काले धन और भ्रष्टाचार से मुक्ति के नाम पर भारत के लोग 8 नवम्बर 2016 की आधी रात को घोषित नोटबंदी से थोड़ा पहले बुरी तरह ठगे जा चुके थे. आने वाले हफ्तों और महीनों में  लोगों की तकलीफों और पीड़ाओं का अनवरत सिलसिला शुरू हुआ. नोटबंदी के मकसद को भी बार-बार बदला गया, कभी कहा गया की यह काले धन को समाप्त करने के लिए हैं, कभी कहा गया की यह नकली नोटों को समाप्त करने के लिए है तो कभी कहा गया की यह कैशलेस समाज बनाने के लिए है. हम सब इस किस्से से वाकिफ हैं.

भाकपा-माले और इसके जनसंगठन नोटबंदी के कहर के खिलाफ पहले दिन से अभियानरत थे. हालिया विधानसभा चुनावों में अपनी जबरदस्त सफलता को भाजपा, नोटबंदी के लोकप्रिय समर्थन के रूप में पेश कर रही है. यदि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के नतीजे इस कदम के समर्थन के रूप में दिखाए जा रहे हैं तो पंजाब और गोवा के नतीजों को इस कदम को खारिज करने के रूप में भी देखा जाना चाहिए. हक़ीकत यह है कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के लोगों ने नोटबंदी के बावजूद भाजपा को वोट दिया है तो इसका कारण यह है कि इन प्रदेशों की जनता नोटबंदी से हुई तकलीफों के बावजूद बदलाव के पक्ष में वोट कर रही थी. सचाई यह है कि लोगों ने नोटबंदी की तकलीफों को इस उम्मीद से झेल लिया कि इससे काले धन पर लगाम लगेगी और भ्रष्ट अमीरों को सजा मिलेगी. इस अर्थ में कहा जा सकता है कि वित्तीय समावेश और डिजिटल सशक्तीकरण जैसी मोदी की बकवादी राजनीति का असर जरूर हुआ है.

जनपक्षधर ताकतों के लिए यह सरकार के गरीब-समर्थक ढोंग का पर्दाफाश करने और नोटबंदी के पीछे के असली मकसद का भंडाफोड़ करने का समय है. आगामी पृष्ठों में हमने यह दिखाया है कि किस तरह 'कैशलेस' का विचार आर्थिक मंदी के दौर में विकसित अर्थव्यवस्थाओं में पैदा हुआ. उसके बाद अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के संगठनों (अमेरिका की वित्तीय-तकनीकी लॉबी, जिसमें तकनीकी लॉबी का प्रतिनिधित्व अन्य लोगों के साथ बिल गेट्स करते हैं) और उसके देशी सहयोगियों के जरिए उसे तीसरी दुनिया के लोगों पर लादा गया. कैसे यूपीए सरकार के आखिरी वर्षों में भारत के केंद्रीय बैंक ने इसे लागू करने में ख़ुशी-ख़ुशी मदद दी और अब किस तरह मोदी सरकार ने नोटबंदी के जरिए इस दिशा में एक बड़ा और क्रूर कदम उठाया, यह भी हम आगे देखेंगे. किस तरह मोदी सरकार ने नोटबंदी को अपने संकीर्ण पार्टी हितों के पक्ष में इस्तेमाल किया, जिसके कारण अन्य शासकवर्गीय पार्टियों और उनके बुद्धिजीवियों द्वारा भी इसका विरोध हुआ, यह भी अगले पृष्ठों में हम विस्तार से देखेंगे.

हमने यह कोशिश भी की है कि इस पूरी प्रक्रिया के प्रभावों को 21वीं शताब्दी में "आदिम संचय" (जैसा कि मार्क्स ने कहा था) के उदाहरण के रूप में देखा जाए जो "पूँजी के अन्य रूपों पर वित्तीय पूँजी के वर्चस्व" (जिसे लेनिन साम्राज्यवाद के निर्धारक गुण और आर्थिक सार के रूप में देखते हैं) को बनाने की एक कोशिश है. अंत में हमने तर्क दिया है कि 'मेक इन इंडिया' जैसे अप्रभावी नारों से अलग नोटबंदी के जरिए थोपा गया डिजिटाइजेशन, कारपोरेट-साम्प्रदायिक फासीवाद की राजनीतिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप निर्धारित करने की पहल है. यह कार्यक्रम शासकों के लिए टैक्स का दायरा बढ़ाने जैसे आर्थिक लाभों से कहींज्यादा महत्त्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यह पूरी जनता के विशाल 'आधार' डेटा के जरिए उन्हें राजनीतिक लाभ पहुँचाएगा.

आर्थिक हमले के साथ-साथ साम्प्रदायिक एजेंडा भी उसी ताकत के साथ जनता पर चोट कर रहा है. हाल के विधानसभा चुनाव में 'विकास पुरुष' ने आगे बढ़कर उत्तर प्रदेश में मुसलमान-विरोधी अभियान चलाया. इस अभियान की तार्किक परिणति देश के सबसे बड़े और सबसे बड़ी मुस्लिम जनसंख्या वाले राज्य में हिंदुत्व माफिया और मठाधीश की ताजपोशी के रूप में हुई. इस तरह 'साम्प्रदायिक छुटभैयों' और भाजपा की विकासोन्मुख राजनीति की बकवास को सदा के लिए शांत कर दिया गया. सत्ता सम्भालते ही 'योगी' ने मीटबंदी और एंटी-रोमियो दस्तों के जरिए नोटबंदी के द्वारा दिए गए घावों को फिर से ताजा कर दिया. इसी बीच योगी के अंध समर्थकों ने मंदिर के मुद्दे को नयी ताकत के साथ उठाया और राजधानी दिल्ली के पास ही विदेशी छात्रों पर शर्मनाक हमले किए.

नोटबंदी से लेकर मोदी-योगी जुगलबंदी तक का यही राजनीतिक संदर्भ है जिसमें हम अपने ऊपर होने वाले आर्थिक हमलों को ठीक से समझ सकते हैं और उनका प्रभावी प्रतिरोध कर सकते हैं. फासीवाद के इस चौतरफा हमले का मुकाबला हर स्तर पर चौतरफा प्रतिरोध के जरिए ही किया जा सकता है.


31 मार्च 2017
- अरिन्‍दम सेन