स्वतंत्रता संघर्ष के दौर में बड़ी संख्या में महिलाओं ने संघर्ष की अग्रिम पंक्तियों में रहते हुए नमक सत्याग्रह और असहयोग आन्दोलनों में उत्साहपूर्वक भाग लेकर बर्बर दमन और जेल की यातनायें झेली. इसी दौरान कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले ट्रेड यूनियन आन्दोलन की महिलाओं ने 1928-29 की आम हड़ताल में सूती टेक्सटाइल मिलों के दरवाजों पर (केवल महिलाओं द्वारा) धरना-घेरेबन्दियों का आयोजन किया.

महिला क्रांतिकारी

बीसवीं सदी की शुरूआत में बहुत सी महिलायें उन क्रांतिकारी समूहों में शामिल हुईं जिनका उद्देश्य ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकना था. उनमें से एक अनुजा सेन थी जो पुलिस कमिश्नर की कार को बम से उड़ाने के प्रयास में मारी गयी.

चटगांव शस्त्रागार हमलों में अपनी भूमिका के लिये अम्बिका चक्रवर्ती और कल्पना दत्ता को आजीवन काला-पानी की सजा हुई.

भारतीय महिलाओं को प्रताड़ित करने के लिये कुख्यात एक ब्रिटिश मजिस्ट्रेट को मार डालने के जुर्म में शांति घोष और सुनीति चैधरी को आजीवन कारावास मिला.

बीना दास महिला छात्र समिति की सदस्य थी जिसने बंगाल के गवर्नर को गोली से उड़ा देने की कोशिश  की.

प्रीतिलता वाडेडार एक प्रसिद्ध क्लब पर सशस्त्र हमले के दौरान मारी गयी.

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन की सदस्य दुर्गा भाभी, जो भगत सिंह की साथी थीं, ने उन्हें लाहौर से बाहर निकलने में मदद की.

रानी गाइदिनलियु ने सिविल नाफरमानी और टैक्स बन्दी अभियानों में मणिपुर जिले और उत्तरी कछार पहाड़ियों के आदिवासियों की अगुवाई की. जंगलों में शरण लेने के लिये मजबूर होने पर अपने पकड़े और जेल जाने से पहले, विद्रोहियों के जत्थे की अगुवाई करते हुए ब्रिटिश सेना को महीनों तक छकाती रही थी.

उपनिवेश विरोधी संघर्षों में महिलाओं की संगठित भागीदारी कराने में सबसे सक्रिय और अहम भूमिका कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध जन संगठनों ने निभाई. कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा गठित महिला आत्मरक्षा समितियों ने भूख, अकाल और लम्बी राशन की कतारों के खिलाफ और राष्ट्रवादी राजनीतिक बन्दियों की रिहाई की मांग पर महिलाओं को प्रतिरोध के लिये संगठित रूप से उतारने में दोहरी भूमिका निभाई -- खासकर 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आह्नान में नेताओं की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी के दौर में. हजारों की तादाद में महिलायें सड़कों पर प्रदर्शन के लिये उतर पड़तीं और नारे लगातीं ‘राजनीतिक बन्दियों को आजाद करो, देश को आजाद करो’ साथ ही अनाज मुहैया कराये जाने की मांग करतीं. जैसे-जैसे खाद्यान्न और जरूरी सामानों की कीमतें बढ़ती गयी और बंगाल अकाल की चपेट में आता गया, इन कमेटियों ने बेहद धारदार और संगठित संघर्ष चलाने में विशेष सक्रियता दिखाई जिसके चलते उस समय की सरकार को बंगाल में राशनिंग व्यवस्था लागू करने के लिये मजबूर होना पड़ा. 1948 में गैर कानूनी घोषित कर दिये जाने के चलते इन संगठनों को घोर दमन झेलना पड़ा. अप्रैल 1949 के कोलकाता में गिरफ्तार कायंकर्ताओं की रिहाई को ले कर किये गये शान्तिपूर्ण प्रदर्शन में पुलिस की गोली से महिला आत्मरक्षा समिति की संस्थापक सदस्याओं में से एक लतिका सेन, प्रतिमा और गीता नाम की दो नर्स तथा एक गृहणी अमिया शहीद हुईं.

हिन्दू नागरिक कानूनों में विवाह, उत्तराधिकार आदि महिला पक्षधर परिवर्तनों को समाहित करते हुए हिन्दू कोड बिल पेश किये जाने के समर्थन में जन हस्ताक्षर अभियान और प्रदर्शन आयोजित करने में भी महिला आत्मरक्षा समितियों ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और राजेन्द्र प्रसाद व सरदार पटेल जैसे कुछ चोटी के कांग्रेसी नेता भी इन महिला पक्षधर परिवर्तनों के विरोध में सामन्ती प्रतिक्रिया को हवा दे रहे थे. इन प्रतिक्रियावादी ताकतों के विद्वेषपूर्ण और साम्प्रदायिक-महिला विरोधी प्रचारों-अफवाह अभियानों का मुकाबला करते हुए महिला कार्यकर्ताओं ने बिल के समर्थन में विशाल जन प्रदर्शन आयोजित किये. नेहरु के नेतृत्व में स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने भी प्रतिक्रियावादी ताकतों के दबाव में इस बिल को 1955-56 तक लटकाये रखा. आखिरकार बिल को बुरी तरह काट-छाँटकर, कमजोर बनाते हुए चार अलग-अलग कानूनों के रूप में पारित किया गया. अंततः संविधान रचयिता डा. बी. आर. अम्बेदकर ने इस कांट-छाँट के विरोध में कांग्रेस कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया.