नोटबंदी ने स्ट्रीट वेण्डरों और छोटे दुकानदारों का कारोबार ठप्प कर दिया. कैश की कमी के चलते लोगों ने डिजिटल पेमेण्ट या डेबिट/क्रेडिट कार्ड (प्लास्टिक मनी) से सब्जियां भी सुपर मार्केट से या आॅनलाइन खरीदीं. भारत जैसे देश में कैशलेस इकोनाॅमी थोपने का मतलब है कि छोटे दुकानदारों के ग्राहकों को मजबूर कर बड़े माॅलों, सुपरमार्केटों और आॅनलाइन शॅपिंग की ओर भेजना. इससे अम्बानी के रिलायन्स फ्रेश या बियानी के बिग बाजार जैसी कम्पनियों के ग्राहक बढ़ेंगे और खोखा-पटरी-फुटपाथ व मुहल्लों के दुकानदार मुश्किल में पड़ेंगे.

हमारे प्रधानमंत्री कैशलेस हो जाने के लिए रोज कह रहे हैं. निजी कम्पनी पेटीएम अपने प्रचार में उनका फोटो छाप रही है.  सरकार ने कैशलेस मोबाइल पेमेण्ट के लिए नये नियम-कानून बना दिये हैं और कई सारे नये-नये ‘मोबाइल एप’ जारी हो चुके हैं. क्या छोटे दुकानदार मोदी के कहे अनुसार आई.एम.पी.एस., पेटीएम जैसे मोबाइल वाॅलेट या सरकारी ‘यूपीआई एप’ इस्तेमाल करके नुकसान में नहीं रहेंगे? जरा देखिएः

  • पेटीएम जैसे मोबाइल वाॅलेट (ई-वाॅलेट) के जरिए माल बेचने पर दुकानदार को अपना ही पैसा अपने बैंक एकाउण्ट में लाने के लिए पेटीएम को कमीशन देना पड़ता है. छोटे दुकानदारों के लिए यह अतिरिक्त खर्चा उनके मुनाफे में से जायेगा.

  • यह मोबाइल ऐप्स और ई-वाॅलेट कम्पनियों के हाथ में है कि आपसे कितना कमीशन लेंगे. अगर आज शून्य या 1% कमीशन ले रहे हैं तो हो सकता है कि आगे जाकर वे इसे काफी बढ़ा दें. इन पर किसी का नियंत्रण नहीं है. दरअसल कैशलेस इकोनाॅमी के नाम पर गरीब आम जनता और उसकी मेहनत की कमाई के बीच बड़ी-बड़ी कम्पनियों को जबरन दलाल बना कर खड़ा किया जा रहा है. इससे जनता की हर तरह की खरीदारी पर इन कम्पनियों को मुनाफा मिलेगा, बिना कुछ किये ही. चाहे आप एक कप चाय की कीमत चुकायें, या पाव भर सब्जी खरीद कर लायें, उनका कमीशन पक्का है.

  • 8 नवम्बर से पहले एक अनपढ़ महिला भी फुटपाथ पर सब्जी बेच कर आसानी से आत्मनिर्भर बन सकती थी. अब, कैशलेस होकर सब्जी बेचने के लिए उसे कितनी चीजों की जरूरत होगी? नीचे देखिए –
  1. एक स्मार्ट फोन खरीदना होगा.

  2. मोबाईल में डाटा पैक डलवाना होगा.

  3. इण्टरनेट सीखना होगा.

  4. फोन चार्ज करने के लिए बिजली होना जरूरी है.

  5. स्मार्ट फोन में तरह-तरह के मोबाइल ऐप डालने होंगेे.

  6. स्मार्ट फोन, डाटा पैक, मोबाइल ऐप्स का इस्तेमाल सीखना होगा.

  7. कामचलाऊ लिखना-पढ़ना हिन्दी/अंग्रेजी में सीखना होगा.

  8. फोन में पढ़ना और टाइप करना सीखना होगा.

  9. हर ग्राहक को सब्जी बेचते समय ऊपर की सारी बातें पूरी करनी होंगी!
  • प्रधानमंत्री बताते नहीं थकते कि वे भी एक ‘चाय वाले’ हैं. चलिए एक असली चाय वाले के बारे में सोचते हैं जो फुटपाथ पर चाय की दुकान चलाता है- अगर आॅनलाइन पेमेण्ट लेकर वह चाय बेचेगा तो हर बार एक कप चाय का पैसा लेने के लिए उसे कम से कम एक मिनट खर्च करना होगा, जबकि कैश में पेमेण्ट कुछ सेकन्ड में हो जाता है. कभी-कभी आॅनलाइन पेमेण्ट गेटवे काफी देर लगा देता है और ऐसी हालत में झगड़ा होने की सम्भावना भी रहेगी. अगर एक ग्राहक को निपटाने में इतना समय लगेगा तो जान लीजिए कि चाय की बिक्री घटने का खतरा भी रहेगा. यदि किसी कारण से फोन नम्बर बदल गया तो ई-पेमेण्ट कम्पनी में नया नम्बर चढ़वाने में कई दिन लग जायेंगे.

  • कैशलेस होने के लिए अतिरिक्त कीमत चुकानी पड़ेगी. क्योंकि –
  1.     • एक स्वाइप मशीन खरीदनी होगी

  2.     • क्रेडिट या डेबिट कार्ड बनवाना होगा

  3.     • स्मार्ट फोन और इण्टरनेट खरीदना होगा

  4.     • ई-वाॅलेट कम्पनियों को उनके रेट के हिसाब से कमीशन देना होगा

गरीबों के ऊपर इतने अतिरिक्त खर्चे डालना कैसे उनके फायदे में हो सकता है?

  • बंगलूरू के विनय श्रीनिवास ने एक लेख में बताया है कि “स्ट्रीट वेण्डरों को डिजिटल पेमेण्ट के नेटवर्क का हिस्सा बना लेने के बाद प्रशासन के लिए उन पर नये तरह के टैक्स लगाना मुश्किल काम नहीं रह जायेगा और कम आमदनी के बावजूद टैक्स अधिकारियों से बचने के लिए जरूरी हो जायेगा कि वे आय-व्यय के बही-खातों को नियमित रूप से रखें. हर बार एक कप चाय या आधा किलो सब्जी बेचने के बाद फुटपाथ के दुकानदार को भी उसे रिकाॅर्ड में दर्ज करना होगा. इसके बाद भले ही टैक्स न देना पड़े, एक गरीब और एकाउण्टिंग की भाषा से अनजान स्ट्रीट वेण्डर के लिए यह आसान नहीं है.”

गली-गली फेरी लगाना या छोटी-मोटी दुकान कर लेना भारत के गरीबों के लिए जिन्दा रहने का अंतिम विकल्प होता है. सरकार तो पहले से ही खुदरा व्यापार में काॅरपोरेट रिटेल को आगे बढ़ा कर ऐसे गरीबों की रोजी-रोटी छीनने में लगी थी, अब नोटबंदी और कैशलेस के बाद तो फुटपाथ और रेहड़ी से भी हाथ धोना पड़ेगा.

केरल के मछुआरों पर नोटबंदी का असर

(आईएएनएस की 11 नवम्बर की एक रिपोर्ट से)

टेरेसा त्रिवेन्द्रम में मछली बेच कर जीवनयापन करती हैं. वे इस बात के काफी परेशान थीं कि उनके ग्राहकों के पास केवल 500 या 1000 के नोट ही थे.

वे काफी नाराज हैं. “इन नोटों का मैं क्या करूं? अगर इन्हें मैं ले भी लूं तो ये नोट बदलवाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है, और अगर न लूं तो कल की मछली खरीदने के पैसे मेरे पास नहीं होंगे. मैंने तय किया है कि मछली उन्हें ही बेचूंगी जिनके पास नये नोट हैं. मैंने एक किलो सुरमई मछली केवल 250 रुपये में बेची जबकि इसकी वास्तविक कीमत 500 या ज्यादा रहती है. कल से मैं सस्ती मछलियां ही लेकर आऊंगी क्योंकि 100 एवं अन्य छोटे नोटों से काम हो जायेगा.”

जब परम्परागत मत्य उद्योग की गतिविधियां पूरी तरह से थम गयी हैं, ऐसे में आॅनलाइन मछली बिक्रेताओं के वारे-न्यारे हो रहे हैं.