सामान्य रूप से पूंजीवादी दौर की ही भांति साम्राज्यवाद अथवा एकाधिकारी पूंजीवाद (जिसे लेनिन ने साम्राज्यवाद की आर्थिक अंतर्वस्तु के बतौर चिन्हित किया था) के युग में या फिर उससे अधिक, एकाधिकारी वित्तीय पूंजीवाद (स्वीजी और बरान द्वारा दी गई संज्ञा) के द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर युग में संकटों ने कई नई चारित्रिक विशेषताएं ग्रहण कर ली हैं, जिसके चलते हमारे लिये मार्कस से आगे बढ़ना और पिछले सौ वर्षों के दौरान हासिल अनुभव की रोशनी में अपनी समझदारी को समृद्ध करना जरूरी हो गया है.

दो किस्म के संकट

कोई संकट या तो (अ) सांयोगिक/प्रसंगवश हो सकता है या फिर (ब) ढांचागत/प्रणालीगत हो सकता है. सांयोगिक संकट व्यवस्था के केवल कुछेक हिस्सों या खास-खास परिक्षेत्रों -- जैसे कि वित्तीय अथवा वाणिज्यिक -- अथवा उत्पादन की किसी खास शाखा को, अथवा देशों के खास समूह को प्रभावित करता है. वह नाटकीय रूप से गंभीर भी हो सकता है. उदाहरणार्थ 1990 के दशक का दक्षिण एशियाई विगलन (मेल्टडाउन) या फिर वर्तमान शताब्दी के पहले दशक में डाॅटकाॅम बुलबुले का विस्फोट -- मगर फिर भी उसका आंशिक उपायों के जरिये, पूंजी संचय के मौजूदा तौर-तरीकों और ढांचों को ज्यादा उलट-पुलट किये बिना ही, अस्थायी अथवा आंशिक तौर पर समाधान किया जा सकता है. ऐसे संकट “विशाल गरजते तूफानों” (मार्कस के शब्दों में) की तरह हैं, जिनके जरिये वे अपने संकट का भार-विसर्जन और “समाधान” कर सकते हैं, जिस हद तक दी हुई स्थितियों में ऐसा करना सम्भव हो. ऐसा इसलिये संभव होता है क्योंकि वे फौरी मायनों में स्थापित वैश्विक ढांचे की चरम सीमाओं को कोई चुनौती नहीं देते. मगर संकट की गहराई में जमे बैठे पूंजीवाद के ढांचागत अंतरविरोध अगले उग्र विस्फोट की शक्ल में एक बार फिर अपना असर दिखलाने का इंतजार करते रहते हैं. इस प्रक्रिया में एक ऐसा बिंदु आता है जहां इन अंतर्विरोधों का सतही उपायों से कोई तदर्थ समाधान हो ही नहीं पाता और उनका क्रमशः संचित होने वाला असर खुद को किसी ढांचागत संकट के रूप में जाहिर करता है.  ऐसे संकट के रूप में जो स्वभाव में सार्वभौमिक है (यानी अंतर्राष्ट्रीय अर्थतंत्र के सभी अनुभागों को समान रूप से प्रभावित करता है) और जिसका दायरा वैश्विक है (जो किसी भी देश या अंचल को अपने प्रभाव से मुक्त नहीं रखता). हम जिस संकट में जी रहे हैं वह इसी किस्म का संकट है. यह संकट ‘बुनियादी ढांचे’ को, पूंजीवादी व्यवस्था को उसकी ‘सम्पूर्णता’ में और उसके हृदयस्थल को प्रभावित करता है ऋ और हमारे समय में उसका हृदय वर्चस्वशाली वित्तीय परिक्षेत्र में स्थित है.

गरजते तूफानों जैसे सांयोगिक संकट की तुलना में, ज्यादा संभव है कि किसी ढांचागत संकट का ‘समय-पैमाना’ अपेक्षाकृत कम तात्कालिक अथवा आक्षेपकारी हो और कहीं ज्यादा विस्तारित और दीर्घकालिक हो; और उसके ‘प्रकट होने की प्रणाली’ को ‘रेंगना’ कहा जा सकता है ऋ हालांकि उसकी शुरूआत वर्ष 2008 में लेहमन ब्रदर्स एवं अन्य बड़ी-बड़ी कम्पनियों के पतन और “महामंदी” के पूर्व आने वाले विराट ध्वंस” जैसे उग्र विस्फोटों से हो सकती है.