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27 फरवरी 1933 को राइकस्‍ताग में लगी आग

फ़रवरी के मध्य में यह अफवाह फैली कि हिटलर की हत्या के प्रयास का झूठा बहाना गढ़ कर नात्‍ज़ी खून की होली खेलने की योजना बना रहे हैं. ऐसे भयावह अराजक वातावरण में 27 फ़रवरी 1933 को खबर आयी कि राइकस्‍ताग में आग लग गयी है. हालांकि आग के कारणों का अभी पता लगाया जाना बाकी था, मगर गोएरिंग दहाड़ा “यह कम्युनिस्ट विद्रोह की शुरुवात है. अब वे हमला करेंगे. हाँ अब एक पल भी नहीं गवां सकते !” रुडोल्फ दिएल्स ने, जिसे गोएरिंग ने गेस्टापो का प्रमुख नामित किया था, बाद में याद किया : “हिटलर दहाड़ा ... अब कोई दया-माया नहीं होगी. जो भी हमारे रास्ते में आयेगा, काट डाला जायेगा ... हर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता को वहीं गोली मार दी जायेगी. कम्युनिस्ट डेपुटियों को इसी शाम फाँसी पर लटका दिया जाना चाहिये. कम्युनिस्टों से रिश्ता रखने वाले हर किसी को गिरफ्तार किया जाना है. सोशल डेमोक्रेटों और राइकस्‍ताग झंडे के साथ भी कोई नरमी नहीं बरती जानी है.”

हिटलर, दिएल्स की इस बात को सुनने के लिए राजी ही नहीं था कि आगजनी में गिरफ्तार आदमी मरिनस वन देर लूबे एक अधपागल था. हिटलर ने कहा “यह बिलकुल साफ़-साफ़ बेहद चतुरायी से बनायी गयी योजना है. अपराधियों ने इसे पूरी तरह से सोच-समझ कर अंजाम दिया है.”

आग के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार था, यह सवाल कभी नहीं सुलझा. जो बात बिलकुल निर्विवाद है वह यह कि (i) के.पी.डी. के शामिल होने का लेश मात्र साक्ष्य भी कभी प्रस्तुत नहीं किया गया, और (ii) नात्‍ज़ी राइकस्‍ताग की आग को ले कर लेश मात्र भी दुखी नहीं थे. इसके विपरीत यह के.पी.डी. के खिलाफ निर्णायक चोट करने का मुंहमांगा बहाना बन गया. उसी शाम बाद में जब नात्‍ज़ी होटल कैसरहोफ में जुटे, काफी तनावहीन-खुशनुमा मूड में थे. गोएबेल्स ने लिखा : “हर कोई पूरे उत्साह में था... ठीक वही हुआ था जिसकी हमें जरूरत थी. अब हम पूरी तरह आगे हैं.” जैसा 27 फ़रवरी 2002 को भारत में गोधरा ट्रेन दुर्घटना में अनुमान लगाया जाता है, सारे परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को ध्यान में रख कर इतिहासकार यह निष्कर्ष निकलते हैं कि राइकस्‍ताग में आग खुद नात्जि़यों ने लगाई थी और इसका आरोप कम्युनिस्टों पर मढ़ दिया.

27-28 फ़रवरी की रात तक के.पी.डी. के अगुआ नेता और करीब-करीब सभी राइकस्‍ताग डेपुटी गिरफ्तार हो चुके थे. 3 मार्च को के.पी.डी. चेयरमैन एर्न्स्ट थालमन को खोज कर गिरफ्तार कर लिया गया. कार्ल लीबनेश्‍त के घर से तथाकथित रूप से बरामद दस्तावेज से दिखाया गया कि कम्युनिस्ट “आतंकवादी गिरोहों” को बनाने, सार्वजनिक भवनों में आग लगाने, सार्वजनिक भोजनालयों के खानों में जहर मिलाने, और मंत्रियों व अन्य शीर्ष नेताओं-व्यक्तियों के बीबी-बच्चों को बंधक बनाने की साजिश रच रहे थे. हालांकि कोई भी देख-समझ सकता था कि यह भयावह परिदृश्‍य फंसाने के लिए गढ़ा गया पूरी तरह झूठा आविष्कार था, मगर इसके आधार पर हिटलर के साथी जनता और राज्य की सुरक्षा के लिए राजाज्ञा जारी करने पर तुरंत राजी हो गए जिसके जरिये “अगली सूचना तक” सारे मूलभूत नागरिक अधिकार – जिनमें निजी आज़ादी, अभिव्यक्ति और एकत्रित होने की स्वतन्त्रता और पत्रों व टेलिफोन बात-चीत की निजता शामिल थी, मुल्तवी कर दिए गए.

28 फ़रवरी की राजाज्ञा को उस आपात कानून के रूप में जाना जाता है जिसके बूते नेशनल सोशलिस्ट तानाशाही तब तक टिकी रही जब तक कि वह खुद ध्वस्त नहीं हो गयी. 3 मार्च को फ्रैंकफर्ट में अपने भाषण में गोएरिंग ने यह बात बिलकुल साफ़ कर दी कि उसे मिली इस नयी ताकत से वह क्या करना चाहता था. उसने निर्देश जारी किये कि इसके प्रावधानों को किसी भी कानूनी बंदिश से सीमित नहीं किया जा सकता है : “इस मामले में, मुझसे किसी न्यायशीलता की अपेक्षा नहीं है. मुझसे एकमात्र अपेक्षा सफाया करने की है और इससे ज्यादा कुछ भी नहीं”.

जैसा कि अन्य सारे मामलों में था, हिटलर को यहाँ भी सरकार में शामिल दूसरे लोगों से किसी भी तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. हिन्‍डेन्‍बर्ग को भी राजाज्ञा पर दस्तखत करने में कोई आपत्ति नहीं थी जिसे उसे “कम्युनिस्ट हिंसा के खिलाफ कदम उठाने के लिए विशेष अधिनियम” के रूप में बेचा गया था. जाने-अनजाने में राइक प्रेसिडेंट के राजनीतिक प्राधिकार को उसने राइक सरकार को हस्तांतरित करने में मदद की.

चुनाव का प्रहसन

अमेरिकी राजदूत फ्रेडरिक सैकेट ने 5 मार्च 1933 के चुनावों को “प्रहसन” बताया क्योंकि लेफ्ट विंग पार्टियों को “प्रचार अभियान के अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण हफ्ते में अपने समर्थकों को संबोधित करने के उनके संवैधानिक अधिकारों से पूरी तरह से वंचित कर दिया गया था”.

फिर भी, 88.8% असाधारण वोटिंग के बावजूद एन.एस.डी.ए.पी. सम्पूर्ण बहुमत के घोषित लक्ष्य से काफी दूर रह गयी. उसे 43.9% वोट मिले, नवम्बर 1932 चुनाव से 10.8% ज्यादा. बर्लिन मेट्रोपोलिटन सहित ऐसे कई इलाकों में उन्हें इस बार काफी बढ़त मिली जहाँ वे अब तक कमजोर रहे थे. नात्जि़यों ने पिछली बार वोट न देने वालों की काफी बड़ी संख्या को अपने पक्ष में गोलबंद कर लिया था.

दूसरी ओर तमाम साजिशों और दमन के बावजूद एस.पी.डी. को 18.3% (पिछली बार से 2.1% कम) और के.पी.डी. को 12.3% (4. 6% कम) वोट मिले. सारी बाधाओं का मुकाबला करते हुए दोनों वाम धारा पार्टियों ने करीब एक तिहाई वोट हासिल कर लिए थे. कुल मिला कर नतीजे यही दिखा रहे थे कि नात्‍ज़ीवाद के खिलाफ वाम-जनतांत्रिक विरोध अभी भी काफी मजबूत था.

जनता की ओर से बार-बार धकियाये जाने और राइकस्‍ताग में लगायी गयी आग के बाद भी निर्णायक बहुमत ला कर अकेले शासन का प्राधिकार दिला पाने में असफल हो जाने पर, हिटलर अब दूसरे उपायों की ओर बढ़ा जो उसे वस्तुतः तानाशाह बना सकें. इस बार भी उसने जाहिर तौर पर “संवैधानिक” अनुमति हासिल कर ली. इस अनुमति में सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण चुनाव के बाद पारित किया गया “इनेबलिंग” कानून था.

23 मार्च : इनेबलिंग कानून

राइकस्‍ताग भवन में आग लग जाने के बाद उसके उपयोग लायक नहीं रह जाने के कारण राइकस्‍ताग की बैठक23 मार्च 1933 को क्रोल ओपेराहाउस में बेहद दबाव और धमकी भरी पृष्ठभूमि में हुई. एस.पी.डी. डेपुटी विल्हेल्म होएग्नर के अनुसार : “क्रोल ओपेरा के बाहर का चौक उन्मत्त फ़ासिस्टों से भरा पड़ा था. हमारी अगवानी ‘हमें चाहिये इनेबलिंग कानून’ के उन्मादी नारों से हुई. अपनी छातियों पर स्वातिका टांगे नौजवानों ने हमें ऊपर से नीचे तक नफ़रत से घूरते हुए हमारा रास्ता रोक लिया. “मध्यमार्गी सूअर” और “मार्क्सिस्ट सुअरियां” जैसी गालियों से चुनौती देते-धमकाते हुए उन्होंने हमें दौड़ा लिया. जब हम सोशल डेमोक्रेटो ने असेंबली के बाहरी बायीं तरफ अपनी जगह ले ली, एस.ए. और एस.एस. के आदमियों ने निकास के बाहर और हमारे पीछे की दीवार से लग कर अर्ध चंद्राकार घेरा बना लिया. ग्रैंड स्टैंड (मंच) के आगे, जहाँ सरकार के लोग बैठे थे, एक विशाल स्वास्तिका झन्डा लटक रहा था मानो यह नात्‍ज़ी पार्टी का कार्यक्रम था न कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों का कोई सत्र. दो दिन पहले खुद को नागरिक वेश-भूषा में दिखाने के बाद हिटलर आज फिर ब्राउन शर्ट में था.”

जनता और राइक के संकटों को दूर करने का कानून, जैसा कि इनेबलिंग कानून को आधिकारिक तौर पर कहा गया, एक संविधान संशोधन विधेयक था. संविधान के अनुच्छेद 76 के अनुसार संविधान संशोधित करने के लिए राइकस्‍ताग और उपस्थित डेपुटियों, दोनों का दो-तिहाई बहुमत जरूरी था. चूंकि नात्जि़यों और उनके सहयोगियों की संख्या इसके लिए पर्याप्त नहीं थी, इसलिय एक शातिर चाल खेली गयी. सबसे पहले, राइकस्‍ताग आग राजाज्ञा के तहत गिरफ्तार के.पी.डी. डेपुटियों की 81 सीटों को अवैध-अमान्य कर दिया गया. इससे राइकस्‍ताग के कुल वैध मतों की संख्या 647 से घट कर 566 हो गयी, जिससे अब कानून के पक्ष में 432 के बजाय 378 मतों की जरूरत रह गयी. दूसरी शर्त (उपस्थिति का दो-तिहाई) के लिए संसदीय नियमों में बदलाव कर के (जिसका कैबिनेट को अधिकार था) बिना कारण बताये अनुपस्थित डेपुटियों को भी उपस्थित मानने का प्राविधान कर लिया गया. इन सारी चालबाजियों से, और के.पी.डी. सदस्यों की गिरफ्तारी के चलते केवल एस.पी.डी. के बचे सदस्यों के जोरदार विरोध को दरकिनार कर कानून पारित करा लिया गया.

कानून के जरिये हिटलर की सरकार को राइकस्‍ताग और प्रेसिडेंट से स्वतंत्र कानून/ राजाज्ञा जारी करने के “योग्य” बना दिया गया. ऐसे कानून/राजाज्ञा को संविधान के प्राविधानों से इतर कानून भी बनाने की अनुमति थी और प्रेसिडेंट के बजाय चान्सलर को कानूनों को सूत्रबद्ध व प्रकाशित करने का अधिकार मिल गया.

तात्कालिक नतीजा : के.पी.डी. को राइकस्‍ताग आग राजाज्ञा से पहले ही बुरी तरह से दमित कर चुकने के बाद अब सोशल डेमोक्रेटों के संसदीय दल पर बर्बर दमन तंत्र चला जिन्होंने इनेबलिंग कानून के खिलाफ वोट किया था. एस.पी.डी. सदस्यों में निराशा – हताशा फैलने लगी और बड़ी संख्या में सदस्य पार्टी छोड़ने लगे. इसके बाद भी अभी इस कानून के और भी ज्यादा गंभीर – दीर्घ कालिक प्रभाव पड़ने वाले थे.

पहला : कानून ने कैबिनेट को विधायिका की चिन्ता किये बगैर कानून जारी करने का अधिकार दिया था, मगर व्यवहार में यह अधिकार चान्सलर में निहित हो गया. बड़ी चालाकी से सुनिश्चित किया गया कि कैबिनेट की बैठकें यदा-कदा ही हों और जब हों भी तो उनमें कोई गंभीर बहस न होने पाये जिससे हिटलर को कैबिनेट के नाम पर मनमानी का पूरा मौका मिल सके. यही नहीं, इस संशोधन ने कैबिनेट को नजरअंदाज करते हुए आपात राजाज्ञा जारी करने के प्रेसिडेंट के अधिकार को भी निष्प्रभावी कर दिया. चान्सलर अब अपनी पूरी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र था हालाँकि हिटलर करिश्माई मार्शल के साथ किसी तरह के अनावश्यक टकराव का इच्छुक नहीं था. बहरहाल, अपने सारे इरादों और उद्देश्यों में, हिटलर अब करीब-करीब तानाशाह बन चुका था.

दूसरे : संविधान और संसद, जो पहले ही पापेन और ब्रूनिंग द्वारा अपने चान्सलर काल में व्यर्थ और निष्प्रभावी बना दी गयी थी, के ताबूत पर आखिरी कील ठोंक कर के गैर-नात्‍ज़ी राजनीतिक पार्टियों ने जाने-अनजाने में अपने अस्तित्व का औचित्य ही समाप्त कर दिया था. आखिर प्रतिनिधित्व की संस्था के अभाव में ये राजनीतिक पार्टियां कौन सी भूमिका अदा कर सकती थीं ?

तीसरे : कानून, जो मूलतः चार साल के लिए था, तीन बार समय अवधि बढ़ाई गई और नात्‍ज़ी सत्ता के ध्वस्त हो जाने तक फासिस्ट शासन और मानवता के विरुद्ध इस शासन के सारे नृशंस अपराधों का मूल आधार बना रहा. यह कानून तकनीकी तौर पर संविधान के विरुद्ध नहीं था और संसद में बहुमत से पारित किया गया था, इसलिए हम कह सकते हैं कि अन्ततः यह “आत्‍म निषेध” का संवैधानिक चार्टर बन गया.

मोसज
ऑश्विट्ज़ कंन्‍सन्‍ट्रेशन कैम्‍प, गेट के ऊपर नारा लिखा है - 'काम करने से तुम्हें मुक्ति मिलेगी '

मार्च-अप्रैल : यहूदियों के लिए कंसेन्ट्रेशन कैम्प और आर्थिक बहिष्कार

सरकार द्वारा स्व-हस्तगत भयावह अधिकारों का कहर यहूदियों पर अब तक नहीं देखे-सुने गए पैमाने पर टूटा. मार्च 1933 में डकाऊ के एक छोटे से शहर के पास एक पुरानी-वीरान हथियार फैक्ट्री में पहला कंसेन्ट्रेशन कैम्प खुला. शुरुवात में, एक राजकीय उपक्रम के रूप में इसकी हिफाजत का जिम्मा बावेरियन पुलिस पर था, मगर 11 अप्रैल से एस.एस. ने इसकी कमान संभाल ली. यह वह पहला सेल बना जहाँ आतंक की राष्ट्रीय प्रणाली तंत्र के बीज अंकुरित हुए. यह एक तरह की प्रयोगशाला थी जहाँ हिंसा के उन विकृत और नृशंसतम रूपों का प्रयोग किया गया जिन्हें जल्दी ही अन्य कंसेन्ट्रेशन कैम्पों में दुहराया जाने वाला था. इन कैम्पों में जो कुछ घटित हो रहा था उसकी कहानियां नात्जि़यों के विरोध को रोकने का सबसे प्रभावी हथियार थीं.

कंसेन्ट्रेशन कैम्पों ने एक और काम किया. 5 मार्च के चुनाव नतीजों के पूरे मनमाफिक न होने की खीझ एस.ए. गुंडों की मनमानी हिंसा के आतंक में निकल रही थी. यहाँ तक कि वे जज भी अपनी जान के लिए आतंकित थे, जिन्होंने अपवादस्वरूप पकडे़ गए उपद्रवियों को दोषी पा कर हलकी-फुलकी सज़ा सुनाई थी. इसे व्यापारिक समुदाय सहित बहुत सारे लोग, कानून-व्यवस्था की अराजकता के रूप में देखने लगे थे, जबकि नात्जि़यों ने पिछले कई सालों से बनी हुई गृह युद्ध जैसी स्थिति के समाधान का वादा किया था. विकेन्द्रित आतंक को संस्थागत आतंक के रूप में कंसेन्‍ट्रेशन कैंपों में केन्द्रित करने से इस समस्या का आंशिक समाधान हुआ – आंशिक, क्योंकि अनियंत्रित हिंसा कभी भी पूरी तरह से नहीं रुकी.

एक और क्षेत्र में राजकीय हस्तक्षेप की जरूरत महसूस हुई. नात्जि़यों के बार-बार आह्वान के बावजूद बेहद कम लोग यहूदी व्यापार, वकीलों, और डाक्टरों का बहिष्कार कर रहे थे. 1 अप्रैल को एस.ए. के लोग पूरे जर्मनी में यहूदियों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों, डाक्टरों के दवाखानों और वकीलों की फ़र्मों के सामने तख्तियां ले कर खड़े हो गए और आम लोगों को भी इस बहिष्कार में साथ देने के लिए उकसाने लगे. बर्लिन में बहिष्कार के गवाह रहे पत्रकार सेबास्तियन हाफ्नेर ने इसे याद करते हुए लिखा : “यहूदी व्यापार प्रतिष्ठान जैसे ही खुले, एस.ए. के लोग मुख्य दरवाजों के सामने पाँव फैलाए हुए डट गए. आतंक के बावजूद इसके प्रति असहमति की फुसफुसाहट ... पूरे देश में फ़ैल गयी. “ब्रिटिश राजदूत होरास रमबोल्ड के अनुसार बहिष्कार जनता में लोकप्रिय तो नहीं था मगर यहूदियों के पक्ष में जनता के बीच से कोई खास आवाज़ भी नहीं उठी. ग्राहकों के बारे में ऐसी तमाम बातें सुनने में आयीं जिनमें वे जानबूझ कर यहूदी दुकानदारों, डॉक्टरों और वकीलों के पास गए, परन्तु निश्चित रूप से ऐसे साहसी लोगों की तादात बहुत कम थी. बहुसंख्या ने शासन की इच्छा के आगे घुटने टेक दिए. तमाम जर्मन यहूदी इस पहली सरकार प्रायोजित-संगठित यहूदी-विरोधी पहलकदमी से अवाक् थे. विक्टर क्लेम्पेरर ने अपनी डायरी में लिखा : “मैंने हमेशा खुद को जर्मन माना”. ये भावनाएं वही थीं जो आज मोदी के भारत में लांछित-उत्पीडि़त मुसलमान महसूस कर रहे हैं.


“और यह सब कुछ इसलिए कि वे यहूदी हैं”

girl“गर्म बिस्तर पर सोते हुए मैं नितान्त अनैतिक महसूस करती हूँ, जब मेरे परम प्रिय दोस्तों को बाहर वहां कहीं कड़कती ठंड में मार गिराया गया है या फिर कहीं गन्दे नाले में फेंक दिया गया है. काँप उठती हूँ, जब मैं उन निकटतम दोस्तों के बारे में सोचती हूँ, जो अब धरती पर विचरने वाले उन क्रूरतम पिशाचों के हवाले किये जा चुके हैं. और सिर्फ इसलिए कि वे यहूदी हैं !”

 

 

 

ऐन फ्रैंक , “द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल”

[ ऐन खुद ,और उसकी बहन मारगोट की मृत्यु 1945 में
बर्गेन बेल्सेन के कंसेन्ट्रेशन कैम्प में हुई ]



7 अप्रैल को शासन ने पेशेवर नागरिक सेवा के पुनर्गठन का कानून जारी किया. इसके तहत सरकार न सिर्फ राजनीतिक रूप से भरोसेमंद न समझे जाने वाले राज्य कर्मचारियों को बर्खास्‍त कर सकती थी बल्कि यह भी निर्दिष्ट किया कि “गैर-आर्य पृष्ठभूमि” वाले नागरिक सेवकों को समयपूर्व सेवा निवृत्त कर दिया जाये. हिन्‍डेन्‍बर्ग के अनुरोध पर वे यहूदी, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया था अथवा जिनके पिता या बेटे शहीद हुए थे, इससे मुक्त रखे गए. एक बार फिर यहाँ वर्तमान भारतीय परिदृष्य सामने आता है - क्या संघी सरकार “अच्छे मुस्लिमों” को बख्श ही नहीं रही बल्कि पुरस्कृत तक कर रही है. मगर तब यह भी ध्यान में रखना बेहद जरूरी है कि अन्ततः नात्‍ज़ी जर्मनी में किसी भी यहूदी अथवा अन्य लांछित अल्पसंख्यक को नहीं बख्शा गया था.

7 अप्रैल : नात्‍ज़ी एजेन्टों के रूप में गवर्नर

राज्यों को राइक की लाइन पर लाने के लिये बड़ी चतुराई से 7 अप्रैल को लाये गए कानून के तहत जर्मन राज्यों की समूची स्वायत्‍तता को हमेशा के लिए ख़त्म करते हुए वहां “राइक गवर्नर” बहाल कर दिए गए. इस कानून से हिटलर को प्रशिया में भी अपने मनमाफिक सत्ता को पुनर्व्यवस्थित करने का मौका मिल गया. उसने खुद राइक गवर्नर का प्राधिकार अपने हाथ में ले कर पापेन की “राइक कमिश्नर” की हैसियत को अप्रासंगिक बना दिया. तीन दिन बाद गोएरिंग को प्रशिया का प्रेसिडेंट घोषित कर दिया गया और दो हफ्ते बाद हिटलर ने उसे गवर्नर का प्राधिकार दे दिया. वह वाईस चान्सलर, जो अभी 30 जनवरी तक खुद को नात्जि़यों को काबू में रखने वाले रिंगमास्टर के रूप में देख रहा था, राजनीति के हाशिये पर फेक दिया गया.

अप्रैल-मई : ट्रेड यूनियनों को लाइन पर आने के लिए मजबूर कर दिया गया

अपने जीवन अनुभवों से हिटलर जानता था कि वह एकमात्र ताकत जो उसकी तूफानी अग्रगति को रोक सकती है, वह कनफेडरेशन ऑफ़ जर्मन ट्रेड यूनियंस (ए.डी.जी.बी.) के झंडे तले संगठित मजदूर वर्ग है. उसने इसे जहाँ तक हो सके कमजोर करने की गरज से एस.ए. को अपने इस ताकतवर दुश्मन के साथ नियमित छिट-पुट थकावट-घिसावट की लड़ाई में उलझाये रहने के लिए प्रोत्साहित किया. वह निर्णायक युद्ध तब तक के लिए टालता गया जब तक कि उसने बाकी अन्य घरेलू दुश्मनों को ठिकाने लगाने का काम कमोबेश पूरा कर के इस काम के अनुकूल राजनीतिक माहौल नहीं बना लिया.

अप्रैल तक वह निर्णायक घड़ी आ गयी लगती थी. सबसे पहले उसने कम्युनिस्ट और फिर सोशल डेमोक्रेटिक नेताओं को निष्प्रभावी कर के मजदूर वर्ग को परिपक्व राजनीतिक नेतृत्व से वंचित कर दिया. फिर उसने संसदीय जनतंत्र और मुक्त प्रेस की संस्थानिकताओं को नष्ट किया, कैबिनेट के अन्दर जो लोग चुनौती बन सकते थे, यहाँ तक कि प्रेसिडेंट को भी पंगु कर दिया, अपने हाथों में सर्व सत्ताधिकार केन्द्रित किया, अपनी जरूरत और मर्ज़ी के मुताबिक ब्राउनशर्ट्स के अलावे अब तक नात्‍ज़ीकृत हो चुके पुलिस बल और मित्रवत हो चुकी सेना को उतार सकना सुनिश्चित किया, बुर्जुआ की ओर से सम्पूर्ण समर्थन सुनिश्चित किया जो अभी हाल-फिलहाल तक उसके आन्दोलन को ले कर गहरे संशय में था, और अन्ततः यहूदियों व मजदूर वर्ग अगुआ तत्वों के बर्बरतम उत्पीड़न- हत्याओं के जरिये पूरी तरह से आतंक का वातावरण बन जाने की गारंटी की.


सामूहिक सज़ा

[ ऐन फ्रैंक, डायरी लिखने वाली किशोरी, जिसने दो सालों तक जर्मनों से छिप कर रहने के आतंक को अपनी डायरी में दर्ज किया, और अन्ततः एक जर्मन कंसेन्ट्रेशन कैम्प में ही मरी. उसकी यह लाइन आज की दुनिया की भी अनुगूंज लगती है. आज की दुनिया में बस “यहूदी” की जगह मुस्लिम और भारत में  “क्रिश्चियन” की जगह “ हिन्दू” रख कर देख लीजिये.]

“ एक क्रिश्चियन जो करता है वह उसकी जिम्मेदारी माना जाता है, एक यहूदी जो करता है वह सारे यहूदियों पर मढ़ दिया जाता है.”

– ऐन फ्रैंक
'द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल'


इस सब के बावजूद हिटलर जर्मन मजदूर वर्ग के साथ अपनी निर्णायक लड़ाई में एक-एक कदम फूंक-फूंक कर, “पुचकार और दुत्कार डंडा” की नीति के साथ, रख रहा था. राइकस्‍ताग आग के बाद जल्दी ही, हड़ताल का अधिकार व्यवहारतः समाप्त कर दिया गया. हड़ताल के लिए किसी भी तरह के उकसावे पर एक महीने से ले कर तीन साल तक की सज़ा हो सकती थी. कई 'हाउस ऑफ दि पीपुल' पर स्टॉर्मट्रूपर्स ने कब्ज़ा कर लिया[1]. अप्रैल की शुरुवात में फैक्ट्री कमेटियों की सुविधाओं और अधिकारों को समाप्‍त कर दिया गया : चुनावों पर रोक लगा दी गयी; कमेटियों के सदस्यों को आर्थिक अथवा राजनीतिक कारणों से बर्खास्त कर के उनकी जगह नात्जि़यों द्वारा नामित लोग बैठाये जा सकते थे. राज्य की जरूरत पर समूची कमेटी भी भंग की जा सकती थी. नियोजकों को किसी भी मजदूर को “राज्य के प्रति विद्वेषी” होने की आशंका पर राइक के सामाजिक कानूनों द्वारा गारंटी किये गए बचाव का कोई भी अवसर दिए बगैर बर्खास्‍त करने का अधिकार मिल गया.

इस दुत्कार डंडे के साथ-साथ, जिसे हथौड़ा कहना ज्यादा ठीक होगा, कुछ पुचकार उपाय भी थे. अंतिम निर्णायक चोट करने से पहले मजदूरों और उनके नेताओं को भरमाने के लिए नात्‍ज़ी सरकार ने मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर के अधिकारिक रूप से इसे “राष्ट्रीय श्रम दिवस” का नाम देते हुए अभूतपूर्व शानो-शौकत से मनाया. सरकार ने सारे जर्मनी से श्रमिक नेताओं को हवाई जहाज से बर्लिन लाने की व्यवस्था की. नेताओं ने नात्जि़यों की तरफ से मजदूर वर्ग के प्रति इस अविश्वसनीय मैत्री भाव से अभिभूत हो कर इस दिन को सफल बनाने में हर मुमकिन सहयोग किया. स्वास्तिका झंडों तले यूनियन सदस्यों और नात्जि़यों ने एकसाथ मार्च किया. विशाल रैली से पहले हिटलर ने खुद मजदूर नेताओं की अगवानी यह कहते हुए की : “आप सब खुद देखेंगे कि क्रांति के जर्मन मजदूरों के खिलाफ होने की बात कितनी गलत और अन्यायपूर्ण है.” बाद में एक लाख मजदूरों की रैली को अपने संबोधन में, जो पूरे देश में रेडियो से प्रसारित किया गया, उसने ध्येय वाक्य घोषित किया : “श्रम का मान और मजदूर का सम्मान” ( नरेन्द्र मोदी के पास इसका और संक्षिप्त संस्करण है – “श्रमेव जयते”). इस तरह हिटलर ने अपनी शातिर और धूर्त चाल से जर्मन मजदूर आन्दोलन के लिए पहली मई की परम्परागत प्रतीकात्मकता को हड़पते हुए इसे “सजातीय लोकप्रिय समुदाय” में विस्तारित करने की कोशिश की.

अचानक हमला अगले ही दिन टूट पड़ा. पूरी योजना के साथ स्टॉर्मट्रूपर्स ने यूनियन मुख्यालयों पर कब्ज़ा कर के यूनियन नेताओं को अपनी “संरक्षात्मक हिरासत” में ले लिया. हर जगह लोगों के घरों पर कब्ज़ा कर लिया गया. कुछ दिन बाद एक नए कानून के जरिये एक सर्वग्रासी विशाल “जर्मन लेबर फ्रंट” बना दिया गया जिसमें सारी यूनियनों और एसोसिएशनों को “लाइन में ला कर” समाहित करते हुए चौदह पेशा आधारित फेडरेशनों में समूहीकृत कर दिया गया. यह कोई वर्गीय संगठन न हो कर विशुद्ध प्रोपेगैंडा बॉडी थी जो मजदूर वर्ग को नात्‍ज़ी राज्य के साथ संगति में लाने का सबसे कारगर औजार बनी. जैसा कि कानून में कहा गया था, इसका उद्देश्य मजदूरों की रक्षा नहीं बल्कि “सारे जर्मनों का एक सचमुच का सामाजिक व उत्पादक समुदाय बनाना” था. जर्मन मजदूरों के पास अब सरकार से स्वतंत्र अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली कोई संगठनिकता नहीं रह गयी. 16 मई को हड़ताल का अधिकार अंतिम रूप से समाप्त कर दिया गया. 19 मई को एक और कानून के जरिये मजदूरों को सामूहिक सौदेबाज़ी और समझौते के अधिकार से वंचित कर दिया गया. अगले साल की शुरुवात से चौदह पेशा आधारित फेडरेशनों को एक-एक कर के भंग करने का क्रम शुरू हो गया.

मई – जून : केवल एक को छोड़ कर सारी राजनीतिक पार्टियाँ भंग

यूनियनों के बाद राजनीतिक पार्टियों की बारी आई, एक-एक कर के. 10 मई को गोएरिंग ने डी.एस.पी. की सारी सम्पदाएँ जब्त कर लीं. जून के आखीर और जुलाई की शुरुवात में डी.एस.पी., जर्मन स्टेट पार्टी, और जर्मन पीपुल्स पार्टी भंग कर दी गयी. फिर धीरे-धीरे एस.ए. और एस.एस. के आतंक/हमलों के दबाव में अन्य बुर्जुआ पार्टियों ने भी खुद को एन.एस.डी.ए.पी. में अवसरवादी दल बदल या फिर इच्छाशक्ति के ही मर जाने के चलते खुद को समाप्त कर लिया. 14 जुलाई को राइक सरकार ने कानून जारी कर के पार्टियों का पुनर्गठन प्रतिबंधित कर दिया. इसने एन.एस.डी.ए.पी. के जर्मनी में एकमात्र राजनीतिक पार्टी होने की की घोषणा करते हुए किसी अन्य पार्टी को बनाना या बनाये रखना दंडनीय अपराध बना दिया. एक पार्टी राज्य अब हकीकत बन चुका था.

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ऐंजे ल सर्फ र, बर्लिन में ट्रेड यू नि यन कार्यालय पर कब्‍जा करते एस.ए. के सदस्‍य (2 मई, 1933)

मध्य 1933 : बेरोजगारी की समस्या का सामना

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जब कम्‍युनिस्‍टों को गिरफ्तार किया गया था

1 फ़रवरी को अपने पहले ही रेडियो संबोधन में हिटलर ने बेरोजगारी पर जबरदस्त-चौतरफा हमले की घोषणा करते हुए चार साल के अन्दर इस समस्या को हमेशा-हमेशा के लिये जड़ से मिटा देने का वादा किया था. मगर वह अच्छी तरह समझता था कि केवल लोक-लुभावन गाल बजाना काफी नहीं होगा, गाड़ी को पटरी पर लाने – अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए प्रोत्साहनों-पहलकदमियों की जरूरत होगी. इसलिए 1933 के मध्य में बेरोजगारी घटाने का कानून जारी किया गया. इसके जरिये पहले एक बिलियन और फिर बाद में 500 मिलियन रेइखमार्क अतिरिक्त रोजगार, खासकर अधिसंरचना विकास में सृजित करने के लिए आवंटित किया गया. अपनी शादी के लिए रोजगार छोड़ने वाली महिलाओं के लिए ब्याज मुक्त विवाह कर्ज जैसे कुछ और उपाय भी लागू किये गए. इसी के साथ शासन ने महिलाओं को श्रम बाज़ार से बाहर कर देने के लिए “दोहरा अर्जन बीमारी” (डबल-अर्नर सिंड्रोम) दूर करने का अभियान चलाया.

सरकार ने स्वैच्छिक श्रम सेवा – वेइमार रिपब्लिक द्वारा अपने अंतिम वर्षों में शुरू की गयी राज्य रोजगार योजना का भी विस्तार किया. इन सब उपायों से आधिकारिक रूप से पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या में कुछ कमी आई. आगे उसी साल एक राष्ट्रीय राजमार्ग नेटवर्क योजना शुरू की गयी. इस प्रोपेगैंडा के लिए कि हिटलर खुद “श्रम मोर्चे” पर लड़ाई की अगुवाई कर रहा था, हिटलर ने फ्रैंकफर्ट से दर्म्सताद तक के सड़कमार्ग निर्माण में खुदाई के लिए पहला फावड़ा चलाया. धीरे-धीरे सड़क निर्माण और कार उद्योग में रोजगार ने गति पकड़ी – खासकर हिटलर के जर्मनी की स्थितियों के अनुकूल एक छोटी कार उत्पादित करने के आदेश पर फॉक्‍सवैगन के रूप में “श्रमशील वर्ग के बजट में जनता कार” का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू करने के चलते.

मगर आर्थिक पुनरुत्थान को गति देने और बेरोजगारी घटाने का सबसे बड़ा और दीर्घकालिक उत्प्रेरक जर्मनी के सैन्यीकरण से आया. हिटलर ने आदेश जारी किया “बिलियनों में धनराशियों को जुटाया जाना है क्यों कि जर्मनी का भविष्य एकमात्र और पूरी तरह से व्हेरमाष्ट (संयुक्त सैन्य बल) पर निर्भर है. ये सैन्य-औद्योगिक संकुल एक तीर से तीन निशाने मारेंगे – रोजगार सृजन; राष्ट्रीय अंधराष्ट्रवादी अहम् के उन्माद को संतुष्ट करना; और आक्रामक-कब्जाकारी युद्ध के लिए जरूरी नींव तैयार करना.


image_3एसए आदमी का गीत

बर्तोल्त ब्रेश्‍त

मेरी भूख ने मुझे
दुखते पेट के साथ सुला दिया था.
तभी मैंने चीत्कार सुनी
हे, जर्मनी जागो !

तब ! देखा मैंने भीड़ को कदमताल करते :
थर्ड राइक की ओर, सुना मैंने उनको कहते.
सोचा मैंने, जीने के लिए कुछ भी तो नहीं था मेरे पास
मैं भो तो उन्हीं की राह, कर सकता हूँ कदमताल.

और जब मैं कर रहा था कदमताल, वहां मेरे बगल में था
उस दस्ते का सबसे मोटा आदमी
और जब मैं चीखा ‘हमें चाहिये रोटी और काम’
मोटा आदमी भी चीखा.

चीफ ऑफ़ स्टाफ पहने हुए था बूट
जबकि मेरे पांव थे भीगे हुए
मगर हम दोनों ही कर रहे थे कदमताल
पूरे मन से, कदम से कदम मिलाते हुए.

मैंने सोचा, बायें वाला रास्ता आगे को जाता था
उसने बताया मैं गलत था.
मैं उसके हुक्म के रास्ते गया
और अंधों की तरह घिसटता रहा.

और वे जो भूख से कमजोर थे
कदमताल करते रहे, निस्तेज मगर तने हुए
खाये-अघायों के साथ-साथ
किसी थर्ड रीख जैसी चीज की ओर.

उन्होंने मुझे बताया किस दुश्मन को मारना है
इसलिए मैंने उनकी बन्दूक ली और निशाना लगा दिया
और, जब मैं गोली चला चुका था, देखा मेरा भाई
था वह दुश्मन जिसका उन्होंने नाम लिया था.

अब मैंने जाना : वहां खड़ा है मेरा भाई
वह भूख है जो हमें एक करती है
जबकि मैं कर रहा था कदमताल
मेरे भाई और मेरे खुद के दुश्मन के साथ.

इसलिए मेरा भाई मर रहा है
मेरे अपने ही हाथों वह गिरा
फिर भी मैं जानता हूँ कि यदि वह हारा
मैं भी हार जाऊँगा.


जर्मनी में एक विचार, एक पार्टी और एक आस्था का एकाधिकार

राजनीतिक ताकत पर एकाधिकार हासिल कर चुकने के बाद हिटलर ने कई निर्णायक महत्व के विचारों की पुनर्परिभाषा और पुनर्प्रतिपादन का अभियान शुरू किया. 6 जुलाई को राइक गवर्नरों के सम्मलेन में हिटलर ने घोषित किया कि क्रांति को “स्थायी परिघटना” बने रहने की इजाज़त हरगिज़ नहीं दी जा सकती – क्रन्तिकारी धारा को उद्विकास की आधार भूमि बनने की दिशा में, “जनता की शिक्षा” की दिशा में मोड़ना होगा. गोएबेल्स ने अपने रेडियो संबोधन में इसे और स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया : “हम केवल तभी संतुष्ट हो सकेंगे जब हम सुनिश्चित हो जायेंगे कि समूची जनता हमें समझती है और अपना सबसे बड़ा पैरोकार मानती है”. गोएबेल्स ने साफ़-साफ़ कहा कि नात्जि़यों का लक्ष्य जर्मनी में केवल एक विचार, एक पार्टी और एक आस्था की स्थापना है (इसकी सटीक प्रतिध्वनि भारत में 2014 में सरदार पटेल की मूर्ति बनाने के अभियान में मोदी के आह्वान “एक भावना, एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक प्रतिबद्धता, एक लक्ष्य, एक मुस्कान”, भाजपा के “कांग्रेस मुक्त भारत” के आह्वान, जिसका असली आशय विपक्ष मुक्त भारत से है, और भाजपा व संघ कार्यकर्ताओं द्वारा हर किसी को, जो संघ की विचारधारा से सहमति नहीं रखता, देशद्रोही बता कर उसके लिए भारत में कोई जगह न होने के प्रलापों में देखी जा सकती है). इसका अर्थ यह था कि मीडिया, संस्कृति और शिक्षा के सारे क्षेत्रों को नात्‍ज़ी विचारों की लाइन में लाया जाना है.


फासीवादी पितृसत्ता : “लव जेहाद” हौवे का नाज़ी संस्करण

नाज़ीवाद के निर्णायक तत्वों में से एक आदमी और औरत के बीच अन्तर – नस्लीय सम्बन्धों की वर्जना और निषेध था.

image_4माइन काम्प्फ़ (हिटलर की आत्म कथा “मेरा संघर्ष”) में हिटलर यहूदी पुरुषों पर आर्य औरतों को बहकाने, पथ-भ्रष्ट करने, और काले आदमियों को भी उन्हें बहकाने, पथ-भ्रष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करने के जरिये जान-बूझ कर “आर्य” नस्ल को प्रदूषित करने का आरोप लगाता है. वह लिखता है : “काले बालों वाला यहूदी घंटों, एक शैतानी आनन्द चेहरे पर लिए हुए, मासूम लड़कियों के लिए घात लगाये रहता है जिन्हें वह अपने रक्त से प्रदूषित करता है और उन्हें उनकी अपनी नस्ल से चुरा लेता है. वह हर संभव जतन कर के उस राष्ट्र के नस्लीय आधार को तहस-नहस करने की कोशिश करता है जिसे वह पराभूत करना चाहता है. जिस तरह वह व्यक्तिगत रूप से जान-बूझ कर औरतों और लड़कियों को मूर्ख बनाता है, उसी तरह वह उन अवरोधों को तोड़ने में भी कभी पीछे नहीं हटता जिन्हें नस्ल ने विदेशी तत्वों के खिलाफ बनाया है. यह यहूदी ही था और है, जो उसी उद्देश्‍य और जानी-बूझी नीयत के साथ, लगातार वर्ण-संकरीकरण के जरिये श्वेत नस्ल को, जिससे वह नफ़रत करता है, नष्ट करने के लिए, उसे उसकी हासिल सांस्कृतिक और राजनीतिक ऊँचाइयों से गिराने के लिए, और उस पर मालिकों की तरह प्रभुत्व ज़माने के लिए, नीग्रो लोगों को राइन तक ले आता है. वह जान बूझ कर व्यक्तियों को लगातार भ्रष्ट करते रहने के जरिये नस्ल को नीचा दिखाने की फ़िराक में रहता है...”

इस सोच का एक मॉडल, जो नाज़ी जर्मनी अपनाना चाहता था, अमेरिका के नस्लों को अलग करने और “वर्ण संकरीकरण” (अन्तर-नस्लीय सम्बन्ध) का निषेध करने वाले नस्लवादी कानून थे. 1934 में, प्रमुख नाज़ी वकीलों की बैठक यहूदी-विरोधी “न्यूरेमबर्ग कानून” बनाने के लिये हुई जिसमें उन्होंने अमेरिका के कुख्यात “जिम क्रो” कानूनों को अपने मॉडल के रूप में लिया जो अन्तर-नस्लीय संबंधों और विवाहों का अपराधीकरण करते थे (जिन्हें आगे 1967 में अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दे दिया). हिटलर और नाज़ी अमेरिकी नस्लवाद के एक और पक्ष के बेहद मुरीद थे : “यूजेनिक्स” (“हीन-हेय” समझे जाने वाली मानव प्रजातियों के जन्म को जबरन रोकने के लिए जबरिया वन्ध्याकरण). अमेरिका में 1930 के दशक में ऐसे कानून थे जो वंशानुगत (जेनेटिकली) “अनैतिक”, “अपराधी” अथवा अपंग समझी जाने वाली औरतों के जबरन वन्ध्याकरण की अनुमति देते थे. ऐसी औरतों की बहुत बड़ी संख्या गरीब और/या काली औरतों की थी. हिटलर का “यूजेनिक्स” कार्यक्रम, जिसकी चरम परिणति गैस चैम्बरों के जरिये नृशंस नरसंहारों में हुई, इन्हीं नस्लीय कानूनों से प्रेरित थे.

हिटलर अमेरिकन इन्डियनों – “यूएसए” के नाम से जाने जा रहे भूक्षेत्र के मूल निवासियों – के नर संहार का भी जबरदस्त प्रशंसक था. 1928 में ही हिटलर अपने भाषणों में इस बात की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा था कि किस तरह अमरीकियों ने लाखों की तादाद वाले “रेड स्किनों” को गोलियों से मार गिरा कर हजारों में समेट दिया था और अब वे उनके बचे-खुचे अवशेषों को पिंजरों में प्रदर्शनी के लिए रख रहे थे.(“हिटलर्स अमेरिकन मॉडल- द यूनाइटेड स्‍टेट्स एण्‍ड द मेकिंग ऑफ नाज़ी रेस लॉ; जेम्स क्यु. विटमन; प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रेस, 2017).

“जिम क्रो” कानूनों के ज़माने में, अमेरिका में काले लोगों की श्वेत औरतों से पारस्परिक सहमति से भी संसर्ग की आशंका पर हत्या की जा सकती थी. श्वेत औरत के बलात्कार का आरोप लगा कर भीड़ द्वारा काले लोगों की पीट-पीट कर हत्या आम बात थी. हम देख चुके हैं कि किस तरह नाज़ी जर्मनी उन नस्लवादी कानूनों का प्रशंसक था और उन्हें अपने यहाँ लागू करने का इच्छुक था जो भीड़ द्वारा पीट-पीट कर की जाने वाली हत्याओं को औचित्य दे कर वैध ठहराते थे.

भारत में भी, हम आसानी से देख सकते हैं कि किस तरह संघ परिवार और उसके विभिन्न अनुसांगिक गिरोहों द्वारा “लव जिहाद” का हौवा “जिम क्रो” और नाज़ी माॅडलों की नक़ल है. ये गिरोह खुले तौर पर उस संविधान के प्रति अपनी नफ़रत का इजहार करते रहते हैं जो अन्तर-जातीय और अन्तर-धार्मिक विवाहों की इजाज़त देता है. “लव जिहाद” से लड़ने के नाम पर ये मुस्लिम पुरुषों और हिन्दू औरतों के बीच संबंधों और विवाहों के खिलाफ हिंसा को जायज ठहराते हैं.


मीडिया, शिक्षा और संस्कृति का नात्‍ज़ीकरण

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जोसेफ गोएबेल्स

गोएबेल्स पहले ही जर्मन रेडियो में ऊपर से नीचे तक मनमाफिक बदलाव ला चुका था, अब काफी सारे अखबार बन्द कर दिए गए और बाकी को कठोर सरकारी नियंत्रण और धन वसूली के मातहत ला दिया गया. कुछ बड़े लिबरल अखबारों को तुलनात्मक रूप से हुछ हद तक स्वतन्त्रता थी, मगर उन्हें भी प्रेस के लिए दैनिक सरकारी निर्देशों और सेल्फ़ सेंसरशिप का पालन करना था.

संगीत, फिल्म, थियेटर, दृश्य कलाओं और साहित्य के क्षेत्रों में नात्‍ज़ीकरण का काम यहूदियों को सांस्कृतिक जीवन से निकाल बाहर करने के समानान्तर चलाया जा रहा था. यहूदी कलाकार और बुद्धिजीवी हमेशा से ही अपने आधुनिकतावाद और बौद्धिक/सांस्कृतिक उपलब्धियों के चलते नात्जि़यों की नफ़रत और “सांस्कृतिक बोल्शेविकवाद” के आरोप का शिकार थे; अब वे पूरी तरह से बहिष्कृत-कलंकित किये जाने लगे. सिर्फ इसलिये नहीं कि वे यहूदी थे, बल्कि इसलिए भी कि उनमें से बहुतेरे तर्कवाद, वैज्ञानिक भावना, कलात्मक सर्जना और मुक्त चिंतन के प्रतिनिधि थे जिससे नात्जि़यों को मरणान्तक भय लगता था. अन्यथा क्यों बीसवीं सदी के धर्म परीक्षक पूरे देश में विश्वविद्यालयों और अन्य जगहों पर पुस्तक-दहन अभियान चलाते हुए जर्मनी और दुनिया के अन्य तमाम देशों के श्रेष्ठ साहित्य को आग की लपटों के हवाले करते?

छात्रों द्वारा आयोजित इन अग्नि-उत्सवों के ज्यादातर मामलों में विश्वविद्यालय प्राधिकारियों की सहमति और प्रेरणा थी. उन्होंने कैम्पस को “अवांछित तत्वों” से मुक्त करने में सरकार की भरपूर मदद की; जिन्होंने भी प्रतिवाद-प्रतिरोध की कोशिश की उन्हें निर्ममता पूर्वक निकाल बाहर किया गया. इस बर्बर असहिष्णुता के वातावरण के चलते नात्‍ज़ी सत्ता के पहले साल से ही भारी संख्या में कलाकारों, लेखकों, वैज्ञानिकों, और पत्रकारों का पलायन शुरू हो गया था. जर्मन बौद्धिक समुदाय और जर्मन संस्कृति के ध्‍वजवाहकों की आइन्स्टाइन, एल. फॉइटवांगर, टी. मान, ए. ज्‍़वाइग जैसी तमाम महानतम हस्तियाँ देश छोड़ने के लिए मजबूर हो गयीं.

नवम्बर 1933 में बर्लिन फिलार्मोनिक कंसर्टहॉल में हिटलर की मौजूदगी में उद्घाटित–स्थापित राइक कल्चरल चेम्बर के जरिये जर्मन संस्कृति के समूचे परिक्षेत्र को नात्‍ज़ी शक्ल देने का काम पूरा हो गया. जो कोई भी फिल्म, संगीत, थियेटर, पत्रकारिता, रेडियो, साहित्य या दृश्य कलाओं के क्षेत्र में काम करना चाहता था, उसे इस संस्था के सात चेम्बरों में से किसी का सदस्य होना जरूरी था.

30 जून 1934 : “लम्बे छुरों की रात”

newspaperपहला बड़ा नात्‍ज़ी जनसंहार उसके अपने ही लोगों – एस.ए. के खिलाफ अंजाम दिया गया. इसका कारण पूरी तरह राजनीतिक था.

hitler nazi
एर्न्स्ट रोह्म, 1933

इनेबलिंग कानून के जरिये नात्‍ज़ी पार्टी के सत्ता पर पूरी तरह जकड़ बना लेने के बाद एस.ए. के अस्तित्व का सबसे बड़ा औचित्य ही समाप्त हो गया. उनका मुख्‍य काम नात्‍ज़ी विरोधियों को आतंकित कर के निष्प्रभावी करना था, और यह काम अब पूरा हो चुका था. ब्राउनशर्ट वालों का हिंसक उत्पात अब व्यर्थ और प्रति-उत्पादक होता जा रहा था. इसलिये 1933 की शुरुवात में उस राजाज्ञा को वापस ले लिया गया जिसके जरिये एस.ए. को सहायक पुलिस बल की मान्यता दी गयी थी. एस.ए. के लोगों में इससे उपजे असंतोष के साथ आबादी के बड़े हिस्सों में मूल्य वृद्धि, स्थिर वेतन, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजा वाद, और मसीहा द्वारा परोसी गयीं उम्मीदों के न पूरे होने आदि के चलते मोहभंग भी लगातार बढ़ रहा था. हिटलर की अभी भी भारी लोकप्रियता थी मगर उसके सभी साथियों की नहीं. एस.पी.डी. द्वारा अपने निर्वासन के दौर में जर्मनी के अपने सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर बनाई गयी रिपोर्ट में एक म्‍यूनिकवासी के हवाले से उस समय की प्रतिनिधि जन भावना को दर्शाया गया था : “हमारा एडोल्फ़ तो ठीक है मगर उसके चारों ओर निहायत दुष्टों का डेरा है.”

जनता में फैलता असंतोष, हालांकि अभी वह शुरुवाती दौर में ही था, और ब्राउन शर्ट्स की कसमसाती नाराजगी शासक पार्टी के आकाओं के लिए चिंता का सबब बनने लगी थी. खासकर वे एस.ए. चीफ ऑफ़ स्टाफ एर्न्स्ट रोह्म के जून 1933 में छपे उस लेख से परेशान हुए जिसमें उसने आम असंतोष और गुस्से का हवाला देते हुए लिखा था कि “राष्ट्रीय विद्रोही उभार” ने अभी जर्मन क्रांति का आधा रास्ता ही तय किया था. उसने दावा किया कि एस.ए. जर्मन क्रांति का आधे रस्ते में सो जाना या गैर-लड़ाकों द्वारा दगा दिया जाना हरगिज बर्दाश्त नहीं करेगा. उसने यह भी साफ़ कर दिया कि एस.ए. केवल पार्टी नेतृत्व से मिलने वाले फरमानों की ड्यूटी बजाने वाला संगठन नहीं बनना चाहता. इससे उलट वह “थर्ड राइक” में अपने और अपने संगठन के लिए ताकतवर हैसियत की मांग कर रहा था. रोह्म एस.ए. को एक ऐसे मिलिशिया में विकसित करना चाहता था, जो सेना के हथियार रखने के एकाधिकार को चुनौती दे सके.


dictatorसत्ता  (द रिजीम)

(संक्षेप)

एक विदेशी से, उसके थर्ड राइक की यात्रा से लौटने पर,
सवाल पूछा गया : वहां सचमुच में कौन शासन करता है ,
उसने जबाब दिया :
भय.
भय का शासन सिर्फ उन्हीं पर नहीं है जो शासित हैं, बल्कि
शासकों पर भी है.
क्यों डरते हैं वे खुली दुनिया से ?
सत्ता की विशाल ताकत के साथ
उसके कैम्पों और यातना तहखानों
उसके खाए-अघाये पुलिस वालों
उसके भयभीत या फिर भ्रष्ट जजों
उसके कार्ड सूचिकाओं और संदिग्धों की सूचियों
जो तमाम इमारतों में छतों तक अटी पड़ी हैं
के साथ तो कोई यही सोचेगा
उन्हें एक साधारण आदमी की खुली दुनियां से
डरने की जरूरत नहीं है.
मगर उनका थर्ड रीख आवाज़ देता है
तातार के घराने, असीरियन, उस महान दुर्जेय किले को
जो, किंवदंती के मुताबिक किसी भी सेना से
पराभूत नहीं हो सकी, मगर
अपने ही भीतर कहे गए एक शब्द से,
भहरा कर धूल में मिल गयी.

– बर्तोल्त ब्रेश्‍त


यह नात्‍ज़ी नेतृत्व और सेना दोनों के लिए असहनीय था. बेहद शातिर और गुप्त तरीके से एस.ए. नेताओं के खिलाफ सबूत इकठ्ठा करने और जरूरी सांगठनिक तैयारी कर चुकने के बाद, हिटलर ने एस.ए. नेताओं और पापेन जैसे अपने पुराने प्रतिद्वंदियों (पापेन हिटलर को ले कर व्यक्तिपूजा और हिंसा के अतिरेक की खुली आलोचना कर रहा था) दोनों पर हमला करना तय किया.

हमला 30 जून की रात से शुरू हुआ और अगले दो दिनों तक वह सब चलता रहा जिसे आज इतिहास “लम्बे छुरों की रात” के नाम से जानता है. इस अचानक हमलावर अभियान का नेतृत्व हिटलर ने खुद व्यक्तिगत रूप से हेनरिक हिमलर की कमान में एस.एस. के लोगों को ले कर किया था. पापेन को मौत न दे कर घर में नज़रबंद कर दिया गया. स्त्रास्सेर और रोह्म की हत्या कर दी गयी, एस.ए. के करीब 180 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया जिनमें 13 राइकस्‍ताग डेपुटी थे, और हजारों की गिरफ्तारी हुई.

आनन-फानन में हिटलर ने कैबिनेट से वह कानून अनुमोदित करा लिया जिसमें इन सारी हत्याओं को कानूनी रूप से वैध बना दिया गया : “30 जून और 1 व 2 जुलाई को राष्ट्र और राज्यों के खिलाफ गद्दारी के खिलाफ उठाये गए कदम सरकार की आपात सुरक्षा का एक वैध कानूनी रूप है”.


किताबों का जलाया जाना

book fire
किताबें जला रहे हिटलर की यू थ ब्रिगे ड के सदस्‍य

जब सत्ता ने
फरमान जारी किया गैर-कानूनी किताबों को जलाने का
सुस्त सांड़ों के दस्ते गाड़ियाँ भर-भर कर ले आये
उत्सव-अलावों के लिये.

तब एक निर्वासित लेखक, सबसे बेहतरीनों में एक
बहिष्कृत किताबों की सूची छानते हुए
आग-बबूला हो गया – उसे शामिल नहीं किया गया था !
वह झपटा अपनी मेज की ओर, तिरस्कार के रोष से लबरेज ,
आग उगलते पत्र लिखने मंदबुद्धि शासकों को-

जला दो मुझे ! लिखा उसने आग उगलती कलम से
मैंने क्या हमेशा सच की बात नहीं की है ?
अब यहाँ हो तुम, मुझसे झूठे की तरह बर्ताव करते हुए !
जला दो मुझे !

– बर्तोल्त ब्रेश्‍त


फ्यूरर और राइक चान्सलर

एक पखवारे बाद, हिटलर ने राइकस्‍ताग में अपनी शर्मनाक भयावह गैर-कानूनी कार्यवाही का पूरी ढिठाई और मजबूती के साथ एक बार फिर “राष्ट्र” और “जनता” के नाम पर बचाव किया : “बगावत हमेशा कभी न बदलने वाले कानूनों के जरिये ही तोड़ी जाती है. अगर कोई मेरी नियमित न्यायालयी रास्ता न लेने के लिए आलोचना करता है, तो मैं यही कह सकता हूँ : उस घड़ी में मैं जर्मन राष्ट्र के भविष्य के लिए उत्तरदायी था और इसलिए जर्मन जनता का सर्वोच्च न्यायाधीश था.”

1 अगस्त को, जब हिन्‍डेन्‍बर्ग मृत्युशैया पर था, हिटलर ने राइक प्रेसिडेंट और चान्सलर की सेनाओं के आमेलन और इसका कमान प्राधिकार “फ्यूरर और राइक चान्सलर” के हवाले करने का कानून घुटनाटेकू कैबिनेट से पारित करा लिया. बूढ़ा आदमी अगले दिन मर गया और 17 अगस्त को एक जनमतसंग्रह में इस कानून को भारी बहुमत से अनुमोदित करा लिया गया.

टकराव और विरोध के सारे संभावित स्रोतों का सफाया कर चुकने और किसी भी अन्य का दूर-दूर तक सत्ता भागीदारी का दावेदार न होना सुनिश्चित कर लेने के बाद, “महान तानाशाह” अब विश्व विजय के अभियान पर “स्वामी नस्ल” (मास्‍टर रेस) का नेतृत्व करने के लिए स्वतंत्र था.


“जहाँ वे किताबें जलाते हैं, अंत में, एक दिन, वे वहीं लोगों को जलाएंगे”

10 मई 1933 की रात को, करीब 40,000 लोग ओपेरनप्लाज – अभी के बेबेल प्लाज़ – बर्लिन के मित्ते जिले में जुटे. ख़ुशी से झूमते, नाच-गानों, बैंड-बाजों, और प्रतिज्ञाओं व जादू-टोना प्रलापों के बीच उन्होंने सैनिकों और एस.एस. पुलिसवालों, एस.ए. पैरामिलिशिया के ब्राउनशर्ट सदस्यों और जर्मन स्टूडेंट एसोसियेशन व हिटलर यूथ आन्दोलन के उन्मत्त युवाओं को, प्रोपेगैंडा मंत्री जोसेफ गोएबल्स के आदेश पर 25,000 से ज्यादा “गैर-जर्मन” घोषित की गयीं किताबें जलाते देखा ...…

उस रात और उसके आगे की रातों में बर्लिन और देश भर के 30 से ज्यादा अन्य विश्वविद्यालय परिसरों में आग की लपटों के हवाले की गयी किताबों में 75 से ज्यादा जर्मन और विदेशी लेखकों के काम शामिल थे, उनमें (कुछेक नाम) वाल्टर बेन्‍यामिन, बर्तोल्त ब्रेश्‍त, अल्बर्ट आइन्स्टाइन, फ्रेडरिक एंगेल्स, सिगमंड फ्राॅइड, आंद्रे ज़ीद, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, फ्रान्ज़ काफ्का, लेनिन, जैक लन्दन, हाइनरिक क्लाउस, थॉमस मान, लुडविग मार्कूस, कार्ल मार्क्स, जॉन दोस पास्सोस, आर्थर श्निज्लर, लीओन ट्रोट्स्की, एच.जी.वेल्स, एमील ज़ोला, स्टीफन ज्‍़वाइग, शामिल थे. उस रात जिनकी किताबें जलाई गयी थीं उनमें 19 वीं सदी के महान जर्मन कवि हाइनरिक हाइन भी थे जिन्होंने महज एक सदी पहले अपने नाटक अल्मान्सर में इन शब्दों को लिखा था : “जहाँ वे किताबें जलाते हैं, अंत में, एक दिन, वे वहीं लोगों को जलायेंगे”.

– जॉन हेन्‍ली, “बुक बर्निंग: फैनिंग द फ्लेम्स ऑफ़ हेटरेड”;
दि गार्जियन; 10 सितम्बर, 2010


फुट नोट :

1. सामाजिक कार्यक्रम, राजनीतिक चर्चायें और मजदूरों की शिक्षा के लिए 1900 के आस पास एस.पी.डी. द्वारा इन्‍हें बनाया गया था. ये ट्रेड यूनियन आन्‍दोलन के केन्‍द्र बन गये थे.