लेकिन यह कोई स्थायी पराजय नहीं थी, और हो भी नहीं सकती थी. तीसरी दुनिया में पश्चिमी नवउदारवाद के पहले शिकार लैटिन अमरीका में सहस्राब्दी के आरंभ में क्षतिकारक नीतियों के हमले के खिलाफ निरंतर और प्रभावकारी विद्रोहों की पहली  शृंखला दिखाई दी: इक्वेडोर में इंडियनों (मूलवासियों) का विद्रोह हुआ जिसने नवउदारवादी राष्ट्रपति को गद्दी से हटा दिया; अर्जेंटिना में विद्रोह की लहरों ने एक-के-बाद-एक राष्ट्रपति को बोरिया-बिस्तर समेटने पर मजबूर कर दिया और वह 2001-02 में जाकर क्रांतिकारी संकट में तब्दील हो गया, वेनीज्वेला में अप्रैल 2002 में हुआ जन-विद्रोह जिसने ह्यूगो शैवेज को सैनिक तख्तपलट में पद से हटाये जाने के बाद दुबारा राष्ट्रपति की गद्दी पर बैठाया; वर्ष 2003 में बोलीविया का गैस युद्ध, जिसमें नवउदारवादी राष्ट्रपति को गद्दी से हटाया गया, इत्यादि.

अपने देश में बिखरे तौर पर होने वाले विस्फोटों की तुलना में ये जनप्रिय आंदोलन कहीं ज्यादा टिकाऊ थे (हालांकि वे कम्युनिस्ट नेतृत्व में नहीं चलाये जा रहे थे) और उन्होंने ऐसी शक्तियों को सत्ता में बैठाया जो अमरीकी वर्चस्व और नवउदारवादी कार्यक्रम का विभिन्न हद तक विरोध कर रहे थे. इन सरकारों ने लोकतांत्रिक राजनीतिक सुधारों को लागू किया और प्राकृतिक संसाधनों पर अंशतः सार्वजनिक नियंत्रण वापस कायम किया (1999 से वेनीज्वेला में, 2006 से बोलीविया में, 2007 से इक्वेडोर में). यहां तक कि अर्जेंटिना में किर्चनर को जन-दबाव में कुछेक प्रगतिशील कदमों को लागू करना पड़ा. इनमें से कुछेक देशों -- सर्वाधिक उल्लेखनीय रूप से वेनीज्वेला, बोलीविया और इक्वेडोर -- ने एक किस्म के मौलिक-समाजवादी समाज के निर्माण की ओर प्रभावशाली किंतु निरंतर प्रयोगों के जरिये और आगे कदम बढ़ाया है.

लैटिन अमरीका की ही धरती से वल्र्ड सोशल फोरम (जनवरी 2001 में) उभरा और “एक और किस्म की दुनिया संभव है” के ‘कोई विकल्प नहीं है’ (टीना)-विरोधी नारे के साथ बाकी दुनिया में फैल गया. वर्ष 1999 से लेकर 2001 के बीच सियाटल, वाशिंगटन, प्राग और जेनोआ में क्रमशः विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ), विश्व बैंक और आईएमएफ के खिलाफ बड़े-बड़े प्रदर्शन भी इसके साथ ही जुड़े हुए थे.

धीरे-धीरे ये संघर्ष मुख्यतः इसी कारण से शिथिल हो गये कि उनमें यह चेतना नहीं मौजूद थी कि अगले कदम के बतौर क्या किया जाना चाहिये, और इसलिये भी कि वे क्रमशः संदिग्ध पश्चिमी एनजीओ के नियंत्रण में चले गये. खास तौर पर डब्लूएसएफ, अपनी संभावनामय शुरूआत के बावजूद, अंत में विक्षोभों की गर्मी निकालने वाला सेफ्टी वाल्व बन गया. लेकिन इतना कहने के बावजूद हमें इस बात को अवश्य मंजूर करना होगा कि इन आंदोलनों ने जन-चेतना और सक्रियता को उन्नत करने में मदद दी. इसी आधार पर नवउदारवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ टकराव के अगले, मौजूदा चक्र का उद्भव हुआ है.