राष्ट्र के साथ-साथ विकास कर रहा शिवसेना का मराठा राष्ट्रवाद इसी का सूचक है.

(च) 1942 सहित स्वतंत्रता संघर्ष के समूचे दौर में, भारत विभाजन को प्रेरित करने और समर्थन करने में, उस दौरान समूची मुस्लिम आबादी को पाकिस्तान भेज देने की मांग में, इमर्जेंसी के आखिरी दिनों में इंदिरा कांग्रेस के साथ मेलजोल बढ़ाने में आरएसएस ने खुल्लामखुल्ला एक विदेशी विचारधारा नाजीवाद से प्रेरणा ग्रहण की है.

(छ) मुसलमानों का हौआ खड़ा करके स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान औपनिवेशिक मालिकों के खिलाफ लड़ाई के निशाने को कमजोर करने की आरएसएस की शैली पर, और कहा कि आज भारत जब नवऔपनिवेशीकरण के गंभीर खतरे के सामने खड़ा है तब एक बार फिर ठीक वही इतिहास दोहराया जा रहा है.

(ज) भारतीय विदेश नीति की पाकिस्तान विरोधी धुरी पर, और कहा कि पाकिस्तान के साथ दोस्ताना रुख और जम्मू-कश्मीर के द्विपाक्षिक विवादों का सकारात्मक निपटारा भारत में सांप्रदायिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए अहम है. हमने यहां तक कि भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश के स्वतंत्र राज्यों का राष्ट्रकुल बनाने का भी प्रस्ताव रखा.

अपने जवाबी हमले में हमने बताया कि भाजपा का सर्वाधिक अनुदार पूंजीपति व जमींदार वर्ग और उच्च जाति वाला सामाजिक संयोजन, नागरिक व राजनीतिक जीवन में साधुओं और महंतों का बढ़ता हस्तक्षेप, कारसेवकों की नकाब में समाज के बुरे तत्वों का जुझारू संगठन तथा इतिहास को झुठलाने पर तुले, नफरत फैलाने में लगे और अकादमिक क्षेत्र में विरोध की तमाम आवाजों को बलपूर्वक दबा रहे उद्धत बुद्धिजीवियों के झुंड आपस में जुड़कर फासिज्म के लिए एक आदर्श सम्मिश्रण का निर्माण करते हैं.

पुनश्च  

बाबरी मस्जिद को ढाह दिया गया है. हर तरह के जनवादी तत्वों ने ठीक ही मांग की है कि ऐतिहासिक न्याय के लिए ठीक उसी स्थान पर बाबरी मस्जिद का पुनर्निर्माण किया जाना चाहिए. बहरहाल, इसमें संदेह है कि इस मंजिल में यह संभव अथवा  व्यावहारिक होगा अथवा नहीं.

एक कामचलाऊ राम मंदिर वहां मौजूद है. राव सरकार जिस तरह आगे बढ़ रही है – ‘धर्म को राजनीति से अलग करने’ की विशिष्ट कांग्रेसी शैली में – चंद्रस्वामी और शंकराचार्यों के जरिए केवल पर्दे के पीछे सक्रिय रहते हुए – उससे ऐसा लगता है कि राम मंदिर का मामला मजबूत होते जा रहा है. मंदिर बनाने का श्रेय कौन लेगा – कांग्रेस अथवा भाजपा, एकमात्र यही मुद्दा हल होना शेष है.

संघ परिवार के सिद्धांतकार बार-बार कह रहे हैं कि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद केवल धार्मिक विवाद नहीं है. उनके अनुसार बाबरी मस्जिद चूंकि राष्ट्रीय अपमान – मुस्लिम आक्रमण और हिंदू भारत पर मुस्लिम शासन – का प्रतीक था, लिहाजा यह राष्ट्रीय मर्यादा का प्रश्न कहीं अधिक है.

राष्ट्रवाद और देशभक्ति के हित में वहां क्यों नहीं एक राष्ट्रीय स्मारक का निर्माण किया जाए? न बाबरी मस्जिद और न राम मंदिर, 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायकों की याद में एक राष्ट्रीय स्मारक. आखिरकार, अवध इस महाविद्रोह का केंद्र था. अयोध्या में राष्ट्रीय स्मारक उस इतिहास का उचित सम्मान होगा.

अगर हिंदू धर्म केवल धर्म नहीं, बल्कि भारत में रहनेवाले तमाम लोगों की संस्कृति है, अगर हिंदू धर्म भारतीयता का पर्याय है और अगर बाबरी मस्जिद को राष्ट्रीय अपमान का प्रतीक मानकर तोड़ा गया, तो संघ परिवार को राष्ट्रीय गौरव का स्मारक बनाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. संघ परिवार के अतिराष्ट्रबादी और अति देशभक्त इस प्रस्ताव को स्वीकार तो करें और देखें कि मुसलमान ‘राष्ट्रविरोधी’ इसपर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं. श्रीमान मलकानी और गोविंदाचार्य क्या मेरी बात आपके कानों में घुस रही है?

मेरी बात वे सुनें अथवा मत सुनें, धर्मनिरपेक्ष व देशभक्त शक्तियों द्वारा इस प्रस्ताव को पेश करने का यही सही समय है, ताकि वहां राम मंदिर के निर्माण को रोका जा सके. राम मंदिर भारतीय मुसलमानों के अपमान और अलगाव का स्थायी स्रोत होगा. और इस अर्थ में यह राष्ट्रीय विघटन का प्रतीक है.

वर्तमान में एक राष्ट्रीय स्मारक इस मंजिल में एकमात्र उसूली और व्यावहारिक मांग होगा तथा राष्ट्र, अगर जरूरी हुआ तो, एक राष्ट्रीय विपत्ति को दूर करने के लिए तमाम किस्म के कट्टरपंथियों की अनसुनी करके इसे अवश्य करे.