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चित्र : डेविड ओलेर **

पिछले अध्यायों में हमने नात्‍ज़ीवाद की उत्पत्ति, विकासक्रम, और मूल विशेषताओं, एन.एस.डी.ए.पी. की राजनीतिक लाइन के उद्दण्ड तख्ता-पलट बगावत से संसदीय व गैर संसदीय (उन्मादी-आतंकी) संघर्ष रूपों के परिणामवादी संश्रय में विकास, और अंत में हिटलर के सबसे पहले राइक चान्सलर और फिर इस आधार कैम्प से निरंकुश तानाशाही के शिखर तक नाटकीय आरोहण-उभार की रूपरेखा प्रस्तुत की है. अब यहाँ इनसे सीखे गए सबकों को रेखांकित करना उपयोगी होगा.

उन्मादी वक्तृता और आतंक का आवेगी संश्रय

नात्‍ज़ीवाद महज बेलगाम हिंसा, पुरानी साजिशों, चरम क्रूरता और व्यापकतम पैमाने पर दमन का ही नाम नहीं है. इन सब के साथ यह बराबर से गलाफाडू, व्यापकतम, निरंतर चलने वाला प्रोपेगैंडा और घुट्टी पिलाने वाला जन-दीक्षा (इंडाक्ट्रिनेशन) अभियान भी है. यह सिर्फ लोगों की पाशविक प्रवृत्तियों और प्रतिगामी विचारों/विश्वासों को ही अपील नहीं करती; यह राष्ट्र के प्रति निःस्वार्थ सेवा और महान उद्देश्य के लिए बलिदान-त्याग जैसी आदर्श भावनाओं को भी आवेग दे सकती है. इसलिए यह सिर्फ उजड्ड और लम्पट सर्वहारा को ही नहीं, बल्कि सच्चे देश भक्तों और आदर्शवादी छात्रों व युवाओं को भी आकर्षित करती है.

वस्तुतः उन्मादी वक्तृता और आतंक का सहयोगी – सहजीवी संश्रय दोनों को ही नृशंस और मारक बना देता है. आतंक केवल विरोध को मौन करने, गतिहीन करने, और कुछ हद तक भौतिक रूप से सफाया करने का ही औजार नहीं था : यह फ़ासिस्टों की दृढ़ इच्छाशक्ति और ताकत की शो-केसिंग में उन्मादी और प्रदर्शनकारी प्रभाव लाने का भी काम करता था, जिसे बहुतेरे लोग जर्मनी की उस अराजकता और अव्यवस्था की स्थिति में समय की जरूरत के रूप में देखते थे. इस तरह यहूदियों को दी गयी नृशंस यातनायें अन्य तमाम लोगों के लिए सन्देश थीं कि फ़ासिस्टों की नाखुशी मोल लेने वाले व्यक्तियों अथवा सामाजिक समूहों की भी नियति यही होगी.

हिटलर के चान्सलर बनने से पहले के सालों में आतंक और उन्मादी वक्तृता के संश्रय समीकरण में उन्मादी वक्तृता प्राथमिक-मूलभूत तत्व थी. फ़ासिस्ट तानाशाही के सुदृढ़ीकरण काल (जनवरी 1933 से जून 1934) के दौर में इस संश्रय का समीकरण उलट गया. ट्रेड यूनियनों को कुचलने और राजनीतिक पार्टियों को प्रतिबंधित करने के साथ-साथ कम्युनिस्टों, सोशल डेमोक्रेटों, और अन्य सत्ता विरोधियों को नियमित रूप से फासिस्ट ब्राउनशर्ट्स के “ब्राउन हाउसों” में बर्बर यातनायें देने के बाद उन्हें टूटी हुई पसलियों- हड्डियों के साथ उनके घरों और काम करने की जगहों पर जीवन्त चेतावनियों के रूप में भेजा जाता था. इसी के समानांतर यहूदी-विरोधी गोलबंदी और यहूदियों के सामाजिक बहिष्कार का अभियान “जर्मनों! केवल जर्मनों से ही खरीदो”, “जर्मनों ! अपनी चिकित्सा किसी और से नहीं बल्कि सिर्फ जर्मन से कराओ”, “जर्मनों ! केवल जर्मनों को ही अपने ऊपर न्याय करने दो”, जैसे नारों के साथ चलाया जा रहा था. इसी के साथ ही “जर्मनों ! केवल जर्मन साहित्य पढ़ो, केवल जर्मन कला का आनन्द लो” जैसे संकीर्ण राष्ट्रवादी/नस्लीय प्रोपेगैन्‍डा की भी कोई कमी नहीं थी.

आज ऐसे नारों के प्रतिरूपों से हम काफी परिचित हैं, जिनमें से काफी सारी पिछली सरकारों द्वारा शुरू की गयीं थीं (तब के जर्मनी और आज के भारत में, दोनों जगह). मगर चुनाव अभियान के दौर में किये गए “सबके लिए सब कुछ” के वादों को पूरा करना आसान काम नहीं था. सरकार ने जनता को फुसलाने के लिए घोषित किया कि इसकी पहली प्राथमिकता समूचे नीतिगत फ्रेमवर्क की सच्ची राष्ट्रवादी दृष्टि के साथ पूरी तरह ओवरहालिंग है (भारत में यह काम नीति आयोग को सौंपा गया) जिसके जरिये भविष्य के कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रभावी बदलावों की नींव डाली जा सके. फ्यूरर ने वादा किया कि एकबार फिर से “नयी जर्मनी” एक खुशहाल – फलता-फूलता राष्ट्र, “नेशनल सोशलिस्ट जनता का कृत्रिम रूप से बांटे गए वर्ग विभाजनों से मुक्त अपना समुदाय” होगा ( मोदी वाणी में “सामाजिक सद्भाव” – सबका साथ-सबका विकास !).

राज्य प्राधिकारियों की मिलीभगत और उभरता हुआ नीतिगत मतैक्यजैसा कि हम देख चुके हैं, ज्यादातर मामलों में न्यायपालिका नात्जि़यों के साथ बेहद नरमी से पेश आती रही थी. अगर बावेरिया सर्वोच्च न्यायालय हिटलर के लिए कानून द्वारा निर्दिष्ट पाँच साल की जेल सज़ा पर दृढ़ रहते हुए उसे 1928 के अंत तक सलाखों के पीछे ही रखता तो जर्मनी का ही नहीं, समूची दुनिया का आधुनिक इतिहास शायद बिलकुल अलग होता, क्योंकि तब उसे सत्ता पर कब्जे के पहले की तैयारी के वे निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण चार साल नहीं मिले होते.

न्यायालय द्वारा छोड़े जाने का आदेश जारी होते ही, हिटलर ने बावेरिया सरकार से पार्टी पर से प्रतिबन्ध हटाने की अपील की और वह इस बिना पर मान ली गयी कि “जंगली को अब पालतू बना लिया गया है”. यह दिखाता है कि किस तरह न्यायपालिका और प्रशासन दोनों ने इस जन्मते पिशाच को कितना कम कर के आँका था. इसी तरह, सेना में भी बहुतों ने, जिनमें सेवारत और सेवा निवृत्त दोनों तरह के शीर्षतम अधिकारी शामिल थे, हिटलर का खुल कर समर्थन किया, इस बात के बावजूद कि भूतपूर्व सैनिकों की भारी जमात फासिस्ट आन्दोलन में उसके लठैतों के रूप में शामिल हो रही थी – इसलिए नहीं कि हिटलर भी कभी सेना में रह चुका था, बल्कि इसलिए कि वे हिटलर के आक्रामक अंधराष्ट्रवाद के खुले और उन्मादी समर्थक थे.

यह जरूर था कि राइक प्रेसिडेंट के रूप में मार्शल हिन्‍डेन्‍बर्ग ने हिटलर का चान्सलर बनना काफी समय तक रोके रखा था. मगर ऐसा सिर्फ इसलिये था कि वह अच्छी तरह से जानता था कि हिटलर ज्यादा दिनों तक उसके प्राधिकार के मातहत नहीं रहने वाला था. नागरिक सेवाओं में हिटलर से सहानुभूति रखने वाले बहुतेरे अधिकारियों ने भी सैन्य बलों की तरह एन.एस.डी.ए.पी. की तमाम तरीकों से मदद की.

राज्य प्राधिकारियों का सहयोग अथवा सक्रिय मिलीभगत शासक वर्गों और उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों की वृहत्तर सहमति का प्रतिबिम्बन था कि रिपब्लिकन सरकार को हर हाल में बाहर का रास्ता दिखाना है, बेहतर हो अगर ऐसा संवैधानिक रास्ते से हो सके. इस नीतिगत आकांक्षा के चलते नात्‍ज़ी नेता के प्रति नफ़रत और भय के बावजूद उसके प्रतिद्वंदियों के लिए उनमें से सबसे ज्यादा भीड़ खींचने वाले को नज़रन्दाज करना असंभव था. यह राजनीतिक अपरिहार्यता अन्ततः वैयक्तिक और पार्टीगत प्रतिद्वंदिता पर भारी पड़ी और हिटलर आम सहमति से चान्सलर बन गया. उसके बाद कैबिनेट में हर किसी ने, यहाँ तक कि राइक प्रेसिडेंट ने भी वस्तुतः अपनी मूर्खता में- अपने विनाश की कीमत पर बुर्जुआ जनतंत्र की समूची नींव व अधिसंरचना को ध्वस्त करने और सारी ताकत अपने हाथों में केन्द्रित कर लेने में हिटलर की मदद की. यदा-कदा होने वाले आतंरिक मन-मुटावों के बावजूद, वाम धारा के अलावा समूचे राजनीतिक वर्ग ने “फ्यूरर स्टेट” बनाने में सहयोगी की भूमिका निभायी.

वस्तुगत परिस्थितियाँ और व्यक्ति की भूमिका

हिटलर ने अपने से कहीं ज्यादा अनुभवी प्रतिद्वंदियों पर बरतरी इसलिये हासिल की क्योंकि निश्चित रूप से वह उस जमात का सबसे योग्य खिलाड़ी था. राष्ट्रवाद के प्रभावी विमर्श के साथ “सोशलिस्ट” जोड़ कर उसने इसे गरीब हितैषी, मजदूरवर्ग हितैषी रंग-रोगन से सजा कर जर्मनी में सफलता पूर्वक बुर्जुआ राजनीति की एक नयी शैली अथवा प्रवृत्ति की शुरुवात की जिसे आज दक्षिण पंथी पापुलिज्म के नाम से जाना जाता है. दूसरी तरफ इसी के साथ “विशुद्ध जर्मन आर्य नस्ल” के लिए यहूदी के रूप में “अन्‍य” ईजाद कर के उसने एक ऐसा मनमाफिक निरीह सताए जाने लायक “आतंरिक दुश्मन” गढ़ा जिसके खिलाफ बहुसंख्यावादी जर्मन नस्‍लीय समुदाय को पार्टी के सामाजिक आधार के बतौर ध्रुवीकृत और गोलबन्द किया जा सकता था. “नेशनल सोशलिस्ट क्रांति” के इस विमर्श में “राष्ट्रीय” का मतलब नस्लवादी-बहुसंख्यावादी अंधराष्ट्रवाद की एक नयी प्रजाति, और “सोशलिस्ट” का मतलब छलावे की जुमलेबाजी के अलावा कुछ नहीं था. फासिस्ट औजारों के समूचे भंडार में उन्मादी वक्तृता और आतंक, राजनीतिक छल-प्रपंच और चालबाजियां, और निश्चय ही फ्यूरर पूजा के इर्द-गिर्द बुना गया यह टीम वर्क शामिल था. हिटलर ने इन सभी औजारों का अदभुत धूर्त दक्षता और दृढ़ निश्चय, कार्यनीतिक लचीलेपन व रणनीतिक चपलता, शातिर प्रवीणता व मिथ्यावादिता के साथ युद्धोत्तर परिस्थितियों को अपने अधिकतम फायदे, अपने वाम विरोधियों को हराते व दक्षिणपंथी प्रतिस्पर्धियों को पछाड़ते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किया. इन सब के बावजूद अन्ततः वह अपने को और अपनी सत्ता को बचा पाने में नाकामयाब रहा, यह एक अलग कहानी है.


“हिटलर के बिना नेशनल सोशलिज्म का उभार सोचा भी नहीं जा सकता था. उसके अभाव में, पार्टी राजनीतिक फलक के दक्षिण के तमाम जातीय-अंधराष्ट्रवादी गुटों में से एक बन कर रह गयी होती. इसके बावजूद युद्ध के तुरन्त बाद के सालों में बावेरिया और जर्मन रीख दोनों की ही विशिष्ट परिस्थितियाँ भी निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण थीं : आर्थिक त्रासदी, सामाजिक अस्थिरता और सामूहिक सदमे के विस्फोटक मिश्रण के बिना पापुलिस्ट आंदोलक-उद्वेलक हिटलर कभी भी गुमनामी के अँधेरे से निकल कर मशहूर राजनीतिज्ञ बनने की राह नहीं तय कर पाता. उस समय की परिस्थितियाँ हिटलर के हाथों में खेल गयीं और वह उनका इस्तेमाल करने में राष्ट्रवादी चरम दक्षिण के अपने किसी भी प्रतिद्वन्दी के मुकाबले कहीं ज्यादा धूर्त, अनैतिक, बेईमान और शातिर था.”

–  वोल्कर उलरिश, “हिटलर एसेंट 1889 -1939”


आन्दोलन से राजसत्ता तक

हिटलर और मुसोलिनी दोनों की ही कहानियां हमें बताती हैं कि नात्‍ज़ीवाद/फासीवाद एकाधिकारी बुर्जुआ की सेवा करता है और अन्ततः उसकी कभी न संतुष्ट होने वाली और विस्तारवादी महत्वाकांक्षा का एक औजार बन जाता है, मगर वह इसके द्वारा उत्पादित नहीं होता[1]. बल्कि वह बुर्जुआ द्वारा अंगीकार किया जाता है जब आर्थिक व सामाजिक-राजनीतिक संकट के दौर में वह सत्ता पर काबिज हो चुका होता है या कम से कम सत्ता तक पहुंचने की दहलीज पर होता है. एक बार सत्ता पर कब्ज़ा कर लेने के बाद फासीवाद जल्द से जल्द खुद को अति-प्रतिक्रियावादी राजनीतिक प्रवृत्ति/आन्दोलन से वित्तीय पूँजी के सबसे प्रतिक्रियावादी-अंधराष्ट्रवादी – साम्राज्यवादी विस्तारवादी तत्वों की खुली आतंकी तानाशाही में बदलने की राह पकड़ता है (नवम्बर-दिसंबर 1933 में कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की कार्यकारिणी के तीसरे विस्तारित प्लेनम में दी गयी परिभाषा). उल्लेखनीय है कि यह परिभाषा केवल सत्ता पर काबिज हो चुके फासीवाद पर लागू होती है, सत्ता में पहुँचने की जद्दोजहद करती पार्टी पर नहीं.

यह भी जरूरी है कि फासीवादी आन्दोलन की सामाजिक संरचना को फासीवादी प्रोजेक्ट अथवा किसी खास फासीवादी गुट/पार्टी का आम वर्ग चरित्र मान लेने के भ्रम में न रहा जाये. फासीवादी आबादी के हर हिस्से से अपने अनुयायियों की तलाश और भर्ती करते हैं, मगर वे खास रूप से बेरोजगार युवाओं, बिना रोजगार के मजदूरों, हताश-निराश बुद्धिजीवियों, और संकटग्रस्त लघु उत्पादकों – संक्षेप में आर्थिक संकट व सामाजिक अस्थिरता के कारण सबसे ज्‍यादा पीड़ित लोगों, जो अभी तक वाम दलों के राजनीतिक व संगठनात्‍मक दायरे के बाहर हैं, के बीच सफल रहते हैं[2]. इस तरह फासीवादी पार्टी का सामाजिक आधार अथवा दूसरे शब्दों में फासीवादी आन्दोलन की सामाजिक संरचना में पेट्टी बुर्जुआ और गरीबों की बहुलता के बावजूद विविधता बनी रहती है. मगर इसका वर्ग चरित्र इसकी वर्ग नीति और विचारधारा उस वर्ग से निर्धारित होती है जिसकी यह सेवा करता है और सत्ता में आने के बाद और भी नंगई के साथ सेवा के लिए राजनीतिक रूप से निर्दिष्ट होता है. अपनी शुरुवात के साथ ही नात्‍ज़ी पार्टी ने, ट्रेड यूनियनों पर भौतिक और मार्क्सवाद/बोल्शेविकवाद पर विचारधारात्मक हमले शुरू कर दिए, और वह भी ऐसे समय में जब कि जर्मनी अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग आन्दोलन की अग्रिम पंक्ति में खड़ा था. इन हमलों के जरिये नात्‍ज़ी पार्टी ने जर्मनी और दुनिया के बुर्जुआ की कर्तव्यनिष्ठ सेवा की और सत्ता में आने बाद इसने दुनिया की किसी भी अन्य सरकार के मुकाबले बढ़-चढ़ कर पूँजी की सेवा की. फासीवादी राज्य ने यह सेवा न केवल श्रम के दमन और नियंत्रण, और बुनियादी ढांचे, हथियार व सम्बंधित क्षेत्रों में जबरदस्त राजकीय निवेश के जरिये बाजार की सकल मांग वृद्धि सुनिश्चित करते हुए, बल्कि तमाम सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के निजीकरण जैसे अल्पज्ञात नीतिगत उपायों से भी की.

अप्रतिरोध्य ? व्यापक जन समुदाय और वाम

महान मार्क्सवादी कवि और नाटककार व हिटलर के समवर्ती बर्तोल्त ब्रेश्‍त ने इस उन्मत्त महत्वाकांक्षी पिशाच के उत्कर्ष को बेहद बारीकी से देखते-परखते हुए कहा था कि इसे रोका जा सकता था. ब्रेश्‍त के एक बहुत ही मौजूं और महत्वपूर्ण नाटक से इस पुस्तिका का शीर्षक उधार लेते हुए, हम भी इस दृष्टिकोण से सहमत हैं, और हमारा विश्वास है कि यहाँ जुटाए गए सारे तथ्य भी इसकी पुष्टि करते हैं.

क्या हैं ये तथ्य ?

जैसा कि हम देख चुके हैं, हिटलर 50% से ज्यादा के स्पष्ट मतादेश के बल पर सत्ता में नहीं आया था. एक-के-बाद-एक पूर्ववर्ती सरकारों के अल्प जीवन से पैदा होने वाली राजनीतिक शून्यता का फ़ायदा उठाते हुए उसने एक मज़बूत और स्थायी सरकार देने, सामाजिक अराजकता का अंत करने के वादे और अपनी राष्ट्रीय-समाजवादी लफ्फाजियों के बल पर जनता के बड़े हिस्से को आकर्षित किया. सितम्बर 1930 और जुलाई 1932 के दौरान एन.एस.डी.ए.पी. ने इसका चुनावी फ़ायदा उठाने में लगातार बढ़त बनायी, मगर 6 नवम्बर के राइकस्‍ताग चुनावों में इसे भारी धक्का लगा जब इसकी सीटें चार महीने पहले के 230 से घट कर 196 रह गयीं. दिसंबर में भी नात्‍ज़ी अश्वमेध का रथ थुरिन्गिया चुनाव में करीब 40% मतों के नुक्सान के साथ ध्वस्त हो गया. मगर इसके बावजूद अगले ही महीने में हिटलर की चान्सलर के रूप में ताजपोशी हो गयी – कैसे, यह हम देख चुके हैं और निश्चय ही यह अपरिहार्य बिलकुल नहीं था.

क्या जर्मनी की जनता यहूदियों के खिलाफ हिटलर के राजनीतिक व भौतिक युद्ध में शामिल थी? बिलकुल नहीं. इसके बावजूद फासिस्ट यहूदी अल्पसंख्या और जर्मन जातीय बहुसंख्या के बीच खायी खोदने में सफ़ल रहे. इस बहुसंख्या ने नंगी बर्बरता के ताण्डव को अनावश्यक व अन्यायपूर्ण अतिरेकों के रूप में देखते हुए भी नस्लीय आधार पर कानूनी भेदभाव और बहिष्करण को निष्क्रिय रह कर स्वीकार कर लिया. नात्‍ज़ी, यहाँ के संघियों की तरह ही ऐसे अभियानों के बल पर मतदाताओं के सामने बहुसंख्या की तथाकथित श्रेष्ठता के सबसे आक्रामक और इसलिए सबसे प्रभावी चैम्पियन बन कर आये. निःसंदेह इस रणनीति का उन्हें चुनावों में भरपूर फ़ायदा मिला.

इन सब के बावजूद वाम हमेशा ही सबसे मजबूत चुनौती की ताकत बना रहा. अपनी शुरुवात से, वेइमार रिपब्लिक वाम का गढ़ था. 1919 के पहले राइकस्‍ताग चुनावों में एस.पी.डी. और यू.एस.पी.डी. (जो 1917 में एस.पी.डी. से अलग हुई थी) को मिला कर 45.6% वोट मिले थे. राइकस्‍ताग के अंतिम चुनाव नतीजों पर भी नजर डालने पर पाते है कि दोनों वाम पार्टियों (एस.पी.डी. और के.पी.डी.) के सम्मिलित जीते प्रतिनिधियों की संख्या (नात्जि़यों के 196 के मुकाबले 221) और मत अनुपात (नात्जि़यों के 33. 09% के मुकाबले 37. 29%) दोनों ही दृष्टियों से नात्जि़यों से कहीं ज्यादा थी[3]. अगर दोनों पार्टियों ने मिल कर चुनाव लड़ा होता और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि अगर उन्होंने मिल कर फ़ासिस्टों का सड़कों पर, फैक्ट्रियों और खेतों में मुकाबला किया होता, तो उन्होंने न सिर्फ चुनावी जंग में और भी अधिक प्रभावी और निर्णायक प्रदर्शन किया होता, बल्कि फ़ासिस्टों को राजनीतिक व नैतिक रूप से भी करारी मात दी होती. वाम की लगातार बढ़ती हुई यह चुनौती संभवतः एक बड़ा कारण थी जिसके चलते राजशाही अभिजात्य हिन्‍डेन्‍बर्ग समेत शासक वर्गों और उनके प्रतिनिधियों ने अन्ततः पूँजी के शासन को बचाए रखने के लिए अंतिम उपाय के बतौर नात्जि़यों को स्वीकार किया. जिस तरह से विभाजित वाम ने इस विशाल और ज्यादातर संगठित व सचेत व्यापक जन समर्थन को बरबाद कर दिया, वह इतिहास का एक ऐसा नितान्त दुखदायी अध्याय है जिसमें हमारे लिए आज की परिस्थितियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण सबक हैं.

दोनों वाम पार्टियों की एकजुट होने में विफलता उनकी विपरीत विचारधारात्मक व राजनीतिक अवस्थितियों में निहित थी. 1914 से ही, जब एस.पी.डी. नेतृत्व ने प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मन साम्राज्यवादियों का पक्ष लिया था, और इस तरह सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद व क्रन्तिकारी मार्क्सवाद से बुर्जुआ राष्ट्रवाद व संशोधनवाद में पतित हुए थे, और जब पार्टी के क्रन्तिकारी हिस्सों ने अलग हो कर स्पार्टाकस लीग बना ली थी (जो के.पी.डी. की पूर्वपीठिका बनी), दोनों पार्टियां लगातार एक दूसरे से दूर होती चली गयी थीं और अक्सर एक दूसरे से टकराती रहती थीं. 1919 में उन्होंने एक दूसरे को क्रांति और प्रतिक्रांति के विपरीत छोरों पर खड़े पाया : एबर्ट-शायदेमान सरकार ने लक्जेम्बर्ग और लीबनेश्‍त सहित क्रांतिकारियों के खिलाफ फ्रीकार्प भेड़ियों को छोड़ दिया. इसके बाद से के.पी.डी. लगातार जुझारू गैर-संसदीय संघर्षों के साथ संसदीय संघर्षो को जोड़ने, (गैर-संसदीय पर स्पष्ट बल के साथ) की नीति पर चलती रही. दूसरी ओर एस.पी.डी. ने संसदीय संकीर्णतावाद और अर्थवाद के दलदल में धंसते हुए अपने कृषि सुधार कार्यक्रम से भी किनारा कर लिया. 1929 में बर्लिन ने “‍ब्‍लुटमाई” – ख़ूनी रविवार – का त्रासद नज़ारा देखा जब एस.पी.डी. सरकार ने के.पी.डी. रैली पर गोलियाँ चलवा कर तीस लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. दूसरी ओर के.पी.डी. ने 1931 में अपने को नितान्त हास्यास्पद बना लिया जब पहले तो उसने नाजियों द्वारा प्रशिया सरकार को अपदस्थ करने के लिए प्रायोजित जनमत संग्रह का विरोध किया और जब एस.पी.डी. ने विरोध के लिए उसके संयुक्त मोर्चे में शामिल होने से इंकार कर दिया, उसी जनमत संग्रह को “लाल जनमत संग्रह” बताते हुए उसका समर्थन करना शुरू कर दिया ! फ़ासिस्टों और अन्य धुर दक्षिण पंथी गुटों के साथ कम्युनिस्टों को एक जनतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकार को हटाने के लिए अभियान चलाते देखना बेहद तकलीफदेह नज़ारा था. बहरहाल, जर्मनी की जनता कहीं ज्यादा परिपक्व और समझदार निकली और उसने जनमत संग्रह को भारी अन्तर से नकार दिया.

दोनों पार्टियों के बीच लगातार टकराहटों की जड़ एक दूसरे के प्रति उनका नितान्त नकारात्मक राजनीतिक नजरिया और आकलन था. के.पी.डी. का मानना था कि गंभीर पूंजीवादी संकट के सन्दर्भ में यह सामाजिक जनवाद था जो मजदूरों को पूंजीवाद से लड़ कर उसे समाप्त करने से रोकता था (यहाँ तक बात सही थी) और इसलिए वही मुख्य दुश्मन था (जो बिलकुल गलत था); इसके चलते “सामाजिक फासीवाद” की खतरनाक थीसिस ने जन्म लिया जिसमें सोशल डेमोक्रेसी और फासीवाद को जुड़वाँ भाइयों की तरह देखा जाने लगा. कई अवसरों पर के.पी.डी. ने संयुक्त संघर्ष के लिए अपील की मगर एस.पी.डी. हमेशा ठुकराती रही. 1931 के लीप्जिग पार्टी अधिवेशन में एस.पी.डी. चेयरमैन ओट्टो वेल्स ने कहा – “बोल्शेविज्म और फासीवाद भाई हैं. वे दोनों ही हिंसा और तानाशाही पर टिके हैं, भले ही चाहे जितना सोशलिस्ट या रेडिकल वे खुद को दिखायें.” इस स्तर की परस्पर शत्रुता से, यह स्वाभाविक था कि निचले स्तरों पर कुछ अनुकरणीय कामरेडाना उदाहरणों के बावजूद दोनों पार्टियाँ यहाँ तक कि आत्मरक्षा में भी एकजुट नहीं हुईं. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि एस.पी.डी. नेतृत्व की नीतिगत अपंगता के बावजूद उनकी कतारें और राइकस्‍ताग डेपुटियों समेत कई नेता नात्‍ज़ी चान्सलर के भयावह कदमों का जोरदार प्रतिरोध करते रहे.

वाम नेतृत्व की राजनीतिक कमियों और पहाड़ जैसी भूलों के सापेक्ष जो बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण आश्वस्ति देती है, वह है जर्मन श्रमिकों का फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध में गजब का साहस, प्रतिबद्धता और वर्गीय एकता. प्रोफ़ेसर हेट्ट “वर्ग संघर्ष और हिटलर का उभार” में लिखते हैं : “1930 में राइकस्‍ताग चुनावों में जब नात्जि़यों ने 18.3% की बढ़त पा ली थी, फैक्ट्री काउंसिलों के चुनावों में उन्हें प्रतिनिधियों की संख्या का नितान्त निराशाजनक मात्र 0.51% ही हासिल हुआ”. मगर पार्टी नेताओं के ऐसे किसी भी संघर्ष के विचार से भय से काँप उठने का हवाला देते हुए, जिसके क्रांति या गृहयुद्ध में विकसित हो जाने की सम्भावना हो, हेट्ट आगे कहते हैं : “1931 में ईजेर्ने फ्रंट (आयरन फ्रंट)[4] की स्थापना नेतृत्व की राजनीतिक निष्क्रियता से कतारों के असंतोष की काट के लिए की गयी थी. आयरन फ्रंट की एक रैली में एक कार्यकर्ता ने कहा कि सोशलिस्ट अगर केवल जनतांत्रिक तरीकों से फ़ासिस्टों का मुकाबला करना चाहते हैं तो वे पागलखाने भेज दिए जाने लायक हैं. और एक एस.पी.डी. दुकान कर्मचारियों की बैठक में किसी ने तर्क दिया कि अगर दूसरे गृह युद्ध की चुनौती दे रहे हैं तो हम उनके सामने शांति का हाथ नहीं लहरा सकते, अगर दूसरे गोलियों की बौछार कर रहे हैं तो हम कैंडी नहीं उछाल सकते. 1931 की गर्मियों में ही एस.पी.डी. नेतृत्व ने सोशलिस्ट यूथ संगठन को भंग कर दिया क्योंकि वह नेतृत्व की कन्जर्वेटिव दिशा-दृष्टिकोण का लगातार विरोध कर रहा था.”

हमारे देश में आज हम और मजदूर वर्ग भाजपा सरकार के खिलाफ संघर्ष के अग्रिम मोर्चे पर मार्च कर रहे हैं. भारतीय वाम सौ साल पहले के अपने जर्मन कामरेडों जितना भले ही मज़बूत न हो, मगर अच्छी बात यह है कि वे न सिर्फ अपनी नज़दीकियाँ बढ़ा रहे हैं, बल्कि दलित संगठनों आदि संघर्षशील ताकतों के साथ भी जुड़ रहे हैं. बुर्जुआ पार्टियों की बहुतायत भाजपा-एनडीए कुनबे में शामिल होने के बजाय शासकीय गंठजोड़ के खिलाफ एक संयुक्त विरोध खड़ा करने का प्रयास कर रही हैं मगर उनमें से ज्यादातर बढ़ते हुए आतंरिक कलह का शिकार हैं. भारत में फासीवाद का निश्चित रूप से सफल प्रतिरोध किया जा सकता है और उसे चुनावी जंग और सामाजिक-राजनीतिक ताकत दोनों ही क्षेत्रों-मोर्चों पर निस्संदेह निर्णायक मात दी जा सकती है.

फुट नोट :

1. उद्योग जगत के महाबलियों ने ट्रेड यूनियन आन्‍दोलन पर नाज़ी हमलों का समर्थन किया, पर उनके द्वारा फैलाई गयी सामाजिक अव्‍यवस्‍था का वे विरोध करते थे. यह प्रेम-बैर वाला संम्‍बंध 1928 से पूरी तरह नाज़ी समर्थन में बदल गया जब बड़े पूंजीपति वर्ग और उसकी पार्टियों को लगा कि अब खुल कर बोलने का समय आ गया है और नाज़ी पार्टी सत्‍ता की ओर तेजी से बढ़ रही है.

2. जर्मनी में फासिस्‍टों और वामपंथियों के बीच समान सामाजिक आधारों के बीच राजनीतिक प्रभुत्‍व बनाने की रस्‍साकसी साफ साफ दिखाई दे रही थी. जहां वर्ग सचेत संगठित मजदूर सामाजिक जनवादियों और कम्‍युनिस्‍टों का मजबूत आधार बने रहे, वहीं अन्‍य दमित-उत्‍पीडि़त तबकों के बीच सामाजिक जनवादी वोट बैंक के बड़े हिस्‍से को फासीवादी अपनी ओर जीतने में सफल रहे. इस अनुभव से हम सीख सकते हैं कि फासीवाद को रोकने के लिए वाम को अपने पारम्‍परिक मजदूर/ मजदूर-किसान आधार से आगे जा कर आबादी के अन्‍य तबकों में राजनीतिक और सांगठनिक कार्यों को विस्‍तार देना जरूरी है.

3. पिछले चुनावों में (जुलाई 1932) एस.डी.पी. और के.पी.डी. ने 222 सीटें हासिल कीं जो एन.एस.डी.ए.पी. से मात्र 8 कम थीं, और इनका वोट प्रतिशत मिला कर 35.9 था जो एन.एस.डी.ए.पी. के 37.27 प्रतिशत से मात्र 1.37 प्रतिशत कम था.

4. नाज़ी विरोधी, राजशाही विरोधी और कम्‍युनिस्‍ट विरोधी अर्धसैन्‍य संगठन जो दिसम्‍बर 1931 में एस.पी.डी. ने बनाया था. यह मजदूर वर्ग, उदारवादी समूहों और एस.पी.डी. के युवा संगठन के संयुक्‍त मोर्चे के रूप में काम करता था.

** डेविड ओलेर को मार्च 1943 से जनवरी 1945 तक आश्वित्‍ज़ में “सोन्देरकोमान्दो” (एक खास तरह के बंधुआ मजदूर) के तौर पर बन्दी रखा गया था, जिसका काम मृत्युदाह की भट्ठियों में झोंके गए लोगों के अवशेषों को खाली करना और गैसचेम्बरों से लाशों को हटाना था. वह नाज़ियों के पैशाचिक प्रयोगों का भी गवाह था और उससे जबरन चित्रकार और एस.एस. के लिए चिट्ठियां लिखने वाले का काम लिया जाता था. 1945 में मुक्त होने के बाद उसने उन लोगों के प्रति अपने श्रद्धांजलि दायित्व के रूप अपनी कला सर्जना की शुरुवात की जो इस पिशाच लीला में जीवित नहीं बच सके थे.

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