(सिद्धार्थ भाटिया के 18 दिसम्बर को द वायर में छपे लेख के कुछ अंश)
(इस पुस्तिका के कवर पेज पर छपा फोटो देखिए. वृद्ध पूर्व सैनिक नन्दलाल गुड़गांव स्टेट बैंक में लाइन से धक्कामुक्की में बाहर हो गये और फूट फूट कर रोने लगे.
-- यह फोटो हिन्दुस्तान टाइम्स के प्रवीन कुमार ने लिया)

ध्यान से देखिए. यह चेहरा बताता है कि जीवन में अनगिनत मुश्किलों और दुखों का सामना बड़े धीरज के साथ किया है. आजकल नन्दलाल एक छोटी सी कोठरी में अकेले रहते हैं. वे एक सैनिक थे और दुश्मन की गोलियों का निडर होकर मुकाबला करते होंगे, लेकिन पूरे तीन दिनों तक लाइन में खड़े होने के बाद भी मात्र कुछ सौ रुपये निकाल पाने में विफलता ने अन्दर तक तोड़ दिया. फिर से नई लाइन में लगना होगा और हो सकता है कि शाम को खाली ही लौटना पड़े, वे फफक-फफक कर रो पड़े.

भीड़ में उनके चारों ओर खड़े लोग इस फोटो में कुछ अर्थ जोड़ रहे हैं. हो सकता है इन महिलाओं की उनके प्रति कुछ सहानुभूति हो. लेकिन वे दिलासा देने उनके पास आयेंगी तो लाइन से उनकी जगह भी चली जायेगी. जिन्दगी की जद्दोजहद में सहानुभूति और एकजुटता की भावना पीछे छूट गई. महिलाओं के चेहरे पर भी मायूसी कम नहीं है, क्योंकि उन्हें भी कुछ न कुछ पैसा जरूर चाहिए, घर वापस लौटना है, उनके परिवार परेशान हैं. पूरा देश इस आपदा में एकजुट है, लेकिन काम चलाने के लिए कैश कम है और उसे पाना बहुत मुश्किल है, हर आदमी और हर औरत केवल अपने लिए सोचने को मजबूर है. दूसरों के दुख की चिन्ता बाद में ...

नोटबंदी का दर्द लम्बे समय तक चलने वाला है. और जब इससे उबर जायेंगे, उसके बाद भी गरीबों के जीवन में कोई सुधार नहीं आने वाला है. बैंक/एटीएम की लाइनें खत्म हो भी जायें, सरकार तो वही रहेगी जो जबर्दस्ती उनके ऊपर टेक्नोलाॅजी थोप रही है. अगर कैश निकालने की सीमा को हमेशा के लिए स्थायी कर दिया तो क्या होगा? अगर हम इस निर्णय को महज एक बार उठाया गया सनकी कदम समझते हैं तो यह हमारी मूर्खता होगी; ये न सिर्फ देश चलाने के तौर-तरीकों को बदलने, बल्कि नागरिकों के जीवन को नियंत्रित करने की एक सोची-समझी योजना का हिस्सा है. फिलहाल, लाइनें छोटी होने का नाम नहीं ले रहीं और लोगों की कैश की जरूरत पूरी होने से बहुत दूर है.

ऐसे किस्से आगे भी देखने को मिलेंगे. हो सकता है कि दुनिया नन्दलाल का नाम भूल जाये. फिर भी उनकी छवि हमारी अन्तरात्मा में न सही, हमारी यादों में हमेशा चस्पा रहेगी. यह और बात है कि उन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता जो उनके दर्द को कम कर सकते थे और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए था, क्योंकि वे तो इस फोटो के दर्द की सच्चाई को स्वीकार ही नहीं करना चाहते.