(13 अप्रैल 1997 के इंक्लाबी मुस्लिम कांफ्रेंस के पटना जिला सम्मेलन में का० विनोद मिश्र का भाषण.
समकालीन लोकयुद्ध, 1-15 मई 1997 से)

दोस्तों, मैं एक कम्युनिस्ट हूं. कम्युनिस्ट होने के नाते मैं नास्तिक हूं. फिर भी मेरा मार्क्सवाद धर्म की भूमिका को खारिज नहीं करता. हम यह मानते हैं कि धर्म की भी अपने-अपने ऐतिहासिक समयों में विशिष्ट भूमिका रही है और नवजागरण के काल में दुनिया के पैमाने पर बहुत बड़े सामाजिक सुधार के लिए इस्लाम का इंक्लावी अवदान रहा है. आज भी कोशिशें हैं कि इन क्रांतिकारी संभावनाओं को आगे बढ़ाया जाए और एक नए परिप्रेक्ष में लोगों को इकट्ठा किया जाए.

अभी हमारे देश के हालात हैं कि केंद्र में जो एक सेक्युलर सरकार चल रही थी वह सरकार गिर गई है. इसके गिरने के पीछे कई कारण हैं. आप उन्हें जानते होंगे. लेकिन कुछ सवाल खड़े होते हैं. कांग्रेस सरकार के जमाने में बाबरी मस्जिद को सांप्रदायिक ताकतों ने ढहा दिया. इसके खिलाफ देश में प्रगतिशील और सेक्युलर ताकतों ने जोरदार आंदोलन खड़ा किया. बाद में अगर कांग्रेस सारे देश में इतनी बुरी तरह से पराजित हुई थी तो उसका एक बड़ा कारण था – बाबरी मस्जिद के मसले पर उसकी विरोध की भूमिका. मुस्लिम समाज और देश के लोकतांत्रिक समाज का जो आक्रोश था, उस वजह से कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी थी. एक नई सरकार आई जिसकी खुली घोषणा थी कि धर्मनिरपेक्षता ही उसकी मूल बात है. लेकिन, मैं यह कहना चाहता हूं कि दस महीनों में बाबरी मस्जिद के सवाल पर हमने एक कदम भी उसे आगे बढ़ते हुए नहीं देखा.

पिछली नरसिम्हा राव सरकार ने बाबरी मस्जिद के केस को शायद 142-ए धारा के तहत सुप्रीम कोर्ट में भेजा था जिसपर सुप्रीम कोर्ट सिर्फ राय दे सकता था. यूनाइटेड फ्रंट सरकार ने वायदा किया था कि हम 142-बी के तहत इसे सुप्रीम कोर्ट को भेजेंगे, जिसमें सुप्रीम कोर्ट सिर्फ राय नहीं देगा, उसका फैसला करेगा और वह फैसला सबको मानना होगा. उनके साझा न्यूनतम कार्यक्रम का एक वादा यह था. उन्होंने बहुत सारी बातें की भी नहीं थीं. सिर्फ एक छोटा-सा वादा था. लेकिन, दस महीने गुजर गए. यह छोटी-सी बात भी वे नहीं पूरा कर पाए. मैं यह जानना चाहता हूं कि नरसिम्हा राव की सरकार ने इस पूरे मामले को जहां छोड़ा था, दस महीने की सेक्युलर सरकार उससे एक कदम भी आगे क्यों नहीं बढ़ पाई और यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आज भी पुरानी धारा के तहत ही क्यों चल रहा है जिसमें नरसिम्हा राव सरकार ने ही भेजा था. हमने यह भी देखा कि प्रधानमंत्री गुपचुप ढंग से बाल ठाकरे से भी मिले, उस शखस से जो खुलेआम घोषणा करता है कि बाबरी मस्जिद हमने गिराया है और हम इसके लिए गर्वित हैं. (कम से कम भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता इतने खुलेपन से इतनी बेशर्मी नहीं दिखाते). इस तरह सेक्युलरिज्म के सवाल पर जो सरकार आई थी उसे सेक्युलरिज्म के सवाल पर एक भी कदम आगे बढ़ते हमने नहीं देखा. चाहे एक दूसरा मसला – दलित मुसलमानों के आरक्षण का सवाल भी, जो आम मुस्लिम समाज में बड़े पैमाने पर आंदोलन पैदा कर रहा है. जरूर, मुस्लिम समाज को अपनी धार्मिक आजादी चाहिए, अपनी माइनरिटी का स्टेटस चाहिए. उनके सिविल कोड में हस्तक्षेप न किया जाए. लेकिन, इसके साथ-साथ इसकी मांगें भी उठ रही हैं कि हम कई पैमाने पर पिछड़ेपन के शिकार है, चाहे शिक्षा का सवाल हो या नौकरी का सवाल हो. मुस्लिम समाज बड़े पैमाने पर गरीबी व भूखमरी का शिकार है. ये बुनियादी मांगें हैं, जिनपर हम आगे बढ़ना चाहते हैं. इसमें एक खास मांग उठ रही थी कि मुसलमानों में भी जो दलित हिस्सा है उसके लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की जाए. तो इसमें तमाम किस्म की बहसें हैं, मैं उन बहसों में नहीं जाना चाहता. लेकिन मैं समझता हूं कि इस पर भी इस सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया. बुनियादी तौर से मैं यह कहना चाहूंगा कि दस महीने की इस सेक्युलर सरकार ने खोखले वादों के सिवा कोई भी ठोस कदम आगे नहीं बढ़ाया चाहे वो धार्मिक अस्मिता का सवाल हो, जो सवाल बाबरी मस्जिद के साथ जुड़ा हुआ है या समाज को आर्थिक तरक्की के लिए आगे बढ़ाने का. इसलिए यह सवाल हमारे सामने ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है कि आपका अगला पड़ाव क्या होगा? मुस्लिम समाज अपनी लड़ाई आनेवाले दिनों में और आगे कैसे बढ़ाएगा? बिहार में हमने एक सरकार देखी जिसने यह दावा किया कि उसने बिहार में दंगे रोक दिए हैं. सच्चाई है बिहार में राम जन्मभूमि के जमाने में जब बड़े पैमाने पर जुनून फैला हुआ था, बड़े पैमाने पर दंगे भी हो रहे था, आडवाणी की रथ यात्रा आ रही थी, उसे रोका गया. दंगे भी रुके. दंगों के खिलाफ कार्रवाइयां भी हुई. माहौल बदला और दलितों-पिछड़ो-मुसलमानों के बीच एक नई सामाजिक एकता भी बनी. यह इतिहास में आगे बढ़ने की ओर एक कदम था क्योंकि मुसलमान लंबे समय तक कांग्रेस के साथ थे और पिछड़े जनसमुदाय से उनका अलगाव था.

लेकिन सामाजिक न्याय की जो प्रक्रिया आगे बढ़ी उसमें पूरे समाज में नई गोलबंदियां हुईं. मुस्लिम समाज ने अपनी पूरी तादाद के साथ दलितों और पिछड़ों के साथ दोस्ती बनाई. कांग्रेस से हटकर जनता दल किस्म की मध्यमार्गी पार्टियों की ओर उसकी यात्रा शुरू हुई. इसे मैं एक अच्छी बात मानता हूं कि पिछड़े हिस्सों के साथ मुसलमानों ने अपने-आपकी जोड़ा और देश का मुसलमान एक नए सिरे से अपनी आवाज उठाने लगा – इस दावे के साथ कि हम हिंदुस्तानी हैं, हमें अपना हक चाहिए, हमें अपनी इज्जत चाहिए, हमें अपना अधिकार चाहिए. वह देश की मुख्यधारा के साथ जुड़ने लगा जो दलितों और पिछड़ो के उत्थान की ओर जा रही थी. मैं इसे आगे की ओर बढ़ा हुआ एक कदम मानता हूं. लेकिन क्या यह आपकी यात्रा की आखिरी मंजिल थी? या आप जिस मंजिल की ओर जाना चाहते हैं उसका यह पड़ाव भर था? यह सवाल है जिसपर आज बिहार के मुस्लिम समाज को सोचना चाहिए.

कुछ लोग यह कहते हैं कि बिहार में कांग्रेस से जनता दल की ओर, सवर्णों से पिछड़ो और दलितों की ओर, मुसलमानों की यात्रा है, यही उनका आखिरी पड़ाव है, यही उनकी मंजिल है और यहीं उनकी यात्रा खत्म होती है तथा जीना-मरना सबकुछ इसी के साथ है. लेकिन दूसरी एक बात आती है कि इसके बाद भी शायद आगे का कोई रास्ता है, इसके बाद भी आगे मंजिल है. पिछले सात वर्षों से यहां जो सामाजिक न्याय की हुकूमत चली – इन सात सालों में हमने उसे सामाजिक लूट की हुकूमत में बदल जाते देखा है. मैं इसे सामाजिक लूट इसलिए कहता हूं कि जो आपका पैसा था, किसी व्यक्ति से, किसी एक पूंजीपति से, किसी एक ठेकेदार से कमाया हुआ कमीशन नहीं था, उस सरकारी खजाने से एक हजार करोड़ रुपए का घोटाला किया गया. सामाजिक न्याय की जो सरकार थी, सामाजिक लूट की सरकार में बदल गई. अगर 1000 करोड़ रुपए इस तरह से कुछ लोगों की  ऐयाशियों में, बड़े-बड़े ‘ह्वाइट हाउस’ बनाने में बर्बाद हो जाएं तो इसका असर मुस्लिम समुदाय के विकास पर भी पड़ेगा जो हमारे समाज का सबसे पिछड़ा हुआ हिस्सा है, जिसमें ज्यादा गरीबी है, अशिक्षा है. तो हम यह कहना चाहते हैं कि जिस मुस्लिम समाज ने अपने-आपको मुख्यधारा की ओर जोड़ा, वह आज मुख्यधारा से हट जाएगा, इस बात को समझना है. आज इस घोटाले, भ्रष्टाचार व सामाजिक लूट के खिलाफ पूरे बिहार में तमाम गरीब लोग आंदोलन में खड़े हो रहे हैं. इस आंदोलन में मुस्लिम समाज को भी अपनी आवाज मिलानी होगी. क्योंकि अगर इसी तरह से लूट जारी रही तो बिहार आगे नहीं बढ़ सकता और बिहार अगर आगे नहीं बढ़ेगा तो एक खास समुदाय का – मुस्लिम समुदाय हो या कोई समुदाय हो – अलग से विकास नहीं हो सकता.

आपका राज्य पीछे चला जाएगा और आप अलग से विकसित हो जाएंगे, यह संभव नहीं है. इसलिए मै समझता हूं कि भ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ जमीन से जो संघर्ष हो रहा है उससे जुड़ना होगा. यह मैं इसलिए कहना चाहता हूं क्योंकि भ्रष्टाचार और घोटालों कि खिलाफ अदालतों में भी लडाइयां लड़ी जाती हैं. खासकर, भारतीय जनता पार्टी जैसी ताकतों इस पूरी लड़ाई को सिर्फ अदालत के गलियारों में लड़ना चाहती हैं. इसे आम जनता का आंदोलन नहीं बनाना चाहतीं. क्योंकि वे डरती हैं. वे जानती हैं कि व्यापक गरीब जनता अगर इस आंदोलन में उतर पड़े तो यह लड़ाई सिर्फ एक जगह रुकेगा नहीं. कल उनके नेताओं से भी हिसाब मांगेगी. वे ताकतें जनता को सांप्रदायिक दंगों के लिए राम मंदिर के सवालों पर गोलबंद करती हैं. लेकिन, वे कभी भी भ्रष्टाचार या इस तरह के मुद्दों पर आम जनता की लड़ाकू गोलबंदी नहीं करतीं, क्योंकि यह लड़ाकू गोलबंदी उन्हें डराती है. लेकिन, दूसरी ताकतें हैं जो भ्रष्टाचार और घोटाले के खिलाफ इस संघर्ष को जमीनी स्तर पर चला रही हैं. पूरे मुस्लिम समाज को इस लड़ाई में उनके साथ जुड़ना होगा.

दूसरी बात मुझे कहनी थी कि जब भी कोई नया निजाम आता है – कांग्रेस की सरकार गई, जनता दल की सरकार आई – मुस्लिम समाज के भी एक हिस्से को धीरे-धीरे वह अपने अंदर समाहित कर लेता है. हमने यह देखा कि कुछ अपराधी किस्म के जो लोग थे – मुसलमानों के बीच से नामी-गिरामी कुछ माफिया – वे जनता दल के साथ कहीं-न-कहीं जुड़े. मैं खास बात कहना चाहूंगा – सीवान के सांसद हैं मो. शहाबुद्दीन साहब. ये एक अपराधी के रूप में जाने जाते रहे हैं. हमारे साथ उनका सीधा कोई झगड़ा नहीं था. वहां के जो बड़े-बड़े जमींदार हैं उन्हीं के खिलाफ हम लड़ रहे थे. शहाबुद्दीन साहब का जो कांस्टिट्यूएंसी थी जीरादेई, वहां भी हमारे साथ उनकी कोई लड़ाई नहीं थी. हम लड़ रहे थे सामंतों के खिलाफ. लेकिन हमने बड़ी अजीबोगरीब चीज देखी कि धीरे-धीरे उन तमाम ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत जाति के सामंतों के साथ शहाबुद्दीन साहब की दोस्ती हो गई और हमारे खिलाफ उन्होंने हमले शुरू कर दिए. उनको यह डर लगने लगा कि माले जैसी पार्टी का उभरना आने वाले दिनों में उनके लिए खतरा बन सकता है. हम यह बात इसलिए कहना चाहते हैं क्योंकि बहुत-से लोगों को गलतफहमी है कि वह भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ लड़ते हैं. उनके ऊपर हत्या, लूट, बलात्कार, अपहरण के जो सैकड़ों मुकदमे हैं, उनकी लिस्ट उठाकर आप देख लें. उसमें मरने वाले कम-से-कम 95 प्रतिशत लोग दलित-पिछड़े, यहां तक कि खुद मुस्लिम बिरादरी से आने वाले लोग हैं. भारतीय जनता पार्टी का कोई गुंडा नहीं होगा जिसको उन्होंने मारा हो. मुझे लगता है 20-25 लोगों में कम-से-कम 22-23 लोग दलित, पिछड़े मुस्लिम लोग ही हैं. यह तो एक फैलाई हुई बात है कि वह वहां भारतीय जनता पार्टी की सामंती ताकतों से लड़ रहे हैं बल्कि उनका जो गुंडा-गिरोह है उसमें भी राजपूत व यादव गुंडे भरे पड़े हैं.

अभी आपने देखा होगा, सीवान में साथी चंद्रशेखर, हमारे साथी जिनकी हत्या सीवान में हुई, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एबीवीपी और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ते हुए हमेशा अध्यक्ष बनते रहे. जेएनयू और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सारे मुस्लिम नौजवान चंद्रशेखर को नाम से पहचानते हैं. चंद्रशेखर के लिए होने वाली लड़ाइयों में वे उनके साथ खड़े हैं.

यह बहुत ही अफसोस की बात है कि सांप्रदायिक ताकतों के साथ लड़ने वाले इस नौजवान को ऐसी पार्टी के हाथों शहीद होना पड़ा जो अपने आपको सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाली ताकत कहती है. चंद्रशेखर जबसे सीवान में था, सीवान के जितने भी मुसलमान लड़के जेएनयू या अलीगढ़ मे पढ़ते हैं, सब उसके इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगे थे. मुस्लिम बुद्धिजीवियों का जो बड़ा हिस्सा सीवान में है, उनसे चंद्रशेखर का घुलना-मिलना शुरू हो गया था. चंद्रशेखर वहां स्थानीय मुस्लिम जनता में लोकप्रिय होने लगा था. शायद आने वाले दिनों का यही खतरा शहाबुद्दीन पर मंडरा रहा था. इसलिए उसको रास्ते से हटा दिया गया. इस उदाहरण के जरिए मैं यह कहना चाह रहा था कि मुसलमानों ने जिस समाजिक न्याय और सामाजिक विकास की ओर आगे कदम बढ़ाया था, वह रास्ता रुक गया. मुस्लिम समाज से जो राजनीतिज्ञ उभरे और जिन्हें सामाजिक न्याय की हुकूमत ने समेट लिया, उनका एक हिस्सा इस किस्म के अपराधियों का है. कहीं सांसद शहाबुद्दीन हैं, तो कहीं इस तरह के और भी लोग हैं. दूसरा हिस्सा ऐसे लोगों का है जिनकी अपनी कहीं कोई पहचान नहीं, जो सिर्फ चापलूसी करना जानते हैं. लालू यादव के घर में रसोइए हैं, उनके बच्चों को स्कूल पहुंचाते हैं. वे उनके एमएलसी बनाते हैं. इस किस्म के हिस्से को जिनकी न अपने समाज में कोई पहचान है, न कोई शख्सियत है, पावर स्ट्रक्चर में ले लिया गया है. हां, तीसरे कुछ लोग भी हैं जो अच्छे लोग हैं, प्रगतिशील विचार रखने वाले लोग हैं, जिनके अंदर सामाजिक संवेदना है, कुल मिलाकर सामने की ओर जिनकी सोच है. जिनमें कोई विधान परिषद में हैं, कोई कभी स्पीकर भी बनते हैं, कोई माइनॉरिटी कमीशन के चेयरमैन बनते हैं. वे खुद भी किन्हीं मजबूरियों के शिकार हैं. उन्हें हमेशा भारतीय जनता पार्टी का डर सताता है. कोई विकल्प नहीं नजर आता है. कैसे आगे बढ़ा जाए इस विषय में उनके सामने दिशा स्पष्ट नहीं है.

इन कारणों से ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो नहीं चाहते हुए भी मन में तमाम किस्म की कसक लिए हुए वहां हैं. वे हमारे साथ भी बातें करते हैं, हमारे साथ भी रिश्ते रखते हैं. ऐसे कई विधायक भी हैं. वे हमसे सिर्फ इतना कहते हैं कि हमलोग आपकी तरफ देख रहे हैं,  आपलोग आगे बढ़ें, आपलोग मजबूत हों, तमाम वामपंथी पार्टियां अपना साझा मंच बनाएं तो हमलोग भी कल फैसला लेने की स्थिति में आएंगे. जो मुस्लिम लीडर्स अभी सामाजिक सत्ता में समाहित हैं वे भी किसी के इंतजार में हैं. खुद और आगे बढ़कर पहलकदमी लेना अब उनके बस में नहीं है. वे इस इंतजार में हैं कि कोई और ताकत उभरे. मैं समझता हूं कि उन्हें फिलहाल हम यहीं छोड़ें. मुस्लिम समाज में, उसके दबे-कुचले, दलित-पिछड़े हिस्सों से, उसके नौजवानों के बीच से, एक नया नेतृत्व उभरे, एक नई पहचान के साथ, एक नई संस्कृति के साथ, त्याग और आत्म बलिदान की भावनाओं के साथ, और शायद मैं कहूं कि इस्लाम के उन क्रांतिकारी उद्देश्यों के साथ जिसकी संगति हो. ऐसे नए और जुझारू नेतृत्व के उभरने की आवश्यकता है. मुस्लिम समाज का जो सबसे पिछड़ा, सबसे दलित हिस्सा है, उसे अब आज हमें सामने लाने की आवश्यकता है.

इंक्लाब जिंदाबाद!