(लिबरेशन, मार्च 1990)

मानव इतिहास 1990 के दशक में प्रवेश कर चुका है. पिछले दशक का अंतिम वर्ष समाजवादी देशों के लिए, खासकर पूर्वी यूरोप के देशों के लिए भूकंपकारी घटनाओं का वर्ष साबित हुआ. पूंजीवादी विश्व इन घटनाओं पर खुशियां मना रहा है और पूंजीवादी प्रचार माध्यमों ने बड़े ही योजनाबद्ध ढंग से, शायद इस सदी में तीसरी बार, ऐलान किया है कि कम्युनिस्ट दम तोड़ चुका है. हर जगह के बुद्धिजीवी ढुलमुलाने लगे हैं और कम्युनिस्ट पार्टियों से निकल भागने लगे हैं. इस परिघटना का असर हमारी पार्टी पर भी पड़ा है और विलोपवादी प्रवृत्ति जो कल सीपीआई(एमएल) की प्रासंगिकता पर सवाल उठा रही थी उसने आज खुद मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान पर शंकाएं करनी शुरू कर दी है. इस प्रवृत्ति से चिपके लोग आज अपने-आपको कम्युनिस्ट कहने में शर्म महसूस करते हैं और ‘जनवादी’ कहलाना बड़ा पसंद करते हैं. इन परिस्थितियों में तमाम सच्चे कम्युनिस्टों का यह कर्तव्य हो जाता है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद की पताका को बुलंद करें, उदारवादी पूंजीवादी सर्किल के हमलों से उसकी रक्षा करें और साथ ही साथ कम्युनिस्ट पार्टियों और समाजवादी-प्रणाली की असफलताओं की आलोचनातमक ढंग से जांच-पड़ताल करें तथा इन नए सवालों का जवाब देने के लिए और इन नई चुनौतियों का सामना करने के लिए मार्क्सवादी-लेनिनवादी विज्ञान को समृद्ध करें.

सीपीआई(एमएल) की मान्यता ही तर्कसंगत

सीपीआई और सीपीआई(एम) कल सूरज डूबने तक सोवियत और पूर्वी यूरोप की समाजवादी संरचनाओं को अनुकरणीय मानते थे और उनकी प्रशंसा के गीत गाना अपना धर्म समझते थे. इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के विपरीत सीपीआई(एमएल) अपने जन्म के समय से ही इन संचरनाओं की जबर्दस्त आलोचक रही है. निस्संदेह उनकी आलोचना करने में हम सारी सीमाएं पार कर चुके थे, मगर आर्थिक व राजनीतिक जीवन में नौकरशाही विकृतियों के खिलाफ, समाजवादी जनवाद का अभाव इत्यादि के बारे में हमारी आलोचना की मूल अंतर्वस्तु इतिहास की कसौटी पर खरी उतरी है.

सीपीआई(एमएल) भारत की एकमात्र कम्युनिस्ट पार्टी थी जिसने बिना किसी लाग-लपेट के 1968 में जनविद्रोह को कुचलने के लिए चेकोस्लोवाकिया में सोवियत फौजें भेजने की, अफगानिस्तान में रूसी हमले की और कंपूचिया में रूसियों द्वारा पीठ ठोंके जाने पर किए गए वियतनामी आक्रमण की निंदा की थी. इन सवालों के बारे में अपनी उसूली स्थिति हमने कभी नहीं छोड़ी और इतिहास ने इस बात की तसदीक की है कि हम सही थे.

हमने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को उस मान्यता को मानने से इनकार कर दिया था, जब उसने एक ऐसे सोवियत-विरोधी मोर्चे का निर्माण करने की वकालत की जिसमें खुद अमेरिका और अन्य अमेरिका-परस्त शक्तियां शामिल हों. हमने बार-बार चीनी नीतियों का विरोध किया और पश्चिम के साथ समागम करते वक्त उदारवादी पूंजीवादी विचारों की आनेवाली बाढ़ के विरुद्ध विचारधारात्मक अभियान छेड़ने पर जोर दिया था.

सोवियत संघ में गोर्बाचेवी सुधारों की पृष्ठभूमि में ही, जबकि ब्रेजनेव के दौर में सोवियत की साम्राज्यवादी प्रणाली के पतन की तस्वीर सामने लाई जाने लगी, और जबकि अफगानिस्तान में फौज उतारने की नीति की फिर से आलोचनात्मक पड़ताल की जाने लगी, तभी हमलोगों ने उसे सामाजिक साम्राज्यवाद मानने की अपनी पुरानी मान्यता का पुनरावलोकन करना तय किया.

जैसा कि हमने 1987 में संपन्न अपनी चौथी पार्टी कांग्रेस में बतलाया था कि हमारी गलती ब्रेजनेव के दौर में सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था में जो मौलिक पतन हुआ था उसकी आलोचना करने में नहीं थी, अपितु पार्टी और खुद उस प्रणाली के अंदर से परिवर्तन की संभावनाओं को पूरी तरह नकार देने में थी.

तथापि हमने सोवियत संघ की अतिमहाशक्ति वाली स्थिति की आलोचना करना जारी रखा और अपनी आलोचना को साम्राज्यवाद को चटक रंगों में चित्रित करने की और तीसरी दुनिया के देशों के हितों की उपेक्षा करने की गोर्बाचेवी नीति के विरुद्ध केंद्रित किया. विलोपवादी प्रवृत्ति को माननेवाले लोग शांति के पुजारी सभ्य साम्राज्यवाद के गोर्बाचेवी सुसमाचार से बहल जाते हैं उन्हें सोवियत संघ की आलोचना में कहे गए एक लफ्ज को भी दुहराना बड़ा नागवार लगता है.

सोवियत संघ में स्तालिन के विरुद्ध पूरी तरह दुर्भावानाओं से भरा अभियान चलाए जाने के बावजूद और पूंजीवादी विश्व द्वारा रूस के ब्रेजनेवी शासन पर और उसके समकालीन तमाम पूर्वी यूरोपियन शासनों पर स्तालिनवादी होने का आरोप लगाते रहने के बावजूद हमने उनकी हां में हां मिलाने से इनकार कर दिया. हम तब भी यह मानते थे और आज भी यह मानते हैं कि स्तालिन और ब्रेजनेव के जमानों के बीच साफ-साफ फर्क किया जाना चाहिए. हम स्तालिन के माओ द्वारा किए गए मूल्यांकन से अभी भी सहमत हैं कि उनकी गलतियों का पलड़ा उनकी उपलब्धियों की तुलना में काफी हलका है.

पहले तो, रूस में समाजवाद के निर्माण के 70 वर्षों से अधिक की अवधि में स्तालिन का दौर ही सबसे अधिक राहत पहुंचानेवाला है. रूस जो एक पिछड़ा किसानों का देश था, इस दौर में विश्व के औद्योगिक देशों की अगली कतार में जा पहुंचा. यह समूचे सोवियत इतिहास में अब तक के सर्वाधिक तीव्र आर्थिक विकास का दौर है और इसी कूबत पर वह नाजियों द्वारा पूरी ताकत के साथ किए गए हमले को झेल सका. इस ऐतिहासिक दौर को अपराधपूर्ण दौर घोषित करना इतिहास की खिल्ली उड़ाना है. इसके विपरीत ब्रेजनेव का दौर चौतरफा गतिरोध का दौर था.

दूसरे, जहां तक पूर्वी यूरोपियन देशों का सवाल है तो यह सच है कि वहां के कम्युनिस्ट शासन रूसी लाल सेना की ताकत पर स्थापित हुए थे, मगर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उन दिनों पूर्वी यूरोपियन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियां अपने विकास के दौर में थीं और उनके नेतृत्व में बने जनमोर्चे ही नाजी सत्ता का प्रतिरोध करनेवाले एकमात्र संगठन थे. अधिकांश देशों की पूंजीवाद-जमींदार परस्त सरकारों ने या तो नाजियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था अथवा वे देश छोड़कर भाग गई थीं. इसके विपरीत ब्रेजनेव द्वारा चेकोस्लोवाकिया में फौज उतारने का उद्देश्य था एक अलोकप्रिय सरकार के खिलाफ हुए लोकप्रिय विद्रोह को कुचनला.

तीसरे, यह सच है कि स्तालिन के जमाने में ही सोवियत रूस और पूर्वी यूरोपियन देशों के बीच के संबंध के अतिमहाशक्ति बनाम आश्रित देशों वाला संबंध बन जाने के बीज पड़ चुके थे और अन्य पार्टियों के साथ सोवियत पार्टी का संबंध नेतृत्वकारी पार्टी बनाम नेतृत्वाधीन पार्टी का विकृत रूप धारण कर चुका था. तथापि, तब तक सोवियत संघ और सीपीएसयू की नेतृत्वकारी भूमिका को अन्य लोग लोकप्रिय तौर पर स्वीकार करते थे. इसका कारण था कम्युनिस्ट बिरादरी में सोवियत संघ और सीपीएसयू को प्राप्त अथाह सम्मान, यह कोई जबरन कायम किया गया संबंध नहीं था, जैसा कि ब्रेजनेव के जमाने में था.

चौथे, स्तालिन और उनके जमाने के कम्युनिस्ट नेताओं पर भ्रष्टाचार, अय्याशी और भाई-भतीजावाद के कोई आरोप नहीं लगे, जबकि ब्रेजनेव और पूर्वी यूरोप के उनके तमाम अनुयाइयों पर ये आरोप बड़े जोरशोर से लगाए जा रहे हैं.

हमें ऐसा नहीं लगता कि ट्राटस्की अथवा बुखारिन के सिद्धांत तत्कालीन स्थितियों में रूस को समाजवाद के निर्माण के इर्द-गिर्द भी ले जा पाते. स्तालिन के जमाने में जो सबसे संजीदा गलती हुई है वह है अंतःपार्टी संघर्षों में गंभीर विकृतियां पैदा हो जाना, जिसका नतीजा हुआ पार्टी संस्थाओं के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की कीमत पर स्तालिन के गिर्द व्यक्ति-पूजा का विकास. इसका तार्किक नतीजा हुआ पार्टी और सरकार के सरपरस्तों का नौकरशाहों जैसा बन जाना. अर्थव्यवस्था को जरूरत से ज्यादा केंद्रीकरण से भी इस प्रक्रिया को बल मिला. फलस्वरूप, समाजवादी जनवादी संस्थाओं को बुरी तरह पददलित होना पड़ा. अतीत का यह पुनरावलोकन स्पष्ट करता है कि सीपीएसयू और सोवियत समाज को एक देश में समाजवाद का निर्माण करने और विश्वयुद्ध की परिस्थिति में, यह कीमत चुकानी ही पड़ती. हां, यह उम्मीद जरूर की गई कि जब परिस्थिति फिर सामान्य हुई थी तो पार्टी नेतृत्व को उन गलतियों को सुधारने पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए था. किंतु ब्रेजनेव के दौर में भी उन गलतियों को, जो इतिहास की एक शोकांतिका थी, हू-ब-हू दुहराते रहा गया – भांड़ों की तरह भड़ैती करते हुए, स्वांग रचाते हुए.

हम इस सिद्धांत को मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि पूर्वी यूरोप के इस प्रलय की जड़ें वहां कम्युनिस्ट पार्टियों के सत्ता में आने की ‘अस्वाभाविक प्रक्रिया’ में निहित हैं, इस तर्क को थोड़ा ही आगे बढ़ाने से सोवियत और चीनी समाजवादी समाजों की स्थापना-प्रक्रिया भी ‘अस्वाभाविक’ प्रतीत होगी, क्योंकि वे साजवादी क्रांतियों के सर्वोच्च विकसित पूंजीवादी देशों में सबसे पहले होने की मार्क्स की भविष्यवाणियों से पूरी तरह मेल नहीं खाती हैं.

हम लेनिन की इस उक्ति को मानते रहे हैं और आज भी मानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों को राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने का जब कभी अवसर मिले उसे चूकना नहीं चाहिए, राजनीतिक सत्ता पर निस्संदेह कब्जा कर लेना चाहिए और समाज का पुनर्निर्माण करना चाहिए.

सोवियत रूस, चीन अथवा पूर्वी यूरोप की विकृतियों की छानबीन सर्वहारा सत्ता के क्रियान्वयन की प्रक्रिया में की जानी चाहिए. सत्ता-प्राप्ति की प्रक्रिया में नहीं.

जरूरत से ज्यादा केंद्रीकरण और समाजवादी जनवादी संस्थाओं के कमजोर पड़ने के चलते आर्थिक और राजनीतिक जीवन में नौकरशाहाना विकृतियों का उदय होना जितना सत्य है उतना ही ध्रुव सत्य है आम तौर पर यह कहना कि खुद पार्टी और व्यवस्था के अंदर से आर्थिक पुनर्निर्माण और राजनीतिक सुधार के आंदोलन के जरिए उन गलतियों का इलाज करना भी संभव है. चीन के आर्थिक पुनर्निर्माण और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम और रूस के ग्लास्नोश्त व पेरेस्त्रोइका की सकारात्मक घटनाएं इस तथ्य का सबसे जबर्दस्त सबूत हैं.

पूर्वी यूरोपियन देशों के मामले

कम्युनिस्ट पार्टियों और समाजवादी प्रणाली में विकृतियों के अतिरिक्त भी वहां कम्युनिस्ट पार्टियों की सोवियत संघ पर भारी निर्भरता के कारण समस्याएं थोड़ा अधिक जटिल थीं तथा वहां अतिमहाशक्ति बनाम आश्रित देश जैसा संबंध कायम हो जाने के चलते रूस-विरोधी राष्ट्रवादी भावनाएं काफी सक्रिय थीं. नतीजे के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टियां जनसमुदाय से काफी अलग-थलग पड़ गई तथा चर्च का और राष्ट्रवादी भावनाओं को भुनानेवाली अन्य ढेर सारी विपक्षी शक्तियों का अभ्युदय हुआ.

पूर्वी यूरोप में जन असंतोष की इस शक्तिशाली अंतर्धारा की पृष्ठभूमि में सोवियत संघ के ग्लास्नोस्त ओर पेरेस्त्रोइका ने उन्हें नैतिक रूप से प्रचंड बल प्रदान किया. सोवियत संघ भी इस कड़वे संबंध को अधिक दिनों तक नहीं जारी रख सका. सबसे अहम बात तो यह है कि सोवियत समाज के बदलते ढांचे ने यह आवश्यक बना दिया था कि पूर्वी यूरोप में भी वैसे ही परिवर्तन लाए जाएं. यह एक वस्तुगत बाध्यता थी अन्यथा संभवतः दोनों समाजों का सार्थक ढंग से समागम जारी नहीं रह सकता था. यद्यपि सोवियत संघ स्वभावतः कम्युनिस्ट पार्टियों में ही सुधार करने के जरिए ये परिवर्तन लाना बेहतर समझता था. मगर ऐसा करने में जो खतरे हैं उन्हें भी गोर्बाचेव समझते थे अंततः उन्होंने यह खतरा उठाना ही श्रेयस्कर समझा. सोवियत संघ ने घोषणा की कि वह चेकोस्लोवाकिया में की गई कार्यवाही को नहीं दुहराएगा. उसकी इस घोषणा ने समुचित बाह्य परिस्थिति मुहैया कर दी. और इस प्रकार विस्फोट हो गया. बात ऐसी नहीं है कि सोवियत संघ इन परिवर्तनों को पूर्वी यूरोप में किसी साजिशाना ढंग से लाया है. बहुत संभव है कि घटनाओं की गति और परिवर्तन के जो माध्यम उभर रहे हैं वे उनके पूर्वानुमान से आगे निकल गए हों. हालांकि सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के बीच अतिमहाशक्ति और आश्रित का संबंध बुनियादी तौर पर आज भी बदस्तूर जारी है, तथापि पूर्वी यूरोपियन देशों को अब पहले की तुलना में अधिक आजादी मिल गई है और सोवियत संघ के सामने उनकी सौदेबाजी की क्षमता अधिक बढ़ गई है. यह अवश्य स्मरण रहे कि पूर्वी यूरोप में हुए परिवर्तन, यहां तक कि उनका पश्चिम की ओर अपनी खिड़कियां खोल देना भी, सोवियत संघ की मौजूदा नीतियों के सर्वथा अनुकूल है. गोर्बाचेव जब यह कहते हैं कि पूर्वी यूरोप में हुए परिवर्तन समाजवाद के, कहने का मतलब है सोवियत समाजवाद के, हितों के विरोधी नहीं हैं तो हमें लगता है कि वे ठीक ही करते हैं. गोर्बाचेव ने अपने नव वर्ष संदेश में घोषित किया है कि ‘पूर्वी यूरोप सोवियत संघ पर हमेशा भरोसा कर सकता है.’ ‘निस्संदेह पूर्वी यूरोप सोवियत संघ पर भरोसा करना नहीं छोड़ेगा!’

रोमानिया का मामला इस समूचे नजारे से अलग नजर आता है. चौसेस्कू लंबे अरसे से मासको के संदर्भ में मोटामोटी स्वतंत्र नीति का अनुसरण कर रहे थे और उन्होंने पश्चिम की ओर अपने दरवाजे पहले ही खोल रखे थे. उनका खुद का एक शक्तिशाली आधार था. उनके तानाशाही शासन के विरुद्ध भारी जनअसंतोष के साथ-साथ उन्हें उखाड़ फेंकने में सेना की शिरकत और बाद में हुए कत्लेआम ने इसे नीचे से हुए जनविद्रोह के बजाय समाज के सर्वोच्च स्तरों में हुआ संघात अधिक बना दिया. इसके अतिरिक्त चौसेस्कू को उखाड़ फेंकने में रूसियां की खास किस्म की दिलचस्पी, रोमानियाई घटनाओं को सोवियत संघ का समर्थन और सोवियत-रोमानिया संबंधों में इसके तुरंत बाद हुआ सुधार मास्को को सीधा-सीधी जिम्मेदार ठहराते हैं.

जो भी हो, सामग्रिक तौर पर कम्युनिस्टों को पूर्वी यूरोप में हुए इन परिवर्तनों को लेकर अधिक चिंतातुर होने की जरूरत नहीं है.

पूंजीवाद पूर्वी यूरोपियन देशों की, ऐसे देशों की जहां पूंजी-निर्माण की दर अपेक्षाकृत निम्न है, समस्याओं के हल नहीं कर सकता है. पश्चिमी यूरोप के विपरीत पूर्वी यूरोपयन देशों के लिए समाजवाद अपेक्षाकृत अधिक ‘स्वाभाविक’ हैं. पूंजीवादी रास्ता इन देशों के जनसमुदाय की विशाल बहुसंख्या के लिए केवल विपत्तिजनक ही होगा और इन देशों के नव-औपनिवेशिक शोषण का मार्ग प्रशस्त कर देगा.

दूसरे, चंद अपवादों को छोड़कर सभी कम्युनिस्ट पार्टियां एक के बाद दूसरे आंतरिक परिवर्तनों के जरिए अपनी प्रमुख भूमिका बनाए रखने में सफल हुई हैं. जिन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियां ऐसा करने में असफल रही हैं वहां भी शासकों की नई नस्ल को समाजवादी अर्थव्यवस्था नष्ट करना कठिन लग रहा है. पोलैंड और हंगरी की सरकारों ने जो नए कदम उठाए हैं उनमें से कई ऐसे हैं जो जनता को पसंद नहीं आएंगे.

परिवर्तनों का अगला चक्र जिसमें कि समाजवाद और जनवाद का बेहतर सम्मिश्रण होगा, अधिक दूर नहीं है.

नया वाद-विवाद

गोर्बाचेव की शांत शिष्ट साम्राज्यवाद की अवधारणा जो नव-औपनिवेशिक शोषण न करता हो, उनकी राष्ट्रों, राज्यों और महादेशों के घनिष्ठ होने की अवधारणा और विश्वशांति के लिए खुल्लमखुल्ला अमेरिकी साम्राज्यवाद से हाथ मिलाने की अवधारणा तीसरी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों, जनवादी संगठनों और जनता में संदेह उत्पन्न कर रही हैं. तीसरी दुनिया के देश नव-औपनिवेशिक शोषण के सबसे बड़े शिकार हैं और साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष को धीमा करने का उन्हें जो धर्मोपदेश दिया जा रहा है उसकी व्याख्या करते हुए कहा जा रहा है कि यह सोवियत संघ द्वारा तीसरी दुनिया के हितों के साथ गद्दारी करना है. इस प्रकार बड़ी शक्तियों की घनिष्ठता तीसरी दुनिया के देशों को मौलिक हितों के लिए सीधासीधी नकुसानदेह है. इस प्रकार सीपीसी और सीपीएसयू के बीच फिर एक नया महाविवाद शुरू हो जाएगा. हमारी पार्टी चूंकि तीसरी दुनिया के ही एक देश की कम्युनिस्ट पार्टी है, और जैसा कि हमने खुद अपनी चौथी कांग्रेस में गोर्बाचेव के साम्राज्यवाद के सिद्धांत का जो विरोध किया है उसकी रोशनी में भारत में तीसरी दुनिया की प्रतिनिधि पार्टियों और संगठनों का पक्ष लेंगे – अन्य किसी से भी पहले. तथापि हम सोवियत संघ में ग्लास्नोंस्त और पेरेस्त्रोइका का सकारात्मक मूल्यांकन भी करते रहेंगे और निरस्त्रीकरण व विश्वशांति के लिए सोवियत संघ द्वारा किए जा रहे उपायों का समर्थन करते रहेंगे. दूसरी ओर, हम यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध संगठित अभियान चलाने तथा विचारधारात्मक-राजनीतिक शिक्षा देने के अलावा भी चीन के राजनीतिक सुधार के क्षेत्र में काफी कुछ अवश्य किया जाना चाहिए, हमें इस या उस नेता, पार्टी और उनके चमत्कारी नेताओं का आंख मूंदकर अनुसरण करने की दलाल मनोवृत्ति त्याग देनी चाहिए, न ही हमें अपना दिमाग पश्चिमी प्रचार माध्यमों के चिंतन भंडारों के हाथों गिरवी ही रखना चाहिए, मार्क्सवाद-लेनिनवाद के उसूलों को ही आधार मान करके और अपने देश, अपनी जनता और अपनी पार्टी के हितों को सर्वोच्च स्थान देते हुए हम अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों के सूत्रीकरणों और विशिष्ट कार्यों का स्वतंत्रतापूर्वक मूल्यांकन करेंगे.

कम्युनिस्ट पार्टी का सुदृढ़ीकरण बनाम हमारे देश में जनवादी मोर्चे का विस्तार

ख्रुश्चेव के समय से ही सोवियत संघ तीसरी दुनिया के विकासशील देशों के लिए सोवियत मदद के बल पर पूंजीवादी मंजिल को लांघकर समाजवाद में उत्तरण की वकालत करता रहा था. राजनीतिक तौर पर इसका मतलब था कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा साम्राज्यवाद और इजारेदार पूंजीवाद के विरुद्ध शासक राष्ट्रीय पूंजीपत वर्ग के साथ व्यापक संश्रय कायम करना. इसका ठोस आर्थिक मतलब था सोवियत संघ की सहायता से सार्वजनिक क्षेत्र का विकास करना जिसे निजी क्षेत्र के विरुद्ध किलेबंदी के तौर पर प्रदर्शित किया गया था और जो उन्हें समाजवाद में पहुंचने में सक्षम बना देता. ‘राष्ट्रीय जनवाद’ की सीपीआई की समूची अवधारणा इसी पूर्वशर्त पर आधारित थी और एक हद तक सीपीआई (एम) भी इसी रास्ते का अनुसरण करती थी. सीपीआई(एमएल) ने अपने जन्मकाल से ही सार्वजनिक क्षेत्र की परीकथा का भंडाफोड़ किया और दिखलाया कि यह क्षेत्र केवल नौकरशाही पूंजी को जन्म देगा और इजारेदार पूंजी के साथ संश्रय कायम करेगा.

सोवियत सिद्धांतकार अब इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र अदक्षता, फिजूलखर्ची और नौकरशाही को जन्म देता है. अब तीसरी दुनिया के विकासशील देशों के लिए वे जिस नए नमूने की वकालत कर रहे हैं वह उन्हीं के शब्दों में ‘जनवादी’ अथवा ‘शिष्ट पूंजीवाद’ है. कहने की जरूरत नहीं कि उनके ये नए नुस्खे उनके खुद के समाज के बदलते ढांचे की जरूरतों के अनुकूल हैं. एक बार फिर इस ‘शिष्ट पूंजीवाद’ का प्रतिनिधित्व करनेवाली शक्तियों के साथ व्यापक संश्रय कायम करने का आह्वान जारी किया गया है. कयास यह भी लगाया ही जा सकता है कि वीपी सिंह के प्रति सीपीआई और सीपीआई(एम) के प्रेम की ये नई पींगे कहीं इस नुस्खे की ही करामात तो नहीं हैं. जो हो, जनता के जनवाद की ओर बढ़ने की यह एक लाइन है.

हम अपने तई नवजनवाद के बारे में माओ की शिक्षाओं के आधार पर एक जनवादी मोर्चे विकसित करने का प्रयत्न करते रहे हैं. जनवादी मोर्चा अथवा जनता की क्रांतिकारी पार्टी की हमारी समूची अवधारणा मार्क्सवादी-लेनिनवादी उसूलों से निकली है, अथवा अगर और भी ठोस रूप में कहा जाए तो वह मार्क्सवादी-लेनिनवादी उसूलों को भारत की ठोस स्थितियों के साथ एकरूप करने का परिणाम है. उनका कार्यक्रम क्रांतिकारी जनवादी बुनियाद पर आधारित होगा जो कि समाजवाद की ओर एक संक्रमणकालीन मंजिल है. उसका नेतृत्व खुद कम्युनिस्ट पार्टी करेगी. पिछले कुछ वर्षों का अनुभव यह स्पष्ट करता है कि हमें भारत में एक ऐसे मोर्चे का निर्माण करने में कुछ हद तक सफलता मिली है. खासकर, बिहार में यह मोर्चा अधिक से अधिक संख्या में अन्य पार्टियों की वामपंथी और जनवादी कतारों को आकर्षित करते जा रहा है. हमें संघर्ष के विभिन्न रूपों के बीच एक हद तक तालमेल कायम करने में भी सफलता मिली है. यहां तक कि हम संसदीय संघर्षों के क्षेत्र में भी एक नई शुरूआत कर सके हैं.

इस मंजिल में हमें पार्टी के अंदर एक अजीब सिद्धांत विकसित होते नजर आता है. इस सिद्धांत को पूर्वी यूरोप के देशों की हाल की घटनाओं से प्रेरणा मिली है. यह सिद्धांत पार्टी का विलोप कर देने का आह्वान करता है अथवा वह शिष्टतापूर्ण लहजे में यों कहता है, ‘पार्टी आईपीएफ के रूप में खुल गए.’ उनकी शालीन मांग है कि कम्युनिस्ट पार्टी का स्थान एक जनवादी पार्टी ले ले अथवा वह संगठन ले ले जिसे कुछ अन्य लोग ‘वाम फारमेशन’ कहना अधिक पसंद करते हैं. पार्टी के विरुद्ध सहसा यह बगावत क्यों, जबकि पार्टी ने स्पष्टतः सफलताएं हासिल की हैं, जबकि वह एक जनवादी मोर्चा, अथवा अगर आप चाहें तो उसे जनवादी पार्टी भी कह सकते हैं, सफलतापूर्वक विकसित कर रही है? कारण तलाशने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है. हमारे इन सहयात्रियों की ‘जनता पार्टी’ अथवा ‘वाम फारमेशन’ निस्संदेह एक उदार पूंजीवादी कार्यक्रम को लेकर हाजिर होगी और अत्यंत स्वाभाविक तौर पर इस परियोजना के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का कोई तालमेल नहीं बैठ सकता है. क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी उसे हमेशा एक क्रांतिकारी जनवादी दिशा प्रदान करने का प्रयत्न कहेगी. एक उदारवादी जनवादी पार्टी की आवश्यकता को उचित ठहराने के लिए यह सिद्धांत एक ही साथ दो विपरीत दिशाओं की यात्रा करता है. पहले तो साम्राज्यपाद-विरोधी संघर्ष को नाममात्र का संघर्ष बना दिया गया है. ऐसे तमाम उदारवादियों के गुरू गोर्बाचेव हैं और वे साम्राज्यवाद के बारे में और राज्यों, राष्ट्रों व महादेशों के घनिष्ठ बनने के बारे में अपने गुरू के धर्मोंपदेशों का प्रत्यक्ष अर्थ ही निकालते हैं. जहां तक दूसरे दुश्मन सामंतवाद का सवाल है तो सामंती अवशेष तो कदम-ब-कदम खुद पूंजीवादी सरकार के जरिए कानूनी उपायों से निर्मूल किए जा सकते हैं. क्रांतिकारियों के लिए तो सिर्फ इन सरकारों में शामिल हो जाने की जरूरत है, अधिक से अधिक सरकार पर कुछ जन-दबाव का निर्माण भर करने की.

मार्क्सवाद-लेनिनवाद की महान लाल पताका को बुलंद रखना, सीपीआई(एमएल) को शक्तिशाली बनाना और जनवादी मोर्चे को विस्तारित करना हमारे सामने समूचे 1990 के दशक के लिए रणनीतिक कार्यभार हैं.