खास बात यह है कि मार्क्स और एंगेल्स ने घोषणापत्र में पूंजीवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है. उन्होंने “बुर्जुआ समाज, हमारा युग, बुर्जुआजी का युग” जैसे शब्दों को पसन्द किया है. समूची बहस को उस युग के बुनियादी वर्गोंः बुर्जुआजी और सर्वहारा के बीच वर्ग संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया है और इसी प्रक्रिया में पूंजीवाद के मूलभूत लक्षणों तथा प्रवृत्तियों का वर्णन किया है.

उन्होंने इन लक्षणों और प्रवृत्तियों को एक अखण्ड सम्पूर्ण के अविभाज्य अंगों की तरह देखा. लेकिन विभिन्न वर्ग दृष्टिकोणों वाले विभिन्न लोगों ने अपने पसंदीदा पेड़ को गिनने के चक्कर में जंगल को नहीं देखा यानि इस या उस पहलू पर एक पक्षीय ध्यान दिया. उदाहरण के लिए विश्व बैंक ने 1996 की अपनी ‘वल्र्ड डेवलेपमेण्ट रिपोर्ट’ में और 1999 में सबसे अधिक बिकने वाली किताब ‘द लेक्सस एण्ड द आॅलिव ट्री’ में थाॅमस फ्रीडमैन ने वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था का वर्णन करने के लिए अत्यंत प्रशंसा भरे भाव से भूमण्डलीकरण से संबंधित घोषणापत्र के चुनिन्दा हिस्सों को उद्धृत किया. उन्होंने इस पुस्तिका में मौजूद पूंजीवाद के तहत संकटों की अनिवार्यता से संबंध्ति बात को देखना पसंद नहीं किया.

1848 का यह दस्तावेज प्रतिभाशाली ढंग से दो विपरीत प्रवृत्तियों की द्वंदात्मक एकता में पूंजीवादी गति को पकड़ता है: एक तरफ उत्पादक शक्तियों के सर्वाधिक तीव्र और निरंतर विकास से संचालित वैश्विक प्रभुत्व की प्रवृत्ति और दूसरी ओर लगातार बढ़ती हुई उत्पादक शक्तियों के संकीर्ण उत्पादन संबंधों के साथ टकराव से उत्पन्न बार-बार आने वाले लगातार गहराते संकटों की प्रवृत्ति.

और सच मानिये कि विश्लेषण का यह ढांचा 19वीं, 20वीं और 21वीं सदियों में बुर्जुआ समाज की समझ के लिए अत्यंत उपयोगी साबित हुआ है. आइये, इस एक ही ऐतिहासिक प्रक्रिया के इन दोनों पक्षों पर एक-एक कर विचार करें.

उत्पादक शक्तियों के तीव्र विकास के सहायक के बतौर घोषणापत्र आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के केन्द्रीकरण और संकेन्द्रण की चाहत को रेखांकित करता है: दस्तकारी की जगह “विराट, आधुनिक उद्योग”, “औद्योगिक मध्यवर्ग” की जगह “औद्योगिक अरबपति”, “उत्पादन के केन्द्रीकृत साधन, और ... कुछेक हाथों में सम्पत्ति का संक्रेन्द्रण”, इसके “अनिवार्य परिणाम” के रूप में “राजनीतिक केन्द्रीकरण” इत्यादि. यह प्रवृत्ति बढ़ती ही रही और सत्तर साल बाद जैसा कि लेनिन ने ‘साम्राज्यवाद- पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था’ में दिखाया कि इस प्रवृत्ति का प्रतिफलन साम्राज्यवाद की वैश्विक व्यवस्था या एकाधिकारी पूंजीवाद में हुआ जो पूंजीवाद की गुणात्मक रूप से नई और अब तक की उच्चतम व्यवस्था है. आज उसके भी सौ साल बाद हम पूंजीवाद के साम्राज्यवादी चरण का एक नया दौर देख रहे हैं- नवउदारवादी भूमण्डलीकरण ‘नव' उपसर्ग का मतलब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के पच्चीस सालों में कल्याणकारी राज्यवाद और सामाजिक जनवाद के दौरान थोपे गये सरकारी हस्तक्षेप से आजाद उन्मुक्त पूंजीवाद की जोरदार वापसी है. कल्याणकारी राज्यवाद और सामाजिक जनवाद जनान्दोलन की आगे बढ़ती हुई लहरों और समाजवाद के बढ़ते हुये आकर्षण के कारण पुराने स्वतंत्र पूंजीवाद पर थोपे हुये एक समझौते का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसके तहत मुफ्त/राजकीय मदद आधारित शिक्षा, रोजगार गारंटी और बेरोजगारी भत्ता, मुनाफा-विहीन सार्वजनिक क्षेत्र के जरिए मुहैया कराये गये परिवहन, संचार इत्यादि जैसी महत्वपूर्ण सेवायें, आर्थिक मामलात पर बहुत हद तक राजनीतिक नियंत्रण इत्यादि अनेकानेक कदम उठाये गये. इऩ सबने मिल कर मरणासन्न नहीं, तो बीमार पूंजीवाद को जिन्दगी की थोड़ी सांसें सौंप दीं. समय-समय पर आने वाले संकटों की अनिवार्यता अब भी पूंजीवाद का नियम है और जब 1970 के दशक में संकट गहराया तो बुर्जुआजी के सबसे अधिक ताकतवर हिस्सों ने कल्याणकारी राज्यवाद/सामाजिक जनवादी कदमों को खत्म करने की कोशिश की तथा उदारवाद के एक नये, और भी आक्रामक, संस्करण या बाजारी रूढ़िवाद को स्थापित करना चाहा..  

जहां मार्क्स और एंगेल्स के जमाने में भूमण्डलीकरण का मुख्य तरीका पुराने किस्म का उपनिवेशवाद था, वहीं हमारी सदी में इसकी जगह आधुनिक साम्राज्यवाद और नवउपनिवेशवाद ने ले ली है. भौंडे प्रत्यक्ष शासन की जगह ज्यादा परिष्कृत परोक्ष शासन के इस बदलाव के साथ ही व्यापारिक निर्यात की जगह पूंजी निर्यात ने ले ली है और अर्थतंत्र के सभी क्षेत्रों में एकाधिकार का उभार हुआ है तथा विशेष रूप से सर्वशक्तिमान वित्तीय अल्पतंत्र (मुट्ठीभर लोगों में निहित शासन) का उदय हुआ है.

घोषणापत्र से आज तक के समय के ठीक बीच में लेनिन ने इस बदलाव को संक्षेप में बताया था: “पूंजीवाद की यह आम विशेषता है कि पूंजी का स्वामित्व उत्पादन में पूंजी के प्रयोग से अलग हो जाता है, कि मुद्रा पूंजी औद्योगिक या उत्पादक पूंजी से अलग हो जाती है और कि मुद्रा पूंजी से होने वाली आमदनी पर ही पूरी तरह से जिन्दा रहने वाला किरायाभोगी उद्यमी से अलग हो जाता है. ... साम्राज्यवाद या वित्तीय पूंजी का प्रभुत्व पूंजीवाद की वह उच्चतम अवस्था है जिसमें यह अलगाव बहुत बढ़ जाता है. पूंजी के अन्य सभी रूपों पर वित्तीय पूंजी के प्रभुत्व का मतलब है किरायाभोगी और वित्तीय अल्पतंत्र” और “वित्तीय रूप से शक्तिशाली मुट्ठी भर देशों” का प्रभुत्व. (साम्राज्यवाद)

“औद्योगिक पूंजी से ... मुद्रा पूंजी” का यह “अलगाव” आज और ज्यादा गहरा हुआ है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय वित्त, उत्पादन में अपनी जड़ों से लगभग आजाद हो चुका है और शेयर, उपभोक्ता वस्तुओं और मुद्रा बाजार, निवेशी बैंकों और बीमा, रीयल एस्टेट आदि की सट्टेबाजी पर फल-फूल रहा है.

इसी तरह जहां मार्क्स और एंगेल्स ने यह चिन्हित किया था कि पश्चिम से पूरब में बुर्जुआ व्यवस्था का फैलाव पूर्वी देशों को पश्चिम पर निर्भर बनाता है, वहीं हमारी सदी में यह निर्भरता “अल्पविकास के विकास” के रूप में आगे बढ़ी और पूर्ण हुई है. असमान विनिमय, भेदभावपरक चुनिन्दा संरक्षणवाद और कर्ज के फन्दे जैसे उपायों के जरिए “पूरब” – आज की भाषा में तीसरी दुनियां – के अधिकांश हिस्से को व्यवस्थित रूप से साम्राज्यवाद के केन्द्र के हितों की सेवा करने लायक मंद, विकृत, आधे-अधूरे पूंजीवाद के विशाल क्षेत्र में विकसित कर दिया गया है.

2008 में माइकल लोवी ने भूमण्डलीकरण के विकसित चरण की जीवंत तस्वीर खींचते हुए लिखा: “असल में पूरी दुनिया पर इतने संपूर्ण, निरपेक्ष, संगठित, सार्वभौमिक और असीम अधिकार पाने के मामले में पूंजी कभी उतना सफल नहीं हुई थी जितना कि 21वीं सदी में हुई है. अतीत में कभी भी यह दुनियां के सभी देशों पर आज की तरह अपने शासन, अपनी नीतियों, अपने जड़सूत्र और अपने हितों को थोपने में उतना सक्षम कभी नहीं थी जितना आज है. अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विभिन्न देशों और वहां की जनता के नियंत्रण से कभी इतना आजाद नहीं रही हैं. आज से पहले कभी भी आई. एम. एफ., विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का इतना गहन संजाल नहीं था जिसका एकमात्र काम पूंजीवादी स्वतंत्र बाजार, स्वंतत्र मुनाफे के कठोर नियमों के मुताबिक मानव जाति के जीवन को नियंत्रित, शासित और नियमित करना रहा हो. अंतिम बात यह है कि आज से पहले के समय में मानव जीवन के सभी क्षेत्र – सामाजिक संबंध, संस्कृति, कला, राजनीति, यौनिकता, शिक्षा, स्वास्थ्य, खेलकूद, मनोरंजन – पूंजी की अधीनता में पूरी तरह से इतने नहीं रहे थे और न ही “अहंकारी गुणा-गणित के ठण्डे पानी” में इतनी गहराई से डूबे हुये थे. (160 साल बाद कम्युनिस्ट घोषणापत्र)

लेकिन पूंजी का यह सर्वग्रासी प्रभुत्व संकट के अभूतपूर्व सार्वभौमिक प्रसार के साथ आया है. (1930 दशक में इससे तुलनीय पिछला संकट जब आया था तो सोवियत संघ इसकी पकड़ से बाहर रहा था).पूंजिवादी संकट के हालिया दौर के अपेक्षाकृत विस्तृत विवरण के लिए हमारी तीन पुस्तिकायें देखें. 1. ‘कैपिटल इन क्राइसिस' (2009); 2. नवउदारवाद का संकट और जनता के आन्दोलनों के समक्ष चुनौतियां (2012); 3. गहरे आर्थिक संकट मे भारत : कारण और समाधान के तलाश (2014). ऊपर बताई गई पूंजीवाद की दोहरी अंतरविरोधी प्रवृत्तियां आज सबसे ज्यादा खुल कर सामने आ गई हैं.

इस उत्पादन पद्धति में अंतर्निहित एक और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति भी इसी के साथ गहराई से जुड़ी हुई है. घोषणापत्र हमें बताता है कि बार-बार आने वाले संकटों पर काबू पाने के लिए पूंजी जिन उपायों को अपनाती है वे और भी विध्वंसक संकटों का रास्ता बना देते हैं तथा भविष्य में इन संकटों से बचने के साधन भी कम हो जाते हैं. यह बात पहले के मुकाबले आज ज्यादा सही साबित हो रही है.

पूंजी जिन दो बुनियादी उपायों को अपनाती है वे हैं: ‘नये बाजारों को जीतना” और “पुराने बाजारों का और गहराई से शोषण” (भाग-1). लेकिन आज पूंजीवाद आर्थिक तौर पर एक वैश्विक व्यवस्था है इसलिए नये इलाकों के उपनिवेशीकरण या (पूर्व)समाजवादी देशों के बाजारों को बलपूर्वक खोलने जैसे पुराने उपायों के जरिए बाहरी विस्तार की अब और सम्भावना नहीं रह गई है. विश्व पूंजी के लिए पारम्परिक रूप से उपलब्ध एकमात्र रास्ता यही रह गया है कि वह पुराने बाजारों का ही मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॅानिक सामानों, विभिन्न जीवन शैली उत्पादों, सामाजिक नेटवर्क सेवाओं इत्यादि के जरिए व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में और भी अधिक बाजारी प्रवेश के विविध साधनों के सहारे अभूतपूर्व रूप से और भी तीव्र शोषण करे. बहरहाल, मुनाफे के लिए पूंजी की लगातार बढ़ती हुई भूख को संतुष्ट करने के लिए मनुष्य की बढ़ती हुई जरूरतों हेतु उपभोक्ता सामानों और सेवाओं का यह प्रसार काफी नहीं है. इसलिए दुनियां के उत्तरी और दक्षिणी दोनों ही भागों में नई-नई तकनीकों को अपनाना जरूरी हो गया है.

दुनियां के उत्तरी भाग में मजदूरी को कम रखते हुये भी मुनाफे के प्रमुख स्रोत के रूप में वित्तीकरण और सट्टाबाजारी तथा प्रभावी मांग को बढ़ाने के साधन के रूप में आसान कर्ज मुख्य उपाय के रूप में काम में लाये जा रहे हैं. दुनियां के दक्षिणी भाग में, खासकर हमारे देश सहित तथाकथित “उदीयमान अर्थतंत्रों” में सबसे प्रभावी हथियार एल.पी.जी. (उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण) बना हुआ है जो देशी और विदेशी बड़ी पूंजी के लिए भारी मुनाफे तथा जनता और देशों को बेदखल करके संसाधनों के संचय की गारंटी करता है.

लेकिन उत्तरी और दक्षिणी दोनों ही भागों में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी.डी.पी.) में इन उपायों के जरिए हासिल अस्थाई वृद्धि खतरनाक ‘साइड इफेक्ट’ के बीज भी डाल देती है. ये साइड इफेक्ट बढ़ती हुई असमानता, लगातार फूलते हुए वित्तीय क्षेत्र और अवरुद्ध वास्तविक अर्थतंत्र के बीच बढ़ती हुई खाई इत्यादि के रूप में सामने आये हैं जो 2007-08 में ‘सर्वाधिक सफल’ पूंजीवादी अर्थतंत्र के बाद दुनियां भर में फैलते हुए संकट की ओर ले जा रहे हैं.

बार-बार आने वाले संकटों का यह ताजा दौर अभूतपूर्व रूप से लम्बा और गहन संरचनात्मक साबित हो रहा है. जिससे घोषणापत्र की यह बात याद आती है कि संकट “समयबद्ध रूप से बार-बार लौट कर हरेक बार समूचे बुर्जुआ समाज के अस्तित्व को ही और खतरनाक रूप से कटघरे में खड़ा कर देता है” (भाग-1). ऐसी निराशाजनक परिस्थितियों में बुर्जुआ वर्ग के सबसे ऊपरी और नेतृत्वकारी हिस्से दृढ़निश्चय के साथ वित्तीकरण की रणनीति जारी रखते हुए भी आमदनी और सम्पत्ति के पुर्नवितरण पर अधिकाधिक भरोसा कर रहे हैं – यह पुनर्वितरण वर्गों के बीच – अतिरिक्त मूल्य के उत्पादकों से उनके मालिकों या सामान्य भाषा में कहें तो गरीबों से अमीरों तथा और समृद्ध हो रहे मध्यवर्गों की ओर, वर्गों के भीतर (केन्द्रीकरण/एकाधिकारीकरण तथा ढेर सारे अन्य उपायों के जरिए बुर्जुआ वर्ग के निचले से ऊपरी और ऊपरी से सबसे ऊपरी तबकों तक) वैश्विक अर्थतंत्र की परिधि से केन्द्र की ओर (अल्पविकसित देशों से साम्राज्यवादी देशों की ओर) हो रहा है.

लेकिन इससे स्पष्ट तौर पर गरीब और अमीर दोनों ही देशों में मंदी की प्रवृत्ति बढ़ रही है. असल में आज की बुर्जवा व्यवस्था का त्रिगुट – उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और जापान – उस चीज की जकड़बंदी में है जिसे जाॅन बेलामी फाॅस्टर और राबर्ट डब्लू. मैकचेस्नी ने जड़ता-वित्तीकरण का फंदा कहा है. (“द एण्डलेस क्राइसिस”, मंथली रिव्यू प्रेस). इस साल (2014) की शुरूआत में आई.एम.एफ. के प्रबंध निदेशक क्रिस्तीन लगार्ड अर्थतंत्र में घटोत्तरी (डिफ्लेशन) के खतरे की घण्टी बजाने की हद तक चले गये – घटोत्तरी का वही भयानक राक्षस जिसने 1930 दशक की शुरूआत में अमेरिका में कहर ढाया था.

वैश्वीकरण और पूंजी के संकट के बारे में इतना ही. इन महत्वपूर्ण मामलों में बिना शक पूंजीवाद काफी कुछ बदला है लेकिन यह बदलाव उसी दिशा में हुआ है जिसका संकेत घोषणा पत्र में किया गया है.

बुर्जुआजी/बुर्जुआ व्यवस्था की दूसरी प्रमुख महत्वपूर्ण विशेषता उसकी क्रांतिकारी भूमिका में निहित है. इस बात को हम आम तौर पर पुरानी सामंती व्यवस्था की जगह अपेक्षाकृत आगे बढ़ी हुई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की स्थापना के ऐतिहासिक तथ्य के रूप में समझने के आदी हैं; लेकिन मार्क्स और एंगेल्स के लिए यह भूमिका सबसे आगे बढ़ कर इस बात में निहित थी बुर्जवा व्यवस्था साम्यवाद के लिए भौतिक और सांस्कृतिक नींव तैयार कर देती है और साथ ही इस बदलाव को साकार करने में सक्षम वर्ग शक्ति को भी जन्म देती है. इस प्रक्रिया का विस्तृत विश्लेषण घोषणापत्र में किया गया है.

घोषणापत्र कहता है कि बुर्जुआजी (क) “उत्पादन के औजारों” (मशीनों, कौशल और तकनीकों); (ख) “और परिणामस्वरूप उत्पादन संबंधें” (आर्थिक रूप से सक्रिय सभी पुरुषों व स्त्रियों के बीच के बुनियादी संबंधें, जैसे कि पूंजीपतियों और मजदूरों के बीच, जिससे कि एक विशेष समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण होता है); (ग) “और उनके साथ ही समूचे सामाजिक संबंधें” (पारिवारिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक) में लगातार क्रांतिकारी बदलाव लाये बगैर जिन्दा ही नहीं रह सकती. उदाहरण के लिए धन की सत्ता और “अहंकारी गुणा-गणित” प्रेम, प्रतिष्ठा, पारिवारिक रिश्तों-नातों और ज्ञान को खरीदी-बेची जाने वाली वस्तुओं में बदल देते हैं तथा “धार्मिक और राजनीतिक भ्रमजाल के पर्दे में होने वाले शोषण” की जगह “नंगा, निर्लज्ज, प्रत्यक्ष, पाशविक शोषण” होने लगता है. खास बात यह है कि ये बदलाव एक बार में ही नहीं हो जाते, सभी क्षेत्रों में लगातार अस्थिरता बुर्जवा समय का बुनियादी और अविभाज्य लक्षण है (भाग-1). घोषणापत्र के बाद के अनुभव की रोशनी में हम कह सकते हैं कि इसी गतिशीलता में पूंजीवाद की बुनियादी ताकत और साथ ही अनेक नये अंतरविरोधें का स्रोत भी निहित है.

लेकिन फिर बुर्जुआजी के प्रतिक्रियावादी पक्ष का क्या? इस मामले में दो चीजें ध्यान देने लायक हैं. पहला कि घोषणापत्र का उद्देश्य उदीयमान बुर्जुआ व्यवस्था की सम्पूर्ण आलोचना नहीं था इसीलिए वह उसकी सभी कमियों, विचलनों और विकृतियों की चर्चा नहीं करता. उदाहरण के लिए सस्ते माल को ही पूरब को जीतने में सहायक “भारी तोपखाना” कहा गया है. लेकिन साथ ही एक छुपा हुआ संकेत – “आक्रमण” भी है जो इसी मकसद के लिए व्यापक रूप से इस्तेमाल किये गये भौतिक उत्पीड़न तथा असली गोला-बारूद को जाहिर करता है. फिर, “दुनियां को अपनी ही छवि के अनुरूप गढ़ने” के साम्राज्यवादी बुर्जुआ परियोजना में निहित भौतिक हिंसा और सांस्कृतिक जबर्दस्ती का अलग से उल्लेख नहीं किया गया है.

कुछ बातें जो छूट गई हैं उनका कारण सूचना की कमी और इस पुस्तिका को छोटा रखने का दबाव हो सकता है. लेकिन लगता है कि जानबूझ कर ही कुछ बातें छोड़ दी गई हैं. मंशा शायद यह थी कि मुख्य पहलू पर जोर दिया जाय यानि बुर्जुआजी की बदलाव लाने वाली भूमिका पर जोर दिया जाय जिसने दुनियां को एक और बुनियादी बदलाव के लिए परिपक्व बना दिया. दूसरी बात कि लेखकों को अधिकांश पश्चिमी देशों में पूंजीवादी विकास की कमी का अच्छी तरह से पता था (देखें एंगेल्स, स्विटजरलैण्ड में गृहयुद्ध (1847), संकलित रचनायें, मार्क्स-एंगेल्स, खण्ड-6) फिर भी बुर्जुआजी की असली प्रतिक्रांतिकारी/रूढ़िवादी/क्रांतिविरोधी भूमिका 1848 की क्रांतियों के दौरान और उसके बाद ही खुल कर सामने आई यानि घोषणापत्र के लिखे जाने के बाद. मार्क्स ने ‘बुर्जुआजी और प्रतिक्रांति’ (मार्क्स एंगेल्स की संकलित रचनायें, खण्ड-1) में इस पहलू पर त्तकाल ध्यान दिया. उसी साल (दिसम्बर 1848) तथा लगभग उसी शैली में लिखित इस लेख में बुर्जुआजी की बेहद मजबूत भर्त्सना की गई है और इसीलिए इसे घोषणापत्र के पश्चलेख या उपसंहार के रूप में पढ़ा जा सकता है:

“प्रशिया की बुर्जुआजी राजनीतिक शिखर पर, जैसा कि उसने चाहा था, ताज के साथ शान्तिपूर्ण लेन-देन के जरिए नहीं बल्कि क्रांति के परिणामस्वरूप पहुंची थी”. उसे अपने हितों की नहीं बल्कि ताज के विरुद्ध, दूसरे शब्दों में अपने विरुद्ध, अपने हितों की नहीं बल्कि जनता के हितों की रक्षा करनी थी क्योंकि एक लोकप्रिय आन्दोलन ने बुर्जुआजी के लिए रास्ता तैयार किया था. ...

“प्रशिया की मार्च क्रांति का 1648 की इंग्लैण्ड की क्रांति या 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के साथ घालमेल नहीं करना चाहिए”.

“1648 में राजतंत्र, सामंती कुलीनता और स्थापित चर्च के विरुद्ध आधुनिक कुलीन वर्ग ने बुर्जुआजी का साथ दिया था.”

“1789 में राजतंत्र, कुलीनों और स्थापित चर्च के विरुद्ध, जनता ने बुर्जुआजी का साथ दिया था. ...  

“इन दोनों क्रांतियों में बुर्जुआ वर्ग आन्दोलन का वास्तविक नेता था. ...

“1648 और 1789 की क्रांतियां इंग्लैण्ड अथवा फ्रांस की क्रांतियां नहीं थीं वे यूरोपीय किस्म की क्रांतियां थीं. उनमें पुरानी राजनीतिक व्यवस्था पर किसी खास सामाजिक वर्ग की विजय नहीं हुई थी; उन्होंने नये यूरोपीय समाज की राजनीतिक व्यवस्था की उदघोषणा की थी. इन क्रांतियों में बुर्जुआजी को जीत मिली थी लेकिन बुर्जुआजी की यह जीत साथ ही साथ एक नई सामाजिक व्यवस्था की जीत भी थी, सामंती स्वामित्व के ऊपर बुर्जुआ स्वामित्व की जीत, प्रादेशिकता के ऊपर राष्ट्रीयता की जीत, शिल्पीसंघों पर प्रतियोगिता की जीत, ज्येष्ठता-आधारित जमीन के मालिकाने पर (जमीन के) बंटवारे की जीत, जमीन के मालिकाने के कारण स्थापित प्रभुत्व पर जमीन के नये मालिक के शासन की जीत, अंधविश्वास पर ज्ञानोदय की जीत, कुल-नाम पर परिवार की जीत, वैभवपूर्ण आलस्य पर उद्यमशीलता की जीत, मध्यकालीन विशेषाधिकारों पर बुर्जुआ कानून की जीत भी थी. 1648 की क्रांति 6ठी सदी पर 7वीं सदी की जीत थी; 1789 की क्रांति 17वीं सदी पर 18वीं सदी की जीत थी. इन क्रांतियों ने दुनिया के जिन हिस्सों में ये हुई थीं यानि इंग्लैण्ड और फ्रांस की जरूरतों के बजाय, उस समय की दुनिया की जरूरतों को प्रतिबिंबित किया.

“प्राशिया की मार्च क्रांति में इसमें से कुछ भी नहीं था.

“... यूरोपीय क्रांति होने की बजाय यह एक पिछड़े हुए देश में यूरोपीय क्रांति की महज एक कमजोर छाया थी. अपनी सदी से आगे रहने की बजाय यह अपने समय से पचास साल पीछे थी. ... इसमें नये समाज की स्थापना का सवाल नहीं था बल्कि बर्लिन में उस समाज के पुनरुत्थान की कोशिश थी जो पेरिस में मर चुका था. ...”मार्क्स /एंगेल्स इंटरनेट आर्काइव्ज से 30 मार्च 2014 को देखा गया.

बुर्जुआजी की ये प्रतिक्रांतिकारी प्रवृत्तियां बढ़ती रही और पेरिस कम्यून तथा रूसी क्रांति के बाद वे बुर्जुआजी का प्रमुख पहलू बन गईं. मेहनतकश जनता की छिटपुट लेकिन मजबूत अग्रगति से अपने आप को बचाने के लिए बुर्जुआजी ने अपने क्रांतिकारी चरित्र से नाता पूरी तरह छुड़ा लिया और सामंतवाद, धार्मिक रूढ़िवाद, नस्लवाद आदि जैसी प्रतिक्रांतिकारी ताकतों और प्रवृत्तियों के साथ गठजोड़ कायम कर लिया. साम्राज्यवाद दुनियां के स्तर पर वित्तीय पूंजी के शासन में पतन और प्रतिक्रिया का वाहक बन गया. भारत और चीन जैसे देशों में सामंतवाद और उपनिवेशवाद के घनिष्ठ सहयोग से दलाल पूंजीवाद का उदय हुआ. यूरोप में फासीवाद पहले एक अभियान के बतौर और फिर शासक सत्ता के रूप में स्थापित हुआ, बाद में तथाकथित “एशियाई शेरों” और भारत जैसे कुछ अन्य देशों में क्रोनी पूंजीवाद का उभार (और संकट) दिखाई पड़ा. हाल के दशकों में नवउदारवाद का सरकारी दुनियादारी का मजहब पश्चिम से लेकर पूरी दुनिया में नवफासीवाद, सम्प्रदायवाद और इसी तरह की अति दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों के साथ गठजोड़ बनाते हुये तेजी से फैली है.

इस तरह हम एक ऐसी दुनियां में रह रहे हैं जहां उत्पादन, संचार और विज्ञान तथा तकनीक के सभी क्षेत्रों में आश्चर्यजनक प्रगति के साथ-साथ अर्थतंत्र, राजनीति और संस्कृति में अति-प्रतिक्रांतिकारी प्रवृत्तियां भी बढ़ती हुई दिखाई दे रही हैं तथा खतरनाक हद तक पृथ्वी का पारिस्थितिकीय क्षरण हुआ है. इस बात में कोई दो राय नहीं कि विभिन्न देशों की बौद्धिक-सांस्कृतिक रचनाओं का अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ है, जनता में राष्ट्रीय संकीर्णता में कुछ हद तक कमी आई है (जैसा कि भाग-1 में कहा गया है), लेकिन इसी कारण हम घोषणापत्र की उन बातों की पूरी तरह से तस्दीक नहीं कर सकते जहां देशों के बीच आपसी शत्रुता के खत्म होने या इसी तरह की बातें कही गई हैं. साम्राज्यवाद के युग में अगर यह मुख्य प्रवृत्ति नहीं है तो भी कोई कम महत्वपूर्ण बात नहीं है कि बुर्जुआ युग की शुरूआत में किये गये अनेक आकर्षक वादों को पूरा नहीं किया गया, बल्कि कुछ हद तक इसकी आरम्भिक उपलब्धियों में गिरावट ही आई है.

घोषणापत्र के लेखकों ने कहा था कि: “समूचा समाज ही दो विराट दुश्मन खेमों में अधिकाधिक बंटता जा रहा है – बुर्जुआ और सर्वहारा”. इसी अर्थ में उन्होंने माना था कि इस युग ने “वर्ग शत्रुताओं को सरल रूप में दिखाया है”. इस समाज व्यवस्था के इस दूसरे महत्वपूर्ण लक्षण के बारे में क्या माना जाय? इस समय के यथार्थ से ये मान्यतायें कितना मेल खाती हैं?

“सर्वहारा, आधुनिक मजदूर वर्ग” की घोषणापत्र की परिभाषा है “मेहनतकशों का ऐसा वर्ग जो तब तक ही जिन्दा रहता है जब तक इसे काम मिले और उसे काम तब तक ही मिलता है जब तक उसकी मेहनत पूंजी में इजाफा करे. इन श्रमिकों को रोज-ब-रोज किसी माल की तरह अपने आप को बेचना पड़ता है और इसीलिए व्यापार के किसी भी अन्य सामान की तरह उन्हें भी प्रतियोगिता के तमाम हेरफेर और बाजार के उतार-चढ़ाव को झेलना पड़ता है.” एंगेल्स ने भी ‘कम्युनिज्म के सिद्धांत’ (1847) में इसे “समाज के ऐसे वर्ग” के रूप में परिभाषित किया है “जो केवल अपनी मेहनत को बेच कर ही अपनी आजीविका के साधन हासिल कर पाता है, किसी पूंजी पर प्राप्त मुनाफे के जरिए नहीं.”

मार्क्स और एंगेल्स ने इस परिभाषा को कभी नहीं बदला. सिर्फ उन्होंने “श्रम” की बिक्री की जगह अधिक सही शब्द “श्रम शक्ति” की बिक्री कर दिया और साफतौर पर इसके तहत आॅफिसों, बैंकों आदि में काम करने वाले कम्यूटर आॅपरेटरों समेत तमाम ऐसे साधारण कर्मचारी (ऊंचे पदों पर बैठे सरकारी अधिकारी, काॅरपोरेट एक्जीक्यूटिव, आदि को छोड़ कर, जो इतना कमाते हैं कि पूंजीपति हो जाते हैं और जिनकी आमदनी आमतौर पर शेयरों, अन्य निवेशों से हासिल ब्याज से आती है) आ जाते हैं जो अपनी (बौद्धिक) श्रम शक्ति को बेच कर अपना जीवन चलाते हैं. जब विशाल अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों को, उदाहरण के लिए हमारे देश में कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों के कामगारों को, जोड़ें तो उनकी कुल संख्या बढ़ रही है और शायद अनेक देशों में आबादी में उनका प्रतिशत भी बढ़ रहा है. उदाहरण के लिए हमारे देश में हाल के दशकों में ग्रामीण मजदूरों समेत ग्रामीण सर्वहारा की संख्या में काफी बढ़ोतरी दिखाई पड़ी है. विदेशी काॅरपोरेशनों के तहत वाणिज्यिक खेती के प्रसार के चलते अनेक लैटिन अमरीकी देशों में भी ग्रामीण सर्वहारा की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दिखाई पड़ रही है. इसके अलावा आदिम (कुछ विद्वानों के मुताबिक मूल जर्मन शब्द का अधिक सही अर्थ होगा प्राथमिक) पूंजी संचय – आज समूची तीसरी दुनिया में लगातार फैलती बीमारी – भी हमारे देश में आदिवासियों की तरह लघु-उत्पादकों/आत्मनिर्भर गरीब लोगों के विभिन्न समुदायों में से सर्वहारा की कतारों में लगातार नये-नये तबकों को शामिल करता जा रहा है जो मुख्य रूप से औद्योगिक रिजर्व आर्मी हैं.  

संक्षेप में श्रम शक्ति के बेचने वालों और खरीदने वालों के व्यापक अर्थ में ध्रुवीकरण की यह प्रक्रिया आमतौर पर (कुछ अपवादों के साथ), और कुछ संशोधित रूपों में, उन्नीसवीं सदी से ही जारी है और इक्कीसवीं सदी में इसे “99% बनाम 1%” के राजनीतिक नारे में नई अभिव्यक्ति मिली है.

फिर भी घोषणापत्र के कथन को तीन मामलों में थोड़ा सावधनी से देखने की जरूरत है. पहला, सभी देशों में हमें स्व-रोजगार में लगे लोगों की बहुत बड़ी आबादी दिखाई पड़ रही है – छोटे व्यापारियों से लेकर रेहड़ी-खोखा-पटरी वालों तक, और छोटे/मध्यवर्गीय किसानों से लेकर विभिन्न पेशेवर लोगों तक. दूसरे, मजदूरी और वेतन (नियमित वेतन पाने वालों) पाने वालों के बीच तबकाई विभाजन बढ़ा है. एक ही देश में विभिन्न सेक्टरों/क्षेत्रों में काम की स्थितियों और मजदूरों की जीवन शैली में अंतर काफी बढ़ा है. उदाहरण के लिए ग्रामीण और शहरी काम में, दिन और रात में चलने वाले उद्योगों में, ब्लू-काॅलर और ह्नाइट-काॅलर नौकरियों में, औपचारिक व अनौपचारिक क्षेत्रों में.

तीसरे, प्रभुत्वशाली सामाजिक शक्तियों के विरुद्ध विभिन्न किस्म की गोलबंदियों के महत्वपूर्ण आधार के बतौर लिंग, नस्ल, राष्ट्रीयता, जाति आदि वर्गेत्तर पहचानों का महत्व बढ़ा है. कुछ मामलों में इसका संबंध पूंजीवाद की प्रकृति से है (उदाहरण के लिए पितृसत्ता और नस्ली साम्राज्यवाद पर इसकी ऐतिहासिक और अब भी जारी निर्भरता) और कुछ अन्य मामलों में पूंजीवाद के असमान विकास तथा पूंजीवादी और प्राक-पूंजीवादी, प्रतिगामी शक्तियों के बीच विभिन्न विशेष ऐतिहासिक गठजोड़ों से है. इसलिए मार्क्सवादियों को अब सामाजिक न्याय के इन आन्दोलनों में शामिल होना पड़ेगा और जहां सम्भव हो अपना योगदान भी करना पड़ेगा, यह दिखाना होगा कि उत्पीड़न के ये रूप कैसे पूंजीवाद से जुड़े हुये हैं. यह काम उन्हें वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाने और निर्देशित करने के अपने बुनियादी कार्यभार के साथ-साथ और उसी के अंग के रूप में करना होगा.

 


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