(क) सामंती समाजवाद

फ्रांस और इंग्लैंड के सामंती रईसजादों की ऐतिहासिक स्थिति ही ऐसी थी कि आधुनिक पूंजीवादी समाज के खिलाफ पैंफलेट लिखना उनका पेशा बन गया. जुलाई 1830 की फ्रांसीसी क्रांति में और इंग्लैंड के सुधार आंदोलन जनता के दबाव में आकर इंलैंड में 1831 और 1832 में निर्वाचन कानून में सुधार किए गए थे. ये सुधार भूस्वामियों और धनी रईसों की इजारेदारी के खिलाफ थे. इसमें औद्योगिक पूंजीपति के लिए तो संसद के दरवाजे खुल गए. मगर उदारपंथियों ने सर्वहारा और निम्न-पूंजीपतियों को धोघा दिया और उन्हें राजनीतिक अधिकार नसीब नहीं हुए. में ये रईसजादे पुनः इन घृणित नवधनाढ्यों के हाथों धराशायी हुए. उसके बाद कोई महत्त्वपूर्ण राजनीतिक लड़ाई लड़ने की संभावना न रह गई. केवल कलम की लड़ाई ही अब संभव थी, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में भी पुनस्र्थापना काल 1814 से 1830 तक का फ्रांसीसी पुनर्स्थापना का काल (जिसमें नेपोलियन की हार के बाद बूर्बों राजवंश की पुनर्स्थापना हुई थी). 1600 से 1689 तक ब्रिटिश पुनर्स्थापना का काल नहीं. (एंगेल्स) के पुराने नारों का प्रयोग असंभव हो गया था.

लोगों की सहानुभूति हासिल करने के लिए इन रईसजादों ने दिखावे के तौर पर अपने हितों को नजरअंदाज करके केवल शोषित मजदूर वर्ग के हितों को सामने लाकर पूंजीपतियों के विरुद्ध अपना अभियोग पत्र तैयार किया. इस तरह इस रईस वर्ग ने अपने नए प्रभु के खिलाफ व्यंग्यात्मक रचनाएं लिखकर और उसके कानों में उसके आनेवाले सर्वनाश की भयानक भविष्यवाणियां फुसफुसाकर उससे अपना बदला लिया.

सामंती समाजवाद की उत्पत्ति इसी तरह हुई. कुछ रोना-धोना, कुछ व्यंग्यवाण चलाना; कुछ अतीत की यादें गुनगुनाना, कुछ भविष्य का भय दिखाना; कभी-कभी अपनी कड़वी, चतुराई भरी और पैनी आलोचना द्वारा पूंजीपतियों के मर्मस्थल को चोट पहुंचाना; मगर आधुनिक इतिहास की प्रगति को समझ पाने में पूरी तरह नाकाबिल होने के कारण उनकी आलोचना अपने प्रभाव में सदा हास्यास्पद रह जाती थी.

जनता को अपनी तरफ करने के लिए इन अमीर-उमरा ने सर्वहारा वर्ग की भीख की झोली को अपना झंडा बनाया. लेकिन जब-जब जनता उनके साथ हुई, उसने देखा कि उनके कूल्हों पर रईसजादों के वंश-चिन्ह लगे हुए हैं. फिर तो जोरदार ठहाकों से उनका अपमान करती हुई जनता उन्हें छोड़कर चल दी.

फ्रांसीसी लेजिटिमिस्टों के एक हिस्से और “तरुण इंग्लैंड”1830 में बूर्बों राजवंश को हटाकर फ्रांस में आर्लिया राजवंश आया. बूर्बों राजवंश बड़े-बड़े खानदानी सामंतों के हितों का प्रतिनिधि था, जिसके समर्थक लेजिटिमिस्ट (न्यायवादी) कहलाते थे. आर्लियां राजवंश घन्नसेठों और बड़े पूंजीपतियों का सहारा लेता था. और उसके समर्थक आर्लियानिस्ट कहलाते थे. लेजिटिमिस्ट लोग आर्लियानिस्टों के खिलाफ लड़ाई में नारेबाजी करते थे कि वे पूंजीपतियों के खिलाफ मेहनतकशों के पक्ष में हैं. ने यही नजारा पेश किया.

यह कहते समय कि उनके शोषण का तरीका पूंजीपति वर्ग के शोषण के तरीके से भिन्न था, सामंतवादी भूल जाते हैं कि जिन परिस्थितियों और अवस्थाओं में वे शोषण करते थे, वे बिल्कुल भिन्न थीं और अब पुरानी पड़ चुकी थीं. यह साबित करते समय कि उनके शासन में आधुनिक सर्वहारा वर्ग का कोई अस्तित्व नहीं था, वे भूल जाते हैं कि आधुनिक पूंजीपति वर्ग उन्हीं की सामाजिक अवस्था की अनिवार्य उत्पत्ति है.

इसके अलावा, अपनी आलोचना के प्रतिक्रियावादी चरित्र को वे इतना कम छिपाते हैं कि पूंजीपति वर्ग के खिलाफ उनका सबसे बड़ा इल्जाम यही होता है कि पूंजीवादी शासन में एक ऐसा वर्ग पनप रहा है जो पुरानी समाज व्यवस्था को समूल उखाड़कर फेंक देगा.

पूंजीपति वर्ग को उनका उलाहना इतना इस बात के लिए नहीं है कि वह सर्वहारा वर्ग को उत्पन्न कर रहा है, जितना इस बात के लिए है कि वह क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग को जन्म दे रहा है.

इसलिए, अपने राजनीतिक व्यवहार में वे मजदूर वर्ग के खिलाफ प्रयोग की जाने वाली तमाम दमनकारी कार्रवाईयों का समर्थन करते हैं, और अपनी बड़ी-बड़ी डींगों के बावजूद रोजमर्रा के जीवन में उद्योग के कल्पवृक्ष से गिरे सोने के फलों को बीनने के लिए घुटने टेक देते हैं और ऊन, चुकंदर की चीनी तथा आलू की बनी स्पिरिटयह बात मुख्यत: जर्मनी पर लागू होती है, यहां भूस्वामी रईस और दूसरे दर्जे के सामंत अपनी जमीन के काफी बड़े हिस्से पर गुमाशता रखकर अपने लिए खेती कराते हैं. इसके अलावा, वे बड़े पैमाने पर चुकंदर से चीनी बनाने तथा आलू से स्पिरिट चुआने का कारोबार करते हैं. ब्रिटेन के रईस इनसे ज्यादा धनी हैं, इसलिए वे अभी तक इतना नीचे नहीं गिरे, पर उनकी समझदारी में यह बात जरूर आ गई है कि थोड़ी बहूत फर्जी किस्म की ज्वायंट स्टाक कंपनियों में भागीदारी रखने से लगाने के बढ़ते हुए घाटे को पूरा किया जा सकता है. के व्यापार के लिए वे सत्य, प्रेम और सम्मान का सौदा करने हेतु हमेशा तैयार रहते हैं.

जिस तरह पादरी और जमींदार का चोली-दामन का साथ रहा है. उसी तरह पादरी समाजवाद और सामंती समाजवाद दोनों जन्म के साथी हैं.

ईसाईयों की वैराग्य भावना को समाजवाद का रंग दे देने से अधिक आसान काम दूसरा नहीं है. क्या ईसाई धर्म निजी संपत्ति, विवाह और राज्य के खिलाफ फतवे नहीं देता रहा? इन चीजों के बदले क्या उसने दान-पुण्य और गरीबी, ब्रह्मचर्य और शारीरिक तप, मठ-निवास और मातृ गिरिजाघर की शरण लेने का उपदेश नहीं दिया है? ईसाई समाजवाद केवल वह पवित्र जल है जिसकी छींट मारकर पादरी अमीर-उमरा के संतप्त हृदयों को पाक-साफ बनाता है.

(ख) निम्न पूंजीवादी समाजवाद

सामंती रईस वर्ग अकेला वर्ग नहीं है जिसे पूंजीपति वर्ग ने बरबाद किया, वही एकमात्र वर्ग नहीं है जिसके अस्तित्व की स्थितियां आधुनिक पूंजीवादी समाज के वातावरण में घुट-घुटकर मर-मिटी हैं. मध्ययुग के बर्गर और छोटे किसान भू-स्वामी आधुनिक पूंजीपति वर्ग के पूर्वज थे. जिन देशों में उद्योग और वाणिज्य का कम विकास हुआ है, वहां ये दोनों वर्ग अब भी उभरते पूंजीपति वर्ग के साथ-साथ पनप रहे हैं.

उन देशों में जहां आधुनिक सभ्यता का पूरा विकास हो चुका है, निम्न पूंजीपतियों का एक नया वर्ग बन गया है जो सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच डोलता रहता है. और पूंजीवादी समाज के एक पूरक अंग के रूप में सदा अपने को ताजा करता रहता है. लेकिन होड़ की चक्की में पिसकर इस वर्ग के अलग-अलग सदस्य टूट-टूटकर बराबर सर्वहारा वर्ग में शामिल होते जाते हैं; और आधुनिक उद्योग का विकास होने के साथ वे उस क्षण को भी नजदीक आता देखते हैं जब आधुनिक समाज के एक स्वतंत्र अंग के रूप में उनका बिलकुल खात्मा हो जाएगा और उद्योग, खेती और वाणिज्य के क्षेत्र में ओवरसीयर, नाजिर और दुकान-कर्मचारी उनका स्थान ले लेंगे.

फ्रांस जैसे देशों में, जहां आधी से कहीं अधिक आबादी किसानों की है, यह स्वाभविक था कि जो लेखक पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा वर्ग का साथ देते थे, वे पूंजीवादी शासन व्यवस्था की अपनी आलोचना में किसानों और निम्न पूंजीपतियों के मानदंड का प्रयोग करते और मजदूर वर्ग के समर्थन में इन्हीं मध्यम वर्गों के दृष्टिकोण से आवाज उठाते. निम्न पूंजीवादी समाजवाद की उत्पत्ति इसी तरह हुई. न केवल फ्रांस में, बल्कि इंग्लैंड में भी इस मत के नेता सिस्मांदीसिस्मांटी स्विट्जरलैंड के एक अर्थशास्त्री थे जो निम्न-पूंजीवादी दृष्टिकोण के कारण बड़े पूंजीवादी उत्पादन के प्रगतिशील पहलू को नहीं समझते थे. अत: मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों के खिलाफ उन्होंने पुरानी परंपराओं, प्रणालीयों, शिल्प-संघों और पितृसत्तात्मक कृषि में आदर्श मिसालों खोजने की कोशिश की. थे.

समाजवाद की इस शाखा के अनुयाइयों ने आधुनिक उत्पादन की अवस्थाओं के अंतर्विरोधों का बहुत ही बारीकी के साथ विश्लेषण किया. अर्थशास्त्रियों की ढोंगपूर्ण वकालतों का उन्होंने पर्दाफाश किया. मशीनों के उपयोग और श्रम विभाजन के विनाशकारी अंजाम, पूंजी और भूमि का मुट्ठी भर लोगों के हाथों में संकेद्रित होना, अति-उत्पादन और संकट, इन सब को उन्होंने अकाट्य रूप से प्रमाणित किया. उन्होंने निम्न पूंजीपतियों और किसानों की अपरिहार्य बरबादी, सर्वहारा वर्ग की दुर्दशा, उत्पादन में अराजकता, धन के वितरण में घोर असमानता, एक दूसरे को खत्म कर देने के लिए राष्ट्रों के बीच औद्योगिक युद्ध, तथा पुराने नैतिक, बंधनों, पुराने पारिवारिक संबंधों और पुरानी जातियों के विघटन की ओर इशारा किया.

किंतु अपने सकारात्मक लक्ष्यों में इस तरह का समाजवाद या तो यह चाहता है कि उत्पादन और विनिमय के पुराने साधनों को, और उनके साथ पुराने संपत्ति संबंधों को और पुराने समाज को फिर से कायम कर दिया जाए, या उत्पादन और विनिमय के आधुनिक साधनों को उन्हीं पुराने संपत्ति संबंधों के शिकंजे में कस दिया जाए जिन्हें इन साधनों ने तोड़ दिया था और जिनका तोड़ा जाना अनिवार्य ही था. हर सूरत में यह समाजवाद प्रतिक्रियावादी और कल्पनावादी दोनों है.

उसके अंतिम शब्द हैं; उद्योग को चलाने के लिए निगमित शिल्प संघ बनाए जाएं और खेती में पितृसत्तात्मक संबंध कायम हों.
अंत में जब कठोर ऐतिहासिक तथ्यों ने आत्मवंचना का नशा उतार दिया, तो समाजवाद का यह रूप खुमारी के दौरे में खत्म हो गया.

(ग) जर्मन या “सच्चा” समाजवाद

फ्रांस का समाजवादी और कम्युनिस्ट साहित्य, जो सत्ताधारी पूंजीपति वर्ग के दबाव में पैदा हआ था, और जो उसके खिलाफ होने वाले संघर्ष की अभिव्यक्ति था, जर्मनी में उस समय लाया गया जब उस देश में सामंती निरंकुशता के खिलाफ वहां के पूंजीपति वर्ग ने अभी-अभी अपनी लड़ाई शुरू की थी.

जर्मनी के दार्शनिकों, अधकचरे दार्शनिकों और साहित्यिक मिजाज के लोगों ने उस साहित्य को बड़ी उत्सुकता के साथ अपनाया; पर वे यह भूल गए कि जब वह साहित्य फ्रांस से जर्मनी आया था तो उसके साथ फ्रांस की सामाजिक परिस्थितियां नहीं आई थीं. जर्मनी की सामाजिक स्थितियों के संपर्क में आकर इस फ्रांसीसी साहित्य ने अपना सारा तात्कालिक व्यावहारिक महत्त्व खो दिया और उसने कोरा साहित्यिक रूप अपना लिया1872 के जर्मन संस्करण में यहां पर एक और वाक्य है : लाजिमी था कि यह मनुष्य की अंतर्वस्तु की अनुभूति के बारे में बैठे-बैठे अंदाज लगाने से है.. इस प्रकार अठारहवीं शताब्दी के जर्मन दार्शनिकों की निगाह में पहली फ्रांसीसी क्रांति की मांगेें “व्यावहारिक तर्कबुद्धि” की सामान्य मांगों के अलावा और कुछ न थीं, और क्रांतिकारी फ्रांसीसी पूंजीपति वर्ग द्वारा अपनी इच्छा की घोषणा उनकी दृष्टि में शुद्ध इच्छा, अपरिहार्य इच्छा, सामान्यतः सच्ची मानवीय इच्छा के नियमों की परिचायक थी.

जर्मन साहित्यकारों ने एकमात्र काम यह किया कि उन्होंने फ्रांस के इन नए विचारों का अपने प्राचीन दार्शनिक विवेक के साथ तालमेल बिठाया, या यूं कहिए कि अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को छोड़े बिना इन फ्रांसीसी विचारों को अपना लिया.

अपना लेने का यह काम उसी तरह पूरा किया गया जिस तरह कि किसी विदेशी भाषा को आत्मसात किया जाता है, यानी अनुवाद के जरिए.

सुविदित है कि भिक्षुगण किस प्रकार इन पांडुलिपियों के ऊपर, जिनमें प्राचीन मूर्तिपूजकों के शास्त्रीय ग्रंथ लिखे हुए थे, कैथोलिक संतों की फूहड़ जीवनियां लिखा करते थे. अपवित्र फ्रांसीसी साहित्य के मामले में जर्मन साहित्यकारों ने इसी क्रिया को उलट दिया. उन्होंने फ्रांसीसी मूलकृति के नीचे अपनी दार्शनिक बकवास लिख डाली. उदाहरण के लिए, मुद्रा की आर्थिक क्रियाओं की फ्रांसीसी आलोचना के नीचे उन्होंने लिखा “मानवता का अलगाव” और पूंजीवादी राज्य की फ्रांसीसी आलोचना के नीचे “सामान्य की श्रेणी को सत्ता से हटा देना”, आदि, आदि.

फ्रांसीसी ऐतिहासिक समालोचनाओं की पीठ पर इन दार्शनिक उक्तियों की भूमिका को उन्होंने “कर्म दर्शन”, “सच्चा समाजवाद”, “समाजवाद का जर्मन विज्ञान”, “समाजवाद का दार्शनिक आधार’, आदि भारी-भरकम नाम दिया.

इस तरह, फ्रांसीसी समाजवादी और कम्युनिस्ट साहित्य बिल्कुल शक्तिहीन बना दिया गया, चूंकि जर्मनों के हाथ में पड़कर उसने एक वर्ग के खिलाफ दूसरे वर्ग के संघर्ष को अभिव्यक्त करना छोड़ दिया, इसलिए उन्हें ऐसा लगा कि उन्होंने “फ्रांसीसी एकांगीपन” पर काबू पा लिया है और वे सच्ची आवश्यकताओं का नहीं, बल्कि सच्चाई की आवश्यकताओं की प्रतिनिधित्व कर रहे हैं; सर्वहारा वर्ग के हितों का नहीं, बल्कि मानव स्वभाव के हितों का, मुनष्य मात्र के हितों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो किसी वर्ग का नहीं है, जिसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, जो केवल हवाई दार्शनिक कल्पना लोक का प्राणी है.

इस जर्मन समाजवाद ने, जिसने स्कूली बच्चे जैसे अपने कार्यभार को इतनी संजीदगी और सत्यनिष्ठा के साथ अपनाया था और अपनी “फीके पकवान वाली ऊंची दुकान” का ढिंढोरा पीटा था, धीरे-धीरे अपना पंडिताऊ भोलापन खो दिया.

सामंती अमीर-उमरा और निरंकुश राजतंत्र के खिलाफ जर्मन पूंजीपति वर्ग का, और खास तौर से प्रशा के पूंजीपति वर्ग का संघर्ष – दूसरे शब्दों में, उदारवादी आंदोलन – अधिक गंभीर बन गया.

इससे “सच्चे” समाजवादियों को यह चिरवांछित मौका मिला कि राजनीतिक आंदोलन के मुकाबले में वे अपनी समाजवादी मांगें रखें – उदारतावाद, प्रतिनिधिमूलक सरकार, पूंजीवादी होड़, पूंजीवादी प्रेस-स्वतंत्रता, पूंजीवादी कानून, पूंजीवादी स्वतंत्रता और समानता, आदि को परंपरागत रूप से कोसें और आम-अवाम को बताएं कि इस पूंजीवादी आंदोलन से उन्हें कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि नुकसान ही नुकसान होगा. जर्मन समाजवाद ने ऐन वक्त यह भुला दिया कि फ्रांसीसी समालोचना, जिसकी वह एक बेसुरी प्रतिध्वनि मात्र था, आधुनिक पूंजीवादी समाज के अस्तित्व की – उसके अस्तित्व की आर्थिक परिस्थितियों की ओर उसके अनुरूप ढले राजनीतिक विधान की, अर्थात् ठीक उन्हीं चीजों की पूर्वकल्पना करके चलती है, जो जर्मनी में अभी तक चल रहे संघर्ष के दौरान हासिल नहीं हो सकी हैं.

निरंकुश सरकारों को, उनके पादरियों, प्रोफेसरों, देहाती सामंतों और नौकरशाहों को खतरनाक पूंजीपतियों के खिलाफ इस समाजवाद के रूप में एक मनचाहा हौवा मिल गया.

हंटरों और गोलियों की कड़वी खुराक के बाद, जो इन्हीं सरकारों ने उस समय जर्मनी के विद्रोही मजदूरों1844 की साइलेशियाई बुनकरों की हड़ताल को पिलाई थी, अंत में यह एक मीठी गोली थी.

इस प्रकार, जहां यह “सच्चा” समाजवाद जर्मनी पूंजीपतियों के खिलाफ लड़ाई में सरकारों का हथियार बन गया, वहीं प्रत्यक्ष रूप से उसने एक प्रतिक्रियावादी स्वार्थ, जर्मन कूपमंडूकों के स्वार्थ का प्रतिनिधित्व भी किया. जर्मनी में निम्न पूंजीपति वर्ग ही, तो सोलहवीं शताब्दी का एक अवशेष है और तब से बारंबार विभिन्न रूप अपनाकर प्रगट होता रहा है, वहां की मौजूदा वस्तुस्थिति का वास्तविक सामाजिक आधार है.

इस वर्ग को बरकरार रखने का मतलब जर्मनी की मौजूदा वस्तुस्थति को बरकरार रखना है. पूंजीपति वर्ग का औद्योगिक प्रभुत्व, एक ओर तो पूंजी के संकेंद्रण द्वारा और दूसरी और क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के उदय द्वारा, उसके निश्चित विनाश का खतरा पैदा कर रहा है. लगता था कि “सच्चा” समाजवाद एक ही तीर से इन दोनों चिड़ियों को खत्म कर देगा. अतः “सच्चा” समाजवाद एक महामारी की तरह फैल गया.

जर्मन समाजवादियों ने अपने बेचारे “शाश्वत सत्यों” की ठठरी को जब कल्पना के झीने आवरण में लपेटा, इस आवरण में आलंकारिक भाषा रूपी फूलदार सितारों से कसीदे काढ़े और उसे बीमार भावुकता के ओस-कण में भिंगोकर बाजारों में ले आए, तो फिर क्या कहना था, ऐसे खरीदारों के बीच उनके इस माल की खूब खपत हुई.

अपनी ओर से जर्मन समाजवाद ने निम्न पूंजीवादी कूपमंडक के आडंबरपूर्ण प्रतिनिधि होने के अपने पेशे को अधिकाधिक स्वीकार कर लिया.

जर्मन समाजवादियों ने घोषणा की कि जर्मन राष्ट्र ही आदर्श राष्ट्र है और जर्मनी का तुच्छ कूपमंडूक ही आदर्श मानव है. इस आदर्श मानव की हर अपराधपूर्ण नीचता की उन्होंने एक रहस्यमय उच्च, समाजवादी व्याख्या की – असलियत के बिलकुल विपरीत व्याख्या. अंत में तो वे कम्युनिज्म की “पाशविक विनाशकारी” प्रवृत्ति का सीधे-सीधे विरोध करने और तमाम वर्ग संघर्षों के प्रति अपनी घोर, पक्षपातहीन नफरत दिखाने की चरम सीमा तक पहुंच गए. जर्मनी में आजकल (1847) समाजवादी और कम्युनिस्ट साहित्य के नाम से जिन चीजों का प्रचार हो रहा हे, उनमें से बहुत थोड़े को छोड़कर बाकी सब इसी गंदे और नुकसानदेह साहित्य की श्रेणी में आते हैंसन् 1848 के क्रांतिकारी तूफान ने इस लीचड़ प्रवृत्ति को साफ कर दिया और इसके समर्थकों की समाजवाद के चक्कर में फंसने की इच्छा दूर हो गई. इस प्रवृत्ति का मुख्य और जाना माना प्रतिनिधि कार्ल ग्रून (1817-1845) था. (एंगेल्स).