कुछेक वर्ष पहले, जब अनर्थकारी वित्तीय संकट ने पूंजीवादी विश्व व्यवस्था पर चोट की थी और वह द्रुतगति से महामंदी में रूपांतरित हो गया था, तो हमने “संकट में पूंजी: कारण, तात्पर्य और सर्वहारा का जवाब” शीर्षक से एक छोटी पुस्तिका प्रकाशित की थी.

इस परचे का शुरूआती वाक्य था “पूंजीवाद ने संकटों में और संकटों के जरिये जीना सीख लिया है, लेकिन उनमें से कुछेक संकट युगांतकारी होते हैं. 1930 के दशक की महामंदी इसी किस्म की चीज थी. क्या वर्तमान में जो संकट प्रकट हो रहा है वह दूसरी महामंदी साबित होगा?” हमारा इशारा तो यही था कि ऐसा ही होने वाला है, और हमने वहां वरिष्ठ नोबेल पुरस्कार विजेता पाॅल सैमुअल्सन को उद्धृत किया था, “पूंजीवाद के लिये यह वैसी ही पराजय है जैसी पराजय सोवियत संघ का पतन कम्युनिज्म के लिये थी”. मगर पहले की कई उथल-पुथल के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए -- जैसे 2000 के दशक में डाॅटकाॅम बुलबुले का फटना, जो हमारे सामने वैश्विक प्रणालीगत संकट का अंदेशा तो लाया था, मगर अंततः वैसे संकट में रूपांतरित नहीं हुआ. हमने उस शुरूआती मंजिल में एकदम निर्दिष्ट निर्णय पर पहुंच जाने की इच्छा पर अंकुश लगाया.

लेकिन आज पिछले चार वर्षों के अनुभवों से प्राप्त साक्ष्यों के बल पर हम यह कह सकते हैं कि हां, यह एक युगांतकारी संकट है. इस लिहाज से कि वर्तमान नवउदारवादी प्रणाली में पूंजीवादी संचय के ढांचे और उसकी रणनीतियां संकट में हैं, और वे जिस तरह से 1980 के दशक में काम आ रहीं थीं उस तरह से काम आने में स्थायी रूप से विफल हो रही हैं. इसी लिहाज से हमने और भी विशेष रूप से इसका नाम नवउदारवाद का संकट रखा है और इसी के अनुसार हमने मार्कस और लेनिन से आरम्भ करते हुए बाद के समय के मार्कसवादियों और गैर-परम्परागत (मुख्यधारा के बाहर) अर्थशास्त्रियों की रचनाओं से काफी कुछ ग्रहण करते हुए अपने विश्लेषण के क्षितिज का विस्तार किया है. जहां पिछले परचे में विकसित होते संकट के जरिये पैदा होने वाले जनता के संघर्षों पर संक्षिप्त रूप से ही प्रकाश डाला गया था, वहीं प्रस्तुत आलेख में हमने यह सीखने की भी कोशिश की है कि वर्ग संघर्ष के गति-विज्ञान ने कैसे इतिहास के हर ढांचागत संकट के बाद होने वाले सुधार अथवा ढांचागत पुनर्गठन की विशिष्ट प्रक्रिया पर महत्वपूर्ण रूप से असर डाला -- या आप कह सकते हैं कि उसका अति निर्धारण किया है. उदाहरणार्थ, 1930 के दशक के जोशीले अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में अमरीकी मजदूर वर्ग की बहादुराना लड़ाइयों ने पूंजीपति वर्ग को ‘न्यू डील’ अपनाने को मजबूर किया था और कैसे एक विपरीत राजनीतिक परिदृश्य में मजदूर संघर्षों को लगे धक्कों ने 1970 के ढांचागत संकट के बाद नवउदारवादी “ढांचागत पुनर्गठन” का रास्ता साफ कर दिया. हमने सोचा कि वर्तमान संकट के वर्गीय आयामों, राजनीतिक तात्पर्यों और संभावित नतीजों की समझदारी हासिल करने -- ऐसी समझदारी जिसके बिना हम दुनिया की आबादी के 99 फीसदी लोग, 1 प्रतिशत लोगों के खिलाफ अपने हितों को आगे बढ़ाने हेतु “संकट का इस्तेमाल” (सामिर अमीन के शब्दों में) नहीं कर सकते -- के लिये ऐसी समीक्षा करना आवश्यक है.

साम्राज्यवाद के जमाने में, जिसे लेनिन ने वित्तीय पूंजी के प्राधान्य वाले मरणासन्न एकाधिकारी पूंजीवाद के बतौर परिभाषित किया था, हमें प्राप्त होने वाला वैश्विक अनुभव व्यापार चक्रों और पूंजीवादी संकट के बारे में मार्कसवादी-लेनिनवादी व्याख्या की प्रतिभाशाली ढंग से पुष्टि करता है. हम आशा करते हैं कि प्रस्तुत प्रकाशन, जिसमें पूर्व में आरम्भ की गई चर्चा को अद्यतन रूप दिया जायेगा और उसके आयामों का विस्तार किया जायेगा, हमारे कार्यकर्ताओं और प्रेक्षकों को आर्थिक संकट एवं उसके राजनीतिक तात्पर्यों की अधिक गहरी समझ हासिल करने में मदद करेगा.