तेल और गैस संसाधनों की लूट

वैश्विक आर्थिक संकट के साल 2010 में भी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (RIL) के सी.ई.ओ. मुकेश अंबानी दुनिया के सबसे धनी आदमियों की सूची में चौथे पायदान पर पहुँच गए. यह करतब उन्होंने कैसे कर दिखाया?

रिलायंस के हक में नीतियों की हेरा-फेरी

पहली बार 1997 में तेल और गैस सेक्टर में निजी संस्थाओं को आमंत्रित किया गया. रिलायंस को भरे-पूरे कृष्णा-गोदावरी बेसिन के इलाके कौड़ियों के दाम में आबंटित किये गए. रिलायंस ने यहां प्राकृतिक गैस का अकूत दोहन किया. 2007 में गैस की कीमत निर्धारित करने के लिए बनाए गए मंत्रियों के अधिक्रत समूह (EGOM), जिसमें पेट्रोलियम मन्त्री मुरली देवड़ा, वित्त मन्त्री पी चिदंबरम और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया शामिल थे, ने सिपफारिश की कि RIL को 2.34 डालर की बजाय 4.20 डालर की बढ़ी कीमतों पर गैस बेचने की अनुमति दी जाय.

2009 में यूपीए सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा उत्पादित गैस की कीमतें दुगुनी कर दीं- 1.8 डालर प्रति इकाई से बढ़ाकर 4.2 डालर प्रति इकाई, ताकि ये रिलायंस द्वारा उत्पादित गैस की निर्धारित कीमत की बराबरी में आ सकें. इस तरह सरकार ने कीमतें बढ़ाकर खाद और ईंधन खरीदने वाले किसानों पर और अधि‍क बोझ लाद दिया. यह सब किया गया एक निजी कारपोरशन को फायदा पहुंचाने के लिए.

रिलायंस की पसंद के पेट्रोलियम मन्त्री

याद करिए, राडिया टेप में जदयू सांसद और पूर्व राजस्व सचिव एन.के. सिंह, मुकेश अंबानी की नुमाइंदगी करने वाली राडिया को बताते हैं कि संभवतः मुरली देवड़ा फिर से पेट्रोलियम मन्त्री इसलिए बने, क्योंकि मुकेश अम्बानी ने यह मंत्रालय ‘उन्हें दिलवा दिया’. इसी प्रकरण में एक दूसरी बातचीत में अटल बिहारी वाजपेयी के दामाद, मुकेश अम्बानी के शब्द दोहराते हुए सुने जा सकते है - ‘कांग्रेस तो अब अपनी दुकान है’. विकीलीक्स के खुलासे से भी साफ होता है कि मुरली देवड़ा के पेट्रोलियम मन्त्री बनने के पीछे अमेरिका का हाथ था.

रिलायंस धुन में भा.ज.पा. भी मगन

सिर्फ कांग्रेसी ही मुकेश अम्बानी की धुन पर फिदा नहीं थे,  भाजपा नेता भी मुकेश अम्बानी की बोली पर मगन रहे. 2009 में वित्तमन्त्री प्रणब मुखर्जी ने रिलायंस को एक और नजराना दिया. उन्होंने इसी साल संसद में एक बिल पेश किया जिसके मुताबिक प्राकृतिक गैस या कच्चे तेल की पाईपलाइन, कोल्ड-स्टोरेज की श्रृंखला और कृषि भंडारों को स्थापित करने या चलाने में लगी सम्पूर्ण पूंजी पर शत-प्रतिशत कर-मुक्ति ( पिछले खर्चों पर भी लागू होगी) . इस कदम से सिर्फ एक कंपनी- रिलायंस गैस ट्रांसपोर्टेशन इन्फास्ट्रक्चर लिमिटेड (RGTIL) को 20,000 करोड़ रूपयों का फायदा हुआ. राडिया से बातचीत में एन.के. सिंह आशंका जाहिर करते हैं की राज्यसभा में बहस के दौरान अगर विपक्षी सांसद ‘कहना शुरू करेंगे कि प्रणब मुखर्जी ने जो भारी छूट दी है, उसका फायदा सिर्फ एक कंपनी (मुकेश अम्बानी की रिलायंस)  को होगा, तो ... (इससे)  प्रणव मुखर्जी रक्षात्मक हो जायेंगे और (करों में छूट को)  पीछे की अविध की तरफ बढ़ाने का काम ठंढे बस्ते में चला जाएगा.’ आगे एन के सिंह बताते हैं कि राज्यसभा में इस मुद्दे पर बीजेपी के प्रमुख वक्ता अरुण शौरी संभवतः इस बिल का विरोध करने वाले हैं, और ‘हमने भाजपा से बोलने वालों का क्रम बदलवा दिया है, अब अरुण (शौरी)  की जगह पहले वक्ता वेंकैया (नायडू) होंगे.’ वे यह भी कहते हैं कि चूंकि मुकेश अम्बानी के वेंकैया से ‘अच्छे रिश्ते’ हैं, वे मुकेश को विमान से दिल्ली पहुंचाने का इंतजाम करेंगे ताकि वे वेंकैया को समझा सकें. हकीकत में भी ठीक-ठीक यही हुआ- भाजपा की ओर से शौरी की जगह नायडू मुख्य वक्ता हुए, बिल का समर्थन किया और तब यह संसद में पास हुआ.

मुकेश अंबानी के हित और मीडिया के गढ़े ‘सच’

मुकेश अंबानी के लिए तोल-मोल करने वालों में सिर्फ सत्ताधारी कांग्रेस और विपक्षी भाजपा ही नहीं, मीडिया के बड़े लोग भी शामिल थे. कृष्णा-गोदावरी बेसिन की गैस के मसले में अनिल और मुकेश अंबानी के बीच की तनातनी के बीच, राडिया टेपों में वरिष्ठ स्तंभकार वीर संघवी, राडिया से पूछते सुनाई देते हैं- ‘आप किस तरह का लेख चाहती हैं?’  संघवी, राडिया को बताते हैं कि उनका स्तम्भ ‘काउंटर प्वाइंट’ ‘सबसे ज्यादा पढ़ा जाता’ है. इसलिए मुकेश अंबानी के पक्ष में जनमत बनाने के लिए यह स्तम्भ एक आदर्श जगह है. वे राडिया से लेख की रूपरेखा के बारे में विस्तृत निर्देश लेते हुए सुने जा सकते हैं. फिर संघवी फोन करते हैं कि उन्होंने लेख लिख दिया है- ‘मैंने इसको ऐसा जामा पहनाया है ताकि लगे कि संसाधनों पर कब्जा किये जाने को लोग चुपचाप बर्दाश्त नहीं करेंगें, कैसे हम ताकतवर कुलीनों की एक नयी सूची बना रहे हैं... चूंकि यह मनमोहन सिंह से दलील करते हुए लिखा गया है, इसलिए जानने वाले लोगों को छोड़ और किसी को यह अंबानी भाईयों के आतंरिक विवाद की तरह नहीं दिखेगा.’

हाल ही में रिलायंस ने बहुराष्ट्रीय कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम (पिछले दिनों मेक्सिको की खाड़ी में तेल फैलने से पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचाने के लिए कुख्यात) से सौदा तय किया है. इस तरह देश के तेल और गैस संसाधनों तक ब्रिटिश पेट्रोलियम के हाथ पहुँच चुके हैं. ब्रिटिश पेट्रोलियम के भारत प्रमुख ने उम्मीद जताई है कि यह समझौता ‘अंततोगत्वा प्राकृतिक गैस की कीमतों से राज्य के नियंत्रण को खत्म करने के लिए मंच तैयार करेगा.’

तो इस कहानी से हमने क्या सबक सीखा?

हमने देखा कि कैसे दुनिया के सबसे अमीर आदमियों में से एक मुकेश अंबानी अपनी पसंद का पेट्रोलियम मन्त्री बनवाने में सक्षम हैं. इस तरह वे पक्का करते हैं कि सरकार उनके अपने फायदे को दिन-दूना, रात चैगुना बढ़ाने के लिए बार-बार नीतियाँ बनाए. कृषि संकट और आत्महत्याओं से जूझते भारत के किसान बढ़े हुए लागत मूल्य के रूप में इस सब की कीमत चुका रहे हैं.

हमने देखा कि किस तरह विपक्ष के एक सांसद मुकेश अंबानी की प्रतिनिधि (लाबीइस्‍ट) के एक एजेंट की तरह काम करते हैं. वे गारंटी करते हैं कि मुकेश की कंपनी को फायदा पहुंचाने वाली सरकार की नीतियों का समर्थन मुख्य विपक्षी पार्टी करे. और यह भी कि किस तरह घुटने टेककर पत्रकार अंबानी की प्रतिनिधि के द्वारा कही गई बातें हू-ब-हू लिख रहे हैं, अंबानी के लालच को इस तरह ‘जामा पहना’ रहे हैं ताकि यह ‘राष्ट्रीय हित’ लगे!

अब जबकि अंबानी की कंपनी, तेल क्षेत्र की विशालकाय बहुराष्ट्रीय कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम के साथ मिल कर भारत के संसाधनों पर मुनाफे की फसल काटना चाहती है, तब गैस की कीमतों पर ‘राज्य के नियंत्रण को समाप्त करने’ का मतलब यह हुआ कि अब किसानों को ईंधन  और खाद के लिए और अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी.

यह वाकया कोई संयोग नहीं है. यह याद दिलाता है कि उदारीकृत भारत में भ्रष्टाचार, क्रोनी ;पिठ्ठू पूंजीवाद की रोज-ब-रोज की सच्चाइयों के साथ ही गुंथा हुआ है.

टेलीकॉम घोटाला

हमारे समय के सबसे बड़े घोटालों में से एक टेलीकॉम घोटाले में प्रक्रियाओं को नकारते हुए राष्ट्रीय संपत्ति टू-जी स्पेक्ट्रम कुछ चुनिन्दा कम्पनियों को औने-पौने दामों में दे दिये गये. इससे जनता के खजाने में 1,76,397 करोड़ रूपयों का घाटा हुआ. सरकार ने घोटाले की जांच को बेअसर बनाते हुए यूपीए-1 सरकार के अपने पहले कार्यकाल के दौरान घोटाले में फंसे ए. राजा को टाटा और रिलायंस जैसी कंपनियों के दबाव में यूपीए-2 सरकार में फिर से टेलीकाम मन्त्री बना दिया. आखिरकार नियंत्रक-महालेखा परीक्षक ( (CAG) की रिपोर्ट ने घोटाले के सारे आरोपों को सही ठहराया. राडिया टेपों ने साफ कर दिया कि कैसे कार्पोरेशनों और उनके एजेंटों ने टेलीकाम मन्त्री के रूप में ए. राजा की नियुक्ति तय करवाई.

स्पेक्ट्रम की लूट

टू-जी स्पेक्ट्रम (चुम्बकीय वायुतरंगें- एक कीमती और सीमित राष्ट्रीय संसाधन)  की नीलामी नहीं की गई, बल्कि इनका आवंटन ‘पहले आओ, पहले पाओ’ के आधार पर सिर्फ 1651 करोड़ रूपये प्रति के हिसाब से कर दिया गया. रिलायंस कम्युनिकेशन और टाटा टेली सर्विसेज जैसी कंपनियों को जीएसएम और सीडीएमए के लाइसेंस वर्ष 2001 में निर्धारित कीमतों पर दिए गए. जबकि इस साल के शुरूआत में 3-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी 67,710 करोड़ रूपयों में हुई है.

लेकिन नीलामी की जगह ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की प्रक्रिया चुनने तक ही मामला नहीं रहा. ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की प्रक्रिया में भी तोड़-मरोड़ करके चुनिन्दा कंपनियों के लिहाज से मामला सुलटाया गया! पहले तकनीकी विभाग के केन्द्रीय रजिस्ट्री अनुभाग में पावती के हिसाब से प्रार्थना पत्रों की सूची बनती थी. यह शर्त बदल दी गयी. अब शर्त यह थी कि प्रार्थना पत्रा की तिथि वह मानी जायेगी जब बैंक ‘समझौता-प्रपत्र’ जारी कर गारंटी की शर्त स्वीकार करे. नियंत्रक-महालेखा परीक्षक (CAG) ने पाया कि ‘समझौता-प्रपत्र’ के साथ आवेदन करने का समय घटाकर सिर्फ आध दिन कर दिया गया, फिर आश्चर्यजनक रूप  से कुछ आवेदक; जिन्हें निश्चित रूप से इसकी सूचना पहले ही मिल चुकी थी डिमांड ड्राफ्ट और अन्य जरूरी कागजातों के साथ हाजिर हो गए. 2008 में जारी किये गए 108 लाइसेंसों में से 85 तो टेलीकॉम मंत्रालय द्वारा खुद निर्धरित शर्तों को ही पूरा नहीं करते थे!

स्पेक्ट्रम आवंटन में मात्रा 1651 करोड़ रूपयों के बदले में जिन कुछ कंपनियों की झोली भरी गयी, उनमें से कई को मोबाइल फोन के व्यापार का पहले से कोई अनुभव नहीं था और छह महीने बीतते न बीतते उन्होंने ‘निवेश’ की गई पूंजी पर कम से कम 700 प्रतिशत का मुनाफा बना कर अपने शेयर विदेशी कंपनियों को बाजार मूल्य पर बेच दिये! रिलायंस की ही एक फ्रन्ट कम्पनी स्वान ने दुबई की कंपनी ईटीसलात को और जमीन की खरीद-फरोख्त से जुड़ी कंपनी यूनीटेक जिसकी टेलीकॉम में कोई दिलचस्पी नहीं थी, ने नार्वे की टेलिनॉर नाम की कंपनी को अपने शेयर बेच दिए. इस घोटाले से लाभान्वित होने वाली रिलायंस से जुड़ी स्वान और टेलीकॉम क्षेत्र में पहले से कोई दिलचस्पी न रखने वाली यूनीटेक जैसी कंपनियों ने लाइसेंस आवंटन के लिए टेलीकॉम मंत्रालय के निर्देशों को पूरा करने की बजाय सिर्फ 1651 करोड़ में गलत तरीकों से स्पेक्ट्रम का आवंटन करा लिया और फिर मात्र छह महीने के भीतर इन लाईसेंसों के शेयर, बाजार भाव पर कम से कम 700 प्रतिशत लाभ ले कर बेच दिए. यूनीटेक और स्वान के ही नक्शे कदम पर टाटा टेली सर्विसेज ने अपने 25 फीसदी शेयर ( NTT )डोकोमो को 13,000 करोड़ में बाजार भाव पर बेचे.

प्रधानमन्त्री कार्यालय की मिलीभगत और लीपापोती

कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने यह कहते हुए कि राजकोषीय घाटे की बात ‘ख्याली’ और काल्पनिक है, घोटाले को नकारने की कोशिश की, साथ ही साथ अपने गठबंधन की हिस्सेदार ए. राजा की पार्टी डीएमके पर पूरा आरोप मढ़ते हुए खुद को पाक-सापफ बताने लगी. प्रधानमन्त्री ने खुद ही यह कहते हुए  कि वे ‘उतने दोषी नहीं जितने बताये जा रहे हैं’, घोटाले का ठीकरा ‘गठबंधन की मजबूरियों’ पर फोड़ दिया. अपना दामन बचाने और मामले को सिरे से नकारने की कितनी भी कोशिशें करें, कांग्रेस सरकार और प्रधानमन्त्री कार्यालय जिम्मेदारी से बच नहीं सकते. सबूत बताते हैं कि संप्रग और कांग्रेस के बड़े नेता सिर्फ चुप रहने के दोषी नहीं बल्कि करोड़ों के इस घोटाले में उनकी सचेत रूप से मिलीभगत थी.

पूर्व केन्द्रीय टेलीकाम मन्त्री मारन द्वारा प्रधनमन्त्री को लिखी गयी एक चिट्ठी से खुलासा होता है कि प्रधनमन्त्री ने टेलीकाम मंत्रालय को ‘आश्वस्त’ किया था कि वह जैसे चाहे, उस तरह से टू-जी स्पेक्ट्रम का आवंटन कर सकता है. अधिक्रत मन्त्री समूह इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा!

जब मामले को सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाथ में ले लिया, तब ए. राजा का इस्तीफा लेकर संप्रग सरकार ने अपनी खाल बचाने का असफल प्रयास किया.

कोढ़ में खाज यह कि प्रधनमन्त्री और वित्त मन्त्री ने चैतरफा विरोध पर कान नहीं दिया और टेलीकाम के दागी सचिव पी.जे. थामस को मुख्य सतर्कता आयुक्त ( CVC ) बना दिया.  थॉमस के खिलाफ न सिर्फ 1992 में केरल में पामोलिन आयात घोटाले में आपराधिक चार्ज-शीट लंबित थी, बल्कि राजा के मंत्रालय में सचिव के रूप में थामस ने टू-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस आवंटन मामले में मुख्य सतर्कता आयोग (CVC) और नियंत्राक-महालेखा परीक्षक (CAG) की जांच पर आपत्ति की थी. थॉमस को टू-जी घोटाले में मदद करने का ‘पुरस्कार’ मिला और उन्हें मुख्य सतर्कता आयुक्त बना दिया गया. मतलब यह कि रखवाली करने वाली देश की सर्वोच्च संस्था का प्रमुख घोटालों में शामिल आरोपियों में से ही एक को बना दिया गया. चमड़े का बाड़ा, और कुत्ते की रखवाली! सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद संप्रग सरकार को अंततः थामस को बाहर निकालना ही पड़ा.

ऐसे ही, टू-जी स्पेक्ट्रम मामले में प्रधनमन्त्री कार्यालय द्वारा कार्यवाही में अत्‍यधिक  देरी करने के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में जवाब देने के लिए सरकार द्वारा ए जी वाहनवती का चुनाव करने पर भी गंभीर सवाल खड़े हो गए. क्योंकि 26 दिसंबर 2007 के ए. राजा के एक पत्र के मुताबिक तब सालिसिटर जनरल के रूप में वाहनवती ने ही टेलीकाम मन्त्री को आगे बढ़ने’ की ‘सलाह’ दी थी.

बरास्ते निजीकरण टेलीकाम घोटालों की श्रृंखला की ओर

सबसे बड़ा होने के बावजूद टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला टेलीकाम सेक्टर में पहला घोटाला नहीं था. असल में इस सेक्टर के निजीकरण के बाद घोटालों की श्रृंखला शुरू हो गयी. टेलीकाम सेक्टर की बड़ी कम्पनियां हमेशा ही टेलीकाम मन्त्री की नियुक्ति को प्रभावित करती रहीं. बदले में टेलीकाम मन्त्री देश के संसाधनों की खुली लूट का उनका काम आसान करते रहे हैं.

1995 में कांग्रेस मन्त्री सुखराम उस टेलीकाम घोटाले के केंद्र में थे,  जिसके साथ ही इस सेक्टर का निजीकरण करने की शुरूआत हुई. अब इस सेक्टर में तेज गति से हो रहे निजीकरण के कारण घोटालों के आकार-प्रकार में भी लगातार बढ़ोत्तरी हुई है.

वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के दौरान सबको यह पता था कि टेलीकाम कंपनियों ने जगमोहन को हटाने का पुख्ता इंतजाम किया था, क्योंकि जगमोहन ने टेलीकाम संचालकों की लाइसेंस फीस के बकाये को चुकता करने के लिए एक अंतिम तारीख तय कर दी थी. जुलाई 1999 में जसवंत सिंह की अगुवाई में मंत्रियों के एक समूह ने तयशुदा लाइसेंस फीस की नीति को कुल आय के निर्धारित अंश की नीति में बदल दिया, जिससे निजी सेक्टर के टेलीकाम संचालकों को फायदा पहुंचा. नियंत्रक-महालेखा परीक्षक (CAG)  ने तब इस पफैसले के खिलाफ राय दी थी.

इसी राजग सरकार में जब भाजपा नेता स्व. प्रमोद महाजन टेलीकाम मन्त्री थे, तब उन पर रिलायंस के पक्ष में नियमों को तोड़ने-मरोड़ने के आरोप सामने आये थे. उन पर आरोप था कि उन्होंने भारतीय टेलीफोन नियामक प्राधिकरण (TRAI) की सिफारिशों की अनदेखी करते हुए रिलायंस को बिना लाइसेंस फीस चुकता किये ही सेल्युलर संचालन के क्षेत्रा में ‘पूरी छूट’ दे रखी थी.

फिर राजग सरकार में टेलीकाम मन्त्री अरुण शौरी ने टाटा समूह के पक्ष में विदेश संचार निगम लिमिटेड ( VSNL )का सिर्फ 1439 करोड़ में विनिवेश कर दिया. VSNL रणनीतिक महत्व रखने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की लाभ कमाने वाली इकाई थी, जिसका अंतर्राष्ट्रीय और एसटीडी कॉलों पर एकाधिकार था, जिसके पास हजारों करोड़ का अधिसंरचनात्मक ढांचा और 1200 एकड़ जमीन, जिसमें से 773.13 एकड़ अतिरिक्त जमीन ( चत्तारुर, कोलकाता, पुणे और चेन्नई ) में भविष्य में कम्पनी के विस्तार के लिए थी.

जमीन और खनिज सम्पदा की लूट

90 के दशक में पहली बार खनन का क्षेत्र निजी कंपनियों के निवेश के लिए खोला गया. तबसे यह क्षेत्र निजी कॉरपोरेट घरानों, राजनैतिक ताकतों, संसाधनों की लूट और राज्य दमन के बीच बने भ्रष्ट गठबंधन का बदतरीन उदाहरण बना हुआ है.

खून के आंसू रोता बेल्लारी

इस लिहाज से सबसे कुख्यात घटना कर्नाटक के बेल्लारी जिले की है. जहाँ बेल्लारी बंधुओं (जी. करुणाकर रेड्डी, जी. जनार्दन रेड्डी और जी. सोमशेखर रेड्डी)  के माफिया परवाने के आगे कानून का राज पानी भरता है. रेड्डी बंधुओं के अवैध खनन के साम्राज्य ने उन्हें जबरदस्त राजनीतिक ताकत दी है. सो इनके राजनैतिक लगुए-भगुए इस बात की गारंटी करवाते हैं कि प्रशासनिक अधिकारी बेल्लारी जिले में बेहद बड़े पैमाने पर चलने वाली अवैध् गतिविधियों से आँख फेरे रहें.

जनार्दन और करुणाकर रेड्डी भाजपा की राज्य सरकार में कैबिनेट मन्त्री हैं और तीसरे सोमशेखर रेड्डी कर्नाटक के ताकतवर दुग्ध् संघ के अध्यक्ष हैं. रेड्डी बन्धु गर्व से भाजपा नेता सुषमा स्वराज को अपनी ‘ताई’ (मां)  बताते हैं. सो जब कभी रेड्डी बंधुओं की इच्छाओं का टकराव मुख्यमन्त्री येदुरप्पा से होता है, बीजेपी की आलाकमान के लीडरान रेड्डी बंधुओं के पक्ष में हस्तक्षेप करते हैं. रेड्डी बंधुओं के पैसे से ही ‘आपरेशन कमला’ परवान चढ़ा, जिसमें भाजपा ने जनता दल ( सेक्युलर ) से बड़े पैमाने पर विधायक खरीदे.

बेल्लारी की भूमि उत्कृष्ट किस्म के लौह अयस्क से भरी हुई है, जिसकी चीन जैसे देशों में बेहद मांग है. लौह अयस्क की कीमतें सन् 2000 में 300 रुपये प्रति टन से उछलकर 2005-07 में इसकी कीमत 5000 से 7000 रुपये प्रति टन तक पहुँच गयी. लौह अयस्क के इलाकों में अंधाधुंध और अक्सरहां अवैध खनन करके लोहा चीन भेजा गया. नतीजे में बेल्लारी बन्धु अरबों-अरब के मालिक बन गये.

कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े द्वारा जारी की गयी एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि खनन, ढुलाई और राजस्व के हिसाब से लौह-अयस्क की कीमत प्रति टन सिर्फ 427 रूपये पड़ती है, जबकि निर्यात किये जाने वाले लोहे की कीमत 5000-7000 रूपये प्रति टन है. इसमें लगभग 80-90 फीसदी का जबरदस्त मुनाफा होता है. पर राज्य सरकार सिर्फ 27 रूपये प्रति टन के हिसाब से राजस्व पाती है. ( अब इस दर को सुधार कर 10 फीसदी, एड-वेलोरम, बढ़ा दिया गया है.) राज्य सरकार के नसीब में यह थोड़ा सा राजस्व भी नहीं आता क्योंकि लौह अयस्क का खनन और उसकी ढुलाई बड़े पैमाने पर अवैध रूप में होती है. खनन संबंधी विनियमों में सीमित संसाधनों के ज्यादा दोहन के खिलाफ और पर्यावरण की रक्षा के लिए खनन की सीमा तय है. लेकिन बेल्लारी में किये जा रहे अनियंत्रित खनन के कारण वन से ढंके हजारों हेक्टेयर भू-भाग का बड़े स्तर पर क्षरण हो चुका है. क्षमता से अ‍धिक  और तेजी से हो रहे दोहन का मतलब यह भी है कि यह बेशकीमती प्राकृतिक संसाधन खत्म हो जाएगा और ऐसा हमारी जरूरतों को पूरा करने के कारण नहीं, बल्कि एक अकेले खनन कारपोरेशन के लालच के कारण होगा!

बेल्लारी पर लोकायुक्त और सुप्रीम कोर्ट की सेन्ट्रल इम्पावर्ड कमेटी ( CEC )  दोनों की रपट दिखाती है कि लाखों टन लौह अयस्क अवैध ढंग से निर्यात के लिए हजारों ट्रकों में भरकर राज्य की सरहदों से बाहर भेजा गया. राज्य के खनन और भू-विज्ञान विभाग, परिवहन विभाग की तरह अपने आप को इस पूरी प्रक्रिया से अनजान बताते हैं. रेड्डी बंधुओं की ओबलापुरम खनन कारपोरेशन को आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में केवल 68 एकड़ जमीन पर खनन का अनुबंध् हासिल है. यह अनुबंध् भी कडप्पा जिले में प्रस्तावित ब्राह्मिनी स्टील प्लांट के लिए खनन करने का था. इस अनुबंध् में लौह अयस्क के निर्यात का लाइसेंस नहीं है. पर ओबलापुरम खनन कारपोरेशन ने आन्ध्र और कर्नाटक, दोनों राज्यों के अधिकारियों को काबू में करते हुए अपने हाथ कर्नाटक के जंगलों तक पसार लिए. यहां तक कि दोनों राज्यों की सीमाओं से भी बारम्बार छेड़छाड़ की गयी और सीमा पर लगे पत्थरों को चकनाचूर कर दिया गया! अधिकारिक  तौर पर बेल्लारी में 58 खदानें चालू हैं. पर इस इलाके में 2000 से लेकर अब तक अवैध खनन के 12000 मामले सामने आये हैं. 2003 से लेकर अब तक अवैध ढंग से खोदा गया लगभग 3.04 करोड़ टन लौह अयस्क राज्य से बाहर गया, जिसकी आज के लिहाज से कीमत होगी- 152 अरब रूपये.

बेल्लारी में पूंजी का जिस तरह से आदिम संचय किया जा रहा है उससे औपनिवेशिक समय की याद ताजा हो जाती है. रेड्डी बन्धु बेल्लारी के कीमती खनिजों और वन-भूमि को निचोड़ कर पैसा छाप रहे हैं. और इस सबके बीच बेल्लारी लगातार कर्नाटक के सबसे गरीब जिलों में से एक बना हुआ है. एक तरफ तो जनार्दन रेड्डी अपने लिए 60 कमरों वाला, बम-रोधी घर बनवा रहे हैं, निजी हेलीकाप्टरों के उतरने के लिए हेलीपैड बनवा रहे हैं, दूसरी तरफ बेल्लारी के बच्चे खदानों में खटने को मजबूर हैं. भीषण खनन के चलते पैदा होने वाली लाल धूल से बेल्लारी के लोग गंभीर स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से गुजर रहे हैं. आन्ध्र प्रदेश में भी स्वर्गीय मुख्यमन्त्री वाई एस राजशेखर रेड्डी और उनके परिवार की छत्रछाया का लाभ उठाते हुए कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं ने अवैध् खनन का बड़ा साम्राज्य बना लिया है.

...देश की खनिज संपदा प्रकृति की देन है, हमारी आदिम विरासत का हिस्सा है. इस पर जितना हक हमारा है, उतना ही अगली पीढि़यों का. इन संसाधनों पर आधारित उद्योग केन्द्रीय या मातृ-उद्योगों में शामिल हैं. सार्वजनिक संपत्ति का उपयोग करके अपने लिए लाभ कमाने वाले कुछ सौभाग्यशालियों की बजाय इनका लाभ सारे देश को मिलना चाहिए. इसलिए खदानों और खनिजों की तलाश या खनन करने वाले, या देश के जीवनाधर इन संसाधनों पर आधरित महत्वपूर्ण उद्योग विकसित करने वाले निजी उद्यमों के ऐसा करने पर प्रतिबन्ध होना चाहिए. और यदि किसी सेक्टर में किन्हीं कारणों से ऐसा करना अपरिहार्य हो तो यह कम से कम समय के लिए हो और निश्चित किया जाय कि यह वहां के देशी बाशिंदों तक सीमित हो.

...आज के भारत के खनिज उद्योग में चिन्ताजनक खामी यह है कि ... (खनिजों का) मुख्यतः निर्यात व्यापार के लिए खनन किया जा रहा है, और इस दर से किया जा रहा है कि कुछ वर्षों में कीमती केन्द्रीय-खनिजों का भण्डार शून्य हो जाएगा … (निर्यातित खनिजों) से हासिल की गयी राशि हास्यास्पद ढंग से बेहद कम है... यह निर्यात... असली खनन करने वालों द्वारा नहीं बल्कि ज्यादातर व्यापारियों द्वारा किया जा रहा है... इस तथ्य के बावजूद कि धातुएं तेजी से खत्म होने वाली राष्ट्रीय संपदा हैं... और ऐसी कोई भी भू-वैज्ञानिक प्रक्रियाएं नहीं हैं जो... खोदी गयी खदानों को फिर से भर दें...

- भारत के आर्थिक विकास के रास्ते को तय करने के लिए आजादी के पहले गठित की गई राष्ट्रीय योजना समिति की रपट से.

 

बेल्लारी और देश के अन्य भागों में खनिजों की लूट हमें राष्ट्रीय योजना समिति द्वारा भारत की आजादी की पूर्वसंध्या पर निर्धरित किये गए निर्देशों की याद दिलाती है – देखें बाक्स. राष्ट्रीय योजना समिति ने इस बात को दर्ज किया था कि औपनिवेशिक सत्ता ने देश की खनिज संपदा का शोषण निर्यात करने के लिए किया था. आयोग ने जोर देकर कहा था कि सम्पूर्णता में खनिज देश के बेशकीमती संसाधन हैं. ये निजी लाभ चाहने वालों के हाथों अंधाधुंध  दोहन के लिए नहीं हैं,  इनका अगली पीढ़ियों के लिए संरक्षण किया जाना चाहिए. आज हमारी अपनी ही सरकारें इस नियम के खिलाफ खड़ी हैं और उन्होंने खनिजों की लूट के लिए देश के दरवाजे चौपट खोल दिए हैं. खनन कारपोरेशन भारी लाभ कमा रहे हैं और वे लाभ का एक छोटा प्रतिशत सम्बंधित अधिकारियों और मंत्रियों को घूस के रूप में दे रहे हैं. इस लिहाज से भ्रष्टाचार हमारे खनिज संसाधनों की लूट के बड़े मुद्दे का ही नतीजा है. यह समय की मांग है कि हम इस लूट को रोकने के लिए उठ खड़े हों.

झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ - आदिवासियों की जमीन हड़पते कारपोरेट लुटेरे

झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ वन-भूमि और खनिज संसाधनों से समृद्व राज्य हैं. इन राज्यों की आबादी का अच्छा-खासा हिस्सा आदिवासी लोगों का है जो अपनी आजीविका और जीवनयापन के लिए जंगलों पर निर्भर हैं. एक के बाद एक सरकारें आती रहीं और अंधाधुंध तरीके से खनन और इस्पात क्षेत्र की बड़ी राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों (मसलन आर्सेलर-मित्तल, रियो टिंटो, पोस्को, टाटा, जिंदल, एस्सार और ऐसी ही अन्य)  के साथ समझौता प्रपत्र (एमओयूज)  पर हस्ताक्षर करती रहीं. ऐसे में जंगल और जमीन से बेदखली झेलते आदिवासी स्वाभाविक तौर पर प्रतिरोध में उठ खड़े हुए. बदले में उन्हें भयावह दमन का सामना करना पड़ा. इस बीच कारपोरेशनों को जमीन और खनन अनुबंध मुहैया कराने की प्रक्रिया के साथ ही बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार पनपा और कानून की धज्जियां उड़ी. खनिज संपदा की इस लूट के साथ-साथ हमें इस पर भी गौर करना चाहिए कि भारत के सर्वाधिक पिछड़े 150 जिलों में झारखंड के 86 प्रतिशत,  उड़ीसा के 90 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ के 94 प्रतिशत जिले शामिल हैं.

काले धन को सपफेद करने के मामले में पूछताछ के लिए बुलाये गए पहले मुख्यमन्त्री का रुतबा हासिल करने वाले झारखंड के मधु कोड़ा की कथा आपके दिलो-दिमाग में ताजा होगी ही. वे खनन समझौतों में 4000 करोड़ रुपयों का कमीशन खाने के आरोपी हैं. 2006 में मुख्यमन्त्री बनने के कुछ ही दिनों में कोड़ा ने 44 कंपनियों से दो लाख करोड़ रुपयों की कीमत के खनन अनुबंधों की संस्तुतियों और खनन समझौतों पर फिर से मोल-तोल किया और दस्तखत किये. याद रहे कि झारखंड की कोई पार्टी कोड़ा प्रकरण से अछूते रहने का दावा नहीं कर सकती क्योंकि जब से झारखंड बना, कोड़ा हर सरकार में प्रभावी मन्त्री पद पर रहे. कोड़ा खनन मन्त्री भी रहे और आखिरकार मुख्यमन्त्री बने. कोड़ा पर आरोप है कि उन्होंने एक समझौता पत्रा पर दस्तखत करने के लिए दो से लेकर बीस करोड़ तक का और किसी खदान द्वारा उत्पादित कोयले या लौह अयस्क की मात्रा के हिसाब से खनन हेतु पट्टे की संस्तुति के लिए तीस से अस्सी करोड़ तक की घूस ली. मुख्यमन्त्री द्वारा बड़े पैमाने पर की गयी घूसखोरी पर मचे शोरगुल के बीच जांच करने वाले और विपक्षी पार्टियां एक जरूरी सवाल पूछना भूल गयीं कि इतनी घूस दी किन कारपोरेशनों ने? जो कम्पनियां 4000 करोड़ रु. की घूस देने के लिए तैयार थीं तो अंदाजा लगाइए, खनन से वे कितने रुपयों के लाभ की उम्मीद कर रही थीं? निश्चय ही आदिवासियों की जमीन, उनके जंगल और जीविका की कीमत पर राज्य के संसाधनों को बेचने के लिए घूस खाने वाले राजनेताओं को सजा मिलनी चाहिए, पर ऐसे किसी भ्रष्टाचार की कोई भी जांच लुटेरे कारपोरेशनों की पहचान करने और उनको सजा देने के काम के बिना अधूरी ही रहेगी.

उड़ीसा भी भ्रष्टाचार और खनन-लूट के उदाहरणों से भरा हुआ है. ब्रिटिश बहुराष्ट्रीय खनन कंपनी वेदांता/स्टरलाइट का उदाहरण लीजिये, जिसका नियमगिरि पहाड़ियों में बाक्साइट खनन का लाइसेंस हाल में ही रद्द हुआ है. नियमगिरि को लूटने का लाइसेंस हासिल करने की प्रक्रिया में वेदांता के साथ केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा न्यायपालिका भी शरीक थी.

नियमगिरि की आदिवासी जनता के विरोध को दरकिनार करते हुए और ( PESA ) पंचायतों का प्रबंध्न- अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार कानून के हर हिज्जे़ का उल्लंघन करते हुए संप्रग सरकार ने इस परियोजना के लिए पर्यावरणीय मंजूरी दे दी.

इस पर्यावरणीय मंजूरी को चुनौती देने के लिए जब आदिवासी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ पर्यावरणीय मंजूरी को सही बताया बल्कि सरकार से वन्य मंजूरी देने के लिए भी कह डाला. वेदांता द्वारा बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय नियमों के उल्लंघन के बारे में खुद अपने द्वारा गठित सीईसी (सेंट्रल इम्पावर्ड कमेटी) के प्रमाणों को जान-बूझकर नजरअंदाज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हवाई किस्म की राहत दी और वेदांता की जगह उसकी जुड़वां स्टरलाईट को लाइसेंस देने का फैसला दिया. फैसला देने वाले न्यायाधीश  कपाड़िया ने स्वीकार किया कि वे खुद स्टरलाईट के शेयर धारक हैं,  बावजूद इसके न्यायाधीश महोदय ने खुद को इस मुकदमे से अलग नहीं किया!

वेदांता के खिलाफ काले धन को सफेद करने के मुकदमे में अचानक बीच में ही प्रवर्तन निदेशालय ने अपना वकील बदल लिया. नए वकील नियुक्त हुए. गृह मन्त्री पी चिदंबरम जब वेदांता के निदेशक मंडल में थे और खनन कारपोरेशनों के मुकदमे लड़ते थे तब यही वकील साहब चिदंबरम को मामलों की जानकारी देने वाले वकील की भूमिका में थे! स्पष्ट है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह तय करने में सक्षम हैं कि वे न्यायपालिका से लेकर नियामक प्राधिकरण तक सभी में अपने कारिंदों को ला सकें.

आखिरकार अंतर्राष्ट्रीय प्रतिरोधों के दबाव के चलते और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित एन.सी. सक्सेना कमेटी की तीखी रपट के बाद,  जिसमें उड़ीसा सरकार के अफसरान के साथ मिलकर वेदांता द्वारा बड़े पैमाने पर वन और पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन का कच्चा चिट्ठा पेश किया गया था, संप्रग सरकार पर्यावरणीय मंजूरी वापस लेने के लिए बाध्य हुई.

परन्तु भीषण दमन का सामना करते हुए उड़ीसा के लोग इसी तरह के भ्रष्ट कापोरेशनों - मसलन कलिंगनगर में टाटा परियोजना और जगतसिंहपुर में पोस्को परियोजना - के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं.

छत्तीसगढ़ में भी टाटा और एस्सार जैसे कापोरेशनों की नजर आदिवासियों की जमीनों पर गड़ी हुई है- इसीलिये वे एक निजी सेना ‘सलवा-जुडूम’ के पक्ष में हैं जिसने माओवाद से लड़ने के नाम पर तकरीबन 50,000 लोगों को उनके गांवों से बेदखल कर दिया है.

नियामक और नीति निर्धारक निकायों में घुसपैठ

कम्पनियां अक्सर ही अपने लोगों को नीति निर्धारण करने वाले प्रभावशाली पदों और यहां तक कि नियामक निकायों तक में घुसाने में कामयाब हो जाती हैं. निश्चित रूप से इसके सबसे सटीक उदाहरण पी. चिदम्बरम हैं. चिदम्बरम साहब वित्त मन्त्री और बाद में गृह मन्त्री बनने से पहले वेदांता कम्पनी के निदेशक और कई खनन कम्पनियों के वकील हुआ करते थे. इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि अब तक जो कम्पनियां उन्हें तनख्वाह दिया करती थीं, वे उन्हीं के पक्ष में आर्थिक और सुरक्षा नीतियां तैयार करें.  

हाल ही में भारत के बाजार में बी.टी. नाम की बैंगन की एक ऐसी प्रजाति को उतारने की कोशिश की गई जिसकी अनुवांशिकी में तब्दीली की गई है. सरकार की सिफारिश पर बी.टी. बैंगन को हरी झंडी देने के लिए गठित समिति ( GECA ) यह दावा कर रही है कि इससे स्वास्थ्य या पर्यावरण को किसी किस्म का खतरा नहीं होगा. पर पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने चिन्हित किया है कि इस समिति के निष्पक्ष होने की सम्भावना बहुत कम ही है क्योंकि इसमें उन्हीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रतिनिध बैठे हैं जिन्हें इस बी.टी. बैगन से फायदा मिलना है.

GECA (अनुवांशिक अभियांत्रिकी अनुमोदन कमेटी)  के सह-अध्यक्ष सी.डी. माई, ISAAA ( कृषि-बायोटेक आवेदनों के अभिग्रहण की अंतर्राष्ट्रीय सेवा) के निदेशकों में से एक थे. इस संस्था को मानसेन्टो नाम की कम्पनी से पैसा मिलता है. ये वही कम्पनी है जिसके पास बी.टी. बैंगन के पेटेंट अधिकार हैं और जो भारत में इसकी मंजूरी के लिए जुटी हुई है. यह भी जानने लायक है कि माई GECA के सह-अध्यक्ष तब थे जब 2001 में बी.टी. कपास को मंजूरी दी गई थी और चार साल बाद इन्हें ISAAA के बोर्ड का सदस्य चुन लिया गया.

इसका दूसरा उदाहरण लें- कोक और पेप्सी जैसे शीतल पेयों में फास्पफोरिक अम्ल, एथिलीन या ऐसे ही अन्य जहरीले पदार्थों की मिलावट की जांच करने के लिए सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण  के लिए पैनलों का गठन किया गया. पेस्टीसाइड्स तो पानी में होते हैं और उसके साथ ही शीतल पेय में आ सकते हैं पर ये जहरीले रसायन जानबूझकर मिलाये जाते हैं. शीतल पेय कंपनियों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने वाले कार्यकर्ताओं ने पाया कि खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण के पैनल उन लोगों से भरे पड़े है जिनके पेप्सी, कोका कोला और नेस्ले जैसी कंपनियों से करीबी रिश्ते हैं, इन्ही कम्पनियों को नियंत्रित करने का काम इन पैनलों को करना है! सुप्रीम कोर्ट ने कहा- इस पैनल में कोई स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं है यह (खाद्य  सुरक्षा) कानून के खिलाफ है. ऐसे पैनल से आप किस तरह की संस्तुति की उम्मीद करते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप कर शीतल पेय कंपनियों से जुड़े नामों को हटाते हुए नियामक पैनल को फिर से गठित करने का आदेश दिया है.

पहले खनिज, टेलीकाम और विशेष आर्थिक क्षेत्र ... अब शिक्षा के दरवाजे भी कारपोरेट मुनाफे और भ्रष्टाचार के लिए खोले जा रहे हैं

स्कूली और उच्च शिक्षा, दोनों में तेजी से हुए निजीकरण और व्यवसायीकरण के कारण हम पहले से ही शिक्षा क्षेत्रा में जड़ जमाते भ्रष्टाचार के साक्षी रहे हैं. किन्डरगार्टन स्कूलों में नन्हें-मुन्नों के दाखिले के लिए बड़े ‘डोनेशन’ और ‘कैपिटेशन फीस’ की मांग, बेतहाशा फीस बढ़ाने में स्कूलों की मनमर्जी और घटिया स्तर की उच्च शिक्षा देकर छात्रों को मूड़ते ‘डीम्ड विश्वविद्यालय’ और उच्च शिक्षा की फर्जी दुकानें हम देख ही रहे हैं.

यह तो तय है कि जब तक निजी मुनाफाखोरों को शिक्षा का दोहन करने की छूट मिली हुई है तब तक शिक्षा क्षेत्रा में भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता. दूसरे शब्दों में यह तभी संभव है जब सरकार सबके लिए सस्ती दरों पर अच्छी गुणवत्ता वाली स्कूली और उच्च शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी उठाये. लेकिन संप्रग सरकार ‘डीम्ड विश्वविद्यालयों’ के खिलाफ कार्यवाही करने और ‘सबके लिए शिक्षा’ की ‘गारंटी’ करने के बहाने भारत के शिक्षा सेक्टर में निजी संस्थाओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजे और ज्यादा खोल रही है. खनिजों, टेलीकाम और अन्य दूसरे संसाधनों के निजीकरण से इन क्षेत्रों में बड़े-बड़े घोटाले हुए. अब शिक्षा के निजीकरण का सिर्फ एक ही मतलब है- शिक्षा में कारपोरेट दोहन और भ्रष्टाचार की बढ़ोत्तरी!

सरकार पैसों की कमी का रोना रोते हुए निजीकरण को सही बताती है. पर हम देख रहें हैं कि घोटालों, कारपोरेट कंपनियों को दी गयी छूटों और काले धन के देश से बाहर बहाव के रास्ते सरकार रोजाना हजारों करोड़ रुपये बहा रही है. अत्‍यधिक धनी और भ्रष्ट कारपोरेशनों को छूट देने वाली सरकार शिक्षा के लिए धन की कमी का दावा कैसे कर सकती है? क्यों नहीं सरकार इन कारपोरेटों को दी जाने वाली छूटों को खत्म कर देती और काला धन देश में वापस ले आती जिससे कि भारत की पूरी नौजवान पीढ़ी के लिए शिक्षा की गारंटी की जा सके?

सरकार जिस ‘शिक्षा का अधिकार कानून’  पर इतना इतरा रही है,  वास्तविकता में वह शिक्षा गारंटी का मजाक ही उड़ाता है. यह कानून दो समानांतर व्यवस्थाओं को जारी रखने की गारंटी देता है- गरीबों के लिए खराब किस्म की सरकारी शिक्षा और अमीरों के लिए महंगी निजीकृत शिक्षा. तब जो लोग अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा चाहते हैं, वे हमेशा बढ़ने वाली पफीसों और डोनेशन/कैपिटेशन देने के लिए मजबूर हैं. यह व्यवस्था अच्छी शिक्षा को गरीब लोगों की पहुँच से सिर्फ दूर ही नहीं करती, बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार और शोषण के पनपने के मौके भी मुहैया करा रही है.

इसी तरह उच्च शिक्षा में संप्रग सरकार द्वारा प्रस्तावित बिलों का ढेर बड़े पैमाने पर निजीकरण और व्यवसायीकरण के लिए राह साफ कर रहा है. ‘बंदोबस्त’ के नाम पर ये बिल असल में  शिक्षा में निजी और विदेशी मुनाफाखोरों के लिए नियामक बंधनों से मुक्ति की राह हैं.

इन बिलों में विदेशी शिक्षण संस्थान ( प्रवेश और संचालन पर नियंत्रण ) बिल 2010, उच्च शिक्षा और शोध के लिए राष्ट्रीय काउंसिल ( NCHER ) बिल 2010, शैक्षिक ट्रिब्यूनल बिल 2010, उच्च शिक्षा के संस्थानों के लिए राष्ट्रीय प्रमाणन नियामक बिल 2010, तकनीकी शिक्षण संस्थानों में गलत व्यवहार के लिए बिल, मेडिकल शिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालय बिल 2010 और इन्नोवेशन यूनिवर्सिटीज बिल शामिल हैं.

इन बिलों के रास्ते जबरदस्त फीस वृद्वि करने की योजना है, कैम्पसों और उनमें स्वास्थ्य, कैंटीन, आडिटोरियम, हाल जैसी सुविधाओं का व्यवसायीकरण होना है. इनके रास्ते बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिये भी ‘उपयोग शुल्क’ की उगाही की जाने वाली है और शैक्षिक पाठ्यक्रमों की अंतर्वस्तु में आधारभूत बदलाव करके उन्हें बाजार-आधारित पाठ्यक्रमों में बदला जाना है. निजी और विदेशी शिक्षण संस्थाएं अनुसूचित जाति/ जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण मुहैया कराने की जिम्मेदारी से मुक्त होंगी. विदेशी शिक्षण संस्थान बिल की धारा नौ और राष्ट्रीय प्रमाणन नियामक बिल की धारा 49 के मुताबिक सरकार, सरकारी संस्थानों में लागू कानूनों से निजी और विदेशी शिक्षण संस्थाओं को ‘मुक्त’ कर सकती है!

निजी शिक्षण संस्थाओं की शिकायत के लिए जिला-न्यायालय या उच्च न्यायालय की शरण में किसी शिक्षक या छात्रा के जाने की संभावना को रोकने के लिए इन बिलों में प्रावधान बनाए गए हैं. शैक्षिक ट्रिब्यूनल बिल का उदाहरण लें. इसकी धारा 47 कहती हौ- उन मसलों में किसी मुकदमें या कार्यवाही के लिए किसी भी सिविल कोर्ट को कोई प्राधिकार नहीं है जो इस कानून के द्वारा या मातहत राज्य या केन्द्रीय शैक्षिक ट्रिब्यूनल के परिक्षेत्र में आते हैं. इसलिए इस कानून द्वारा/इसके मातहत प्रदत्त किसी शक्ति को प्रभावित करके किसी कार्यवाही या संभावित कार्यवाही के लिहाज से किसी न्यायालय या अन्य दूसरे प्राधिकरण को इन मामलों में हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जायेगी. मतलब यह कि छात्र पहले तो राज्य ट्रिब्यूनल जाए, फिर केन्द्रीय ट्रिब्यूनल, और इस थकाऊ प्रक्रिया के बाद ही वह न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट में गुहार कर सकता है.

हमारे देश में नव-उदार नीतियों द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्र ( SEZ ) - मानो यह इलाका देश के बाहर हो- बनाये गये हैं जहां देश का कानून नहीं चलता. यहां कारपोरेट कम्पनियां स्वयं अपने आप में कानून हैं. इसके परिणामस्वरुप भयानक स्तर पर भ्रष्टाचार पैदा हुआ है. अब संप्रग सरकार एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र ( शिक्षा ) को ठीक इसी तरह के ‘विशेष शैक्षणिक क्षेत्र’ में तब्दील करने का प्रस्ताव कर रही है जहां सामाजिक न्याय, समावेशन और लोकतांत्रिक संचालन से संबंधित देश के कानूनों को सरेआम अलविदा कह दिया जाएगा! इससे शिक्षा के क्षेत्र में सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी ही होगी.