(15 जुलाई 1993 को पटना में आइसा द्वारा आयोजित समानांतर छात्र-युवा असेम्बली में दिया गया भाषण.
समकालीन लोकयुद्ध, 15 जुलाई 1993 से)

मैं काफी लंबे अरसे के बाद किसी स्टूडेंट्स असेंबली से मुखातिब हूं. आपका जोश-खरोश पुराने दिनों की याद ताजा कर देता है. समाज में क्रांति की पदचाप, बदलाव के संकेत सबसे पहले छात्र-युवा ही सुनते हैं, देखते हैं. साठ के दशक के अंतिम वर्षों और सत्तर के दशक की शुरूआत में छात्र, विशेषतः बंगाल में, सीधे क्रांतिकारी संघर्ष में उतर पड़े थे. उस जमाने का नारा था ‘स्कूल-कलेज छोड़ो, क्रांति में कूद पड़ो’. हजारों-हजार छात्र इस लड़ाई में उतरे थे, सैंकड़ं ने कुर्बानियां दी थीं.

सत्तर के दशक के मध्य में राज्य व्यवस्था की बढ़ती निरंकुशता के खिलाफ बिहार में छात्रों ने जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा. आजादी के बाद यह पहली बार हुआ कि अगड़े-पिछड़े का भेदभाव भुलाकर कंधे से कंधा मिलाकर छात्र लड़े. आज भी जब सांप्रदायिक उभार बढ़ा है तो उत्तरप्रदेश के छात्र-नौजवान फिर आगे आए हैं. उत्तरप्रदेश में आइसा ने सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त दी है. लेकिन इस जीत का एक महत्व और भी है. मंडल विरोधी लहर ने उत्तर भारत के कैंपसों को मंडल विरोधी ताकतों का गढ़ बना दिया था और छात्र एकता टूट-फूट गई थी. आइसा ने प्रगतिशील मूल्यों के आधार पर छात्र एकता को फिर से कायम किया है और  ‘रोजगार का अधिकार मौलिक अधिकार’ के बुनियादी नारे को फिर से स्थापित किया है. रोजगार का अधिकार मतलब जीने का अधिकार.

हमारे देश में पहली पंचवर्षीय योजना के समय 55 लाख बेरोजगार थे. आज वह संख्या 4 करोड़ के आसपास है, वह भी इंप्लायामेंट एक्सचेंज में रजिस्टर्ड बेकारों की. सारे बेकारों की संख्या करीब 15 करोड़ होगी, जो 2000 ई. तक बढ़कर 20 करोड़ हो जाएगी. दुनिया के देशों में सबसे अधिक बेकार भारत में हैं. लेकिन अचरज की बात है कि सरकार इंट्री पालिसी नहीं एक्जिट पालिसी बना रही है. सरकारों के पास कोई रोजगार नीति रही ही नहीं है. रोजगार की लड़ाई को लड़ने और जीतने के लिए छात्र एकता को मजबूत करना होगा और मजदूरों-किसानों व अन्य तबकों से जुड़ना होगा. क्रांतिकारी वामपंथ के नेतृत्व में ही यह लड़ाई जीती जा सकती है.

जद जब सत्ता में आया तो उसने दो वायदे किए, एक बोफोर्स घोटाले की जांच का और दूसरा रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने का. जद ने ये दोनों वायदे तो पूरे नहीं किए, लेकिन छात्रों को आपस में बांट दिया. जद की कुल जमा दो सरकारों हैं, बिहार और उड़ीसा में. जद मुख्यमंत्री लालू प्रसाद और बीजू पटनायक स्वयं में पार्टी हैं और जद का मतलब ही इन राज्यों में लालू और बीजू से लगाया जाता है. इन दोनों में बहुत समानता है. ये दोनों अपने-अपने प्रदेशों के ‘स्वतंत्र तानाशाह’ हैं.

युवा जनता दल की एक बड़ी रैली थी. बीजू पटनायक संबोधित कर रहे थे. जब रैली में शामिल युवाओं ने बीजू पटनायक से रोजगार देने की बात की तो वे कुछ नहीं बोल सके और उनपर अंडों, टमाटरों और जूतों की वर्षा होनी शुरू हो गई. बिहार में लालू प्रसाद का फैसला कैसे होगा, आप पर है. छात्रों के उभार जब-जब हुए हैं, उन्होंने एंटि-इस्टेबलिशमेंट की पार्टियों से ही अपने को जोड़ा है. चाहे वह ’70 के दशक का बंगाल हो या बिहार का जेपी आंदोलन हो या आज के आइसा का आंदोलन हो, छात्र-नौजवानों का अपना उत्साह होता है, अपना जुझारूपन होता है, संघर्ष के अपने तरीके होते हैं. इसीलिए हमारी पार्टी उनकी सांगठनिक स्वतंत्रता को तरजीह देती है. वैचारिक-राजनीतिक मतभेदों को भी हम कामरेडाना बहसों के जरिए सुलझाते हैं. इसके विपरीत कुछ पार्टियां, जो कहीं-न-कहीं से मौजूदा तंत्र का हिस्सा बन गई हैं, अपने छात्र संगठनों की लगाम हमेशा खींचे रहती हैं. वामपंथी छात्र संगठनों को इस मामले में अपनी आवाज उठानी चाहिए और एकताबद्ध संघर्षों में उतरना चाहिए.

छात्रों का कारवां जब बढ़ता है तो सिंहासन हिल उठते है, ताज उछल जाते हैं. बिहार की सडकें किसी अभिनेत्री के गालों जैसी चिकनी बन पाएंगी या नहीं मैं नहीं जानता. लेकिन युवाओं के गरम खून से बिहार की सड़के लाल जरूर हो जाएंगी. हर संघर्ष कुर्बानियों की मांग करता है और आपको इसके लिए तैयार रहना है. मेरी पूरी उम्मीद है कि आपके संघर्ष और भूमि सुधार के लिए चल रहे किसानों के संघर्ष मिलकर एक दिन बिहार की तस्वीर जरूर बदलेंगे.