बाथे न्यायादेश आने के बाद न्यायमूर्ति (अवकाशप्राप्त) अमीर दास, जिनकी अध्यक्षता में गठित जांच आयोग को बाथे जनसंहार के बारे में तथा रणवीर सेना के राजनीतिक रिश्तों के बारे में जांच-पड़ताल करनी थी, ने कहा कि “बाथे जनसंहार के मुख्य षड्यंत्रकारी आज बिहार की सत्ता में बैठे हुए हैं.”

यह सबको मालूम था कि रणवीर सेना को भाजपा और संघ परिवार का समर्थन प्राप्त है. रणवीर सेना द्वारा किये गये बथानी जनसंहार के बारे में 1996 में बिहार विधानसभा में चली बहस के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने रणवीर सेना द्वारा जारी एक पर्चा पेश किया था, जिसमें भाजपा के उम्मीदवारों को वोट देने की अपील की गई थी. बथानी टोला जनसंहार के बाद गठित एक केन्द्रीय जांच दल ने पाया कि मोकामा के राजद विधायक दिलीप सिंह ने रणवीर सेना को अत्याधुनिक हथियारों की आपूर्ति की थी. बाथे जनसंहार के बाद हुए आक्रोशपूर्ण प्रतिवादों तथा रणवीर सेना को राजनीतिक समर्थन मिलने के चैतरफा आरोपों की पृष्ठभूमि में राबड़ी देवी की सरकार ने रणवीर सेना के राजनीतिक रिश्तों की जांच के लिये न्यायमूर्ति अमीर दास आयोग का गठन किया था.

इस आयोग ने खुद सरकार की ओर से आवश्यक सहयोग न मिलने की शिकायत की थी. वर्ष 2006 में, जब यह आयोग अपनी अंतिम रिपोर्ट तैयार करने वाला था, और उसने अपने कार्यकाल में अंतिम विस्तार के लिये निवेदन किया, तभी नई-नई सत्ता में आई नीतीश कुमार की अगुवाई वाली जद(यू)-भाजपा सरकार ने अपने पहले चंद फैसलों में ही इस आयोग को भंग कर दिया.

न्यायमूर्ति अमीर दास के मुताबिक उनकी रिपोर्ट में स्पष्ट प्रमाण थे कि विभिन्न राजनीतिक खेमों के 42 नेताओं के साथ ‘सेना’ का संबंध था. इनमें से अधिकांश नेता भाजपा और जद(यू) के थे, किंतु कुछ नेता राजद और कांग्रेसी खेमे से भी आते थे. इनमें से कुछ तो बड़े नेता भी थे, जैसे कि भाजपा नेता और बिहार के वर्तमान उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं वर्तमान भाजपा राज्य अध्यक्ष सीपी ठाकुर तथा भूतपूर्व राजद मंत्री शिवानंद तिवारी, जो फिलहाल जद(यू) के प्रवक्ता बने हुए हैं.  

नीतीश सरकार ने भूमि सुधार के अपने चुनावी वादों और ‘महादलित’ व ‘अति-पिछड़ा’ प्रेम की अपनी जुमलेबाजी को खुद ही तार-तार करते हुए जद(यू)-भाजपा के परम्परागत सामंती आधार के प्रति अपनी मौलिक निष्ठा को ही उजागर किया. उन्होंने अमीर दास आयोग को भंग करके तथा खुद की सरकार द्वारा गठित भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को कूड़ेदान में फेंककर अपनी इस निष्ठा का प्रदर्शन किया. नीतीश कुमार के बिहार में अमौसी जनसंहार के मामले में 10 महादलितों को फांसी की सजा सुनाई जाती है, लेकिन दलितों और ग्रामीण गरीबों पर सामंती जुल्म ढाने वालों को खुला छोड़ दिया जाता है. फारबिसगंज में गरीब मुसलमानों के प्रति पुलिस ने जिस तरह से नफरत का इजहार किया, उसने बथानी टोला की याद दिला दी।

विडम्बना यही है कि जो ताकतें रणवीर सेना के रूप में मध्ययुगीन बर्बरता और सामंती प्रतिक्रिया को संरक्षण दे रही हैं, वे ही आज सत्ता पर काबिज हैं और काॅरपोरेट मीडिया उन्हें ‘विकास’ और ‘प्रगति’ का मसीहा बता जश्न मना रहा है। महादलित सशक्तिकरण और काॅरपोरेट ‘विकास’ के छद्म आवरण में छुपे भाजपा- जद(यू) गठजोड़ के असली चेहरे को बथानी टोला उजागर कर रहा है.

पटना हाइकोर्ट का न्यायादेश : मरा गवाह ही सही गवाह है

बथानी टोला जनसंहार के तमाम आरोपियों को बरी करते हुए 16 अप्रैल के अपने न्यायादेश में पटना हाइकोर्ट ने बारम्बार यह कहा कि (जनसंहार में जीवित बच गये) गवाह “झूठ बोल रहे हैं” और “कहानियां गढ़ रहे हैं”, तथा वे “अविश्वसनीय” और “पूरी तरह से गैर-भरोसेमंद हैं.”

न्यायादेश में एक जगह पर कहा गया है (देखें बाॅक्स) कि गवाह ने भाग कर झाड़ी या गड्ढे में छिपने का दावा किया है. लेकिन न्यायादेश के अनुसार जांच अधिकारी ने वहां कोई झाड़ी या गड्ढा नहीं देखा. न्यायादेश पूछता है कि अगर हम मान लें कि हमलावर सबको मार देने के लिये वहां आये थे, तो क्या उन लोगों ने इन गवाहों को भी ढूंढ कर नहीं मार डाला होता?

न्यायादेश का तात्पर्य है: चूंकि ये लोग जिंदा हैं, अतः हमें यह मानना चाहिये कि ये लोग झूठ बोल रहे हैं कि वे घटना के गवाह रहे हैं. दूसरे शब्दों में, न्यायादेश का विचार है कि किसी भी जनसंहार में मारे गये लोग ही सच्चे गवाह हो सकते हैं, मृत पुरुष और स्त्री कोई कहानी नहीं गढ़ते और वे न्यायालय में कोई साक्ष्य भी प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं.

न्यायादेश के मुताबिक जनसंहार में जो लोग जिंदा बच गये, वे परिभाषा से ही अविश्वसनीय और संदिग्ध गवाह हैं, क्योंकि अगर वे सचमुच वहां मौजूद थे और जनसंहार होते देख रहे थे तो आखिर वे इस कहानी को बताने के लिये जिंदा कैसे बच गये? अगर वे मार दिये जाते, तभी उन्हें सच्चा और विश्वसनीय माना जा सकता था.

इस अकाट्य तर्क के आधार पर, जनसंहार के लिये भला किसी को सजा दी जा सकती है?

न्यायादेश में यह जरूर कहा गया है कि “असली मुजरिम बच गये, तो उसकी वजह जांच अभिकर्ता और प्रशासन है.” लेकिन, चश्मदीद गवाहों ने जिन आरोपियों के नाम बताये, उनकी निर्दाेषता के बारे में संदेह का एक कण भी न्यायादेश में मौजूद नहीं था. न्यायादेश का कहना है कि “लोगों को झेलना पड़ा, उनके परिवारों को काट डाला गया और अपराधियों को सजा के रूप में उन्हें कोई सांत्वना भी नहीं दी जा सकी. इसकी वजह गलत-सलत जांच और अभियोजन पक्ष है.” लेकिन, खुद न्यायादेश में इस बात को जानबूझकर भुला दिया गया है कि वे पीड़ित परिवार ही तो गवाह के रूप में खड़े हैं. इन पीड़ितों और बच गये शोकाकुल लोगों को “पूरी तरह से गैर-भरोसेमंद गवाह” बताकर न्यायादेश ने एक तरह से उनके जख्मों पर नमक ही छिड़का है, और उन्हें इस न्यायादेश द्वारा बरी किये गये अपराधियों द्वारा बदले की कार्रवाई के सामने बिल्कुल असहाय छोड़ दिया है.

न्यायादेश में कहा गया है कि अभियोजन और चश्मदीद गवाह, दोनों समान रूप से जाली हैं: और उन्होंने निर्दोष लोगों को फंसाने की साजिश की है. गवाह उसी प्रकार बोल रहे थे मानों वे खुद कठघरे में खड़े हों.

वस्तुतः, यह न्यायादेश चश्मदीद गवाहों द्वारा नामित तीन मुजरिमों से क्षमा मंगवाने की हद तक चला जाता है, जब न्यायादेश में दावा किया जाता है कि ये मुजरिम घटना के समय तरुण थे, मगर इतने साल उन्हें जेल में बिताने पड़े और मौत की सजा भी सुननी पड़ी.

अब, बथानी टोला की जमीन पर इस न्यायादेश का क्या असर होगा?

और जिन आरोपियों को बरी किया गया है, उनका मनोबल क्या न्यायादेश में अंतर्निहित इस संदेश से बढ़ेगा नहीं: कि अब वे उन चश्मदीद गवाहों से, जिन्होंने उन्हें जेल भिजवाने का काम किया था, अपने प्रति किये गये अन्याय का बदला लेने के लिये स्वतंत्र हैं?