(7 सितम्बर 1996 की मेनस्ट्रीम पत्रिका में छपे विनोद मिश्र के लेख के कुछ अंश)

(...) दलितों के दो स्वघोषित प्रवक्ता – कांशीराम और रामविलास पासवान तो इस घटना की भर्त्सना करने की भी जरूरत नहीं महसूस करते हैं. दलितों को सबल बनाने के सर्वप्रमुख समर्थक वीपी सिंह को मुंबई में रमेश किणी के परिवार से मिलने का पर्याप्त मौका तो जरूर मिला, लेकिन बथानी टोला की समूची परिघटना पर उन्होंने रहस्यमयी चुप्पी साधे रखी. कोई उल्लेखनीय मुस्लिम नेता घटनास्थल पर नहीं पहुंच सका -- इस तथ्य के बावजूद कि रणवीर सेना भाजपा का ही एक अग्रभाग-संगठन है, कि बथानी टोला के पीड़ितों का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदाय से आता है, कि वहां का फौरी मुद्दा कब्रगाह और कर्बला की जमीन की मुक्ति से जुड़ा हुआ था और यह कि उस जनसंहार में एक मजबूत साम्प्रदायिक तेवर परिलक्षित हो रहा था.

केन्द्र के कम्युनिस्ट गृहमंत्री इन्द्रजीत गुप्त हवाई मार्ग से घटनास्थल पर अवश्य गए और वहां उन्होंने समस्या के मूल कारण के रूप में भूमि सुधार के अभाव का रोना रोया, और इसी कारण गृहमंत्रा होने के नाते वे और कुछ कर भी नहीं सके. जब कुछ ठोस करने का इरादा न हो तो इस तरह के सैद्धांतीकरण की स्वतंत्रता किसी कम्युनिस्ट गृहमंत्री के लिए शायद विशेषाधिकार बन जाता है. बिहार में पुलिस बल को आधुनिक साजो-सामान से लैस बनाने और अर्धसैनिक बलों की नई इकाइयां गठित करने -- जैसा कि मुख्यमंत्री और पुलिस महकमे के शीर्षस्थ अधिकारियों ने मांग की थी -- का वादा करते हुए श्री गुप्ता दिल्ली वापस लौट गए. हर कोई आश्चर्य कर रहा था कि क्या पुलिस की निष्क्रियता के पीछे सचमुच हथियारों का अभाव ही मूल कारण था! केन्द्रीय गृहमंत्री ने संसद में अवकाशप्राप्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को लेकर एक टास्क फोर्स के गठन की घोषणा की, जो बिहार में उग्रवाद की वृद्धि के कारणों की जांच करेगा. अपने कर्तव्य की आपराधिक लापरवाही के लिए जिला प्रशसन के खिलाफ न तो कुछ कहा गया, न कुछ किया गया और सामान्यीकरणों की आड़ में यहां तक कि ऐसी गंभीर घटनाओं की जांच के लिए न्यायिक समिति गठित करने की परंपरा को भी त्याग दिया गया.

उदारवादी मीडिया ने इस बात की भूरि-भूरि प्रशंसा की कि श्री गुप्ता ने भूमि सुधार के अभाव को मूल कारण बताकर समस्या के मर्म को छू लिया है. लेकिन, गौर से देखने पर यह पता चलेगा कि अपने ठोस संदर्भ और समय में ऐसे वक्तव्य सबसे अधिक हास्यास्पद थे. ऐसे सम्पदकीय और सामाजिक  विश्लेषण प्रायः पढ़ने को मिलते हैं, जो बताते हैं कि भूमि सुधार का अभाव ही नक्सलवाद की वृद्धि के पीछे मूल कारण है. श्री गुप्ता भी उसी ‘चिंता’ से ग्रस्त थे और इसीलिए उन्होंने भी वही सामान्य नुस्खा पेश कर दिया. गलत जगह पर अपने विद्वतापूर्ण अभियान संचालित करने के क्रम में वे यह नहीं समझ सके कि बथानी टोला बढ़ते सामन्ती प्रत्याक्रमण का उलटा मामला है.

भोजपुर में आमतौर पर, तथा खासकर बथानी टोला के निकट बड़की खड़ांव के प्रमुख गांव में अपनी संगठित ताकत और बढ़ते राजनीतिक सामर्थ्य पर भरोसा करते हुए लोगों ने मजदूरी और भूमि सुधार पहले ही हासिल कर लिए हैं. बिहार में विगत संसदीय चुनाव में भाजपा की बढ़त से प्रोत्साहन पाकर ये सामन्ती प्रत्याक्रमण स्पष्टतः इन उपलब्धियों को कुचल देने और पुनः सवर्ण वर्चस्व को स्थापित करने की ओर लक्षित हैं. संयोगवश, रणवीर पुराने समय के भूमिहारों के ‘हीरो’ रहे हैं जो राजपूत वर्चस्व के खिलाफ लड़े थे और, इसीलिए, राजपूत आमतौर पर रणवीर सेना में शामिल होने से परहेज ही करते थे. बड़की खड़ांव में इन दो जातियों के बीच एकता भाजपाई तत्वों ने निर्मित की थी और इसके लिए उन्होंने उसी सहज साम्प्रदायिक बहाने का इस्तेमाल किया, क्योंकि वहां का मौजूदा संघर्ष कब्रगाह और कर्बला की भूमि को लेकर चल रहा है, जिसे सवर्ण भूस्वामियों ने बलपूर्वक कब्जा कर लिया है. इस टकराव की शुरुआत 1978 में ही हो चुकी थी, जब मुखिया पद के लिए हुए पंचायत चुनाव में युनुस मियां ने केशो सिंह को पराजित कर दिया था और जब उसके बाद इमामबाड़ा की जमीन काटी गई थी.

बथानी टोला खुले वर्गयुद्ध का एक विशिष्ट नमूना है -- ग्रासरूट स्तर से शुरू होते हुए भी इसके मानदंड शिखर के राजनीतिक संघर्षों के जरिए निर्धारित हो रहे हैं. यह एक ऐसा विशिष्ट नमूना है जहां जातीय और साम्प्रदायिक शत्रुता -- अर्थात् समकालीन भारतीय समाज के दो प्रमुख सामाजिक मानदंड – वर्ग संघर्ष के सांचे में घुलमिल से गए हैं. यह कोई संयोग नहीं कि समूचे भोजपुर को अपने आगोश में समेट लेने और बिहार के दूसरे इलाकों में भी तेजी से फैलते जानेवाले इस वर्गयुद्ध में क्रान्तिकारी वामपंथ तथा चरम दक्षिणपंथ की फासिस्ट साम्प्रदायिक ताकतें आमने-सामने की लड़ाई में भिड़ गए हैं. और यह भी कोई संयोग नहीं है कि खुले वर्गयुद्ध के शुरू होते ही मध्यमार्गी और सामाजिक जनवादी ताकतें नपुंसक हो गई हैं, जो प्रायः परभक्षी लुटेरों के ही हित में जानेवाली उदासीन स्थिति अपना लेती हैं.

जातीय व साम्प्रदायिक भेदभाव के मुद्दों को अपने अंदर समाहित कर लेने वाला यह वर्गयुद्ध, साथ ही साथ, उत्तर-आधुनिकतावादी एजेंडा का भी निषेध है, जिसका प्राथमिकता क्रम बिलकुल उल्टा है (अर्थात् उसके एजेंडे में वर्ग-अंतर्विरोधों को जातीय और साम्प्रदायिक अंतर्विरोधों के मातहत रख दिया जाता है – अनु.).

मीडिया की खबरों को और इसके साथ-साथ दलित व अल्पसंख्यक सशक्तिकरण के तमाम पैरोकारों की चुप्पी को इसी पृष्ठभूमि में देखना होगा.

… भोजपुर के पिछले 25 वर्षों का इतिहास यही बताता है कि यहां संघर्ष कभी आधी राह पर नहीं रुका है. 25 वर्ष पहले की स्थिति की तुलना में ग्रामीण गरीबों ने आज कई सामाजिक-आर्थिक उलब्धियां छीन ली हैं और वे राजनीतिक रूप से भी काफी आगे बढ़ चुके हैं. कोई भी बथानी टोला उनकी उपलब्धियों के क्षुद्रांश से भी उन्हें वंचित नहीें कर सकता है. इसीलिए, यह लड़ाई जारी है और यह तबतक जारी रहेगी, जब तक कि सामन्तवाद के अंतिम अवशेषों को भी अंततः दफना नहीं दिया जाता है.