लेकिन जीत का यह उन्माद बहुत दिनों तक नहीं चला. 1997-98 के दक्षिण एशियाई संकट के समय उसी न्यूयाॅर्कर ने 30 अक्टूबर 1997 के अंक में घोषित किया ‘कार्ल मार्क्स की वापसी’. मार्क्सवादी विद्वानों और पार्टियों ने भी मार्क्स के लेखन को दुबारा देखना शुरू किया. कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन की डेढ़ सौवीं सालगिरह पर 1998 में उसके अनेकानेक नए संस्करण प्रकाशित हुए मसलन एरिक हाॅब्सबाॅम की भूमिका के साथ एक और दूसरा पाल एम. स्वीजी की भूमिका तथा एलेन मिक्सिन्स वुड के एक लेख के साथ मंथली रिव्यू प्रेस से प्रकाशित हुआ.

नई सदी के आते-आते टीना की जगह एक अमूर्त आशावादी नारा सुनाई पड़ने लगा ‘दूसरी दुनिया संभव है’ और उसके बाद आश्वस्तकारी युद्धघोष सुनाई पड़ा ‘इक्कीसवीं सदी का समाजवाद’. दुनिया विराट जन आंदोलनों के हलचल भरे समन्दर की तरह दिखाई पड़ने लगी. ऐसे माहौल में एलेन बादू की किताब ‘द कम्युनिस्ट हाइपोथिसिस’ (2009) सामने आई जिसने व्यापक रूचि पैदा की और ‘आइडिया आफ कम्युनिज्म’ विषय पर केंद्रित एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की प्रेरणा दी जिसे लन्दन में 2009 में मुख्य रूप से स्लोवाक जाइजैक ने कराया. इसी के साथ मिलकर टेरी ईगलटन की ‘वाई मार्क्स वाज राइट’ ने इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता के बारे में नई सजगता पैदा करने में सहायता की. 2011 में बनी जर्मन डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘मार्क्स रिलोडेड’ के लेखक/निर्देशक जेसन बारकर ने जब कहा ‘आज का राजनीतिक चिंतन दुबारा उसी तरह की सामाजिक परिस्थितियों के साथ मिल गया जो मार्क्स के जीवित रहते मौजूद थीं’ तो उनकी बात बिल्कुल भरोसा करने लायक है.

अभी हमने जिन किताबों, फिल्मों और सम्मेलनों का जिक्र किया उनकी पृष्ठभूमि के बतौर निर्णायक महत्व 2007-08 में विश्वव्यापी वित्तीय संकट और आर्थिक मन्दी का था. बुर्जुआ बौद्धिकों ने उस मृत दार्शनिक के पुनर्जन्म के बारे में एक बार फिर चीख पुकार मचानी शुरू कर दी जिसे उन्नीसवीं सदी में बुर्जुआ बौद्धिक चिढ़ के साथ ‘द रेड डाक्टर’ कहते थे. (संकेत उस शोधेपाधि की ओर था जिसे मार्क्स ने 21 साल की उम्र में दर्शन पर शोध के जरिये अर्जित किया था) लेकिन उनमें से जो बुद्धिमान थे उन्होंने यह सोचना शुरू किया कि क्या पूंजीवाद को बचाने के लिए मार्क्सवादी सिद्धांतों का उपयोग किया जा सकता है. यह भी सुनाई पड़ा कि पोप और फ्रांस के राष्ट्रपति ‘पूंजी’ पढ़ रहे हैं ताकि विनाशकारी संकट के कारणों (शायद समाधनों) को समझ सकें. फाइनेन्सियल टाइम्स ने मार्क्स की ‘पूंजी’ पर केंद्रित एक व्यापक बहस चलाई और ‘कैन मार्क्स सेव कैपिटलिज्म?’ शीर्षक के साथ जेसन बारकर का इंटरव्यू छापा; अब ‘द इकोनाॅमिस्ट’ ने थाॅमस पिकेटी की प्रशंसा ‘द माडर्न मार्क्स’ कह कर की है. उन्हें लगता है कि पिकेटी की शक्ल में उन्हें एक अहानिकर और अक्षम मार्क्स मिल गया है जो अतिरिक्त मूल्य के शोषण जैसी पूंजीवाद की बुनियादों या वर्तमान साम्राज्यवाद के विध्वंसक रूप पर सवाल नहीं उठाता. एक ऐसा विनम्र मार्क्स जो यह नहीं कहता कि जनता की सम्पत्ति छीनने वालों को उनकी सम्पत्ति से बेदखल कर दिया जायेगा, सभ्यता पूर्वक घोषित करता है कि किराया भोगियों पर भारी टैक्स लगाया जायेगा!थॉमस पिकेटी ने 'कैपिटल इन द ट्वैन्टी फर्स्ट सेंचुरी' में दिखाया है. कि नियम के बतौर निजी पूंजी (धन, जमीन, कारखाने, और अन्य सम्पत्तियां) पर मुनाफे की दर आमदनी और उत्पादन में बढ़त की दर से बहुत अधिक रही है. इसका मतलब है कि 'अतीत में संचित सम्पदा उत्पादन और मजदूरी से अधिक तेजी से बढ़ता है. … अनिवार्य रूप से उद्यमी किराया भोगी बन जाता है और जिनके पा अपने श्रम के अलावा कुछ नहीं होता उन पर अधिकाधिक प्रभुत्व जमाता है'. नतीजा यह कि आमदनी और सम्पत्ति के मामले में असमानता लगातार बढ़ती जा रही है (दो विश्व युद्धों के बीच के समय को छोड़ कर पिछली तीन सदियों में) जो 2008 के संकट का एक बड़ा कारण था और जो पूरी व्यवस्था के लिए दुबारा खतरा पैदा कर सकता है. जिनको रुचि हो वे 'लिबरेशन' जून 2014 में पिकेटी की मान्यताओं की संक्षिप्त आलोचनात्मक समीक्षा देख सकते हैं.

विभिन्न सामाजिक हलचलों के साथ वैचारिक राजनीतिक विमर्श में इस तरह के बदलाव साथ देखने से जनता के व्यापकतम हिस्सों में सचेतन और अचेतन विभिन्न स्तरों पर चल रही एक अनवरत खोज की ओर संकेत करते हैं और वह खोज है पूंजीवाद के क्रान्तिकारी और कारगर विकल्प की खोज. खासकर अपने देश में इसी खोज में मदद करने के लिए हमने कम्युनिस्टों के इस महान घोषणापत्र ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ का वर्तमान भारतीय संस्करण अंग्रेजी और विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रकाशित करना जरुरी समझा. यह सही बात है कि इतने पुराने और संक्षिप्त दस्तावेज में हमारे वर्तमान सरोकारों का सदा तैयार समाधान नहीं मिलेगा. लेकिन निश्चित रूप से पूंजीवाद के ऐतिहासिक विकास और वैश्विक प्रसार के इस संक्षिप्त जायजे में उसके अंतरविरोधें, संकटों और अंत्तः खात्मे की कहानी जरूर मिलेगी जो हमारे समाज के गंभीर और व्यवस्थित अध्ययन की शुरुआत का सबसे बेहतर रास्ता है. जैसा की क्रिस हरमन ने कहा था ‘इसके गद्य में अब भी एक बाध्यकारी गुणवत्ता है क्योंकि यह उस समाज के बारे में अंतर्दृष्टि दर अंतर्दृष्टि प्रदान करता है जिसमें हम रह रहे हैं, जहाँ से यह समाज से आया है और जिस दिशा में जा रहा है. मुख्यधारा के अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री आज की दुनियां में जारी युद्धों और बारम्बार आने वाले आर्थिक संकटों, एक तरफ करोड़ों लोगों के लिए भूख और दूसरी ओर “अति उत्पादन” को कभी व्याख्यायित नहीं कर सकते जबकि यह छोटी सी किताब इसकी व्याख्या करती है. ‘द मैनिफेस्टो एण्ड द वर्ल्ड ऑफ 1848, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो (मार्क्स, कार्ल और एंगेल्स, फ्रेडरिक) में ब्लूम्सबरी, लंदन, बुकामार्क्स.

यह बात निश्चय ही सही है. इसमें ऐसे वाक्यांश हैं – वैश्वीकरण सम्बन्धी वाक्यांश तुरंत याद आ रहे हैं जो आम समझ से भी आज ज्यादा सही और प्रासंगिक महसूस होते हैं बनिस्वत उस समय के जब यह दस्तावेज प्रकाशित हुआ था. जल्दी ही हम इस बारे में बात करेंगे लेकिन पहले उस विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति से परिचित हो लिया जाय जिसमें यह अमर ग्रन्थ सामने आया था.