(समकालीन जनमत, 3 मार्च 1991)
                                             

‘युद्ध, दूसरे रूप में, राजनीति का ही जारी रूप है.’
– कार्ल वॉन क्लाजविट्स

शीतयुद्ध की समाप्ति पर फ्रांसिस फुकुयामा जब ‘इतिहास का अंत’ की घोषणा कर रहे थे तब उन्होंने सपने में भी न सोचा होगा कि इतनी जल्दी फिर इतिहास की शुरूआत हो जाएगी.

खाड़ी-युद्ध का एक महीना पूरा हो गया है. जार्ज बुश की नजरों में यह आखिरी युद्ध है. जिसके बाद एक नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था स्थापित होगी. सद्दाम हुसैन का मानना है कि यह युद्ध सभी युद्धों की मां है जिसकी परिणति अरब देशों के नवजागरण और फिलिस्तीन की मुक्ति में होगी. क्या होगा, इसका फैसला होना अभी बाकी है. लेकिन इतना तय है कि इस युद्ध का उद्देश्य महज कुवैत की मुक्ति नहीं रह गया है. यह युद्ध दुनिया के वर्तमान अंतरविरोधों और गंठजोड़ों का प्रतिबिंब है, और साथ ही संपर्कों की पुनर्संरचना का माध्यम भी. युद्ध, मौत और तबाही का तांडव नृत्य है, परंतु इतिहास में युद्ध कभी-कभी अनिवार्य हो जाते हैं और इतिहास को गति प्रदान करते हैं. खाड़ी युद्ध सच्चे अर्थों में इतिहास की नई शुरूआत है.

1990 समाजवाद की पराजय और साम्राज्यवाद की विजय का वर्ष था. पूर्वी यूरोप में ‘उदारवादी जनवादी मूल्यों’ ने ‘सर्वसत्तावाद’ पर जीत हासिल कर ली थी. सोवियत रूस में समाजवाद अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था. थ्येन आनमन चौक के धक्के ने पश्चिमी दुनिया के हमलों के सामने चीन को आत्मरक्षा की स्थिति में धकेल दिया था. निर्गुट आंदोलन बेअसर हो चुका था. अमेरिकी नेतृत्व में विश्व पूंजीवाद अपनी फतह का झंडा गाड़ चुका था और अरसे बाद दुनिया एकध्रुवीय नजर आने लगी थी.

चार्ज बुश जिस नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की वकालत कर रहे हैं, उसका अर्थ है तीसरी दुनिया और उसके स्रोतों पर अमेरिकी नियंत्रण. अमेरिका के 1991 के प्रस्तावित प्रतिरक्षा बजट में विवादास्पद ‘नक्षत्र युद्ध’ योजना के लिए पिछले साल के 2.9 बिलियन डालर से बढ़ाकर 4.8 बिलियन डालर की मांग की गई है. बजट भाषण में सोवियत रूस की तरफ से आण्विक खतरे की संभावना कम हो जाने की बात स्वीकर करते हुए भी, तीसरी दुनिया के देशों द्वारा मिसाइल हमले की संभावना जताते हुए इस बढ़ोत्तरी की मांग को जायज बताया गया है.

नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के इस अमेरिकी परिप्रेक्ष्य में, जाहिरा तौर पर ईराक द्वारा कुवैत पर हमले को अमेरिका बर्दाश्त नहीं कर सकता था. पश्चिम एशिया के तेल क्षेत्रों पर अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं. कुवैत के अमेरिका परस्त शेख का पतन, इराक का अरब में एक शक्तिशाली देश के बतौर उभरना और तेल संपदा के कुल 20 प्रतिशत पर नियंत्रण नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर सीधी चोट थी. अमेरिका युद्ध पर उतारू था और यह एकध्रुवीय दुनिया का ही करिश्मा था कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् अमेरिका की जरखरीद गुलाम बन गई; बहुराष्ट्रीय सेना में युरोपीय देशों के अलावा अमेरिका गठबंधन के सारे देश शामिल थे – सीरिया, मिश्र और मोरक्को जैसे अरब देश भी; पाकिस्तान अपनी सेना भेज रहा था और भारत अमेरिका सैनिक विमानों को तेल दे रहा था. सोवियत रूस का नैतिक समर्थन और चीन की रहस्तमय चुप्पी. राजनीतिक पहल अमेरिका के हाथों थी और इराक अकेला, बिलकुल अकेला था. क्यूबा सरीखे कुछ छोटे-मोटे देशों के अलावा अमेरिका के विरोध में कहीं आवाज भी नहीं सुनाई पड़ती थी. लेकिन ईराक ने लड़ने की ठान रखी थी. उसने कुवैत के साथ फिलिस्तीन का सवाल जोड़ा, ईरान के साथ पुराने विवाद खत्म किए और अपनी तैयारियां पूरी की.

युद्ध अपनी पूरी निर्ममता के साथ जारी है. इराक पर इतिहास की भयंकरतम बमबारी ने पश्चिमी सभ्यता के कुत्सित चेहरे को उजागर कर दिया है. दजला और फरात नदियों के बीच शताब्दीयों पुरानी मेसोपोटामियाई सभ्यता के पवित्र स्थलों को बर्बाद किया जा रहा है. हजारों की तादाद में बूढ़ों, बच्चों, महिलाओं और आम नागरिकों की हत्या की जा रही है. हाईटेक के प्रति पश्चिमी आकर्षण ने इस पूरी तबाही को टेलिविजन के पर्दे पर एक रोमांचक खेल मात्र बनाकर रख दिया है. अमेरिका नेताओं के फूहड़ मंतव्य एवं पश्चिमी प्रचार माध्यमों की भाषा उनके रंगभेदवादी नजरिए के सामने तीसरी दुनिया के गरीब देशों की आकांक्षाएं, सभ्यता और संस्कृति कोई मायने नहीं रखती. कुल मिलाकर यही है उस एकध्रुवीय दुनिया का नक्शा, जिसका सपना अमेरिका देख रहा है.

लेकिन सपना तो सपना ही होता है. मात्र छह दिनों में लड़ाई जीत लेने का दम भरने वाले अमेरिका जनरल अभी भी जमीनी युद्ध की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. सद्दाम के समर्थन में और अमेरिका के विरोध में दुनिया के बहुतेरे देशों में जनसैलाब उमड़ रहा है. एक-एक करके ये देश अपनी स्थितियां बदलने पर मजबूर हो रहे हैं और बहुराष्ट्रीय गठबंधन में दरार बढ़ रही है.

सद्दाम हुसैन लड़ाई भले ही हार जाएं, लेकिन अव्वल तो उन्होंने कुवैत के साथ फिलिस्तीन के सवाल को जोड़ने में काफी सफलता पाई है. अब किसी भी शांति-प्रस्ताव को फिलिस्तीन की समस्या पर विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. युद्ध में हारने पर भी अरब राष्ट्रवाद को सद्दाम ने जिस तरह उभरा है, वह अपने आने वाले दिनों में अमेरिका का पीछा नहीं छोड़ेगा. इसी आधार पर फ्रांस एवं दूसरे यूरोपीय देश स्वतंत्र राजनीतिक पहलकदमी की ओर बढ़ेंगे, जिसके साथ अमेरिकी स्वार्थों का विरोध लाजिमी है. सोवियत रूस के साथ भी अमेरिका के संबंधों में शांति का मौजूदा दौर उष्ण शांति में बदल सकता है. तीसरी दुनिया के देशों में अमेरिका विरोधी जो लहर बह रही है, वह भी अपना कोई नया राजनीतिक स्वरूप अख्तियार करेगी.

युद्ध का नतीजा चाहे जो हो, लेकिन इतना तय है कि एकध्रुवीय दुनिया का अमेरिकी सपना फारस की खाड़ी में ही दफन होगा.