विनाशकारी युद्ध के द्वारा नवसृजित विस्तार की गुंजाइश दो या तीन दशकों में थक कर चुक गईं. 1960 के दशक के अंतिम वर्षों से, और खासकर तेल के धक्के (1973) के बाद, जिसने उत्पादन की लागतों में काफी इजाफा कर दिया, अति-उत्पादन, अतिरिक्त पूंजी, मुनाफे की लगातार गिरती दरें जैसी पुरानी बुरी बीमारियां फिर से उभरने लगीं. जापान और नव-औद्योगीकृत देशों की कम्पनियों के साथ प्रतियोगिता में हुई वृद्धि के सामने अमरीका और यूरोप के नियोक्ताओं ने अपनी श्रम-लागत में कटौती करने की कोशिश की, जिसकी वजह से श्रम और पूंजी के बीच की झड़प तेज हो गई. शासक वर्ग ने प्रत्यक्ष रूप से (उदाहरणार्थ, हड़तालों को कुचलकर और ट्रेड यूनियन अधिकारों में कटौती करके) और परोक्ष रूप से (उदाहरणार्थ, व्यापार ऋण, प्रत्यक्ष सब्सिडी, कारपोरेशनों और अमीरों के लिये करों में कटौती इत्यादि के जरिये राजकोष से धनराशि को निजी क्षेत्र में स्थानांतरित करके और सार्वजनिक सेवाओं का निजीकरण करके -- जिसने पूंजीपतियों को अपनी अतिरिक्त धनराशि के निवेश का अवसर भी प्रदान किया आदि उपायों से) दोनों तरीके से हमलावर स्थिति अख्तियार कर ली जैसा कि हम जल्द ही देखेंगे.

नवउदारवाद और उसकी बारीक विशेषताएं

यह लगभग वही समय था जब 1980 के दशक के मध्य से शुरू करके, उदारवाद -- सामाजिक नियंत्रण से पूंजी की निरपेक्ष स्वतंत्राता का सिद्धांत -- एक नये ऐतिहासिक संदर्भ में एक नया आकार लेकर प्रतिशोध चुकाने के अंदाज में वापस आया. इस नये ऐतिहासिक संदर्भ की विशेषता थी धीरे-धीरे (क) यूरोप में कल्याणकारी राज्य/ सामाजिक जनवाद का पीछे हटना (ख) “यथार्थतः अस्तित्वमान समाजवादों” का पीछे हटना (ग) तीसरी दुनिया के कुछेक देशों में राष्ट्रवाद के सम्मिश्रण वाले अर्थतंत्रों का पीछे हटना. नवउदारवादी पूंजीवाद का जन्म हुआ. शुरूआत में इसे रीगनामिक्स (रीगन का अर्थशास्त्र) और थैचरवाद कहा जाता था और अमरीका एवं इंगलैंड से आरम्भ करके विकसित अर्थतंत्रों से होते हुए लैटिन अमेरिका से लेकर दुनिया के बाकी देशों में पहुंच गया. पूंजी को जिस किसी चीज की जरूरत पड़ी, उसे जायज ठहराने के लिये मुद्रावाद (माॅनेटरिज्म), आपूर्ति-पक्षीय अर्थशास्त्र (सप्लाई-साइड इकनाॅमिक्स), ट्रिकल-डाउन सिद्धांत (पहले ऊंचे पायदान पर खड़े लोग तेजी से अमीर बनेंगे, फिर सम्पदा रिस-रिसकर निचले पायदान तक भी पहुंचेगी; इसलिये समता लाने के बजाय केवल वृद्धि की ही चिंता की जानी चाहिये) का इस्तेमाल किया गया. यहां तक कि प्रणाली का नाम भी सुपरिचित शब्द पूंजीवाद -- जो बहुत सरल शब्द है फिर भी सब कुछ साफ व्यक्त कर देता है -- से बदलकर अस्पष्ट और वैचारिक रूप से ढका हुआ शब्द “मुक्त बाजार” या “बाजार प्रणाली” रखने की कोशिश की गई. इस सम्पूर्णतः धोखाधड़ी भरी आर्थिक प्रणाली के साथ-साथ, वह चीज उभरी जिसे जाॅन केनेथ गालब्रेथ ने अपनी अंतिम किताब के शीर्षक के बतौर कहा है “द इकनाॅमिक्स आॅफ इनोसेन्ट फ्राड” (मासूम दगाबाजी का अर्थशास्त्र, 2004).

अति-धनाढ्यों के लिये सुनहरे दौर के दो दशकों से अधिक समय बीत जाने के बाद वित्तीय प्रणाली, जो मुख्यतः नियंत्रण-मुक्त थी, ढह गई और उसने वैश्विक अर्थतंत्र को भी अपने साथ खींच लिया. इसके लिये जिम्मेवार सबसे विशिष्ट कारण को विकसित अर्थतंत्रों में नवउदारवाद के तीन सर्वाधिक प्रत्यक्ष लक्षणों में खोजा जा सकता है -- उत्पादन एवं उससे जुड़ी सेवाओं का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थानांतरण एवं पुनर्गठन; विशालकाय कर्ज के फंदे जिनकी गिरफ्त में व्यक्तिगत उपभोक्ता के साथ-साथ राष्ट्र भी फंसे हैं; उत्पादक परिक्षेत्र में ठहराव से बच निकलने के एक रास्ते के बतौर वित्तीयकरण पर, तथा वृद्धि को उत्तेजना प्रदान करने वाले रसायनों के बतौर परिसम्पत्ति के बुलबुलों पर अभूतपूर्व निर्भरता. ये वे प्रमुख कारक हैं जिन्होंने सर्वप्रथम लगभग तीन दशकों तक आर्थिक विस्तार को बढ़ावा दिया और उसके बाद भीषण संकट को जन्म दिया. आइये, हम इन कारकों की, महज संक्षिप्त रूपरेखा के बतौर, चर्चा करें.

सर्वप्रथम, ऊपर वर्णित स्थानांतरण -- जो पूंजी, उत्पादन प्रक्रियाओं और बाजारों के तीव्र होते वैश्विक एकीकरण, संक्षेप में कहा जाय तो वैश्वीकरण, का एक संघटक अंग है -- ने पार-राष्ट्रीय निगमों के लिये भारी मुनापफे की प्राप्ति को सुनिश्चित किया, लेकिन इसने विकसित पूंजीवादी देशों में बहुसंख्या के लिये भीषण बेरोजगारी और आपेक्षिक वंचना को भी जन्म दिया. आर्थिक विषमता और तेजी से बढ़ी, क्योंकि मुनाफों में वृद्धि हुई जबकि मजदूरों की वास्तविक मजदूरी में गिरावट आई. वर्ष 1979 से लेकर 2007 तक की अवधि में, अमरीका में गैर-निरीक्षकीय (नाॅन-सुपरवाइजरी) कामों में नियुक्त मजदूरों के, मुद्रास्फीति के अनुसार संशोधित प्रति घंटे वेतन में 1 प्रतिशत की गिरावट आई, जबकि गैर-वित्तीय कर चुकाने के बाद, मुद्रास्फीति के अनुसार संशोधित, प्राप्त काॅरपोरेट मुनाफों में उल्लेखनीय 255 प्रतिशत की वृद्धि हुई. उमड़ते मुनाफों ने पूंजीपतियों को खुश कर दिया, मगर उसने ही समस्या को भी जन्म दिया -- आर्थिक विस्तार के साथ बढ़ते उत्पाद को खरीदेगा कौन?

इस समस्या का “समाधान” खोज निकाला गया आसानी से मिलने वाले ऋण और गैर-भरोसेमंद (सबप्राइम) कर्ज में. जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थानों ने इन तरीकों को अपनाकर काफी मुनाफा कमाया था, जबकि कर्ज ली गई धनराशि से आम आदमी द्वारा की जाने वाली खरीदारी से मालों और सेवाओं के बाजारों को बुलंद रखा गया था. यही नवउदारवादी पूंजीवाद का दूसरा चारित्रिक लक्षण है. वस्तुतः साख (ऋण) का विस्फोट और विस्तारित होते वित्तीय परिक्षेत्र का लगभग सम्पूर्ण वर्चस्व. बड़े मैन्युफैक्चरिंग व्यवसायों का तेजी से विविधीकरण हुआ और उनके दायरे में बैंकिंग, बीमा, भू-सम्पदा कारोबार, बेतार संचार इत्यादि सभी शामिल हो गये, जो उनके मुनाफे का मुख्य स्रोत बन गया. लेनिन ने अपने समय में इस किस्म की प्रवृत्तियों की शुरूआत को दर्ज किया था, मगर अब इन प्रवृत्तियों ने अभूतपूर्व पैमाना ग्रहण कर लिया है.

अमरीका में वर्ष 1999 में ग्लास-स्टीगाल ऐक्ट को रद्द करना (इस कानून को 1930 के दशक के संकट के चलते पारित किया गया था और इसमें आम किस्म की वाणिज्यिक बैंकिंग के साथ निवेश बैंकिंग के कहीं ज्यादा जोखिमभरे कार्यकलापों के सम्मिश्रण को प्रतिबंधित कर दिया गया था) वित्तीय परिक्षेत्र को लगभग सम्पूर्णतः नियंत्रण-मुक्त किये जाने का प्रतीक था. वित्तीय परिक्षेत्र अत्यधिक जटिल, अपारदर्शी और दुर्दमनीय हो चुका था, जिसमें विशालकाय बैंक एवं वित्तीय संस्थान पहले से कहीं ज्यादा जोखिमभरी गतिविधियां चला रहे थे. कई राष्ट्रों को भी बिना बिचारे ढेर सारा कर्ज दे दिया गया, जिसकी वजह से सार्वभौम (साॅवरेन) ऋण संकट उत्पन्न हो गया. अमरीका ने उधार के जरिये अपनी वृद्धि को अंजाम दिया और नवउदारवादी युग आने के बाद से वह दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश बन नया. आजकल अमरीका को अपनी राष्ट्रीय आय का लगभग 8 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा सूद चुकाने के एवज में खर्च करना पड़ रहा है, और आशंका है कि सूद चुकाने पर यह खर्च 2010 के दशक के अंत तक बढ़ते-बढ़ते जाकर 17 प्रतिशत हो जायेगा.

नवउदारवादी पूंजीवाद का तीसरा लक्षण रहा है “ठहराव-वित्तीयकरण का फंदा”जॉन बेलामी फॉस्टर और रॉबर्ट डब्लू मैकचेस्नी. “द एंडलेस क्राइसिस”, मंथली रिव्यू प्रेस. (स्टैग्नेशन-फिनांशियलाइजेशन ट्रैप), जिसके मुताबिक परिसम्पत्ति के वृहदाकार बुलबुलोंपरिसम्पत्ति के बुलबले का सृजन तब होता है जब सट्टे वाली खरीद के चलते किसी खास परिसम्पत्ति, जैसे भूसम्पदा, की कीमतों में बेशुमार इजाफा कर देती है. जो उसके वास्तविक आर्थिक मूल्य से बहुत अधिक होता है. की एक  शृंखला, उदाहरणार्थ वर्ष 2000 का डाॅटकाॅम बुलबुला और उसके बाद भूसम्पत्ति कारोबार का बुलबुला, अस्थायी तौर पर ठहराव पर जीत हासिल करने में मदद करती है, पर उसके बाद बुलबुला फूट जाता है.

बहुत पहले, अमरीकी अर्थशास्त्री हायमैन मिन्स्की ने सूत्रबद्ध किया था कि सस्ता ऋण और आसानी से प्राप्त होने वाली तरल मुद्रा एक परिसम्पत्ति-कीमत बुलबुले के बीज रोप देगी और जब अपरिहार्य रूप से विध्वंस (क्रैश) आयेगा तो कारोबार और परिवार अति-ऋणग्रस्तता की स्थिति (ओवरबाॅरोड सिचुएशन) में खुद को फंसा पायेंगे. कुल मिलाकर कहा जाय तो ऐसा ही हुआ. वर्ष 2000 का भू-सम्पत्ति या आवासीय कारोबार के बुलबुले ने अनुमानित रूप से 8,000 अरब डाॅलर की बुलबुले के रूप में फूले भूसम्पत्ति मूल्य का सृजन किया था, जो अमरीका के तमाम आवासों के बाजार मूल्य का लगभग 40 प्रतिशत था. इस भूसम्पत्ति के बुलबुले ने “फर्जी” सम्पदा का सृजन किया जिसने लोगों को बैंक से कर्ज लेने योग्य बनाया जिससे वे अपने अपने आवास को सिक्योरिटी के बतौर रखकर अपनी देयराशि (बिलों) का भुगतान कर सकें. पारिवारिक ऋण बढ़ता ही गया, और वह वर्ष 1982 में पारिवारिक आय के काबू में रखने योग्य 59 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2007 में बेकाबू 126 प्रतिशत तक पहुंच गया. उसके बाद ताश का महल भहराकर गिर पड़ा. बैंकों की हजारों अरब डाॅलर की धनराशि लोभनीय परिसम्पत्तियों के रूप में थी, जिनका मूल्य आवासीय कीमतों के भहराकर गिरने के साथ-साथ छूमंतर हो गया -- अचानक वे दिवालिया हो गये. अचानक मेहनतकश लोग ऐसी स्थिति में फंसे कि उन्हें कोई कर्ज नहीं मिलेगा, बल्कि वर्ष 2008 में उन्हें अपने कर्ज का भुगतान शुरू करना पड़ा, और इस प्रकार उनकी क्रयशक्ति सीधे नीचे गिर गई, जिसकी वजह से गहरा आर्थिक पतन आया और एक विराट आकार के संकट का आरंभ हो चुका था.