घोषणापत्र में बुनियादी मार्क्सवादी हथियारों का जो शस्त्रागार है उसमें से क्रांतिकारी रणनीति और कार्यनीति के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों की ओर पाठकों का ध्यान हम खींचना चाहते हैं. क्योंकि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों और फलस्वरूप कम्युनिस्ट गतिविधियों की प्रकृति में आये अनगिनत बदलावों के बावजूद अपने को मार्क्सवादी कहने वाली सभी पार्टियों के लिए ये सिद्धांत अभी भी अमूल्य मार्गनिर्देशक और भरोसेमन्द कसौटियां बने हुये हैं.

सबसे पहले दूसरे भाग के शुरूआती 9 पैराग्राफों को देखें. इनमें हमारे समय के अनेक ‘मार्क्सवादी’ पार्टियों और नेताओं के घमण्ड और अहंकार की जगह हमें सच्चे कम्युनिस्टों की स्वाभाविक विनम्रता दिखाई पड़ती है; आज के वामपंथी आन्दोलन को प्रदूषित करने वाली निम्नपूंजीवादी संकीर्णता की जगह हमें सर्वहारा अगुआ की विशाल हृदयता दिखाई पड़ती है जो समूचे मजदूर वर्ग के हितों से अलग कम्युनिस्ट पार्टी के किन्हीं विशेष हितों को नहीं मानती और मजदूर वर्ग की अन्य पार्टियों के साथ लड़ने में अपनी भूमिका नहीं देखती, बल्कि उन्हें आगे ले चलने में अपनी भूमिका पहचानती है. यहां तक कि कम्युनिस्टों की सैद्धांतिक श्रेष्ठता को भी कुछ “सम्भावित सार्वभौमिक सुधारक” की महान खोज, सर्वज्ञ की शक्ति के बतौर (जैसा भौंडे ‘मार्क्सवादी’ करते हैं) नहीं देखती बल्कि “मौजूदा वर्ग संघर्ष, हमारी आंखों के सामने चल रहे एक ऐतिहासिक आन्दोलन से उत्पन्न वास्तविक संबंधें की महज आम भाषा में अभिव्यक्ति” के बतौर समझती है. लेकिन कौन नहीं जानता कि इस “महज” सामान्य अभिव्यक्ति ने समाजविज्ञान में वही काम किया जो एक और ‘सामान्य’ सरलीकरण e=mc2 ने आधुनिक भौतिक विज्ञान में किया?

घोषणापत्र के लेखकों की विनम्रता और एकता की भावना उन्हें भाग-3 में तत्कालीन समाजवाद के “प्रतिक्रांतिकारी” और “बुर्जुआ” रूपों पर निर्मम हमले करने से नहीं रोकती जो चार्ल्स फूरिये, सेण्ट साइमन और राॅबर्ट ओवेन जैसे गुजर चुके काल्पनिक समाजवादियों के अनुयायियों की अपेक्षाकृत आदरपूर्ण लेकिन खरी आलोचना से पूर्ण होती है. भाग-2 में जहरीले बुर्जुआ प्रचार के विरुद्ध बुनियादी कम्युनिस्ट सिद्धांतों के पक्ष में आक्रामक तरीके से उन्होंने जो लिखा था उसके मद्देनजर सर्वहारा कतारों को शिक्षित करने के लिए उन्हें यह आलोचना जरूरी लगी थी.

घोषणापत्र में कम्युनिस्ट राजनीति की एक और विशेषता को उजागर किया गया है और वह हैः “कम्युनिस्ट मजदूर वर्ग के तात्कालिक हितों को पूरा करने के लिए, तात्कालिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए लड़ते है – लेकिन वर्तमान के आन्दोलन में वे आन्दोलन के भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ध्यान रखते हैं” (भाग-4). यहां मार्क्स और एंगेल्स तात्कालिक कार्यभार को अंतिम लक्ष्य से, कार्यनीति को रणनीति से निरंतर और सुसंगत रूप से जोड़ने की बात कर रहे हैं और यह सिद्धांत भविष्य के परिणामों की अनदेखी करते हुये आसान सफलता की ओर जाने की सहज प्रेरणा के विरुद्ध मजबूत रोकथाम का काम कर सकता है.

लेकिन उदाहरण के लिए हमें यह देख कर तकलीफ होती है कि मार्क्सवाद का झण्डा बुलन्द करने वाली पार्टियां कैसे अक्सर अपने आप को अर्थवाद की तात्कालिकता में सीमित कर लेती हैं और कैसे तात्कालिक संसदीय फायदों की बलिवेदी पर मजदूर वर्ग के दूरगामी हितों की बलि चढ़ा दी जाती है. ये संसदीय फायदे बुर्जुआ पार्टियों के साथ सिद्धांतविहीन समझौते के जरिए हासिल किये जाते हैं जिससे मेहनतकश जनता की चेतना भ्रष्ट होती है. इस तरह मार्क्सवाद के इस अनिवार्य सिद्धांत, अवसरवाद के विरुद्ध इस बचाव को, छोड़ने से मार्क्सवाद तो नहीं उसके उलट संशोधनवाद का उभार होता हैः “मामला दर मामला अपने रुख को निर्धारित करना, तात्कालिक घटनाओं और क्षुद्र राजनीति के उतार चढ़ाव के अनुरूप अपने आप को ढालना, सर्वहारा के प्राथमिक हितों और समूची पूंजीवादी व्यवस्था के बुनियादी चरित्र, सम्पूर्ण पूंजीवादी विकास को भूल जाना, तात्कालिक वास्तविक या काल्पनिक फायदों के लिए सर्वहारा के प्राथमिक हितों की बलि चढ़ा देना – संशोधनवाद की यही नीति है.” (लेनिन, “मार्क्सवाद और संशोधनवाद”, 1908)

इसके बाद साझा दुश्मन के खिलाफ लड़ने वाली सभी शक्तियों के साथ व्यापक एकता का सिद्धांत आता है जिसमें सहयोगियों की स्वतंत्रतापूर्वक आलोचना करने के अधिकार समेत कम्युनिस्ट पार्टी की पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता बरकरार रहती है. एकता और संघर्ष के ये सैद्धांतिक संबंध इंग्लैण्ड में चार्टिस्टों जैसे जुझारू सुधारवादियों के साथ; अमेरिका में कृषि सुधारकों के साथ; फ्रांस में सामाजिक जनवादियों के साथ; पोलेण्ड में विद्रोहियों के साथ स्थापित किये गये (भाग-4). इसके बाद एकता का और भी व्यापक घेरा “सभी देशों की जनवादी पार्टियों के साथ एकता और सहमति” का था. यहां “पार्टियों” का मतलब विभिन्न जुझारू जनवादी पार्टियों तथा उदीयमान ताकतों/पार्टियों से है जिनसे मार्क्स का सीधा संबंध ब्रुसेल्स डेमोक्रेटिक एसोसियशन के उपाध्यक्ष के बतौर बना था, उनसे तो कतई नहीं है जो सिर्फ नाम के लिए जनवादी थीं.

बुर्जुआजी के साथ कम्युनिस्टों के संबंध का क्या? साफ तौर पर यह शत्रुतापूर्ण रहता है. लेकिन जनवादी क्रांति के दौर में कुछ स्थितियों में एकता के त्तव भी हो सकते हैं. घोषणापत्र कहता है कि जर्मनी में कम्युनिस्ट “बुर्जुआजी के साथ लड़ेंगे जहां कहीं यह क्रांतिकारी ढंग से काम करेगी (जोर हमारा)” हालांकि वे उस वर्ग के साथ सर्वहारा के “शत्रुतापूर्ण संबंध” के बारे में मजदूरों को शिक्षित भी करेंगे ताकि ज्यों ही बुर्जुआजी सत्ता में आये उसके खिलाफ मजदूर लड़ाई छेड़ दें.

हम जोड़ सकते हैं बुर्जुआजी या उसके एक हिस्से/हिस्सों को कम्युनिस्टों के समर्थन की शर्त बहुत स्पष्ट हैः बुर्जुआजी को केवल शब्दों में नहीं बल्कि व्यावहारिक रूप से अपने आप को क्रांतिकारी साबित करना होगा. पिछले 160 से अधिक सालों का अनुभव बताता है कि ऐसे मौके बहुत ही कम आये हैं. रूस में ऐसा मौका कभी नहीं आया इसी कारण बोल्शेविकों ने ड्यूमा के चुनावों में ज़ार के पिट्ठू ब्लैक हण्ड्रेड्स को रोकने के नाम पर कैडेटों के साथ एकता की मैन्शेविकों की नीति को कभी स्वीकार नहीं किया. चीन में कुओमिन्तांग ने बहुत कम समय के लिए जापानी आक्रामकों के विरुद्ध हथियारबन्द लड़ाई चलाने के लिए क्रांतिकारी ढंग से काम किया; उन समयों में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने उनके खिलाफ जारी राजनीतिक संघर्ष चलाते हुये भी राष्ट्रीय मुक्ति के युद्ध में उनका साथ दिया. ऐसे सकारात्मक उदाहरणों के विपरीत हम भारतीय मैन्शेविकों को “मुख्य दुश्मन” को रोकने के नाम पर इस या उस बुर्जुआ पार्टी के साथ आलोचनाविहीन ढंग से समझौता करते हुये पाते हैं जिसमें अक्सर कुछ तात्कालिक चुनावी लाभ हासिल करने का स्पष्ट गुणा-गणित होता है. भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में “भविष्य का प्रतिनिधित्व और उसका ध्यान” नहीं रखने वालों के लिए ये चुनावी लाभ ही सब साधन और साध्य हैं.

घोषणापत्र का यह निर्देश है कि कम्युनिस्टों को बुर्जुआजी द्वारा राजनीतिक प्रभुता हासिल करने के तुरन्त बाद ही उसके विरुद्ध संघर्ष के लिए गम्भीरता पूर्वक तैयारी करनी चाहिए और यह संघर्ष “तत्काल शुरू” कर देना चाहिए. यह निर्देश एक तरह से अबाध क्रांति की धरणा – जनवादी से समाजवादी क्रांति में बिना रुके बढ़ाव – को सामने रखती है. जैसा कि हम जानते हैं लेनिन और माओ ने इस विचार को अपने देशों में सुसंगत रूप से और सफलतापूर्वक विकसित किया; अधिकांश भारतीय मार्क्सवादी भी इस रणनीतिक-कार्यनीतिक सिद्धांत से प्रतिबद्ध रहे हैं और क्रांति के प्रथम चरण को जनता की नई या राष्ट्रीय जनवादी क्रांति कहते रहे हैं ताकि उसे बुर्जुआ के नेतृत्व में होने वाली पुराने किस्म की जनवादी क्रांति से अलगाया जा सके.

लेकिन सर्वहारा क्रांति कैसे आगे बढ़ेगी? घोषणापत्र बुनियादी चरणों की रूपरेखा देता हैः “हरेक देश के सर्वहारा को ... सबसे पहले अपनी बुर्जुआजी के साथ निपटना होगा” यानि “राजनीतिक प्रभुता हासिल करनी होगी, राष्ट्र के नेतृत्वकारी वर्ग के रूप में खड़ा होना होगा, अपने आप को राष्ट्र के रूप में गठित करना होगा.” और इस तरह “जनवाद की लड़ाई को जीतना होगा”. (भाग-2) कहने का मतलब कि उसे अपने नेतृत्व में जनवादी क्रांति को पूरा करने की कोशिश करनी होगी.

उसके बाद इसे “राजनीतिक प्रभुता का इस्तेमाल क्रमशः बुर्जुआजी से समस्त पूंजी छीन लेने, उत्पादन के सभी औजारों को राज्य के हाथों में अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा के हाथों में केन्द्रीकृत करना होगा”; और तेजी से उत्पादक शक्तियों को विकसित करना होगा. “शुरू में” इसके लिए “सम्पत्ति के अधिकारों पर और बुर्जुआ उत्पादन की स्थितियों पर बलपूर्वक नियंत्रण करना होगा.” धीरे-धीरे ये उपाय गैरजरूरी हो जायेंगे ‘पुरानी सामाजिक व्यवस्था पर और अधिक नियंत्रण जरूरी हो जायेगा” और इस तरह ये “उत्पादन पद्धति में सम्पूर्ण क्रांतिकारी परिवर्तन ले आयेंगे.” (भाग-2)

साफ तौर पर यहां ‘स्थाई क्रांति” की बात की गई है जैसा कि थोड़े ही दिनों बाद घोषणापत्र के लेखकों ने इसे कहा. कम्युनिस्ट लीग की केन्द्रीय कमेटी में भाषण (मार्च, 1850) प्रस्तावित व्यवहारिक कदमों का सामान्य खाका – जनवादी और समाजवादी क्रांति को जोड़ने वाले संक्रमणकालीन कदम – भाग-2 के अंत में दस बिन्दुओं के रूप में दिये गये हैं लेकिन साफ तौर पर कह दिया गया है कि (क) ये केवल पूंजीवादी रूप से “सबसे आगे बढ़े हुए देशों” के लिए ही प्रासंगिक हैं, और (ख) ये हरेक देश के लिहाज से और 1872 के जर्मन संस्करण की भूमिका के मुताबिक वास्तविक स्थितियों के अनुसार समय-समय पर बदलते रहेंगे.

एक बार फिर से यहां वर्णित सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विस्तार से बताये गये कुछेक विषयों पर ध्यान दें.

पहली बात कि घोषणापत्र कहता हैः “बुर्जुआजी के साथ सर्वहारा का संघर्ष अंतर्वस्तु में तो नहीं लेकिन रूप में सबसे पहले एक राष्ट्रीय संघर्ष होता है”. कहीं भी यह संकेत नहीं किया गया है कि किसी विशेष देश के मजदूर वर्ग को तब तक सत्ता दखल नहीं करना चाहिए जब तक कम से कम अनेक अन्य देशों के मजदूर अपने आप को ऐसा करने के लिए तैयार न कर लें. इसके विपरीत जर्मनी को ऐसे देश के रूप में चिन्हित किया गया है जहां “बुर्जुआ क्रांति ... उसके तत्काल बाद होने वाली सर्वहारा क्रांति की पूर्व पीठिका ही हो सकती है.”

यह अलग मसला है कि उनकी यह आशा सही साबित नहीं हुई लेकिन इस बात के सबूत हैं कि मार्क्स और एंगेल्स यह बात बहुत गम्भीरतापूर्वक कह रहे थे. मार्च 1848 में वे पेरिस के अनेक विदेशी प्रवासियों द्वारा “निर्यात क्रांति” की योजना (अपने देशों में क्रांति को शुरू करने के लिए उन देशों में हथियारबन्द टुकड़ियों को भेजने की योजना) के विरुद्ध दृढ़तापूर्वक लड़े थे और कम्युनिस्ट लीग की ओर से जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी की मांगें तय की थीं जो घोषणापत्र में दिये गये संक्षिप्त 10-सूत्री खाके को जर्मनी के विशेष संदर्भ में व्याख्यायित करती थीं. इस राष्ट्रीय कार्यक्रम को फ्रांस और जर्मनी में व्यापक रूप से वितरित किया गया. पेरिस से (जहां ब्रसेल्स में गिरफ्तार होने और निकाले जाने के बाद वे मार्च में आये थे तथा एंगेल्स और अन्य लोगों के साथ मिल कर लीग की केन्द्रीय कमेटी की स्थापना की थी) 300 से अधिक जर्मन मजदूरों को जर्मनी में धीरे-धीरे गति पकड़ रही क्रांति में भाग लेने के लिए एक-एक कर भेजा गया था. अप्रैल की शुरूआत में मार्क्स और एंगेल्स दोनों खुद अपने देश गये ताकि वे क्रांति को समाजवादी रास्ते पर लाने की कोशिश कर सकें. बाद में कभी भी उन्होंने यह नहीं कहा कि एक देश में राजनीतिक सत्ता दखल का यह प्रयास गलती थी.

इस पूरी बातचीत से एक बात साफ हो जाती है मार्क्सवादी अंतर्राष्ट्रीयतावादी होते हैं – वे जानते हैं कि समाजवाद के लिए संघर्ष बुनियादी रूप से अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष है जिसे सभी देशों के या कम से कम सबसे विकसित देशों के सर्वहारा के संयुक्त प्रयास से ही अंतिम परिणाम तक पहुंचाया जा सकता है. लेकिन अगर किसी एक देश में परिस्थितियां अनुकूल हों तो इस संघर्ष की पहल करने से उस देश के मजदूर वर्ग को यह अंतर्राष्ट्रीयतावाद नहीं रोकता.

दूसरी बात कि घोषणापत्र में सर्वहारा की तानाशाही की धारणा के बारे में एक मोटी रूपरेखा है. यह भाग-2 के अंत में 10-सूत्री कार्यक्रम के पहले और बाद में सामने आई है. हम पाते हैं कि सर्वहारा की तानाशाही को ऐतिहासिक परिवर्तनों की एक लम्बी श्रंखला में एक अनिवार्य कड़ी – अंतिम कड़ी – के रूप में ग्रहण किया गया है. लेखकों का कहना है कि मजदूर वर्ग “परिस्थितियों के दबाव से” वर्ग के रूप में संगठित होने और लड़ने के लिए “बाध्य” हो जाता है (जोर हमारा); इस लड़ाई के क्रम में अपने आप को शासक वर्ग बनाता है; पुरानी, उत्पीड़क सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को बल पूर्वक उखाड़ फेंकता है और एक वर्गविहीन समाज की स्थापना करता है तथा इस तरह “वर्ग के रूप में अपनी ही प्रभुता” को समाप्त कर देता है. सत्ता, अन्य वर्गों पर शासन करने की किसी एक वर्ग के हाथ में (पूंजीवाद के तहत बुर्जुआजी, सर्वहारा की तानाशाही के दौरान मजदूर वर्ग) संगठित राजनीतिक शक्ति नहीं रह जाती और जनशक्ति अब “समूचे देश के विराट सहकार” में आ जाती है जहां “किसी एक का विकास सबके स्वतंत्र विकास की पूर्व शर्त बन जाता है.”

क्या घोषणापत्र के पहले या बाद में कभी राज्य के खात्मे का, एक और समस्त, व्यक्ति और समूह के स्वतंत्र, सर्वांगीण, समंजित विकास का महान स्वप्न, इससे अधिक क्रांतिकारी फिर भी रचनात्मक दृष्टिकोण कभी भी रहा है?

तो बात साफ है कि सामाजिक-ऐतिहासिक प्रगति का प्रस्थानबिन्दु और धुरी वर्ग संघर्ष है तथा इसका लक्ष्य वर्गविहीन कम्युनिस्ट समाज है. सदियों से जारी इतिहास की इस अग्रगति में सर्वहारा की तानाशाही अपेक्षाकृत बहुत छोटी लेकिन अत्यंत ही चुनौती भरा अंतिम कदम है – वह अंतिम पुल जो मानवता को इसके टकराव भरे “प्राक्-इतिहास” ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान की भूमिका' (पूर्व उद्धृत) में मार्क्स ने बुर्जुआ समाज को वर्ग शत्रुता पर आधारित अंतिम सामाजिक संगठन कहा था जो “मानव समाज के प्राक्इतिहास को खत्म करने की ओर … ले जाता है.” कहने का मतलब है कि पूंजीवाद के साथ शत्रुतापूर्ण इतिहास का अंत हो जायेगा और इसकी जगह पर कम्युनिन्ज की स्थापना होगी जो अनिवार्यत: प्रत्यक्ष लोकतंत्र का एक रूप होगा. – जैसा मार्क्स ने इसे बाद में कहा – से मानवता के सच्चे इतिहास की ओर ले जायेगा जो अब शत्रु वर्गों में नहीं बंटी होगी.

इस तरह के अपूर्ण विचारों को बाद में ‘फ्रांस में गृहयुद्ध’; ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना’ (दोनों मार्क्स), ‘समाजवाद – काल्पनिक और वैज्ञानिक’ (एंगेल्स के ड्यूहरिंग मत खण्डन से तीन अध्याय) में बाद में विकसित किये गये फिर भी वे पूर्ण नहीं थे क्योंकि घोषणापत्र के लेखकों ने सिद्धांत के बतौर भविष्य की दुनियां में रंग भरने से इंकार किया. उन्होंने पेरिस कम्यून को – जैसा कि उन्होंने कहा कि पहली बार जहां इतिहास में सर्वहारा की बहुसंख्या का शासन स्थापित हुआ – सर्वहारा की तानाशाही का प्राथमिक माॅडल माना और कम्यून की सार्वभौमिक मताधिकार, चुने गये प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के जनता के अधिकार तथा शासन के कानूनी और शासकीय शक्तियों को मिला देने जैसे गैर-औपचारिक, भागीदारीपरक लोकतांत्रिक पहलुओं की उच्च स्वर में प्रशंसा की. इन विशेषताओं में मार्क्स ने “गहराई से विस्तारित होते राजनीतिक रूप” को देखा और कहा कि इसकी जगह पर नौकरशाहाना संरचना कम्यून की भावना के पूरी तरह से खिलाफ होती.

इस नजरिए से सर्वहारा की तानाशाही को नीति निर्माण और प्रशासन में जन-समुदाय के प्रत्यक्ष, सक्रिय और उत्साहपूर्ण भागीदारी पर स्थापित होना होगा. इसी बात में समाजवादी भौतिक और सांस्कृतिक निर्माण के क्रम में तानाशाही और इसके साकार रूप – राज्य – पर धीरे-धीरे काबू पाने और उसके पार जाने की सम्भावना व संकल्प और अनिवार्य पूर्वशर्त भी निहित है.