(बनारस में हुई छठी पार्टी-कांग्रेस के उदघाटन भाषण से, लिबरेशन, 1997)

कामरेडो और दोस्तो,

पार्टी की यह छठी कांग्रेस बीसवीं सदी के अंतिम छोर पर आयोजित हो रही है. इस सदी ने विश्वव्यापी ऐतिहासिक महत्व की बड़ी-बड़ी उथल-पुथलभरी घटनाएं देखी हैं : साम्राज्यवाद का उदय, एक-के-बाद एक होने वालो दो विश्वयुद्ध, समाजवाद का उदय और औपनिवेशिक युग का अंत,और अंततः सोवियत व्यवस्था का पतन तथा वैश्वीकरण का आगमन. इस सदी ने विज्ञान और तकनीक में बेसिमाल तरक्की देखी है; मानवजाति ने जहां धरती पर आत्म-विनाश के हथियार पैदा किए वहीं अंतरिक्ष में वह उपनिवेश कायम करने चली; सूचना और मालों के विनिमय में ऐसी नायाब तरक्की हुई कि समूची दुनिया एक विश्व-ग्राम जैसी लगती है.

विराट सामाजिक-आर्थिक रूपांतर की यह प्रक्रिया सर्वोत्तम मानव मस्तिष्कों में प्रतिफलित हुई और परिणामतः इस सदी ने विचारों के बीच और विचारधाराओं के बीच बड़े-बड़े टकराव देखे, महान-महान व्यक्तित्वों को उभरते देखा.

साम्राज्यवाद, जिसका उदय इस सदी के शुरूआती वर्षं मे हुआ था, सदी का मध्य आते-आते अपनी साख खो बैठा और अब सदी के अंतिम वर्षों में वैश्वीकरण का चोला पहनकर अपनी खोई मर्यादा फिर से हासिल करने की कोशिश कर रहा है. अगर पुराने साम्राज्यवाद ने ‘कूपन काटने वालों’ की एक श्रेणी को जन्म दिया था, जो शेयर बाजारों में सट्टेबाजी के जरिए फलते-फूलते थे, तो वैश्वीकरण ने चलमुद्रा (करेन्सी) के सटोरियों की एक समूची श्रेणी को जन्म दिया है, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के बोर्ड में बाइज्जत कुर्सी पर विराजमान हैं. चलमुद्रा के व्यापार में बढ़ोत्तरी ने ‘विश्वमुद्रा’, या फिर जिसे सटीक रूप से ‘काल्पनिक, आभासी मुद्रा’ कहा जाता है, के विशाल भंडार का सृजन किया है, “यह मुद्रा की किसी भी परिभाषा पर खरी नहीं उतरती, न तो यह मात्रा का पैमाना रह गई है, न मूल्य का भंडार और न विनिमय का माध्यम, यह पूरी तरह से बेनामी है. मगर इसकी शक्ति एक यथार्थ है”. यह मुद्रा पूर्णरूपेण गतिशील है, क्योंकि इसका किसी भी आर्थिक कार्यकलाप से कोई लेना-देना नहीं है. इस मुद्रा का परिमाण इतना भीमकाय है कि किसी देश से इसका आवागमन उस देश से होनेवाले वित्तीय, व्यापारिक तथा निवेश संबंधी प्रवाहों से कहीं ज्यादा असरदार होता है. एक बार अगर भारत जैसा कोई राष्ट्रीय अर्थतंत्र, विश्व अर्थतंत्र से पूरी तरह एकरूप हो जाता है, तो उसकी वर्षों की कमाई उपलब्धियां उसकी मुद्रा के प्रवाह से महज चंद हफ्तों में मटियामेट हो सकती हैं.

इस ‘आभासी मुद्रा’ का वर्चस्व पूंजी के उत्पादक कार्यकलाप से पूर्ण विच्छेद का प्रतीक है. यह वर्तमान सार्वदेशिक पूंजीवाद के परजीवी चरित्र को और भी ज्यादा पुख्ता करता है. और इसीलिए, यद्यपि बीसवीं सदी का अंत विश्व समाजवाद के लिए धक्कों के साथ हो रहा है, आने वाली सदी की शुरूआत अनिवार्यतः एक बेहतर विश्व-व्यवस्था, समाजवाद के एक नए संस्करण के लिए नए विचारों, नई शक्तियों और नए आंदोलनों के साथ होगी.

अपने अधूरे सपने और अपूरित लक्ष्य अगली सहस्रब्दी को सौंप कर बीसवीं सदी अब विदा लेने को है. आइए, हम इस कांग्रेस के जरिए अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद की एकताबद्ध, आत्मविश्वास से भरपूर और शक्तिशाली पार्टी के बतौर 21वीं सदी में प्रवेश करें.

हमारी पार्टी की छठी कांग्रेस 1997 में हो रही है. इस साल हमारा देश औपनिवेशिक शासन के जुए से अपनी आजादी की स्वर्णजयंती मना रहा है. लेकिन वह ऐतिहासिक घड़ी, भारतीय जनसमुदाय के लिए स्वतःस्फूर्त रूप से हर्षोंल्लास मनाने का सबब शायद ही बन सकी हो. स्वतंत्रता के 50वी वर्ष में भारत की राजनीतिक प्रभुसत्ता पर महाशक्तियों के शक्तिशाली हमलों का खतरा मंडरा रहा है. आंतरिक तौर पर यह स्वतंत्रता समूचे शासक कुलीन वर्ग के लिए निरपेक्ष सुविधा में बदल चुकी है – यह उनकी लूट-खसोट, भ्रष्टाचार और अपराधीकरण की स्वतंत्रता बन गई है.

पूंजीवादी वर्चस्व की संस्थाएं एक दूसरे के साथ टकराव की स्थिति में हैं : न्यायपालिका राजनीतिक वर्ग के साथ, राजनीतिक वर्ग नौकरशाही के साथ, नौकरशाही राजनीतिक प्राधिकार के साथ, संसद न्यायपालिका के साथ, चुनाव आयोग सरकार के साथ, इत्यादि. ये तमाम संस्थाएं अपने-अपने स्वायत्त दायरों को विस्तारित करने के लिए एक दूसरे के साथ प्रतिद्वंद्विता कर रही हैं, और परिणाम यह है कि हरेक की साख मिट्टी में मिल रही है.

भारत की आजादी की स्वर्ण जयंती इसी सर्वव्यापी अव्यवस्था के माहौल में मनाई जा रही है. देशभर में बुद्धिजीवियों के बीच बहसें छिड़ी हुई हैं और देश की संसद ने राष्ट्रीय एजेंडा तय करने के लिए एक अभूतपूर्व चार-दिवसीय सत्र आयोजित किया. दूसरी आजादी की लड़ाई का आह्वान किया गया. अपराधीकरण, भ्रष्टाचार और अशिक्षा के खिलाफ युद्ध की घोषणाएं भी की गई. लेकिन यह सब महज रस्मी कार्यवाही साबित हुईं, और राष्ट्र उसी तरह दिशाहीन है जैसा पहले था.

भारतीय शासक बर्गों ने उदारीकरण और वैश्वीकरण पर आपस में एक किस्म की राष्ट्रीय सहमति पैदा कर ली है, जिसे केंद्रीय वित्तमंत्री चिदंबरम यह कहकर न्यायोचित ठहराते हैं कि भारतीय जनता उच्चतर कोटि का जीवन-स्तर और चयन का अधिकार मांग रही है. उनके कथनानुसार, “पहले तो चयन का दायरा सिर्फ एंबैसेडर और एंबैसेडर के बीच, इंडियन एयरलाइंस और इंडियन एयरलाइंस के बीच ही सीमित था.” इससे साफ जाहिर होता है कि किस तबके के लोगों के हित उनके दिमाग में हैं, और यही चीज उदारीकरण और वैश्वीकरण की समूची वर्ग-अंतर्वस्तु का भी पर्दाफाश कर देती है.
‘कंप्यूटर चिप्स बनाम आलू चिप्स’ की बहस में जवाब देते हुए जनाब चिदंबरम ने फरमाया कि, “जब तक इससे (किसी भी क्षेत्र में किसी भी रूप में लगी विदेशी पूंजी से) रोजगार के अवसर पैदा हों, आमदनी हो और संपत्ति पैदा होती हो, तब तक सब ठिक है.”

चिदंबरम, जो बहुराष्ट्रीय निगमों और भारतीय पूंजीपति वर्ग के समान रूप से दुलारे हैं, मौजूदा संयुक्त मोर्चा सरकार के आर्थिक दर्शन का ही इजहार कर रहे हैं. यह सरकार उदारीकरण और वैश्वीकरण का प्रमुख पैरोकार बन चुकी है, और इस मामले में यह पिछली राव सरकार से कहीं आगे निकल गई है. इसका न्यूनतम साझा कार्यक्रम रंग-बिरंगे शासक कुलीनों के बीच हुए सर्वमान्य समझौते के अलावा और कुछ नहीं है.

भारत की पहाड़ जैसी बढ़ती समस्याओं के दक्षिणपंथी समाधान की सनक ने कट्टरपंथी शक्तियों का हौसला बढ़ाया है – और यह हकीकत है कि भारत के आकाश पर पहली बार केसरिया खतरे के बादल मंडरा रहे हैं. यहां उत्तर प्रदेश में, जो भारत का स्नायु केंद्र है और सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है, पिछले विधानसभा चुनाव के बाद से राजनीतिक स्थिरता लाने की सारी कोशिशें नाकाम हो रही हैं. अभी कल ही तो बसपा और भाजपा का सिद्धांतविहीन गठजोड़ टूट गया और उत्तर प्रदेश फिर उसी अस्थिरता में डूब गया है. कल्याण सिंह की वापसी का अर्थ अयोध्या का राष्ट्रीय एजेंडे पर वापस आना भी था. इसके अलावा, चित्रकूट का दिखावटी मुद्दा भी इसके साथ जोड़ दिया गया है और स्पष्ट दलित-विरोधी संकेत जारी किए जा रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में भाजपा के दो बार अल्पावधि के शासन ने स्पष्ट रूप से दिखला दिया है कि अगर किसी तरह यह पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ हो जाती है तो यह भारत में बची-खुची धर्मनिरपेक्ष राज्य-व्यवस्था के लिए, जनवादी संस्थाओं, प्रगतिशील आंदोलनों, बौद्धिक, सौंदर्यशास्त्रीय तथा शैक्षणिक आजादी के लिए, ग्रामीण गरीबों के संघर्षों के लिए, दलितों, महिलाओं और धार्मिक व राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की सामाजिक समानता के लिए तथा पड़ोसी देशों के साथ दोस्ताना संबधों के लिए सबसे बड़ा खतरा साबित होगी. भारत पर सांप्रदायिक-फासीवादी ताकतों को काबिज होने से रोकने के लिए तमाम लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ताकतों के बीच एक लड़ाकू एकता के निर्माण का महत्वपूर्ण कार्यभार हमारे सामने है.

आइए, हम इस कांग्रेस के जरिए राष्ट्रीय मुक्ति और जनता के जनवाद की एकताबद्ध, आत्मविश्वास से भरपूर और शक्तिशाली पार्टी के बतौर उभरें.

यह कांग्रेस नक्सलबाड़ी के महान उभार की तीसवीं बरसी के साल में हो रही है. नक्सलबाड़ी का उभार भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में लंबे अरसे से जड़ जमाए अवसरवाद से एक निर्णायक विच्छेद का प्रतीक था. उसने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के 40 वर्षों बाद पहली बार कृषि क्रांति को फौरी एजेंडे पर ला दिया था. पाशविक राज्य दमन के सामने कई बार ऐसा लगा कि यह आंदोलन ही खत्म हो गया. लेकिन हर बार यह किंवदंती के फिनिक्स पक्षी की तरह, अपनी राख से उठ खड़ा हुआ.

नक्सलबाड़ी जिस किस्म के सामाजिक बदलाव का अग्रदूत थी, उसे 1990 के दशक में एक बड़े किस्म का आवेग हासिल हुआ, जिसने नए सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया है. महान सामाजिक उथल-पुथल की प्रक्रिया के बीच, और इसके परिणामस्वरूप आने वाली राजनीतिक अस्थिरता के चलते, पुराने नारे तेजी से अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं तथा नायक पलक झपकते ही खलनायकों में तब्दील हो रहे हैं.

हमारी आंखों के सामने एक सर्वांगीण संकट विकसित हो रहा है, और हमारा राष्ट्र नए, रैडिकल और गैर-पारंपरिक समाधानों की तलाश कर रहा है, चूंकि कम्युनिस्ट आंदोलन का अवसरवादी पक्ष केंद्र में शासक निजाम का अभिन्न अंग बन चुका है. अतः वामपंथी आंदोलन का नेतृत्व करने की जिम्मेवारी क्रांतिकारी वामपंथ के ही कंधों पर आ गई है. और भारतीय वामपंथी आंदोलन के चालक की गद्दी से सरकारी मार्क्सवादियों को हटाने के लिए अब तक का यही सबसे बेहतर मौका हमारे सामने आया है.

नया अनिवार्य रूप से पुराने को प्रतिस्थापित करता है – यह इतिहास का अटल नियम है. आइए, हम इस कांग्रेस के जरिए सामाजिक न्याय और क्रांतिकारी बदलाव की एकताबद्ध, आत्मविश्वास से भरपूर और शक्तिशाली पार्टी के बतौर उभरने का संकल्प लें.

पिछले पार्टी-कांग्रेस के बाद से ये पांच साल, 1974 में पार्टी के पुनर्गठन के बाद से हमारे पार्टी इतिहास का सबसे रक्तपातमय दौर रहे हैं. सरकार, राज्य की सरपरस्ती पर चल रही भूस्वामियों की निजी सेनाएं, अराजकतावादियों के पूरी तौर पर अपराधी बन गए गिरोह – इन सबके द्वारा हत्याओं की जो झड़ी लगा दी गई, उसके दौरान हमने दो सौ से ज्यादा कार्यकर्ताओं व समर्थकों को खो दिया. इन हमलों में शिशुओं का कत्ल किया गया. महिलाओं से बलात्कार किया गया और उनकी हत्या कर दी गई; पुरुषों को, वे नौजवान हों या बूढ़े, सबसे बर्बर किस्म के मध्ययुगीन तरीके से कत्ल कर दिया गया; होनहार नौजवान कामरेडों को भाषण देते वक्त या आंदोलनों का नेतृत्व करते समय गोली मार दी गई; जनसभाओं में ग्रेनेड फेंके गए, पार्टी कार्यालयों पर हमले हुए और हजारों को जेल की सलाखों के पीछे कैद कर दिया गया – और यह सब भाकपा(माले) के अभियान को रोकने के जी-तोड़ प्रयास में हुआ.

हम न तो अपने वीर शहीदों की स्मृति को भूले हैं, और न हत्यारों की पहचान को. भाकपा(माले) की अग्रगति को कोई भी, दुनिया की कोई ताकत, नहीं रोक सकती. आइए, हम इस कांग्रेस के जरिए शहीदों के सपनों और दुश्मनों के दुःस्वप्न की एकताबद्ध, आत्मविश्वास से भरपूर और शक्तिशाली पार्टी का निर्माण करने का संकल्प लें.