freedom-1947

भारत का उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष या आजादी का आंदोलन मुल्क के इतिहास का एक लम्बा और बहुरंगी अध्याय है. इस आंदोलन की चादर हज़ारों संघर्षों के धागों से बुनी गई है जिन्होंने आधुनिक भारत की खोज को गहन और समृद्ध बनाया. अलग-अलग वक्तों में, अलग-अलग इलाक़ों में तात्कालिक मुद्दों और संदर्भों के लिहाज से चाहे ज़मींदारों, सूदख़ोरों व स्थानीय राजाओं के खिलाफ चले आंदोलन हों, जाति और जेंडर के आधार पर होने वाले दमन और अन्याय के खिलाफ चले आंदोलन हों या भाषाई हकों और सांस्कृतिक विविधता के लिए चले आंदोलन हों, सभी ने आजादी के आंदोलन के आवेग और फलक को और ज्यादा बड़ा ही बनाया. गांधीवादियों और अंबेडकरवादियों से लेकर विभिन्न कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट धाराओं तक, विभिन्न विचारधाराओं की अगुवाई में जो गोलबंदी और संघर्ष के बहुत सारे तरीके अपनाए गए थे, सभी से मिलकर ही भारत की आजादी के आंदोलन की विराट धारा बनी थी. विडम्बना यह है कि एक धारा, जो आजादी के आंदोलन से साफ़-साफ़ गायब थी, और उस दौर में हिंदू श्रेष्ठता के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करने के अपने प्रोजेक्ट में लगी हुई थी, वही आज सत्ता पर काबिज है और आजादी की पचहत्‍तरवीं वर्षगाँठ मना रही है.  

fighter tilka
तिलका मांझी

भारत में अंग्रेजी उपनिवेश के उभरने और उसके वर्चस्व का इतिहास तीन शताब्दियों से अधिक का है- पहला दौर अंग्रेजों के व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ाने, ईस्ट इंडिया कम्पनी के जाल को फैलाने से लेकर 1757 के प्लासी युद्ध तक का है, दूसरा दौर सौ सालों (1757-1858) तक चले कम्पनी राज और उसके बाद 1858 से 1947 तक सीधे अंग्रेजी राज के मातहत होने का है. क्रूर लूट और डाके पर टिके हुए औपनिवेशक अंग्रेजों के दमन और छल वाले राज के खिलाफ लगातार आंदोलन होते रहे, बार-बार विद्रोह होते रहे, जिसकी पहली अभिलिखित अभिव्यक्ति तिलका माँझी की अगुवाई में हुआ 1784 का आदिवासी विद्रोह था. प्रतिरोध आंदोलनों का यह समूचा इतिहास भारत की आजादी का आंदोलन माना जाना चाहिए.  

1757 का प्लासी और 1764 में बक्सर युद्ध के बाद उत्तर भारत में कम्पनी राज बेहद मजबूत हुआ. इसे और मज़बूती देने के लिए अंग्रेज शासकों ने स्थायी बंदोबस्त या कार्नवालिस कानून के जरिये वफ़ादार ज़मींदारों का एक वर्ग तैयार किया. पर इस उपनिवेशवाद और ज़मींदारी चलन और उनसे जुड़ी सूदख़ोरी व्यवस्था की बहुसंख्य ग्रामीण आबादी ने, खासकर किसानों और आदिवासियों ने जमकर मुख़ालफ़त की. इस निज़ाम के खिलाफ लगातार फूटती बग़ावतें 1855 के हूल विद्रोह और 1857 की महान बग़ावत के साथ नई ऊँचाई पर पहुँचीं, जिसके बाद अंग्रेज सरकार को न सिर्फ भारत को कम्पनी की बजाय अपनी हुकूमत में शामिल करना पड़ा बल्कि अपनी रणनीति में कई बदलाव भी करने पड़े.

1857 की महान बग़ावत ने अंग्रेज शासन के सामने दो मुख्य चुनौतियाँ पेश कीं. अंग्रेजों की उम्मीद के उलट 1857 ने यह दिखा दिया कि हिंदू-मुसलमान एक साथ आ सकते थे, और टूटी-बिखरी भारतीय राजनीति के बावजूद लोग इकट्ठा हो सकते थे. उनकी उम्मीद के उलट मुल्क में राष्ट्रीय जागरण की विराट सम्भावना बन गयी थी जिसमें हिंदू और मुसलमान सिपाही, किसान, व्यापारी और यहाँ तक कि कुलीन तबका भी अंग्रेज-राज की मुख़ालफ़त में साथ-साथ था. 1857 के बाद इसी लिहाज से उन्होंने 'बाँटो और राज करो' की नीति अपनाई और राजे-रजवाड़ों (प्रिंसली स्टेटों) को अपना विश्वस्त सहयोगी बनाया. निश्चित ही आजादी के आंदोलन ने इस 'बाँटो और राज करो' की नीति के खिलाफ 'एकजुटता और प्रतिरोध' की नीति अपनाई पर बावजूद इसके वह विभाजन की भयावह त्रासदी को रोकने में नाकामयाब रहा. विभाजन की इस त्रासदी के साथ कत्लो-गारत, ज़बर्दस्ती पलायन, तबाही और विनाश की कहानी हमारे इतिहास में दर्ज है. 'बाँटो और राज करो' की नीति आगे बढ़ती हुई 'बँटवारे और पलायन' तक पहुँच गयी.

आज भाजपा के जरिये भारत पर शासन करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी विचारधारा और दृष्टि को सत्ता की विचारधारा की तरह मुल्क पर लादना चाहता है. जहां मोदी सरकार आजादी के आंदोलन के कई नेताओं को अपने खेमे के लिहाज से बना लेने में जोर लगाए हुए है और कुछ को तोड़-मरोड़ कर, बिगाड़ कर पेश कर रही है, वहीं संघ चाहता है कि भारत की आजादी के आंदोलन के इतिहास को सिर्फ विभाजन के जख्‍मों तक सीमित कर दिया जाए. बड़ी चालाकी से ये लोग आजादी के आंदोलन में संघ और हिंदुत्व के दूसरे तथाकथित नायकों की घटिया भूमिका के सच पर पर्दा डाल देना चाहते हैं. यह पूरा हिंदुत्व गिरोह आजादी के आंदोलन से गायब रहा, इसके सबसे बड़े प्रतीक सावरकर अब इस बात के लिए याद किए जाते हैं कि उन्होंने अंग्रेज सरकार को आधा दर्जन माफ़ीनामे लिखे थे, जबकि संघ, मुसोलिनी और हिटलर के क़सीदे काढ़ रहा था. गोलवलकर ने लिखा कि कैसे भारत को 'नस्लीय शुद्धता और गर्व' के हिटलर के नाज़ी जर्मनी के मॉडल का अनुकरण करते हुए उसका फ़ायदा उठाना चाहिए. सावरकर ने हिंदू भारत का ऐसा मॉडल बताया जिसमें सारी राजनैतिक और सैन्य ताकत वे लोग हासिल करेंगे जिनका जन्म भी इस देश में हुआ हो और जो इस देश में जन्मे धर्म को भी मानते हों.

भारत विभाजन के जवाब में संघ, अखंड भारत की बात करता है जिसमें 1947 से बने सिर्फ भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं बल्कि उत्तर-पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान, उत्तर-पूर्व में म्यांमार, दक्षिण में श्रीलंका तथा उत्तर में नेपाल, भूटान और तिब्बत तक शामिल हैं. जर्मनी में जैसा राष्ट्रों का एकीकरण हुआ या जैसे कि कोरिया के एकीकरण की इच्छा का मामला है, संघ की वैसे एकीकरण की कोई इच्छा नहीं. बल्कि यह उसी तरह का विस्तारवादी साम्राज्यवादी सपना है जैसा पुतिन का विस्तृत रूस का सपना है जो यूरेशियन साम्राज्य के केंद्र में होगा. यह अखंड भारत इतिहास में कभी भी अस्तित्व में नहीं रहा. यह सिर्फ़ पुराने मिथकीय वैभव वाला कल्पित अतीत का ज़हरीला सपना है, जो लोगों की रोजमर्रा की तबाहियों और मुश्किलों से उनका ध्यान भटकाने के लिए दिखाया जा रहा है.  

भारत और पाकिस्तान पचहत्तर सालों से अलग-अलग मुल्क हैं, बांग्लादेश की उम्र भी पचास साल से ऊपर हुई. साझे अतीत और साझा हितों को ध्यान में रखते हुए भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, ये तीन मुल्क निश्चित ही एक महासंघ के बारे में सोच सकते हैं जो अभी के लगभग निष्क्रिय और बेकाम सार्क (एसएएआरसी) की तुलना में दक्षिण एशिया में आपसी सहयोग के ज्यादा गतिशील और ऊर्जावान ढाँचे की राह ले. संघ के अखंड भारत के नुस्ख़े से दक्षिण एशिया में लगातार टकराव बना रहेगा और इससे भारत अपने पड़ोसियों से और अधिक अलगाव में जा पड़ेगा. पुराने अविभाजित भारत को ज़िंदा करने की तो छोड़ ही दीजिए, अगर कट्टर और एकरूप राजनैतिक हिंदुत्ववाद के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित किया जाएगा तो भारत की मौजूदा राष्ट्रीय एकता भी ख़तरे में पड़ जाएगी.

संविधान में वादा किया गया था कि अधिकारों की हर हाल में हिफ़ाज़त होगी, गहन लोकतंत्र होगा, स्वतंत्रता, बराबरी, भाईचारे पर कोई आँच नहीं आएगी और समग्र न्याय मिलेगा. हालाँकि ऐसा नहीं हो सका है पर हमारे संविधान की प्रस्तावना घोषणा करती है कि भारत का मूल मिज़ाज एक आधुनिक लोकतांत्रिक गणराज्य का है.

पहले विश्वयुद्ध और रूसी क्रांति के बाद, और ठोस तरीक़े से कहिए तो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद की कहानी में भारत की आजादी का आंदोलन अंतर्राष्ट्रीय उपनिवेशवाद विरोधी, फासीवाद विरोधी जागरण का हिस्सा बन गया. 1947 में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के भारत से भागने और 1949 में नए चीन के उदय ने पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध के अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक नक्शे को बदल कर रख दिया. इस बदले हुए अंतर्राष्ट्रीय माहौल में ही आधुनिक भारत की एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में यात्रा शुरू हुई थी.

'नियति से साक्षात्कार' (ट्रिस्‍ट विद डेस्टिनी) के पचहत्तर सालों बाद आज भारत एकदम अलग रास्ते और उल्टी दिशा में बढ़ रहा है. 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने और 2019 की जीत के बाद संघ-भाजपा को इतनी मजबूती मिली है कि अब वे भारतीय राज्य के ढाँचे की मूलभूत चीजों को बदल रहे हैं. अब सत्ता के प्रबंधक विधायिका और न्यायपालिका पर ढिठाई से वर्चस्व क़ायम कर रहे हैं और संविधान के सिद्धांतों का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है. राज्य और नागरिकता से धर्म के अलगाव के सिद्धांत को पूरी तरह त्याग दिया गया है. नई संसद के साथ ही लोकतंत्र को एक नए कट्टर दौर में धकेल दिया गया है जहां सामान्य आलोचना और विपक्ष को 'असंसदीय' करार दे दिया गया है. अगर 'आपातकाल' लोकतंत्र के दमन और बर्ख़ास्तगी का अनुभव था तो आज हम 'स्थाई आपातकाल' की हालत में पहुँच गए हैं. पुराने आपातकाल में सिर्फ राजसत्ता ही दमनकारी थी, इसका नया अवतार गोदी मीडिया और गलियों-चौराहों पर चिंघाड़ते हत्यारे गिरोहों को साथ लेकर आया है.

मोदी सरकार के लिए आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और फिर से लिखने का मौक़ा भर है. हम भारत के लोगों को आजादी के आंदोलन के इतिहास को फिर से याद करना चाहिए ताकि हम स्वतंत्रता और बराबरी के सपने की लौ फिर से जला सकें, ताकि हम बढ़ते हुए फासीवादी हमले का मुँहतोड़ जवाब दे सकें.