ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ 1857 में भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में केवल रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हजरत महल जैसी रानियाँ ही वीरांगनाओं और नेता के रूप में नहीं उभरी थीं. झलकारी बाई जैसी दलित महिलाएं और अजीजन बाई जैसी तवायफें भी उन हजारों महिलाओं में शामिल थीं जिन्होंने स्वाधीनता के महासमर में अपना सर्वस्व झोंक दिया था. विभिन्न पृष्ठभूमियों से आयीं इन सभी वीरांगनाओं ने इस प्रक्रिया में उन बहुतेरी सामन्ती बेड़ियों को भी चुनौती दी थी जो महिलाओं को जकड़े हुए थीं.

रूढ़िवाद को चुनौती, शिक्षा की मांग

19वीं सदी में बहुतेरे सामाजिक सुधारकों के साथ-साथ आम महिलाओं ने भी सती और बाल विवाह की कुरीतियों को जम कर चुनौती दी और विधवा पुनर्विवाह तथा महिला शिक्षा के लिये अभियान चलाया.

ऐसी ही एक महिला रक्माबाई थी, बढ़ई जाति की महिला जो महज 13 साल की उम्र में ब्याह दी गयी थी मगर जिसने वयस्क होने पर इस बाल विवाह को मानने से इन्कार कर दिया था. वह समाज सुधारकों के लिये प्रेरक आदर्श उदाहरण और समाज के कठमुल्लावर्ग की आँखों का काँटा बन गयी. ‘केसरी’ के 21 मार्च 1887 के सम्पादकीय में स्वतंत्रता सेनानी बालगंगाधर तिलक ने रुक्माबाई पर हमला बोलते हुए लिखा, “आज हजारों मर्द अपनी अवयस्क पत्नियों के साथ सुखपूर्वक रह रहे हैं. जब ऐसा है, तब क्या यह शर्मनाक नहीं है कि ज्ञान की लौ की चकाचैंध में मदान्ध एक औरत अदालत में तलाक की मांग इसलिये करे कि अब उसका मर्द उसके लायक नहीं रह गया है?” ताकतवर और सम्मानित महनुभावों के तीखे विषाक्त प्रहारों के सामने भी रक्माबाई ने झुकने से इन्कार कर दिया. बावजूद इसके कि वह अदालत में अपना मुकदमा हार गयी, उसने मजबूती के साथ कहा कि वह अपने पति के साथ जाने के बजाय जेल जाना ज्यादा पसन्द करेगी. आगे चल कर वह भारत की पहली महिला डाक्टरों में से एक बनी. डाॅक्टर बनने इंग्लैण्ड से डिग्री हासिल करने के लिए 1880 में कलकत्ता की कादम्बिनी गंगोपाध्याय को भी भारी पितृसत्तात्मक विरोध का सामना करना पड़ा था.

19वीं सदी के मध्य में दलित लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता सावित्री बाई फुले ने महिलाओं के लिये शिक्षा के अभियान की शुरूआत की और सामन्ती ताकतों का तमाम विरोध और विद्वेष झेला जो उन्हें इसके लिये अपमानित करते, गाली देते तथा उन पर मैला फेंकते थे.

अपने पति ज्योतिबा फुले की हमकदम सावित्रीबाई ने उन तमाम भेदभावपूर्ण सामाजिक प्रथा-परम्पराओं को भी चुनौती दी जिन्हें उच्चजातीय विधवाओं को झेलना पड़ता था.

19वीं सदी की ही एक और विदुषी महिला पंडिता रमाबाई थीं जिन्होेने महिलाओं के लिये स्कूली शिक्षा को बढ़ावा दिया और औरतों के मेडिकल कालेजों में दाखिले की हिमायत की. आनन्दीबाई जोशी उन प्रथम भारतीय महिलाओं में थी जिन्होंने डाक्टर की डिग्री हासिल की. काशीबाई कानितकर महाराष्ट्र की प्रथम उपन्यास लेखिका बनीं. इन महिलाओं ने जिस तरह से सामाजिक विद्वेष और घृणा का सामना किया इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब आनन्दीबाई और काशीबाई (दोनोें दोस्त थीं) पहली बार सार्वजनिक रूप से जूतियाँ पहने हुए छाता ले कर निकलीं तो उन्हें सड़कों पर पत्थर मारे गये. जब 1882 में औरत और मर्द की गैरबराबरी को चुनौती देते हुए ताराबाई शिन्दे ने ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ लिखी तो कई समाज सुधारकों ने भी उनपर हमले किये. एकमात्र समाज सुधारक ज्योतिबा फुले थे जिन्होेने उनके काम का समर्थन किया. 1890 के दशक में ब्रह्म समाज की महिलाओं के जत्थों ने कोलकाता की सड़कों पर पर्दाप्रथा के खिलाफ जन अभियान चलाया.

तमिल कवि और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुब्रमण्य भारती (भारतियार) (1882-1921) ने बीसवीं सदी के आरम्भ में महिला मुक्ति और जातिवाद के विषय पर बहुत ही सशक्त और लोकप्रिय गाने लिखे थे. एक गाने में उन्होंने लिखा “वे जो सोचते थे / पाप है महिलाओं का पुस्तकें छूना / निस्तेज हैं अब; वे असाधारण पुरुष / जो चाहते थे कैद करना औरतों को / घर के भीतर / बैठे हैं सर झुकाये शर्म से आज.” तामिलनाडु में ही 'आत्मसम्मान आंदोलन' (या स्वाभिमान आंदोलन) के प्रणेता ई. वी. रामस्वामी 'पेरियार' ने विधवा पुनर्विवाह या नारी शिक्षा जैसे समाज सुधारू एजेण्डे से काफी आगे निकल कर पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे को ही बदलने की बात की. सामाजिक प्रश्नों पर उनके विचारों में मार्क्सवाद का प्रभाव था. अपनी पत्रिका 'क्रांति' में 1934 में उन्होंने लिखा “यह कहना गलत है कि आधुनिक युग में महिलाओं ने श्रम में अपना योगदान करना शुरू किया है. मानवता के उदय के समय से ही वे श्रम कर रही हैं. सच्चाई तो यह है कि वे पुरुषों से पहले ही 'मजदूर' बन गयी थीं.” पितृसत्तात्मक विवाह और परिवार की आलोचना करते हुए उन्होंने महिलाओं के लिए कुशल गृहिणी बनाने वाली शिक्षा की जगह ऐसी शिक्षा की वकालत की जो उन्हें रोजगार के योग्य बना सके. उन्होंने 'पतिव्रता' और औरत की शुचिता की पितृसत्तावादी धारणाओं एवं रीति-रिवाजों पर भी घनघोर प्रहार किये. आत्म सम्मान आंदोलन में कई तेजस्वी महिला नेता शामिल थीं – जैसे डा. मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी और रामामृतम अम्मईयार जिन्होंने देवदासी प्रथा के अंत के लिए संघर्ष चलाया. बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में स्वयं देवदासी रही रामामृतम ने देवदासी प्रथा से नाता तोड़ महिला अधिकारों के लिए संघर्ष किया.