प्रभुत्वशाली जातियों की सेनाओं द्वारा दलित ग्रामीण मजदूरों के जनसंहार बिहार में कोई नयी बात नहीं है. लेकिन जिस बड़े पैमाने पर और जिस नृशंसता के साथ बथानी टोला जनसंहार को अंजाम दिया गया था, वह प्रतिक्रियावादी राजनीतिक गोलबंदी के एक नये दौर की शुरुआत की ओर इशारा कर रहे थे. रणवीर सेना मुख्य रूप से भूमिहार भूस्वामियों द्वारा गठित की गई थी, लेकिन जाति और उत्पीड़ित समुदायों के प्रति समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल करके वह भूमिहार किसानों के बड़े हिस्से और साथ में राजपूत भू-स्वामियों के एक हिस्से को अपने पक्ष में खड़ा करने में सफल हो गई. विभिन्न शासकवर्गीय दलों के भूमिहार-राजपूत राजनीतिज्ञों का संरक्षण हासिल होने के अतिरिक्त, वैचारिक और राजनैतिक स्तर पर संघ परिवार और भाजपा के साथ सेना की कड़ियां काफी गहराई से जुड़ती थीं. उसका विशेष उद्देश्य था- विभिन्न सामाजिक-अर्थिक सवालों पर खेत मजदूरों और गरीब किसानों की, खासकर भाकपा(माले) के झण्डे तले बढ़ रही गोलबंदी और राजनीतिक दावेदारी को दबाने के लिए आतंक कायम करना.  

रणवीर सेना के उत्थान और बथानी टोला जनसंहार का एक प्रमुख राजनीतिक कारण था 1995 के विधानसभा चुनाव में भोजपुर के सहार और संदेश विधानसभा क्षेत्रों में भाकपा(माले) की विजय. गरीबों की इस राजनीतिक दावेदारी ने रणवीर सेना के गठन और उसकी क्रूर सामंती प्रतिक्रिया को जन्म दिया था. यह राजनीतिक विजय, जाति व वर्ग की सामंती संरचना के खिलाफ भूमिहीन गरीबों, जो प्रमुख रूप से दमित जातियों के थे, और उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों द्वारा पेश की गई भौतिक और राजनैतिक चुनौतियों का परिणाम थी.

बथानी टोला में, एक महिला की हत्या करने से पहले उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था. एक अन्य के स्तन काट दिये गये थे. एक बच्ची को हवा में उछाल कर तलवार से चीर दिया गया था. एक 10 वर्षीय लड़की की बांहों को तलवार से काटा गया था. नन्हे लड़कों को तलवारों से बेध कर मारा गया था. जहां लोगों ने शरण ली हुई थी, उन घरों में आग लगा दी गई थी। कुछ वर्षों बाद गुजरात नरसंहार को जिस वीभत्सता से अंजाम दिया गया, लगता है कि उसके कुछ नमूने संघ परिवार ने रणवीर सेना की इन कार्रवाइयों से ही लिये थे.

बथानी टोला के भूमिहीन गरीब दलितों और अल्पसंख्यकों को इसलिये दंडित किया गया, क्योंकि उन्होंने भाकपा(माले) के झंडे तले अपनी राजनीतिक और सामाजिक दावेदारी जताने की धृष्टता की थी. बथानी टोला के बाद, भाकपा(माले), सी.ओ.सी.(पार्टी यूनिटी) ग्रुप जिसका अब माओवादियों के साथ विलय हो चुका है, और यहां तक कि राजद समर्थित यादव जाति के गरीबों के सामाजिक आधार को लक्ष्य बनाते हुए लक्ष्मणपुर-बाथे, शंकरबिगहा, नारायणपुर और मियांपुर में बड़े पैमाने पर जनसंहारों को अंजाम दिया गया.

बथानी टोला और बाथे जनसंहारों के बाद शासक वर्ग की पार्टियों, मुख्यधारा मीडिया और यहां तक कि सामाजिक जनवादी वामपंथ की ओर से भी एक पूरी प्रचार मुहिम-सी छेड़ दी गई थी. उन लोगों ने इन जनसंहारों की गंभीरता को नकारते हुए इसे नक्सलवादियों और रणवीर सेना के बीच तथाकथित ‘घिसाव-थकाव के युद्ध’ अथवा ‘जातीय युद्ध’ का ही एक हिस्सा मान लिया. मजदूरी वृद्धि, जमीन और मर्यादा के लिये गरीब किसानों व मजदूरों के संघर्षों को ‘उकसावे की कार्रवाई’ समझा गया -- और रणवीर सेना को ऐसे उकसावों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया कहा गया. भाकपा(माले) पर खेत मजदूरों को किसानों के खिलाफ खड़ा करने का आरोप लगाया गया और रणवीर सेना को ‘किसानों’ के प्रतिनिधि के बतौर पेश किया गया. उच्च न्यायालय के फैसले के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में ब्रह्मेश्वर सिंह ने फिर यह कहा था कि किस प्रकार कुछ ताकतें किसानों और खेत मजदूरों के बीच की ‘एकता’ को तोड़ना चाहती हैं.

इसी फैसले के बाद रणवीर सेना के एक समर्थक ने ‘द हिंदू’ के संवाददाता से जो कुछ कहा, उससे यह झूठ पूरी तरह बेपर्द हो जाता है कि रणवीर सेना और भाकपा(माले) के बीच का संघर्ष एक ‘जातीय युद्ध’ था. इस जनसंहार को “उन नक्सलवादियों” के खिलाफ सवर्ण जातियों की “प्रतिक्रिया-स्वरूप गोलबंदी” के बतौर तर्कसंगत बताते हुए उस रणवीर सेना समर्थक ने कहा, “जमीन हमारी है, फसलें हमारी हैं. वे (मजदूर) काम नहीं करना चाहते, और तो और, वे हमारी मशीनें जलाकर और आर्थिक नाकेबंदी करके हमारे काम में बाधा पहुंचाते हैं. इसीलिये उन्हें यह सब झेलना पड़ा.” यह तथ्य कि सदियों से दमन झेल रहे लोगों ने संगठित होने की गुस्ताखी की और सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक दावेदारी जतायी, यही उनके जनसंहार का कारण बन गया.  

इस दुष्प्रचार मुहिम के जवाब में भाकपा(माले) ने भी कई प्रचार-सामग्रियां निकालीं, जिनमें एक बुकलेट ‘यह जंग जरूर जीतें’ (1998) भी शामिल थी. इस बुकलेट में पार्टी ने बताया था कि भूस्वामियों और यहां तक कि बड़े गल्ला व्यापारियों को भी ‘किसान’ कहने और खेत मजदूरों को इन्हीं ‘किसानों’ के साथ एकता बनाने का आह्नान करने के जरिये रणवीर सेना और उसके पैरोकार, और यहां तक कि शासकवर्गीय पार्टियां भी वस्तुतः उत्पीड़क वर्गीय एवं जातीय श्रेणीक्रम तथा अत्याचार को वैध ठहराने की कोशिश कर रहे हैं. जब तक खेत मजदूर भूस्वामियों के मातहत बने रहना कबूल करेंगे, तब तक ‘शांति’ भी बनी रहेगी; लेकिन ज्यों ही वे अपनी स्वतंत्र पहचान बनायेंगे और अपने अधिकार व मर्यादा की मांग करेंगे, तो उन्हें नृशंस सामंती प्रतिक्रिया झेलनी पड़ेगी.

उस पुस्तिका में यह स्मरण कराया गया था कि किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद सरस्वती, जिनकी विरासत रणवीर सेना हड़पने की कोशिश कर रही थी, ने 1943 में हजारीबाग जेल के अंदर ‘खेत मजदूर’ नामक एक किताब लिखी थी. स्वामी सहजानंद ने जोर देकर कहा है कि किसान सभा को खेत मजदूरों की बुनियाद पर खड़ा होना होगा. उनके शब्दों में, “खेत मजदूर ही खेती की आत्मा हैं.” ब्रह्मेश्वर सिंह के ‘किसान’ वे हैं जो फ्खेती की आत्मा” यानी गरीब किसानों और खेत मजदूरों का जनसंहार करते हैं. रणवीर सेना भूस्वामियों और बड़े व्यापारियों की निजी सेना है, और किसानों के साथ उसका दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है.