(बथानी टोला के लिए न्याय अभियान के लिए जब यह पुस्तिका बनायी जा रही थी तभी बथानी टोला व अन्य जनसंहारों के मुख्य अभियुक्त ब्रह्मेश्वर सिंह आरा में मारा गया. भाकपा(माले) महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य का यह आलेख इसी घटना की पृष्ठभूमि में लिखा गया है)

कुख्यात रणवीर सेना के संस्थापक और इस सेना द्वारा वर्ष 1995 से लेकर 2000 के बीच की अवधि में बिहार के शाहाबाद एवं मगध अंचलों में किये गये दर्जनों जनसंहारों के सूत्रधर ब्रह्मेश्वर सिंह को 1 जून 2012 के तड़के आरा में गोलियों से भून दिया गया. अगले दिन शाम को पटना में अंतिम संस्कार हुआ. पूरे दो दिन तक सेना के समर्थक तांडव मचाते रहे; आरा में उन्होंने दलित छात्रों के होस्टलों पर हमला किया, आरा से पटना के रास्ते पर जहां कहीं मिला, सड़क के किनारे खड़े सार्वजनिक अथवा निजी वाहनों को आग के हवाले कर दिया, रास्ते में जो मिला उसको पीटा और उनकी आगजनी व तोड़फोड़ की कार्यवाही की तस्वीरें ले रहे पत्रकारों को भी जमकर पीटा. 1 जून को आरा में और 2 जून को पटना में सन्नाटा सा छाया रहा जबकि राज्य प्रशासन वस्तुतः पूरे परिदृश्य से गायब सा हो गया और उसने लोगों को बलवाइयों के इस हिंसक जत्थे की दया पर छोड़ दिया. जिस समय यह लेख प्रेस मे जा रहा है, राज्य के कई कोनों से एक बार फिर सामंती उन्माद फैलाने की कोशिशों की सूचनायें मिल रही हैं. नीतीश कुमार के राज में सुशासन और कानून के राज का असली मतलब क्या है, इसे समझाने के लिये इतना ही काफी है!

यद्यपि रणवीर सेना अपने गठन के तुरंत बाद औपचारिक रूप से प्रतिबंधित हो गई थी, मगर सेना को एक-के-बाद-एक हत्याकांड रचाने की खुली छूट मिली हुई थी ; आम तौर पर ये जनसंहार रात में ही किये जाते थे मगर कभी-कभार दिन-दहाड़े भी होते थे और इनमें सैकड़ों निरपराध लोगों को मौत के घाट उतारा गया था. इन जनसंहारों में औरतों, बच्चों या बूढ़ों -- किसी को नहीं बख्शा जाता था. इन वीभत्स हत्याकांडों को जायज ठहराने के लिये सबसे घिनौना तर्क दिया जाता था -- कि जनसंहार रचाना ही भाकपा(माले) का सफाया करने का एकमात्र रास्ता है! औरतों को यह कहकर निशाना बनाया जाता था कि वे नक्सलवादियों को जन्म देंगी, और बच्चों का कत्ल यह कहकर किया जाता था कि वे आगे चलकर नक्सलवादी ही तो बनेंगे! अक्सर इन हत्यारों के साथ पुलिस की सांठगांठ रहती थी. जब रणवीर सेना के लोग बथानी टोला में लोगों को तलवारों से काट-काटकर टुकड़े कर रहे थे, तब वहां से 100 मीटर से 2 किलोमीटर के दायरे में तीन पुलिस कैम्पों और एक पुलिस थाना में मौजूद पुलिस वालों ने एक गोली तक नहीं चलाई. एक बार तो भोजपुर के एकवारी गांव में पुलिस ने घरों पर इसलिये छापा मारा था ताकि सेना के लोग गांव में घुस सकें और लोगों की हत्या कर सकें.

वर्ष 2002 में जाकर, जब रणवीर सेना के कुकृत्यों का पूरी तरह से पर्दाफाश किया जा चुका था और उसे अलगाव में डाला जा चुका था, तब सेना के मुखिया को अंततः गिरफ्तार किया गया, पर अधिकांश लोग इस गिरफ्तारी को सारतः आत्मसमर्पण का मामला ही मानते थे. दिसम्बर 1997 में लक्ष्मणपुर-बाथे जनसंहार के बाद जस्टिस अमीर दास के नेतृत्व में एक जांच आयोग की नियुक्ति की गई, जिसका मकसद रणवीर सेना के राजनीतिक-प्रशासनिक सम्पर्कों की जांच करना था, लेकिन इस आयोग को कभी काम ही नहीं करने दिया गया और बिहार का मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश कुमार ने आधिकारिक रूप से अमीर दास आयोग को भंग कर दिया, जिससे बिहार की कई बड़ी-बड़ी राजनीतिक हस्तियों को काफी राहत मिली. गौरतलब है कि अमीर दास आयोग द्वारा पूछताछ के लिए बुलाये गये भाजपा, जद(यू), राजद और कांग्रेस के लगभग सभी राजनीतिक नेता ब्रह्मेश्वर सिंह के अंतिम संस्कार में पूरी शान से शामिल हुए.

अंत में जब जनसंहार के मामलों पर मुकदमे चलने लगे, तो न्यायिक प्रक्रियाओं का मखौल उड़ाते हुए ब्रह्मेश्वर सिंह को बथानी टोला और बाथे, दोनों मामलों में ‘फरार’ घोषित किया गया, जबकि उस समय वह खुद जेल की सलाखों में मौजूद था और अन्य आरोपियों को सजा सुनायी गयी! नीतीश कुमार के दुबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद 2011 में ब्रह्मेश्वर को जमानत पर छोड़ दिया गया.

बथानी टोला जनसंहार के मामले में आरा जिला न्यायालय ने गत मई 2010 में 23 अभियुक्तों को सजा सुना दी थी. हाल ही में जब पटना हाइकोर्ट ने उक्त फैसले को उलटकर उन सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया, तो ब्रह्मेश्वर ने सरकार को चेतावनी दी थी कि वह अभियुक्तों को बरी किये जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील न करे. ब्रह्मेश्वर द्वारा उत्तेजक वक्तव्य दिये जाने तथा नये सिरे से सामंती हिंसा भड़काने के प्रयासों के बाद भाकपा(माले) ने नीतीश सरकार से मांग की थी कि वे ब्रह्मेश्वर की जमानत को खारिज करवाएं. वास्तव में पटना, आरा और दाऊदनगर में भाकपा(माले) के नेतागण जिन मांगों पर 26 मई 2012 से अनिश्चितकालीन अनशन कर रहे थे, उनमें यह मांग भी शामिल थी.

जहां ब्रह्मेश्वर सिंह के समर्थकों और यहां तक कि मीडिया के एक हिस्से ने भी उनकी छवि ‘हीरो’ अथवा किसानों के रक्षक के बतौर पेश करने की पुरजोर कोशिश की है, वहीं बिहार और बाकी देश भर के जानकार लोकतंत्र पसंद लोग उनको बिहार में पतनशील सामंती वर्चस्व के सर्वाधिक घृणित प्रतीक के रूप में मानते हैं. दुनिया भर में ब्रह्मेश्वर की पहचान किसी किसान आंदोलन के नेता के रूप में नहीं है, बल्कि उनकी पहचान रणवीर सेना द्वारा किये गये सर्वाधिक वीभत्स जनसंहारों के जरिये ही कायम हुई है. कोई अचरज नहीं कि ब्रह्मेश्वर की मौत की खबर फैलने के बाद कोई आंसू बहाने वाला तक नहीं था और उनके समर्थकों को उनके निधन का “शोक मनाने” के लिये उपद्रव मचाने का सहारा लेना पड़ा.

रणवीर सेना का गठन अपने-आपमें गुजरे जमाने के पतनशील सामंती वर्चस्व को फिर से कायम करने की अंतिम सामंती हताशापूर्ण कार्रवाई थी. मगर इन हत्याकांडों ने जनता में दहशत फैलाने के बजाय, ग्रामीण गरीबों के बीच मुंहतोड़ जवाबी लड़ाई लड़ने के संकल्प को फौलादी ही बनाया और भाकपा(माले) द्वारा लगातार चलाई गई राजनीतिक लड़ाई ने सेना का सम्पूर्णतः पर्दाफाश कर दिया तथा उसे अलगाव में डाल दिया. ब्रह्मेश्वर सिंह द्वारा नये सिरे से किये जा रहे प्रयासों और जद(यू)-भाजपा सरकार द्वारा उनको दिये जा रहे तमाम संरक्षण के बावजूद कभी खूंखार रही सामंती निजी सेना में फिर से जान नहीं फूंकी जा सकी. अब कई लोग सवाल कर रहे हैं कि क्या ब्रह्मेश्वर सिंह का प्रस्थान एक बार फिर रणवीर सेना को पुनरुज्जीवित कर सकेगा? शुरूआती रिपोर्टों से यकीनन एक जज्बाती प्रतिघात का इशारा मिल सकता है, मगर हम यही उम्मीद करते हैं कि लोग समझदारी से काम लेंगे और रणवीर सेना के गठन जैसी नादानी फिर से नहीं की जायेगी.

ब्रह्मेश्वर सिंह के चले जाने को बिहार में जड़ जमाये बैठे सामंती अवशेषों में एक सबसे कुख्यात प्रतीक का प्रस्थान कहा जा सकता है, मगर इसे बिहार की सामंती शक्तियों के खुद-ब-खुद कमजोर पड़ जाने के बतौर कत्तई नहीं देखा जाना चाहिये. बिहार के विधान मंडलों, न्यायपालिका और नौकरशाही, सभी संस्थाओं में सामंती शक्तियां अब भी बहुत ज्यादा भारी पड़ती हैं, जिसका अनुमान अमीर दास आयोग को भंग किये जाने से लेकर भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को कूड़ेदान में डाल देने, और फिर एकदम हाल में, हाइकोर्ट द्वारा बथानी टोला जनसंहार को अंजाम देने वाले हत्यारों को रिहा कर दिये जाने जैसे संकेतों से मिलता है. लेकिन अगर यह इक्कीसवीं सदी में सामंती निजी सेना जैसी प्रणालियों की समाप्ति का भी संकेत हो, तो यह सामाजिक बदलाव और सच्चे लोकतंत्र के लिए भारत के दीर्घकालीन युद्ध के एक ऐतिहासिक रणक्षेत्र में जनता के लिये कोई कम बड़ी जीत नहीं है.