जुलाई 2016 में रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन एक दस्तावेज सामने ले आए जिसका शीर्षक था "पेमेंट एंड सेटेलमेंट सिस्टम इन इंडिया: विजन 2018". इसमें वह रास्ता सुझाया गया था जिसपर चलते हुए अदायगी के डिजिटल तरीक़ों को प्रोत्साहित करके दो सालों में कम नकदी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ा जा सकता है. पीओएस और एटीएम के और व्यापक इस्तेमाल का सुझाव देते हुए इस रपट में विशेष रूप से यूपीआई (यूनीफाइड पेमेंट इंटरफ़ेस) और आधार कार्ड आधारित भुगतान व्यवस्था (एईपीएस) की जरूरत पर बल दिया. हकीकत यह है कि डिज़िटलीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए आज मोदी-जेटली-पटेल की तिकड़ी जो कुछ भी कर रही है, वह सब मनमोहन-चिदम्बरम-राजन की तिकड़ी के समय सूत्रबद्ध और शुरू किया गया था. (हाँ, अभी नकदी रहित लेन-देन को बढ़ावा देने के लिए सरकार बहुतज्यादा व्यग्र है.) वैश्विक वित्तीय पूँजीवाद की एजेंसियों (विशेषकर अमेरिकी) के बीच इस मुद्दे पर आम सहमति बन चुकी है. यद्यपि नोटबंदी के अचानक निर्णय से इस आम सहमति को बहुत ही अस्थायी रूप से कुछ क्षति पहुँची (डिजिटल लेन-देन में बहुत थोड़ा इजाफा तो हुआ) क्योंकि एक पार्टी विशेष के हित में लिया गया यह एक अविवेकी निर्णय था जिसके पीछे कोई संगत आर्थिक तर्क नहीं था.

इसी महीने वीजा और नेशनल पेमेंट कारपोरेशन ऑफ इंडिया व अन्य के "मार्गदर्शन" में बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप और गूगल ने एक रपट तैयार की जिसका शीर्षक था "डिजिटल पेमेंट्स 2020" (अमेरिकी संस्थाओं द्वारा ऐसी ही कई और रपटें भी तैयार की गयीं). इसकी खासियत यह थी कि इसमें वित्तीय समावेशन के बारे में कही जाने वाली अच्छी-अच्छी बातों से निजात पा ली गयी थी और भारत में डिजिटल लेन-देन के अवसर को "500 अरब अमेरिकी डॉलर की सोने की खदान" बताते हुए उस पर "झपट" पड़ने की जरूरत बतायी गयी थी.

उसके बाद सितम्बर 2016 में मैकेंजी ग्लोबल इंस्टीच्यूट ने एक रपट प्रकाशित की जिसका शीर्षक था "डिजिटल फाइनेंस फॉर आल: पावरिंग इनक्लूसिव ग्रोथ इन एमर्जिग इकॉनामीज". इसमें अनुमान लगाया गया था कि डिजिटल फाइनेंस विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के सकल घरेलू उत्पाद में 2025 तक 37 खरब अमेरिकी डॉलर का इजाफा कर सकता है जोकि परम्परागत ढर्रे पर चलाने वाले लेन-देन से छः फीसदी अधिक होगा. इस रपट में कहा गया कि "भारत 2015 तक 700 अरब डॉलर की वृद्धि तक पहुँच सकता है जो 11.8 फीसदी अधिक होगा. इस अतिरिक्त सकल घरेलू उत्पाद से सभी क्षेत्रों में मिलाकर कुल 950 लाख नौकरियाँ सृजित होंगी जिनमें 210 लाख नौकरियाँ भारत के हिस्से आएँगी".

अक्टूबर 14, 2016 को डिजिटल लेन-देन को बढ़ाने के लिए यूएसएआईडी और वित्त मंत्रालय की साझेदारी को दिल्ली के एक सम्मेलन में "उत्प्रेरक" का निर्माण करके "एक नयी ऊँचाई" पर ले जाया गया. इस सम्मेलन में यह तय किया गया कि अन्य शहरों में लागू करने से पहले परीक्षण के तौर पर डिजिटल लेन-देन को बढ़ाने की परियोजना एक शहर में लागू की जाएगी. इस अवसर पर यूएसएआईडी के भारत मिशन के निदेशक जोनाथन एडलटन ने कहा कि "अर्थव्यवस्थाओं का डिजिटलीकरण करने के वैश्विक प्रयासों की प्राथमिकता में भारत सबसे ऊपर है".

इसके तीन हफ्ते बाद ही नरेंद्र मोदी ने अपनी स्टाइल में 08 नवम्बर की घोषणा के जरिए डिजिटल युग में घुसपैठ कर दी.

इस तरह डिजिटलीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत यूपीए के शासनकाल में हुई थी जिसमें व्यापक डिजिटलीकरण कार्यक्रम की मुख्य कड़ी आधार कार्ड योजना शामिल है. शासकवर्ग, नौकरशाही और बड़े राजनीतिक दलों के बीच इस मामले में आम सहमति थी इसलिए कांग्रेस द्वारा शुरू किए गए काम को आगे बढ़ाने में भाजपा को आसानी हुई. नवम्बर 2016 में मोदी ने इस एकता को तोड़ दिया और भारत की पूरी जनसंख्या व अर्थव्यवस्था को बड़े बैंकों, पेमेंट गेटवे, इंटरनेट व मोबाइल सेवा प्रदाताओं और डिजिटल फाइनेंस के दूसरे साझेदारों के रहमो-करम पर छोड़ दिया. इस प्रक्रिया में भारत के तथाकथित "अनौपचारिक" क्षेत्र (जोकि वास्तव में "हम भारत के लोग" के सामाजिक-आर्थिक जीवन रेखा की मुख्य धारा है) को एक और क्रूर प्रहार का सामना करना पड़ा. इसे ही मार्क्स पूँजी का आदिम संचय कहते थे और अतीत में हमेशा ऐसा ही होता रहा है.