उपरिलिखित पंक्तियों के लिखे जाने के बाद घोषणापत्र के एक नए जर्मन संस्करण का प्रकाशन आवश्यक हो गया है तथा घोषणापत्र के साथ भी कई बातें ऐसी हो चुकी हैं, जिन्हें यहां दर्ज किया जाना चाहिए.

द्वितीय रूसी अनुवाद जो वेरा जासूलिच ने किया है, जेनेवा में 1882 में प्रकाशित हुआ था, उस संस्करण की भूमिका मार्क्स तथा मैंने लिखी थी. दुर्भाग्यवश मूल जर्मन पांडुलिपि कहीं खो गई है, इसलिए मुझे रूसी से दुबारा अनुवाद करना पड़ेगा जिससे मूल पाठ में किसी तरह का सुधार होने नहीं जा रहा है. ... लगभग उसी वक्त जेनेवा में घोषणापत्र का एक नया पोलिश संस्करण प्रकाशित हुआ.

फिर 1885 में कोपेनहेगेन के सोशलडेमोक्रातिस्क बिब्लियोतेल में एक नया डेनिश अनुवाद छपा. दुर्भाग्यवश यह पर्याप्त रूप से पूर्ण नहीं है; कतिपय नितांत महत्वपूर्ण अंशों को, जिन्होंने लगता है कि अनुवादक के सामने कठिनाईयां पैदा की, छोड़ दिया गया है; इसके अलावा उसमें यत्र-तत्र लापरवाही के चिन्ह मिलते हैं; वे इस कारण आंखों को और भी ज्यादा खटकते हैं कि अनुवाद से पता चलता है कि यदि अनुवादक ने थोड़ी सी और मेहनत की होती तो वह बहुत सुन्दर काम सम्पन्न करते.

1885 में एक नया फ्रांसीसी अनुवाद ला सोशलिस्त में छपा तथा फिर एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया – मेनिफेस्टो देल पार्तिदो काम्यूनिस्त, कार्ल मार्क्स तथा फ्रेडरिक ऐंगेल्स, मेड्रिड, एल सोशलिस्त प्रकाशन गृह एर्नान कोर्तेस 8.

यहां मैं उत्सुकतावश इस बात की चर्चा कर दूं कि 1887 में कुस्तुनतुनियां के एक प्रकाशक से एक आर्मीनियाई अनुवाद की पांडुलिपि छापने का प्रस्ताव किया गया. परन्तु उस भले आदमी में मार्क्स के नाम से जुड़ी कोई चीज छापने की हिम्मत नहीं हुई. उसने अनुवादक से कहा कि वह पांडुलिपि में लेखक के रूप में अपना नाम लिखे परन्तु उसने ऐसा करने से इंकार कर दिया.

अमरीका में किए गए कई अनुवाद इंग्लैंड में सिलसिलेवार छपते रहे जो न्यूनाधिक रूप से अशु़द्ध थे. अंततः प्रामाणिक अनुवाद 1888 में तैयार किया गया. यह मेरे मित्रा सैमुअल मूर का काम था और उसे प्रेस में भेजने से पहले हम दोनों ने मिलकर उस पर नजर डाली. उसका नाम है “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र, कार्ल मार्क्स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स. प्रामाणिक अंग्रेजी अनुवाद, संपादन तथा नोट्स फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा 1888. लंदन विलियम रिव्स, 185, फ्लीट स्ट्रीट, ई. सी..” मैंने उस संस्करण के कुछ नोट्स प्रस्तुत संस्करण में शामिल किए हैं.

घोषणापत्र का अपना एक अलग इतिहास रहा है. प्रकाशन के साथ ही उसका वैज्ञानिक समाजवाद के हिरावलों द्वारा, जिनकी संख्या अभी बिल्कुल ही  अधिक न थी, उत्साहपूर्ण स्वागत हुआ (जैसा कि पहली भूमिका मैं उल्लिखित अनुवादों द्वारा स्पष्ट है), किन्तु थोड़े ही समय बाद, जून 1848 मेंयहां इशारा पेरिस के सर्वहाराओं के 23-26 जून के विद्रोह की ओर है. जून विद्रोह यूरोप में 1848-1849 की क्रांति के विकास का चरम बिन्दु था. पेरिस के मजदूरों को पराजय से होने वाली प्रतिक्रिया के साथ उसे पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया, और अंततः जब नवंबर 1852 में कोलोन के कम्युनिस्टों को सजा दी गईयहां इशारा प्रशा की सरकार द्वारा संगठित उकसावापूर्ण मुकदमे (4 अक्टूबर से बारह नवंबर 1852) की ओर है. अंतराष्ट्रीय कम्युनिस्ट संगठन के, कम्युनिस्ट लीग के 11 सदस्यों पर “राजद्रोह” करने के लिए मुकदमा चलाया गया. सात को जाली दस्तावेजों तथा झूठी शहादतों के आधार तीन से सात वर्ष तक का कठोर दुर्ग कारावास का दंड दिया गया. तो वह “कानूनी तौर पर” बहिष्कृत कर दिया गया. फरवरी क्रान्ति के साथ जिस मजदूर आन्दोलन का सूत्रपात हुआ था, उसके सार्वजनिक रंगमंच से ओझल हो जाने के बाद घोषणापत्र भी पृष्ठभूमि में चला गया.

जब यूरोप के मजदूर वर्ग ने शासक वर्गोे की सत्ता पर एक और प्रहार करने के लिए पर्याप्त शक्ति फिर से संचित कर ली, तो अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ का जन्म हुआ. उसका उद्देश्य यूरोप और अमरीका के तमाम जुझारू मजदूर वर्ग को एक विशाल सेना के रूप में एकजुट करना था. इसलिए संघ घोषणापत्र में स्थापित सिद्धांतों को प्रस्थान बिन्दु मानकर नहीं चल सकता था. उसका ऐसा कार्यक्रम होना लाजिमी था जिससे इंग्लैंड की ट्रेड यूनियनों, फ्रांस, बेल्जियम, इटली और स्पेन के प्रूदोपंथियों तथा जर्मनी के लासालपंथियों के लिए दरवाजा बंद न हो जाए. इस तरह के कार्यक्रम को इंटरनेशनल की नियमावली 18 के प्राक्कथन को – मार्क्स ने बड़ी खूबी के साथ लिखा जिसे बाकूनिन और अराजकतावादियों तक ने माना. जहां तक घोषणापत्र में निरूपित सिद्धांतों की अन्तिम विजय का प्रश्न है, मार्क्स ने मजदूर वर्ग के बौद्धिक विकास पर, जो संयुक्त कार्यकलाप तथा पारस्परिक विचार-विमर्श के फलस्वरूप निश्चित रूप से पैदा होता है, पूर्णतया भरोसा किया. घटनाएं तथा पूंजी के विरूद्ध संघर्ष के बराबर उतार चढ़ाव – विजयों से ज्यादा मजदूरों के दिमाग में यह बात बैठे बिना नहीं रह सकती थी कि इन लोगों के प्रिय नीम-हकीमी नुस्खों से उन्हें खास फायदा नहीं होने वाला और तब से घटनाएं और उतार-चढ़ाव मजदूर वर्ग की मुक्ति की वास्तविक शर्तों को पूरी तरह समझने का रास्ता खोले बगैर नहीं रह सकतीं. इस मायने में मार्क्स सही साबित हुए. 1874 में जब इंटरनेशनल भंग हो गया, तो उस समय का मजदूर वर्ग इंटरनेशनल की स्थापना के समय, यानी 1864, के मजदूर वर्ग की तुलना में एकदम भिन्न था. फ्रांस में प्रूदोंपंथ और जर्मनी मे लासालपंथ दम तोड़ रहे थे और दकियानूस ब्रिटिश ट्रेड-यूनियनें तक, हालांकि उनमें से अधिकांश पहले ही इंटरनेशनल से अपना नाता तोड़ चुकी थीं, धीरे-धीरे उस स्थिति में पहुंच गई, कि पिछले वर्ष स्वांसी कांग्रेस (1881) में उनके अध्यक्ष ने ट्रेड यूनियनों के नाम पर यह ऐलान कर दिया कि “महाद्वीपीय समाजवाद अब हमारे लिए आतंक नहीं रह गया है.” वस्तुतः घोषणापत्र के सिद्धांत तब तक सभी देशों के मजदूरों के बीच काफी प्रचलित हो चुके थे. फिर भी 1887 तक महाद्वीपीय समाजवाद लगभग पूर्णतः वही सिद्धांत था जिसकी घोषणापत्र ने घोषणा की थी. चुनांचे घोषणापत्र का इतिहास 1848 के बाद से आधुनिक मजदूर आन्दोलन के बाद से आधुनिक मजदूर आन्दोलन के इतिहास को एक हद तक प्रतिबिंबित करता है. आज तो निःसंदेह घोषणापत्र समस्त समाजवादी साहित्य की सबसे अधिक प्रचलित, सबसे अधिक अंतर्राष्ट्रीय कृति है और वह साइबेरिया से कैलिफोर्निया तक सभी देशों के करोड़ों मजदूरों का समान कार्यक्रम है.

फिर भी जब हमने घोषणापत्र लिखा था, हम उसे समाजवादी घोषणापत्र नहीं कह सकते थे. 1847 में दो तरह के लोग समाजवादी माने जाते थे. एक ओर विभिन्न कल्पनावादी पद्धतियों के अनुयायी – इंग्लैंड में ओवेनपंथीब्रिटिश कल्पनावादी समाजवादी राबर्ट ओवेन (1777-1858) ने पूंजीवादी व्यवस्था की घोर आलोचना की, मगर पूंजीवाद के बुनियादी अंतर्विरोध की जानकारी न रहने के कारण वे शिक्षा के अभाव को ही गरीबी का मुख्य कारण समझते थे. और फ्रांस में फूरिएपंथीफ्रांसीसी कल्पनावादी समाजवादी शार्ल फूरिये (1772-1837) पूंजीवादी समाज के कटु आलोचक थे, मगर वे शांतिपूर्ण तरीके से ऐसा समाजवाद लाने की हिमायत करते थे, जो स्वैच्छिक तथा रुचिकर श्रम पर आधारित हो. दोनों घटकर सिर्फ संकीर्ण गुट की हैसियत से बचे रह गए थे और धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे थे. दूसरी ओर नाना प्रकार के सामाजिक नीम-हकीम, जो पूंजी तथा मुनाफे को जरा भी नुकसान पहुंचाए बिना, तमाम किस्म से पैबंद लगाकर सभी सामाजिक विक्षोभों का अंत कर देना चाहते थे. ये दोनों किस्म के लोग मजदूर आंदोलनों के बाहर थे तथा अपना समर्थन जुटाने के लिए “शिक्षित” वर्गों पर आस लगाए बैठे थे. मजदूर वर्ग का वह हिस्सा, जिसे यह विश्वास हो चला था कि मात्र राजनीतिक क्रांतियां पर्याप्त नहीं हैं और जो समाज के आमूल पुनर्निर्माण की मांग करता था, उस समय खुद को कम्युनिस्ट कहता था. यह अनगढ़, बेडौल, और विशुद्ध प्रेरणात्मक किस्म का कम्युनिज्म था, फिर भी उसने मूल विषय को पकड़ लिया था और वह इतना शक्तिशाली जरूर था कि उसने काल्पनिक कम्युनिज्म को जन्म दिया – फ्रांस में काबेकाबे (1788-1856) एक फ्रांसीसी निम्न-पूंजीवादी पत्रकार थे. उन्होंने 'इकारिया की यात्रा' नामक एक पुस्तक (1840 में) लिखी थी. उन्होंने अमरीका में “इकारिया” नामक एक कम्युनिस्ट समुदाय कायम करने का असफल प्रयास भी किया. के और जर्मनी में वाइटलिंग वाइटलिंग {1808-1871) जर्मन मजदूर आंदोलन के प्रारंभिक दौर के नेता थे मजदूरों के अंदर वर्ग चेतना भरने का महत्व स्वीकार करने पर भी वे समाजवाद को वर्ग संघर्ष के विकास का परिणाम नहीं समझ पाए थे. अत: उन्होंने लुम्पेन सर्वहारा को संगठित कर सत्ता पर कब्जा करने का सिद्धांत पेश किया. के कम्युनिज्म को. इस प्रकार 1847 में समाजवाद पूंजीवादी आंदोलन तथा कम्युनिज्म मजदूर वर्ग का आंदोलन बन गया था. कम से कम महाद्वीप में तो समाजवाद को ही “प्रतिष्ठा” हासिल थी, जबकि कम्युनिज्म को कतई नहीं. और चूंकि उस समय ही हमारी यह पक्की राय बन चुकी थी कि “मजदूर वर्ग की मुक्ति खुद मजदूर वर्ग का ही कार्य होना चाहिए” इसलिए इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी कि हम इन दोनों में से कौन सा नाम अपनाते. और तब से हमें कभी इस नाम को त्यागने का ख्याल तक नहीं आया.

“दुनिया के मजदूरो एक हो.” – जब यह नारा हमने आज से बयालीस साल पहले बुलंद किया था, प्रथम पेरिस क्रांति के ठीक पहले, जब सर्वहारा वर्ग स्वयं अपनी मांगें लेकर सामने आया था, तब बहुत थोड़े लोगों ने उसे प्रतिध्वनित किया था. किंतु 28 दिसंबर 1864 को पश्चिमी यूरोप के अधिकांश देशों के सर्वहाराओं ने मिलकर अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थापना की, जिसकी स्मृति गौरवपूर्ण है. यह सच है कि इंटरनेशनल केवल सौ साल तक जीवित रहा. किंतु उसने सभी देशों के सर्वहाराओं की जो अमर एकता कायम कर दी, वह आज भी जीवित है और पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली है. इसका सबसे बड़ा साक्षी आज का दिन है. क्योंकि आज के दिन, जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं, यूरोप और अमरीका के सर्वहारा अपनी जुझारू शक्तियों को पुनः जांच रहे हैं, जो पहली बार एक सेना की तरह, एक झंडे तले, एक तात्कालिक उद्देश्य के लिए मैदान में उतारी गई है; जो 1866 में इंटरनेशनल की जेनेवा कांग्रेस द्वारा और फिर 1889 में पेरिस की मजदूर कांग्रेस द्वारा घोषित आठ घंटे के काम के दिन को कानून द्वारा स्थापित करने के उद्देश्य से मैदान में उतारी गई हैं. और आज के दृश्य से सभी देशों के पूंजीपतियों और जमींदारों की आंखें खुल जाएंगी, उन्हें पता चलेगा कि तमाम देशों के मेहनतकश लोग आज सचमुच एक हैं.

काश, आज मार्क्स भी अपनी आंखों से इस दृश्य को देखने के लिए मेरे साथ होते!

- लंदन, 1 मई 1890, फ्रेडरिक एंगेल्स