यह घोषणापत्र कम्युनिस्ट लीग के, एक मजदूर संघ के कार्यक्रम के रूप में प्रकाशित किया गया था. यह लीग आरंभ में विशुद्ध रूप में जर्मन थी पर आगे चलकर अंतर्राष्ट्रीय चरित्र की बन गई. 1848 से पहले यूरोप की राजनीतिक परिस्थितियों के चलते यह लीग अनिवार्य रूप से एक गुप्त संस्था थी. नवंबर 1847 में लंदन में लीग की कांग्रेस हुई जिसमें मार्क्स और एंगेल्स को एक संपूर्ण सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक पार्टी कार्यक्रम तैयार करने का काम सौंपा गया, ताकि उसे प्रकाशित किया जा सके. जर्मन भाषा में इसकी पांडुलिपि जनवरी 1848 में तैयार हो गई थी तथा उसे 24 फरवरी की फ्रांसीसी क्रांति व्यापक रूप से चर्चित इस किताब में फ्रांसिस फुकुयामा ने मूल रूप से कहा कि उदारवादी लोकतंत्र ही अंतिम रूप है. यहां से आगे किसी भी व्यवस्था की ओर प्रगति नहीं हो सकती. पैरी एण्डरसन जैसे मार्क्सवादी फुकुयामा के सबसे तीखे आलोचक हुये. जैक देरिदा ने 'स्पेक्टर्स अॉफ मार्क्स' (1993) में कहा कि फुकुयामा – और उनकी किताब की फटाफट लोकप्रियता – 'मार्क्स की मौत' की गारंटी के लिए बेचैनी का एक लक्षण था. देरिदा ने फुकुयामा द्वारा उदार लेकतंत्र के उत्सवीकरण का मजबूती से प्रतिवाद किया – '… जब कुछ लोग उदारपन्थी लोकतंत्र के आदर्श के नाम पर इसे मानव इतिहास का अंतिम आदर्श कह कर नया पंथ चलाने का दुस्साहस करते हैं तो ठीक उसी समय चिल्ला कर कहना होगा कि धरती और मनवता के इतिहास में इतनी हिंसा, असमानता, बहिष्करण, अकाल और मनुष्यों को प्रभावित करने वाला आर्थिक उत्पीड़न कभी नहीं था.’ से कुछ ही सप्ताह पहले लंदन में प्रकाशक के पास भेजा गया था. उसका फ्रांसीसी अनुवाद पेरिस में 1848 के जून विद्रोह के कुछ ही पहले प्रकाशित किया गया था, 1850 में लंदन में जार्ज जूलियन हार्ने के रेड रिपब्लिकन में प्रकाशित हुआ था. डेनिस तथा पोलिस संस्करण भी प्रकाशित हुए.

जून 1848 के पेरिस विद्रोह – सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच पहली बड़ी लड़ाई – की पराजय ने यूरोपीय मजदूर वर्ग की सामाजिक तथा राजनीतिक आकांक्षा को फिर से पीछे धकेल दिया. तब से सत्ता के लिए होने वाला संघर्ष फिर से, फरवरी क्रांति से पहले के दौर की तरह, संपत्तिधारी वर्गों के विभिन्न हिस्सों के बीच का संघर्ष बन गया. मजदूर वर्ग को राजनीतिक कार्यवाही की आजादी पाने के लिए संघर्ष करने की स्थिति में पहुंचा दिया गया – मध्यवर्गीय रैडिकलों के सबसे उग्र धड़े की स्थिति में पहुंचा दिया गया. जहां कहीं भी स्वतंत्र सर्वहारा आंदोलनों ने जीवन के लक्षण प्रकट किए, वहीं निर्ममतापूर्वक उनका पीछा किया गया. इस तरह प्रशियाई पुलिस ने कोलोन स्थिति कम्युनिस्ट लीग की केंद्रीय समिति के कार्यालय पर छापा मारा. उसके सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें 18 महीने तक बंदी रखने के बाद अक्टूबर 1852 में उन पर मुकदमा चलाया गया. यह मशहूर “कोलोन के कम्युनिस्टों  का मुकदमा” 4 अक्टूबर से 12 नवंबर तक चलता रहा; इसमें सात बंदियों को तीन साल से लेकर छः साल तक किले में कारावास की सजा दी गई. सजा सुनाए जाने के फौरन बाद बाकी सदस्यों ने लीग को औपचारिक रूप से भंग कर दिया. जहां तक घोषणापत्र का ताल्लुक है, ऐसा लगा कि उसके भाग्य में विस्मृति के गर्त में गिरना ही लिखा है.

जब यूरोप के मजदूर वर्ग ने एक बार फिर शासक वर्गों पर प्रहार करने लायक पर्याप्त शक्ति इकट्ठा कर ली, तो अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ का जन्म हुआ. परंतु यह संघ, जो यूरोप और अमरीका के समूचे संघर्षशील सर्वहारा को एकजुट करने के तयशुदा उद्देश्य से बनाया गया था, तत्काल घोषणापत्र में पेश किए गए सिद्धांतों की घोषणा नहीं कर सकता था. इंटरनेशनल के लिए ऐसा व्यापक कार्यक्रम बनाना आवश्यक था, जो इंग्लैंड की ट्रेड-यूनियनों, फ्रांस, बेल्जियम, इटली तथा स्पेन में प्रूदोंप्रूदों (1806-1865) एक फ्रांसीसी समाजशास्त्री थे जो अराजकतावाद के संस्थापक थे. अपने निम्न-पूंजीवादी, दृष्टिकोण से उन्होंने छोटी मिल्कियतों को हमेशा कायम रखने की वकालत की और पूंजीवादी बड़ी मिल्कियत की आलोचना की. उन्होंने सहकारी जन-बैंकों के जरिए मजदूरों के उद्योगों को मुक्त ऋण देने तथा विनिमय बैंकों के जरिए उनके मालों की न्यायपूर्ण बिक्री की गांरटी करने का सिद्धांत पेश किया. के अनुयायियों तथा जर्मनी में लासालपंथियोंखुद लासाल हमेशा यही कहते थे कि वह मार्क्स के शिष्य हैं और ऐसा होने के नाते वह घोषणापत्र को आधार के रूप में ग्रहण करते थे. परंतु 1862-1864 ते अपने सार्वजनिक आंदोलन में वह कभी राजकीय ऋणों से समर्थित सहकारी वर्कशापों की मांग से आगे नहीं बढ़े. (एंगेल्स) [para] लासाल 1863 में स्थापित जर्मन मजदूर संघ के अध्यक्ष थे. उन्होंने जर्मनी की पहली समाजवादी मजदूर पार्टी की स्थापना की थी. वे एक निम्न पूंजीवादी समाजवादी थे. उन्होंने बिस्मार्क के साथ यह समझौता करना चाहा था कि उसके अंधराष्ट्रवादी अभियान में वे मजदूरों का समर्थन जुटा देंगे, बदलो में बिस्मार्क उनकी सार्वजनिक मातधिकार और राज्य की मदद से चलने वाली सहकारी संस्थाएं कायम करने की मांगें मान ले. को स्वीकार्य हो.

सभी पार्टियों के लिए संतोषजनक कार्यक्रम लिखने में मार्क्स ने मजदूर वर्ग के बौद्धिक विकास पर पूरा भरोसा किया, जो संयुक्त कार्यवाही और आपसी मशविरे से जरूर पैदा होने वाला था. खुद घटनाओं से तथा पूंजी के खिलाफ संघर्ष में आने वाले बराबर उतार-चढ़ावों से, जिनमें विजय से ज्यादा पराजय होती थी, मजदूरों के दिमाग में यह बात बैठे बिना नहीं रह सकती थी कि इन लोगों के प्रिय नीम-हकीमी नुस्खों से उन्हें खास फायदा नहीं होने वाला और तब से घटनाएं और उतार-चढ़ाव मजदूर वर्ग की मुक्ति की वास्तविक शर्तों को पूरी तरह समझने का रास्ता खोले बगैर नहीं रह सकतीं. इस मायने में मार्क्स सही साबित हुए. 1874 में जब इंटरनेशनल भंग हो गया, तो उस समय का मजदूर वर्ग इंटरनेशनल की स्थापना के समय, यानी 1864, के मजदूर वर्ग की तुलना में एकदम भिन्न था. फ्रांस में प्रूदोंपंथ प्रूदों (1806-1865) एक फ्रांसीसी समाजशास्त्री थे जो अराजकतावाद के संस्थापक थे. अपने निम्न-पूंजीवादी, दृष्टिकोण से उन्होंने छोटी मिल्कियतों को हमेशा कायम रखने की वकालत की और पूंजीवादी बड़ी मिल्कियत की आलोचना की. उन्होंने सहकारी जन-बैंकों के जरिए मजदूरों के उद्योगों को मुक्त ऋण देने तथा विनिमय बैंकों के जरिए उनके मालों की न्यायपूर्ण बिक्री की गांरटी करने का सिद्धांत पेश किया. और जर्मनी मे लासालपंथ खुद लासाल हमेशा यही कहते थे कि वह मार्क्स के शिष्य हैं और ऐसा होने के नाते वह घोषणापत्र को आधार के रूप में ग्रहण करते थे. परंतु 1862-1864 ते अपने सार्वजनिक आंदोलन में वह कभी राजकीय ऋणों से समर्थित सहकारी वर्कशापों की मांग से आगे नहीं बढ़े. (एंगेल्स) [para] लासाल 1863 में स्थापित जर्मन मजदूर संघ के अध्यक्ष थे. उन्होंने जर्मनी की पहली समाजवादी मजदूर पार्टी की स्थापना की थी. वे एक निम्न पूंजीवादी समाजवादी थे. उन्होंने बिस्मार्क के साथ यह समझौता करना चाहा था कि उसके अंधराष्ट्रवादी अभियान में वे मजदूरों का समर्थन जुटा देंगे, बदलो में बिस्मार्क उनकी सार्वजनिक मातधिकार और राज्य की मदद से चलने वाली सहकारी संस्थाएं कायम करने की मांगें मान ले. दम तोड़ रहे थे और दकियानूस ब्रिटिश ट्रेड-यूनियनें तक, हालांकि उनमें से अधिकांश पहले ही इंटरनेशनल से अपना नाता तोड़ चुकी थीं, धीरे-धीरे उस स्थिति में पहुंच गई, कि पिछले वर्ष स्वांसी कांग्रेस (1881) में उनके अध्यक्ष ने ट्रेड यूनियनों के नाम पर यह ऐलान कर दिया कि “महाद्वीपीय समाजवाद अब हमारे लिए आतंक नहीं रह गया है.” वस्तुतः घोषणापत्र के सिद्धांत तब तक सभी देशों के मजदूरों के बीच काफी प्रचलित हो चुके थे.

इस प्रकार घोषणापत्र स्वयं फिर सामने आया. जर्मन मूल पाठ 1850 से कई बार स्विटजरलैंण्ड, इग्लैंण्ड, तथा अमरीका में छप चुका था. 1872 में वह न्यूयाॅर्क में अंग्रेजी में अनूदित हुआ और वुडहल एण्ड क्लेफिन्स वीकली में प्रकाशित हुआ था. इस अंग्रेजी संस्करण का एक फ्रांसीसी अनुवाद न्यूयाॅर्क के ला सोशलिस्त में प्रकाशित हुआ तब से न्यूनाधिक दो अंग्रेजी अनुवाद अमरीका में प्रकाशित हुये हैं तथा उनमें से एक का ब्रिटेन में पुर्नमुद्रण हुआ है. पहला रूसी अनुवाद जो बाकुनिन ने किया था जेनेवा में लगभग 1863 में हर्ज़न के ‘कोलोकोल’ कार्यालय ने प्रकाशित किया था. दूसरा अनुवाद भी जो वीरांगना वेरा जासूलिच ने किया था, 1882 में जेनेवा में प्रकाशित हुआ. एक नया डेनिश संस्करण कोपेनहेगेन के सोशल डेमोक्रातिस्क बिब्लियोतेल में 1885 में छपा. एक नया फ्रांसीसी अनुवाद 1885 में ला सोशलिस्ट में छपा है. इस फ्रांसीसी अनुवाद का स्पेनी भाषा में रूपांतरण किया गया जो मेड्रिड में 1886 में छपा. जर्मन पुर्नमुद्रणों की बात करने की आवश्यकता नहीं है, उनकी संख्या कम से कम बारह है. मुझे बताया गया है कि आर्मीनियाई भाषा में हुआ अनुवाद, जिसे कुस्तुनतुनिया में छपना था, इसलिए प्रकाशित नहीं हो सका कि प्रकाशक मार्क्स के नाम से पुस्तक छापने से डरता था. जबकि अनुवादक ने उसे अपना काम बताने से इंकार कर दिया. मैंने अन्य भाषाओं में अनुवादों की बात सुनी है परन्तु देखा नहीं है. इस प्रकार घोषणापत्र का इतिहास काफी हद तक आधुनिक मजदूर आंदोलन के इतिहास को प्रतिबिंबित करता है. निःसंदेह घोषणापत्र पूरे समाजवादी साहित्य में सबसे व्यापक, सबसे अधिक अंतर्राष्ट्रीय किस्म की रचना है, जो साइबेरिया से लेकर कैलिफोर्निया तक लाखों-लाख मेहनतकश लोगों द्वारा स्वीकृत एक आम कार्यक्रम है.

फिर भी जब हमने घोषणापत्र लिखा था, हम उसे समाजवादी घोषणापत्र नहीं कह सकते थे. 1847 में दो तरह के लोग समाजवादी माने जाते थे. एक ओर विभिन्न कल्पनावादी पद्धतियों के अनुयायी – इंग्लैंण्ड में ओवेनपंथीब्रिटिश कल्पनावादी समाजवादी राबर्ट ओवेन (1777-1858) ने पूंजीवादी व्यवस्था की घोर आलोचना की, मगर पूंजीवाद के बुनियादी अंतर्विरोध की जानकारी न रहने के कारण वे शिक्षा के अभाव को ही गरीबी का मुख्य कारण समझते थे. और फ्रांस में फूरिएपंथीफ्रांसीसी कल्पनावादी समाजवादी शार्ल फूरिये (1772-1837) पूंजीवादी समाज के कटु आलोचक थे, मगर वे शांतिपूर्ण तरीके से ऐसा समाजवाद लाने की हिमायत करते थे, जो स्वैच्छिक तथा रुचिकर श्रम पर आधारित हो. दोनों घटकर सिर्फ संकीर्ण गुट की हैसियत से बचे रह गए थे और धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे थे. दूसरी ओर नाना प्रकार के सामाजिक नीम-हकीम, जो पूंजी तथा मुनाफे को जरा भी नुकसान पहुंचाए बिना, तमाम किस्म से पैबंद लगाकर सभी सामाजिक विक्षोभों का अंत कर देना चाहते थे. ये दोनों किस्म के लोग मजदूर आंदोलनों के बाहर थे तथा अपना समर्थन जुटाने के लिए “शिक्षित” वर्गों पर आस लगाए बैठे थे. मजदूर वर्ग का वह हिस्सा, जिसे यह विश्वास हो चला था कि मात्र राजनीतिक क्रांतियां पर्याप्त नहीं हैं और जो समाज के आमूल पुनर्निर्माण की मांग करता था, उस समय खुद को कम्युनिस्ट कहता था. यह अनगढ़, बेडौल, और विशुद्ध प्रेरणात्मक किस्म का कम्युनिज्म था, फिर भी उसने मूल विषय को पकड़ लिया था और वह इतना शक्तिशाली जरूर था कि उसने काल्पनिक कम्युनिज्म को जन्म दिया – फ्रांस में काबे केकाबे (1788-1856) एक फ्रांसीसी निम्न-पूंजीवादी पत्रकार थे. उन्होंने 'इकारिया की यात्रा' नामक एक पुस्तक (1840 में) लिखी थी. उन्होंने अमरीका में “इकारिया” नामक एक कम्युनिस्ट समुदाय कायम करने का असफल प्रयास भी किया. और जर्मनी में वाइटलिंग वाइटलिंग [1808-1871) जर्मन मजदूर आंदोलन के प्रारंभिक दौर के नेता थे मजदूरों के अंदर वर्ग चेतना भरने का महत्व स्वीकार करने पर भी वे समाजवाद को वर्ग संघर्ष के विकास का परिणाम नहीं समझ पाए थे. अत: उन्होंने लुम्पेन सर्वहारा को संगठित कर सत्ता पर कब्जा करने का सिद्धांत पेश किया. के कम्युनिज्म को. इस प्रकार 1847 में समाजवाद पूंजीवादी आंदोलन तथा कम्युनिज्म मजदूर वर्ग का आंदोलन बन गया था. कम से कम महाद्वीप में तो समाजवाद को ही “प्रतिष्ठा” हासिल थी, जबकि कम्युनिज्म को कतई नहीं. और चूंकि उस समय ही हमारी यह पक्की राय बन चुकी थी कि “मजदूर वर्ग की मुक्ति खुद मजदूर वर्ग का ही कार्य होना चाहिए” इसलिए इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी कि हम इन दोनों में से कौन सा नाम अपनाते. और तब से हमें कभी इस नाम को त्यागने का ख्याल तक नहीं आया.

चूंकि घोषणापत्र हमारी संयुक्त रचना है इसलिए मैं यह कहने के लिए अपने को वचनबद्व समझता हूं कि इसमें आधारभूत प्रस्थापना, जो इसका नाभिक है, मार्क्स की ही है. वह प्रस्थापना यह है कि प्रत्येक ऐतिहासिक युग का आर्थिक उत्पादन तथा विनिमय का प्रचलित ढंग तथा उससे अनिवार्यतः उत्पन्न होने वाली सामाजिक संरचना उस आधार का निर्माण करती है जिस पर उस युग के राजनीतिक तथा बौद्विक इतिहास का निर्माण होता है और जिसके बल पर ही उस पर प्रकाश डाला जा सकता है; कि इसके परिणामस्वरूप मानवजाति का पूरा इतिहास; आदिम कबिलाई समाज के, जिसमें भूमि पर सबका स्वामित्व होता था, विघटन से लेकर; वर्ग संघर्षों, शोषकों तथा शोषितों, शासकों तथा शासितों के बीच संघर्षों का इतिहास रहा है; कि इन वर्ग संघर्षों का इतिहास अपने विकासक्रम की एक ऐसी मंजिल में पहुंच चुका है जहां शोषितों तथा उत्पीड़ित वर्ग-सर्वहारा वर्ग-पूरे समाज के शोषण, उत्पीड़न वर्ग विभेदों तथा वर्ग संघर्षों से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त किए बिना उत्पीड़न तथा शोषण करने वाले वर्ग-पूंजीपति वर्ग- के जुए से अपने को मुक्त नहीं कर सकता.

1845 से पहले, हम दोनों अलग-अलग कुछ वर्षों के दौरान, धीरे-धीरे इसी प्रस्थापना की ओर बढ़ते रहे, जो मेरी राय में इतिहास के लिए अनिवार्यतः वही भूमिका अदा करेगी, जैसी भूमिका डारविन के सिद्धांतचार्ल्स डार्विन (1809-1882) एक ब्रिटिश वैज्ञानिक थे जिन्होंने जीव विकास का सिद्धांत प्रतिपादित किया. उन्होंने बताया कि जीवों का विकास सरल से जटिल रूपों की ओर आगे बढ़ा, पुराने रूपों का विलोप हुआ और नए रूप पैदा हुए. जीवों में परिवर्तनशीलता और आनुवांशिकता का गुण होता है. जो परिवर्तन जीवों को अस्तित्व के संघर्ष में मदद देते हैं, वे मजबूत होते हैं और उन्हीं से नए रूप निर्धारित होते हैं. ने जीव-विज्ञान के लिए अदा की है. मैं इस प्रस्थापना की ओर स्वतंत्र रूप से कहां तक बढ़ सका था. इसे सबसे अच्छी तरह मेरी रचना इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा से समझा जा सकता है. परंतु जब 1845 के बसंत में मैं मार्क्स से बु्रसेल्स में मिला तो वे इस विचार को पहले से ही विकसित किए बैठे थे, और उन्होंने जिस रूप में इस विचार को मेरे सामने पेश किया, वह उतना ही स्पष्ट था, जितने स्पष्ट रूप में उसे मैंने यहां बयान किया है.

1872 के जर्मन संस्करण की हमने मिलकर जो भूमिका लिखी थी उसमें से मैं निम्नलिखित अंश उद्धृत कर रहा हूं:

  • पिछले पच्चीस वर्षों में परिस्थिति चाहे कितनी बदल गई हो, इस घोषणापत्र में निरूपित रूप आम सिद्वांत समग्र रूप में आज भी उतने ही सही हैं, जितने कि पहले थे. एकाध जगह उनमें छोटा-मोटा सुधार किया जा सकता है. सिद्वांतों का क्रियान्वयन जैसा कि खुद घोषणापत्र में कहा गया है, हर जगह और हमेशा विद्यमान ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा और इसी कारण अघ्याय 2 के अंत में प्रस्तावित क्रान्तिकारी कार्यवाहियों पर कोई विशेष जोर नहीं दिया गया. आज यह भाग बहुत अंशों में अत्यंत भिन्न रूप में लिखा जाता. 1848 के आधुनिक उद्योग की जर्बदस्त तरक्की और उसके साथ होने वाली मजदूर वर्ग के पार्टी संगठन के उन्नति और विस्तार को देखते हुए इस कार्यक्रम की कुछ तफसीले पुरानी पड़ गई हैं. कम्यून ने एक बात तो खास तौर से साबित कर दी, वह यह कि ‘मजदूर वर्ग राज्य की बनी- बनाई मशीनरी पर कब्जा करके ही उसका उपयोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नहीं कर सकता. (देखिए फ्रांस में ‘गृहयुद्व: अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ की जनरल कौंसिल की चिट्ठी’, लंदन, ट्रू एलोव, 1871, पृष्ठ 15, जहां इस बात की और विस्तृत चर्चा की गई है.) फिर यह स्वतः स्पष्ट है कि इसमें दी हुई समाजवादी साहित्य की आलोचना भी आज की दृष्टि से अपूर्ण है, क्यों कि उसमें 1847 तक का ही जिक्र है. इसके अलावा विभिन्न विरोधी पार्टियों के साथ कम्युनिस्टों के संबंधों के बारे में जो टिप्पणियां की गई हैं (अघ्याय 4)  वे यद्यपि सैद्धांतिक रूप से अब भी सही हैं, तथापि व्यवहार में पुरानी पड़ गई हैं, क्यों कि तब से राजनैतिक परिस्थिति बिल्कुल ही बदल गई है, और जिन राजनैतिक पार्टियों का यहां उल्लेख किया गया है, उनमें से अधिकांश इतिहास की धारा में विलीन हो चुकी हैं.
  • लेकिन घोषणापत्र तो एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है जिसमें परिवर्तन करने का हमें कोई अधिकार नहीं रह गया है.

प्रस्तुत अनुवाद श्री सैमुअल मूर का है, जो मार्क्स की पूंजी और अधिकांश के अनुवादक हैं. हमने मिलकर इसे संशोधित किया है तथा कुछ व्याख्यात्मक ऐतिहासिक टिप्पणियां जोड़ दी हैं

लंदन, 30 जनवरी: फ्रेडरिक एंगेल्स