- द हिन्दू, 25 अप्रैल 2012, संपादकीय

बथानी टोला नरसंहार के मामले में निचली अदालत द्वारा दंडित 23 दोषियों की उच्च न्यायालय से दोषमुक्ति देश की आपराधिक न्याय प्रणाली पर गंभीर आरोप है. अदालत ने सभी आठ गैर सरकारी और स्वतंत्र गवाहों की गवाही को जिस तरह अविश्वसनीय कहकर खारिज कर दिया उस पर सवाल उठना लाजिमी है क्योंकि सेशन की अदालत ने उनमें से ही दो गवाहों की गवाही के आधार पर अपना फैसला सुनाया था. उच्च न्यायालय ने इस बात पर भरोसा नहीं किया कि इनमें से कुछ गवाह गांव के पास ही छिप गए थे और अपनी आँखों से नरसंहार को देखा था क्योंकि खून की प्यासी भीड़ ने उन्हें खोजकर मार डाला होता, लेकिन इसे एक संदिग्ध अनुमान ही कहा जा सकता है. जो बात तय है वह यह कि न्याय की अवहेलना हुई है और अगर इस नरसंहार के हत्यारे छूट जाते हैं तो यह मजाक होगा. बिहार सरकार ने कहा है कि वह इस फैसले के खिलाफ अपील करेगी, तो उसे मजबूत तैयारी करनी चाहिए. अपराधी या निरपराधी तय करना तो अदालतों का काम है लेकिन बथानी टोला की त्रासदी देश की मीडिया के अभिजात पूर्वाग्रह को खोलकर रख देती है क्योंकि मीडिया ने न्याय के इस मखौल पर कोई ध्यान नहीं दिया. कुछेक साल पहले जेसिका लाल की हत्या के मामले में जब ढीले ढाले छानबीन और गवाहों के मुकर जाने से सभी नौ आरोपी छूट गए थे तो मीडिया के भावुक अभियान के चलते ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने दोषियों की रिहाई का अपने आप संज्ञान लिया था और मामला दोबारा खोलने का आदेश दिया था. जरूरी है कि हम इस मामले में अपना ध्यान सिर्फ इसलिए न हटा लें और न्याय का मखौल उड़ने दें कि पीड़ित बिहार के सुदूर देहात में रहने वाले गरीब और भूमिहीन दलित थे.