जहां पूंजीवादी अर्थशास्त्री मंदी के दौरान अनबिके मालों के ढेर की सतही परिघटना को देख पाते हैं, वहीं मार्कस ने पूंजी के अति-उत्पादन / अति-संचय की गहरी अंतर्वस्तु को प्रकट किया है और दिखाया है कि यह मंदी कैसे आती है

“मुनाफे की दर में गिरावट का प्रतिसंतुलन करने के लिये किसी पूंजीपति द्वारा श्रम का उत्पादक नियोजन करने के लिये आवश्यक न्यूनतम पूंजी में वृद्धि कर दी जाती है ... साथ-ही-साथ संकेन्द्रण भी बढ़ता है, क्योंकि एक सीमा के बाद, मुनाफे की ऊंची दर वाली छोटी पूंजी की अपेक्षा मुनाफे की नीची दर वाली विशाल पूंजी के द्वारा मुनाफे का संचय तीव्र गति से होता है. फिर एक उच्च बिंदु पर पहुंचने के बाद इस बढ़ते संकेन्द्रण के चलते मुनाफे की दर में नये सिरे से गिरावट आती है. इस प्रकार इधर-उधर बिखरी अधिकांश छोटी पूंजियों को सट्टेबाजी, साख की जालसाजी (क्रेडिट फॉड), शेयर बाजार में ठगी, और संकटों के जोखिमभरे रास्ते पर खींच लिया जाता है. पूंजी की तथाकथित विपुलता का प्रयोग हमेशा सारतः पूंजी की एक ऐसी विपुलता को दर्शाने के लिये किया जाता है, जिसके लिये मुनाफे की दर में गिरावट की क्षतिपूर्ति मुनाफे की मात्रा बढ़ाकर नहीं की जाती, यह बात पूंजी के नये रूप से विकसित हो रहे ताजे बिरवों के लिये हमेशा सच है, या फिर पूंजियों की एक ऐसी विपुलता को दर्शाने के लिये, जो अपनी दम पर कारगर नहीं रह सकी हैं, और जिन्हें साख (क्रेडिट) के रूप में बड़े उद्यमों के प्रबंधकों के हाथों सौंप दिया जाता है. पूंजी की यह विपुलता उन्हीं कारणों से आती है जो आपेक्षिक अति-आबादी की धारणा को जन्म देते हैं, और इस प्रकार, वह एक-दूसरे की पूरक परिघटना बन जाती है, हालांकि वे विपरीत ध्रुवों पर स्थित हैं -- एक ध्रुव पर है बेकार पड़ी पूंजी, और दूसरे ध्रुव पर खड़ी है बेरोजगार श्रमिक आबादी.

“अतः, अलग-अलग मालों का नहीं बल्कि पूंजी का अति-उत्पादन, हालांकि पूंजी के अति-उत्पादन में हमेशा मालों का अति-उत्पादन शामिल रहता है जो सीधासीधी पूंजी का अति-संचय है.” (वही, पृ. 250-51; जोर हमारा)

ऐसी परिस्थिति स्वाभाविक रूप से पूंजीपतियों के बीच अशोभनीय खींचतान की ओर ले जाती है-  

“जब तक सब कुछ ठीकठाक रहता है, प्रतियोगिता पूंजीपति वर्ग के बीच कामकाजी बिरादराना माहौल बनाये रखती है ... ताकि हर पूंजीपति को निवेश की गई पूंजी की मात्रा के अनुपात में साझी लूट में अपना हिस्सा मिलता रहे. लेकिन जैसे ही यह मामला मुनाफे के बंटवारे का नहीं रह जाता, बल्कि घाटे के बंटवारे का सवाल आ जाता है, तब हर पूंजीपति घाटे के न्यूनतम हिस्से का बोझ उठाने और घाटे के बड़े हिस्से का बोझ दूसरे पूंजीपतियों पर डालने की कोशिश करता है. कुल मिलाकर पूंजीपति वर्ग को अनिवार्यतः नुकसान उठाना ही है. घाटे का कितना हिस्सा किस पूंजीपति के पल्ले पड़ेगा, यानी उसे कितने हिस्से का भागीदार बनना ही पड़ेगा, इसका निर्धारण शक्ति और धूर्तता के जरिये होता है, और तब प्रतियोगिता का मतलब होता है दुश्मनी रखने वाले भाइयों के बीच लड़ाई. ऐसी स्थिति में व्यक्ति के रूप में पूंजीपति के हितों के साथ सम्पूर्ण पूंजीपति वर्ग के हितों का शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध सतह पर आ जाता है.” (वही, पृ. 253, जोर हमारा)

साम्राज्यवाद के युग में ये अंतर्विरोध अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर बार-बार दुहराये जाते हैं, जिसमें राष्ट्र-राज्यों (नेशन स्टेट) के बीच इस बात पर तीखी जंग छिड़ी होती है कि भारी नुकसान का मुख्य बोझ किसके पल्ले पड़ेगा. संकटों की जो कीमत चुकानी पड़ती है, वह परस्पर-विरोधी राज्यों की आर्थिक (वित्तीय समेत), राजनीतिक और सामरिक दक्षता के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप से वितरित होती है. पूंजीपति वर्ग को इसके वास्तविक अथवा संभावित समाधान के रूप में साम्राज्यवादी युद्ध जो इस विनाश की सबसे तेज पद्धति है -क्षितिज पर दिखाई देने लगता है.

अब चाहे जिस ढंग से और चाहे कितनी भी भयानक लड़ाई के जरिये नुकसानों का अलग-अलग प्रतिष्ठानों (और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों अथवा व्यापार एवं मुद्रा-समूहों) के बीच यह बंटवारा हो, व्यवस्था को एक किस्म के संतुलन पर वापस ले आने की सर्वोच्च आवश्यकता को पूरा करना जरूरी हो जाता है. और इस जरूरत को पूंजी के मूल्यों के एक भाग का विध्वंस करके ही पूरा किया जाता है:  

“... कम या अधिक मात्रा में पूंजी को वापस लेने अथवा यहां तक कि उसका विनाश करने के जरिये इस संतुलन को किसी भी सूरत में वापस लाना ही है. इसमें अंशतः पूंजी के भौतिक अस्तित्व का विनाश शामिल है, यानी उत्पादन के साधनों का, अचर और चर पूंजी का, एक हिस्सा काम से बाहर हो जायेगा यानी पूंजी की भांति कार्य नहीं करेगा ...

“बाजार में मालों का एक हिस्सा अपने परिचलन और पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को केवल अपनी कीमतों को अत्यधिक संकुचित करने के जरिये, यानी जिस पूंजी का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उसका मूल्यह्रास करने के जरिये ही पूरा कर सकता है. इसी तरह से अचर पूंजी के तत्वों का कम या ज्यादा हद तक मूल्यह्रास किया जाता है.

“… सुनिश्चित, पूर्वकल्पित कीमत सम्बंध पुनरुत्पादन की प्रक्रिया का इस प्रकार नियंत्रण करते हैं, जिससे कीमतों में आम गिरावट आने पर यह प्रक्रिया रुक जाय और गड़बड़ी में फंस जाय. यह गड़बड़ी और ठहराव भुगतान के माध्यम के बतौर मुद्रा की क्रियाशीलता को जड़ बना देता है, जिसका विकास पूंजी के विकास का मान-निर्धारण करता है और उन्हीं पूर्वकल्पित कीमत-सम्बंधों पर आधारित होता है. किन्हीं खास तारीखों पर किये जाने वाले भुगतान के वादों की  शृंखला सैकड़ों स्थानों पर टूट जाती है. इसके फलस्वरूप साख प्रणाली, जो पूंजी के साथ-साथ विकसित होती है, के ढह जाने के चलते यह गड़बड़ी और बढ़ जाती है और अत्यंत उग्र एवं तीव्र संकटों को जन्म देती है, जिसमें अचानक और मजबूरन मूल्यह्रास होने लगते हैं, उत्पादन की प्रक्रिया में वास्तव में ठहराव और विघ्न आ जाता है, और इस प्रकार पुनरुत्पादन में वास्तविक पतन दिखने लगता है.” (वही, पृ. 253-54)

लेकिन इन सारी चीजों का मतलब अपने-आप दुनिया का अंत नहीं है. एक बार आवश्यक अवमूल्यन सम्पन्न हो जाता है और अति-संचय का सफाया कर दिया जाता है, तो ‘स्वाभाविक’ संचय जारी रह सकता हैः

“... चक्र नये सिरे से अपने गतिपथ पर चलने लगता है. पूंजी का एक हिस्सा, जिसका अपनी क्रियाशीलता में ठहराव के चलते मूल्यह्रास हो गया है, अपने पुराने मूल्य को हासिल कर लेती है. बाकी हिस्से के लिये उत्पादन की विस्तारित स्थितियों में, जिसके साथ एक विस्तारित बाजार और बढ़ी हुई उत्पादक शक्तियां जुड़ी रहती हैं, एक बार फिर वही दुष्चक्र चलता जाता है.” (वही, पृ. 255)

लेकिन कोई जरूरी नहीं कि जो कुछ स्वाभाविक हो वह स्थायी भी हो. विस्तारित पूंजीवादी पुनरुत्पादन अपने तमाम अंतर्विरोधों का पहले से तीव्र रूप में पुनरुत्पादन है और पुनरावर्ती चक्रों के अंदर व्यवस्था के उग्र विनाश के बीज मौजूद रहते हैं:

“मौजूदा सम्पदा के सर्वाधिक विस्तार के साथ मिलकर, उत्पादन-सामर्थ्य का सर्वोच्च विकास पूंजी के मूल्यह्रास [अवमूल्यन], श्रमिक की प्रतिष्ठा घटने, और उसकी जीवन-सामर्थ्य के सबसे तनावपूर्ण क्षय के साथ-साथ घटित होगा. ये अंतर्विरोध विस्फोटों, जल-प्रलय, संकट आदि की ओर ले जाते हैं, जिनमें श्रम के क्षणिक निलम्बन और पूंजी के एक अच्छे-खासे हिस्से के विनाश के जरिये पूंजी को उग्र तरीके से उस बिंदु तक घटा कर सीमित कर दिया जाता है जहां तक वह जा सकती है ... फिर भी ये नियमित अंतराल पर आने वाली आपदाएं और भी बड़े पैमाने पर खुद को दुहराती हैं, और अंततः पूंजी की प्रबल पराजय की ओर ले जाती हैं.” (ग्रुंड्रिस, पृ. 750, जोर हमारा).