(पांचवी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से उद्धृत)

चूंकि हमारे देश ने औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध दीर्घकालीन संघर्ष के क्रम में अपनी राष्ट्रीयता अर्जित की और चूंकि वह अभी भी साम्राज्यवाद की ओर से नवउपनिवेश बना लिए जाने के खतरे का सामना कर रहा है, लिहाजा एक ऐसे देश के कम्युनिस्ट होने के नाते हम राष्ट्रीय एकता को काफी महत्व देते हैं. सीपीआई(एमएल) ने अपने जन्मकाल से ही भारत के एकीकरण को अपना उसूली लक्ष्य घोषित किया है. यहां तक कि हम अपने महान देश के विभाजन को समाप्त करने के लिए भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को मिलाकर एक महासंघ बनाने का विचार भी रखते हैं. हमने किसी खालिस्तान अथवा किसी स्वतंत्र असम की मांग का कभी समर्थन नहीं किया है.

राष्ट्रीय एकता तमाम प्रमुख राजनीतिक धाराओं के लिए, चाहे वह शासक कांग्रेस हो, भाजपा हो, अवसरवादी वाम हो अथवा क्रांतिकारी कम्युनिस्ट हो, निश्चय ही एक चिंता का विषय है. सवाल है कि उनकी विविध स्थितियों के बीच सुस्पष्ट विभाजन रेखा कैसे खींची जाए?

लगभग हमारे सभी छोटे पड़ोसी देश भारत को एक क्षेत्रीय प्रभुत्ववादी ताकत तथा एक खतरे के रूप में देखते हैं और उनकी यह सोच निराधार नहीं है. समूचा सरकारी प्रचारतंत्र पड़ोसी देशों, खासकर पाकिस्तान को भारत के खिलाफ हमेशा षड्यंत्र करते रहनेवाले के बतौर प्रदर्शित करता है. सीपीआई और सीपीआई(एम) के प्रचार भी इसी दर्जे के होते हैं. हमें यह अवश्य समझना चाहिए कि भारत के खिलाफ कोई भी साम्राज्यवादी षड्यंत्र केवल भारतीय खतरे के बारे में हमारे पड़ोसियों की अवधारणा के जरिए ही कार्य कर सकता है.

कम्युनिस्टों से सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयवाद की मांग है कि वे खुद ‘अपने’ पूंजीपति वर्ग के राष्ट्रीय अंधराष्ट्रवाद का विरोध करने का साहस करें. इस उसूली स्थिति की अनुपस्थिति में अस्थिरता के खतरे के बारे में की जा रही तमाम फिक्र कम्युनिस्टों को निस्संदेह पूंजीवादी विचारधारा और पूंजीवादी हितों का ताबेदार बना देगी.

फिर, कुछ खास मामलों में, जहां अलग होने के आंदोलनों को जनसमर्थन नहीं मिल रहा है और जिनके पीछे एक समूचा इतिहास है, उनमे बड़ी होशियारी के साथ निपटने और उनके लिए विशेष हल तलाशने की जरूरत है. इस प्रकार के तमाम आंदोलनों को राष्ट्रीय एकता के प्रति सचमुत खतरा मानकर उन्हें खारिज कर देना तथा उन्हें कानून और व्यवस्था की समस्याओं के रूप में देखना कम्युनिस्टों और सुसंगत जनवादियों का रुख नहीं हो सकता है.

ऊपर से राष्ट्रीय एकता थोपने के बहाने भारतीय राज्य सिर्फ अपने प्रतिक्रियावादी उपकरणों को ही शक्तिशाली बनाता रहा है, काले कानून गढ़ता रहा है और झुठे मुठभेड़ों और जनसंहारों को जायज ठहराता रहा है. कहने की आवश्यकता नहीं कि इस सबका इस्तेमाल जल्द ही निरपवाद रूप से जनवादी आंदोलनों के खिलाफ किया जाएगा.

हम ऊपर से राष्ट्रीय एकता निर्माण करने के बिस्मार्कवादी तरीके का डटकर विरोध करते हैं. हम नीच से राष्ट्रीय एकता का निर्माण करने के हिमायती हैं जहां तमाम राष्ट्रीय ग्रुपों और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों को व्यापकतम संभव एकता की गारंटी की जाएगी. जनवादी आधार पर भारत का राष्ट्रीय एकीकरण भारत की जनवादी क्रांति का एक महत्वपूर्ण कार्यभार है.