वीर कुंवर सिंह

kunwar singh_hकुंवर सिंह का जन्म बिहार के तत्कालीन शाहाबाद (अभी, भोजपुर) जिले के जगदीशपुर में एक भूस्वामी परिवार में हुआ था. गौर करने की बात यह है कि उन्होंने 80 वर्ष की उम्र में अपने गिरते स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए 1857 के हथियारबंद विद्रोह का नेतृत्व किया था. जुबानी इतिहास में सुना जाता है कि वे कहते थे कि वे तो इस विद्रोह का इंतजार ही कर रहे थे, और उन्हें इस बात का दुख था कि यह विद्रोह तब हुआ, जब वे इतने बूढ़े हो गए थे. वे छापामार युद्ध में प्रवीण थे - अपने सैन्य चातुर्य से वे ब्रिटिश सेना की आंखों में हमेशा धूल झोंकते रहे - और 23 अप्रैल 1858 को उन्होंने शाहाबाद से बरतानवी फौज को खदेड़ बाहर किया. उसके चंद दिनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उसके पहले उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को अपनी जमीन से खत्म कर दिया था.

भोजपुरी के एक गीत में उन्हें इस तरह से याद किया जाता है :

अब छोड़ रे फिरंगिया हमार देसवा
लूटपाट कैले तुहूं
मजे उड़ैले कैलस
देस पर जुलुम जोर
सहर गांव लूटी फूंकी दिहिया फिरंगिया
सुनी सुनी कुंवर के हिरदया में लागल अगिया
अब छोड़ रे फिरंगिया हमार देसवा

जहानाबाद से 1857 के नेता काजी जुल्फिकार अली के साथ उनके पत्राचार से यह साफ पता चलता है कि वे दोनों बहुत अच्छे और घनिष्ठ मित्र थे. उनके बीच 1856 में हुए पत्राचार में उन दोनों ने मेरठ की तरफ कूच करने की योजना पर विचार-विमर्श किया था, 1857 में विद्रोह फूट पड़ने के पहले ही ! अपनी चिट्ठियों में उन्होंने स्वतंत्रता योद्धाओं की सेना को दो भागों में बांटने की योजना बनाई थी - एक हिस्सा कुंवर सिंह के नेतृत्व में, और दूसरा हिस्सा जुल्फिकार की कमान में.

बहरहाल, 23 अप्रैल 2022 को गृह मंत्री अमित शाह उपनिवेशवाद-विरोधी विमर्श के बजाय सांप्रदायिक विमर्श को आगे बढ़ाने की मंशा से जगदीशपुर में भाजपा द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल हुए. वहां भाजपा 1857 के गद्दार उसी डुमरांव महाराज की मूर्ति खड़ा कर रही है, जिसे अंगरेजों ने बाबू कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा पुरष्कार के रूप में दे दिया था. भाजपा स्वतंत्रता संग्राम के गद्दारों और शहीदों - डुमरांव महाराज और कुंवर सिंह; गोडसे और गांधी - को एक साथ सम्मान देने का नाटक नहीं कर सकती है.

विडंबना यह है कि जिस दिन अमित शाह कुंवर सिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर रहे थे, उसी दिन वहां के जिला प्रशासन ने कुंवर सिंह की पौत्र-वधू को उनके घर में ही बंद कर रखा था, ताकि कुंवर सिंह के पोते बबलू सिंह की हाल में हुई हत्या को ढंकने में पुलिस और प्रशासन की संलिप्तता के मुद्दे को उठाने से उन्हें रोका जा सके.

मौलवी अहमदुल्ला शाह

maulavi-hफैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला 1857 विद्रोह के असाधरण नेता थे. ब्रिटिश ऑफिसर थॉमस सीटन ने उन्हें ‘महान योग्यताओं से युक्त, अदम्य साहस वाला, दृढ़ संकल्प से भरा, और सर्वोपरि विद्रोहियों के बीच से बेहतरीन सैनिक’ बताया है. एक अन्य ब्रिटिश ऑफिसर जीबी मलेसन, जिन्होंने 1857 का इतिहास लिखा है, ने लिखा कि “मौलवी एक शानदार व्यक्ति थे. उनका नाम अहमदुल्ला था और वे मूलतः औध (अवध) में फैजाबाद के रहने वाले थे. वे लंबे, छरहरे और गठीले बदन के थे; उनकी बड़ी और गहरी आंखें थीं, तनी भंवें थीं, ऊंची मुड़ी नाक और मजबूत जबड़े थे. इसमें कोई शक नहीं कि 1857 विद्रोह की साजिश के पीछे मौलवी के दिमाग और प्रयासों की बड़ी भूमिका रही थी. अभियानों के दौरान रोटियों का वितरण - चपाती आन्दोलन - वास्तव में उनके ही दिमाग की उपज था.”

लड़ाई में मौलवी अहमदुल्ला की मौत को दर्ज करते हुए मलेसन ने उन्हें यह श्रद्धांजलि दी : “अगर कोई देशभक्त ऐसा आदमी है जो आजादी की योजना बनाता है और उसके लिए लड़ता है, और अपने देश के लिए गलत ढंग से खत्म कर दिया जाता है, तो बिल्कुल निश्चित तौर पर मौलवी एक सच्चे देशभक्त थे.”

सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने अयोध्‍या में आरएसएस और भाजपा के हिन्‍दुत्‍ववादियों द्वारा ढहाई 16वीं सदी की बाबरी मस्जिद के ऐवज में मुसलमानों को जो पांच एकड़ भूमि का प्‍लॉट दिया है, उस पर मौलवी अहमदुल्‍ला शाह फैजाबादी के नाम पर एक कॉम्‍पैक्‍स विकसित करने का निर्णय लिया गया है. इसमें मस्जिद, अस्‍पताल, संग्रहालय, शोध केन्‍द्र और गरीबों के लिए एक सामुदायिक रसोई भी होगी. एक नफरत भरे कृत्‍य और नफरती व हिंसक हमलावरों के पक्ष में आये अदालती फैसले के जवाब में मुसलमानों ने आजादी की पहली लड़ाई की यादगार के रूप में - जिसमें मुसलमानों और हिन्‍दुओं ने मिल कर भारत की नींव रखी थी - एक ऐसी इमारत व संस्‍थान के निर्माण का फैसला लिया है जो फैजाबाद और अयोध्‍या के सभी लोगों को लाभान्वित करेगा.

छोटानागपुर के आदिवासी

इतिहासकार शशांक सिन्हा लिखते हैं कि “संथाल (‘हुल’ अथवा विद्रोह के क्रूर दमन के बाद) जहां संथाल परगना के नए जिले के निर्माण से उस क्षेत्र के आसपास के संथालों को थोड़ी राहत जरूर मिली, लेकिन हजारीबाग और मानभूम (ये भूभाग भी हुल से प्रभावित थे) में रहने वाले उनके बिरादरों को कोई खास लाभ नहीं मिल सका.” नतीजतन, इन क्षेत्रों के संथाल सूदखोरों से हिसाब-किताब बराबर करने के लिए 1857 के विद्रोह में शामिल हो गए, और उन्होंने सैनिकों के साथ सक्रियतापूर्वक मिलकर उन सामंती शक्तियों पर हमला बोल दिया जो अंगरेजों के साथ सहयोग कर रहे थे.

सिन्हा लिखते हैं कि “चतरा की लड़ाई में उन सैनिकों की पराजय के बाद भी इन संथालों ने अपनी कार्रवाई जारी रखी. लगभग 10,000 लोगों ने एक थाना जला दिया, एसमिया चट्टी (हजारीबाग) को लूट लिया, और हजारीबाग तथा रांची के बीच के संचार माध्यमों को काट देने का प्रयास किया. बाद में, उनके एक ग्रुप ने गोमिया को लूटा और वहां के सरकारी भवनों और दस्तावेजों को जला डाला. संथालों की तरह, हजारीबाग जिले के उत्तरी हिस्से में विस्थापित भुइयां टिकैतों ने 1857 के विद्रोह में पुराने खरीदारों से अपनी जमीन वापस लेने का मौका पा लिया.”

सिन्हा ने यह भी बताया कि “हजारीबाग, सिंहभूम और पलामू जैसे इलाकों में, जहां आदिवासी लोग हिस्सा ले रहे थे, उन्होंने घिसेपिटे रास्ते पर चलना बंद कर दिया. गतिशील रहने के अलावा, हम उन आदिवासियों को अपने स्थानीय दुश्मनों और/अथवा साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ लड़ने के लिए गैर-आदिवासियों और स्थानीय कुलीन वर्गों के साथ भी एकजुट होते देख पाते हैं.” (‘1857 एंड द आदिवासीज ऑफ छोटानागपुर’, शशांक एस. सिन्हा, द ग्रेट रिबैलियन, पृष्ठ 16-31)

आंध्र प्रदेश में 1857 का विद्रोह

(‘द ग्रेट रिबैलियन’ में बी. रामा चंद्रन द्वारा लिखित अध्याय से उद्धृत)

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मौलवी अलाउद्दीन [विकिमीडिआ कॉमन्स]

अक्सरहां यह गलत तौर पर समझ लिया जाता है कि 1857 का विद्रोह उत्तर भारत तक ही सीमित रह गया था. वस्तुतः, वह आग फैलते हुए दक्षिण भारत में भी पहुंच गई थी.

रेड्डी लिखते हैं कि, “उस महान विद्रोह के ठीक पहले 28 फरवरी 1857 में विजयनगरम के ‘नैटिव (स्थानीय)’ सिपाहियों का विद्रोह हुआ था जो फर्स्ट रजिमेंट ‘नैटिव’ इन्फैंट्री के सिपाही थे.”

17 जुलाई 1857 को दो विद्रोहियों, तुराबाज खां और मौलवी अलाउद्दीन ने हैदराबाद में ब्रिटिश रेजिडेंसी पर हमले की अगुवाई की थी. लगभग 5000 लोगों की भीड़ उनका समर्थन कर रही थी जिसमें रोहिल्ला और आम नागरिक आबादी शामिल थी. उसके एक महीने के बाद फिर से कुडप्पन में 28 अगस्त 1857 को एक शेख पीर शाह ने ‘नैटिव’ अफसरों और 30वें रेजिमेंट ‘नैटिव’ इंन्‍फैंट्री के सैनिकों को ‘उकसाने’ की कोशिश की थी.

कोरुकोंडा सुब्बा रेड्डी, जो कोंडा रेड्डी कबीले से आते थे और गोदावरी नदी के किनारे बसे कोरातुर गांव के प्रधान थे, ने एक लंबा छापामार युद्ध चलाया और ब्रिटिश फौज को मजबूर किया कि वह उनका पीछा करते हुए मलेरिया-ग्रस्त पहाड़ी इलाके में चली आए. 7 अक्टूबर 1858 को आदिवासी विद्रोही नेताओं कोरुकोंडा सुब्बा रेड्डी और कोरला सीतारमैया को अंततः बुट्टैया गुडेम गांव में फांसी दे दी गई. कोरला वेंकट सुब्बा रेड्डी और गुरुगुंटला कोम्मी रेड्डी को पोलावरम गांव में तथा कोरुकोंडा तुम्मी रेड्डी को तुडिगुंटा गांव में फांसी दी गई.

मौखिक कथाओं के अनुसार, कोरुकोंडा सुब्बा रेड्डी के शव को अंगरेजों ने पहले तो लोहे के एक पिंजड़े में (जिसे कालांतर में ‘सुब्बा रेड्डी सांची’ कहा गया) रखा और फिर लंबे समय तक फांसी पर लटका छोड़ दिया, ताकि आम लोग उसे देख सकें और उनके दिमाग में यह आतंक फैल सके कि किसी विद्रोही की क्या नियति होती है.

गुडेम आदिवासी इलाके (विजाखापत्तनम जिला) में भी विद्रोह हुए थे.

अजीजन बाई

(अजीजन बाई और बेगम हजरत महल के बारे में ये अंश ‘द ग्रेट रिबैलियन’ में लता सिंह द्वारा लिखित अध्याय से उद्धृत हैं)

azeezumइस अध्याय में अधिकांश वर्णन ये है कि जब अजीजन उस विद्रोह में शामिल हुई तो वह कैसे पदकों (मेडल) से सुसज्जित पुरुष वेशभूषा में पिस्तौलों का पट्टा लटकाये घोड़े की पीठ पर सवारी करती रहती थी.

अजीजन कानपुर में उमराव बेगम के घर में लुरकी महल में रहती थी. उसकी मां लखनऊ की एक नाचने-गाने वाली बाई थी. जब अजीजन काफी छोटी थी, तभी उसकी मां की मृत्यु हो गई थी और तब एक बाई ने उसे लखनऊ में पाला-पोसा. इस प्रकार, अजीजन ने जरूर लखनऊ छोड़ा होगा और कानपुर में बस गई होगी. ...अजीजन के कानपुर जाने के पीछे एक संभावित कारण यह होगा कि उसके मन में आजादी की मजबूत चाहत उमड़ रही होगी. संभवतः उसे किसी के संरक्षण में रहना पसंद नहीं होगा - वह जिस किस्म की महिला थी उससे तो यही लगता है, और फिर 1857 के विद्रोह में उसने जैसी भूमिका निभाई उससे भी ऐसा ही प्रतीत होता है.

अजीजन दूसरी घुड़सवार टुकड़ी के साथ बेहद घुलमिल गई थी, जो प्रायः उसके घर आती रहती थी. खासकर, वह दूसरी घुड़सवार टुकड़ी के शमसुद्दीन के बेहद करीब थी. शमसुद्दीन ने कानपुर में 1857 के विद्रोह में काफी सक्रिय भूमिका अदा की थी. उसके घर में विद्रोहियों की बैठकें होती रहती थीं, जिसमें विद्रोह की योजना बनाई जाती थी. शमसुद्दीन भी अक्सरहां अजीजन के घर जाया करता था.

यह भी तथ्य है कि नाना साहब और अजीमुल्ला खां, दोनों लोग अजीजन को जानते थे और उसका घर सिपाहियों की बैठकों का गुप्त स्थल था. अजीजन को 1857 के विद्रोह की एक मुख्य साजिशकर्ता समझा जाता था. ऐसा लगता है कि उसे जानकारी थी कि कानपुर में 4 जून 1857 के दिन विद्रोह करने की योजना बनाई गई थी. उसकी भूमिका खुफियागीरी करने और संदेश लाने-ले जाने की समझी जाती है. कुछ जगहों पर यह भी वर्णन मिलता है कि अजीजन ने औरतों का एक दल बना रखा था, जो बिना किसी डर-भय के हथियारबंद सैनिकों का मनोरंजन करती थीं, उनके जख्मों का इलाज करती थीं और उनके बीच हथियार और गोली-बारूद वितरित करती थीं.

नानक चंद के अनुसार, ‘अजीजन का बड़ा साहस ही था कि वह हमेशा हथियार से लैस रहती थी और घुड़सवार टुकड़ी के साथ अपने लगाव के चलते वह हमेशा तोपखाने में ही मौजूद रहती थी’. एक अन्य प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा है कि ‘तोपखाने में भारी आग के बावजूद वह पिस्तौलौं से लैस वहां दिखाई पड़ जाती थी. वह अपने दोस्तों, दूसरी रेजिमेंट के घुड़सवारों, के बीच रहती थी, जिनके लिए वह खाना पकाती थी और गीत गाती थी.’

हालांकि इस अध्याय में हम 1857 के विद्रोह में अजीजन का भूमिका पर चर्चा कर रहे हैं, किंतु उस विद्रोह में उन जैसी बहुत सारी ऐसी महिलाओं की सैकड़ों कहानियां जरूर होंगी, जो अधिकांशतः इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हो पाईं. ऐसी लड़कियों के भी जिक्र मिलते हैं जो बरतानवी फौज के खिलाफ लड़ाइयों में सड़कों पर उतर पड़ी थीं. लगभग सभी ‘कोठे’ (बाइयों के घर) षड्यंत्र के केंद्र बन गए थे, और उनमें से अनेक औरतें 1857 के विद्रोह में सीधे तौर पर शामिल भी हो गई थीं. विद्रोह की कार्रवाइयों को गुप्त रूप से, लेकिन खुले हाथों धन देने की उनकी भूमिका लिखित रूप में दर्ज है. हालांकि ये महिलाएं प्रत्यक्ष तौर पर लड़ाई नहीं लड़ रही थीं, लेकिन तथाकथित रूप से लोगों को उकसाने और विद्रोहियों को पैसे से मदद करने के आरोप में उन्हें दंडित भी किया गया था. अंगरेज अधिकारी यह जानते थे कि उनके कोठों पर विद्रोहियों की बैठकें होती हैं, और इसीलिए राजनीतिक साजिशों के अड्डे के बतौर उन कोठों को हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता था. वास्तव में, उनके खिलाफ बरतानवी हुकूमत ने जितनी उग्रता से दंड देने की कार्रवाइयां चलाईं, उससे विद्रोह में उनकी भूमिका को उचित तौर पर आंका जा सकता है. बड़े पैमाने पर उनकी संपत्ति को जब्त कर लिया गया. लखनऊ में, जो बाइयों का केंद्र था, 1857 के विद्रोह को कुचल देने के बाद ब्रिटिश शासकों ने शक्तिशाली कुलीन तबके के खिलाफ अपने आक्रोश को मोड़ दिया. 1857 में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विद्रोह में प्रमाणित भागीदारी के चलते ब्रिटिश अधिकारियों ने जिन लोगों की संपत्ति जब्त की थी, उनकी सूची में उनके नाम दर्ज थे.

बेगम हजरत महल

begum hazratबेगम हजरत महल एक महत्‍वपूर्ण राजनीतिक शख्सियत बन कर उभरीं, जिन्होंने बाई के रूप में अपना जीवन शुरू किया था. अवध के नवाब वाजिद अली शाह के साथ उनकी शादी हुई, और जब शाह को निर्वासित कर दिया गया तो हजरत महल ने स्वतंत्रता सेनानियों की इस सलाह को मान लिया कि वे अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कदर को नवाब और खुद को रेजिडेंट घोषित कर दें. रोचक बात यह है कि उनके पहले नवाब की अन्य बेगमों के पास यह प्रस्ताव पेश किया गया था, लेकिन कोई भी अपने पुत्र को नवाब बनाने के लिए तैयार नहीं हुई, क्योंकि उन्हें इसके नतीजे भुगतने का खौफ था. लंबे समय तक लखनऊ पर विद्रोहियों का कब्जा रहने के बाद ब्रिटिश फौज ने फिर से उसे अपने हाथ में ले लिया और हजरत महल को 1858 में पीछे हटना पड़ा. उन्होंने ब्रिटिश शासकों के द्वारा प्रस्तावित किसी भी पुरष्कार अथवा भत्ते को स्वीकार नहीं किया. उन्होंने अपने जीवन का बाकी समय नेपाल में बिताया.

तमिलनाडु में 1857 की धमक

(‘अपसर्ज इन साउथ’, एन. राजेंद्रन, फ्रंटलाइन, जून 2007 से उद्धृत)

veerapandiaअभी जिसे हम तमिलनाडु कहते हैं, वहां भारत के अन्य हिस्सों की तरह ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ विरोध की आरंभिक अभिव्यक्तियां स्थानीय बगावतों के रूप में सामने आईं. इनमें सर्वप्रमुख था ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ पलयकारों का विद्रोह. जिन पलयकारों ने मद्रास प्रेसिडेंसी के सुदूर दक्षिणी इलाके में विद्रोह का झंडा बुलंद किया था, उनमें मुख्य रूप से पुली तेवर, वीरा पांडिया कट्टाबोम्मन और शिवगंगा के मारुडु बंधु के नाम आते हैं. 18वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश हुकूमत ने पलयकारों के खिलाफ दो बड़े अभियान संचालित किए थे.

दो कार्यकर्ताओं गुलाम गौस और शेख मन्नू को ‘अत्यंत राजद्रोही चरित्र के’, अर्थात 1857 की क्रांति के पक्ष में, दीवाल पोस्टर लगाने और मद्रास के लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उठ खड़े होने की अपील करने के लिए फरवरी 1858 में गिरफ्तार किया गया था.

उस समय की रिपोर्ट के अनुसार, मद्रास और चिंगलपुट (चेंगलपेट) जैसे समुद्रतटीय इलाके और कोयंबटूर जैसे अंदरूनी इलाके 1857 की क्रांति के दौरान ‘अशांत’ क्षेत्र समझे जाते थे. दक्षिणी तमिलनाडु के तंजवुर में शेख इब्राहिम नामक एक क्रांतिकारी को मार्च 1858 में संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया गया और उनपर राजद्रोह का अभियोग लगाकर सजा दी गई.

उसी तरह, 1857 की क्रांति की संभावना देखते हुए उत्तरी अरकाट में जनवरी 1857 से ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ युद्ध संगठित करने के मकसद से योजनाएं बनाई जाने लगी थीं और गुप्त बैठकें चलने लगी थीं. यह तथ्य रेकॉर्ड में दर्ज है कि सैयद कुसा मोहम्मद और गुरजाह हुसैन ने उस संबंध में पुनगनूर (चित्तूर जिला, अब आंध्र प्रदेश में) और वेल्लौर के जमींदारों के साथ वार्ताएं की थीं. मार्च 1857 में सैयद कुसा को अंगरेजों ने गिरफ्तार कर लिया और उनसे जमानत मांगी गई.

1857 में ब्रिटिश सेना का एक रेजिमेंट वेल्लौर में पड़ाव डाले हुए था. नवंबर 1858 में उस रेजिमेंट के कुछ सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया. हथियारबंद मुठभेड़ में कैप्टन हार्ट और जेलर स्टैपफोर्ड मारे गए. चित्तूर के सेशन जज ने जानबूझकर की गई हत्या के आरोप में रेजिमेंट के एक सिपाही पर मुकदमा चलाया और उसे मौत की सजा सुनाई.

सलेम में 1857 विद्रोह शुरू होने की खबर सुनकर काफी शेरगुल मचा था, क्योंकि यह अफवाह थी कि देशभक्तों की सेना उस क्षेत्र में जल्द ही कूच करने वाली है. 1 अगस्त 1857 (शनिवार) की शाम में एक भीड़ पुतनूल सड़क पर अयम परमला चेरी के घर के पास इकट्ठा हुई जिसमें बड़ी संख्या में बुनकर लोग शामिल थे. भीड़ में शामिल लोग कह रहे थे कि भारतीय सैनिक आने वाले हैं और अंगरेजों का झंडा गिर जाएगा. थाना के अर्दली हैदर ने उस भीड़ को कहा कि, “उस दिन इसी समय मद्रास में (भारत का) झंडा फहराया जाएगा”.

विद्रोह के दौरान कोयंबटूर के निकट एक औद्योगिक शहर भवानी में मुलबगालू स्वामी नामक एक सन्यासी ने उपदेश देना शुरू किया कि ब्रिटिश हुकूमत को खत्म कर देना चाहिए. अपनी दैनंदिन की पूजा में वह अपने भक्तों को कहा करते थे, “सभी यूरोपियनों को नष्ट कर देना चाहिए और नाना साहब पेशवा की हुकूमत फैलनी चाहिए.” अंत में उस सन्यासी को अंगरेजों ने गिरफ्तार कर लिया और उसे कोयंबटूर ले आया गया.

विद्रोह फूटने के शुरूआती समय में चेंगलपेट गुप्त बैठकों का और क्रांतिकारी गतिविधियों का अड्डा बन गया था. जुलाई 1857 में सुलतान बख्श मद्रास से चेंगलपेट गया ताकि अपने सहयोि‍गयों की मदद से ब्रिटिश-विरोधी बगावत को संगठित किया जा सके. चेंगलपेट में उसके दो स्थानीय सहयोगी अरुआनागिरि और कृष्णा उस इलाके में पहले से ही विद्रोह की अगुवाई कर रहे थे.

31 जुलाई को चेंगलपेट इलाके में एक विद्रोह हुआ. वह आन्दोलन फैलता गया. 8 अगस्त 1857 को चेंगलपेट के मजिस्ट्रेट ने मद्रास सरकार को इस गंभीर बगावत की खबर दी.