[ यूनाइटेड लिरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई शुरू होने के ठीक पहले लिखी गई यह टिप्पणी सर्वाधिक प्रचार-संख्या वाले असमिया साप्ताहिक ‘सादिन’ में प्रकाशित हुई थी. समकालीन जनमत, 13 जनवरी 1991 से ]

बरसों पहले 1979 में, गर्मियों की एक सूहानी सुबह, जब मैं पेइचिङ में माओ त्सेतुङ के समाधि-स्थल पर उनके पार्थिव शरीर के सामने खड़ा हुआ, तो मेरे पांव जैसे अपनी जगह से हिलना भूल गए ...

यहां – इस सरजमीन पर – चिरनिद्रा में निमग्न था वह व्यक्ति, जिसने विश्व-जनता के एक चौथाई हिस्से की किस्मत बदल दी थी – जिसने यकीनी तौर पर बता दिया था कि पुरानी दुनिया फिर कभी वापस नहीं आएगी – और, जिसने सातवें दशक के उत्तरार्ध में इस छोर से उस छोर तक संसार की समस्त युवा पीढ़ी को जागृत-आंदोलित कर दिया था ...

गहरे विचारों में डूबा – नतशिर – मैं वहां तबतक खड़ा रहा, जबतक कि चीनी कामरेडों ने मुझे आगे बढ़ने का इशारा नहीं कर दिया. जाहिरन, मेरे पीछे लोगों की एक लंबी कतार थी और वे श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के लिए बड़ी बेसब्री से अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे.

अपनी चीनयात्रा के दौरान मैं चाङशा से चिङकाङशान पहाडों और फिर येनान की कंदराओं तक उन तमाम रास्तों से गुजरा, जिनसे होकर माओ ने चीनी क्रांति की मंजिलें तय की थीं.

युवा चीनी मार्गदर्शकों ने मुझे चीनी क्रांति की समूची अंतर्कथा से अवगत कराया, जबकि कुछ बुजुर्गों ने – जिनमें कई उम्रदराज किसान भी शामिल थे – जीते-जागते माओ से अपने संग-साथ की भावभीनी दास्तान सुनाई.

पेइचिङ में वरिष्ठ पार्टी-नेताओं के साथ बातचीत के दौरान मुझे ऊपर माओ की लीक से हटने के चाहे जो भी निशान नजर आए हों, पर नीचे-जमीनी स्तरों पर – व्यावहारिक रूप से कुछ भी नहीं बदला था. माओ अब भी एक फरिश्ते की तरह पूजे जा रहे थे.

चीन में तङश्याओ फिङ के उत्थान की, और इसी के साथ, चीनी राष्ट्र के भाग्य विधाता के रूप में माओ के इर्द-गिर्द बुने गए मिथकों के टूटने-बिखरने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो चली थी. लेकिन मैं माओ, उनकी क्रांति और उनकी विचारधारा पर एक नई आस्था के साथ अपने देश लौटा.

माओ त्सेतुङ-विचारधारा में हमारी शिक्षा-दीक्षा सातवें दशक के उत्तरार्ध के उन तूफानी दिनों में शुरू हुई थी, जबकि “महाविवाद” के गर्भ से चीन में सांस्कृतिक क्रांति और भारत में नक्सलबाड़ी का जन्म हुआ. उन दिनों हम जनरल ग्याप, चे गुएवारा, रेजी देवे आदि को पढ़ा करते थे और हर तरह के हथियारबंद संघर्ष से अभिभूत हो जाते थे – कुछ-कुछ उसी तरह, जैसे कि आजकल असम में उल्फा के युवा कामरेड अभिभूत नजर आते हैं – पर अंततः, माओ की विचारधारा और उनकी कृषि-क्रांति के रूप में हमें हमारा मार्गदर्शक उसूल मिल गया.

1971-72 के दौरान, जब मैं बहरमपुर सेंट्रल जेल में नजरबंद था, तब माओ की चुनी हुई रनचाओं का एक संग्रह मेरे हाथ लगा, जो गैरकानूनी तरीके से अंदर मंगवाया गया था; और कारण चाहे जो भी रहा हो, रोज-रोज की तलाशी के बावजूद, प्रशासन ने मुझसे वह किताब ले पाने की कभी कोई कोशिश नहीं की. महीनों तक मुझे चौबीसों घंटे कालकोठरी में बंद रखा गया. इस बीच मेरे पास उस किताब को बार-बार पढ़ने – और वस्तुतः कंठस्थ कर जाने के अलावा और कोई काम नहीं थी. अगल-बगल की कोठरियों में बंद अपने कामरेडों के लिए मैं हर शाम किताब के लेखों का अनुवाद जोर-जोर से सुनाया करता था. यहीं पर मैं पहली बार माओ के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं से – उनके दार्शनिक रूप से, अगली पांत के रणनीतिज्ञ और फौजी कमांडर के रूप में उनकी असाधारण प्रतिभा से – बाकायदा परिचित हुआ.

तीसरी दुनिया के देशों में माओ के विचार दमन-उत्पीड़न के विरुद्ध तमाम क्रांतिकारी संघर्षों में – चाहे ये संघर्ष साम्राज्यवादी प्रभुत्व के खिलाफ हों, या किसानों पर सामंती दबदबे के खिलाफ, या फिर देश के अंदर किसी एक राष्ट्रीयता के उत्पीड़न के विरुद्ध क्यों न हों – एक कारगर औजार की भूमिका निभाते रहे हैं. लिहाजा, यह उचित ही है कि असमिया राष्ट्रीयता के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन उल्फा ने, भारतीय अति-राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध अपने संघर्ष में, माओ के विचारों को अपने विचारधारात्मक औजार के बतौर ग्रहण किया है – ठीक उसी तरह, जैसे कि हम सामंती जुए से किसानों की मुक्ति और साम्राज्यवादी शिकंजे से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में माओ विचारधारा का अनुसरण करते हैं.

माओ के विचारों पर उनका विश्वास उन्हें भारत से असम के अलगाव की लड़ाई लड़ने की तरफ ले जाता है; जबकि ठीक इन्हीं विचारों पर हमारा विश्वास हमें एक ऐसे एकीकृत जनवादी और संघीय भारत की रचना के लिए लड़ना सिखाता है, जिसमें हर तरह के राष्ट्रीय उत्पीड़न का नामों-निशान मिटा दिया जाएगा. माओ के विचारों पर उनकी आस्था ने उन्हें पिछले असम आंदोलन को एक नया मोड़ देने – वस्तुतः एक वामपंथी मोड़ देने – की सामर्थ्य प्रदान की है. इससे आंदोलन के अंदर नवें दशक के प्रारंभ में जो कम्युनिस्ट विरोधी व वामपंथ-विरोधी सांम्प्रदायिक पूर्वाग्रह दिखाई पड़ा था, उसकी समाप्ति के आसार प्रबल हो गए हैं. माओ-विचारधारा पर हमारी आस्था ने हमें एकदम शुरू से और समान चिंता के साथ – अपने संसाधनों पर नियंत्रण कायम करने के असमिया जनगण की आकांक्षा से जुड़ने को प्रेरित किया है – आबादी की संरचना में हो रहे आमूल बदलाव की स्थिति में अपनी पहचान खो देने की उनकी आशंकाओं में हिस्सेदार बनाया है.

माओ के विचारों पर उनके विश्वास ने उन्हें शक्तिशाली भारतीय राज्य का मुकाबला करने के लिए एक चुस्त-दुरुस्त हथियारबंद संगठन का निर्माण करने की राह सुझाई है; जबकि इन्हीं विचारों पर हमारे विश्वास ने – कुल मिलाकर उसी भारतीय राज्य का मुकाबला करने के लिए – हमें मेहनतकश किसानों का व्यापक प्रतिरोध धाराओं-उपधाराओं में बंटने और अक्सर एक-दूसरे के साथ हिंसक प्रतिद्वंद्विता में उलझ पड़ने असमिया जनगण को, नए सिरे से व्यापक एकता के सूत्र में बांध लेने को प्रेरित किया है. हम भी असमिया जनता की एकता के लिए – एक ऐसी व्यापकतर एकता के लिए काम कर रहे हैं, जिसमें न तो असमिया मुख्यधारा के अंधराष्ट्रवाद के लिए कोई जगह होगी और न ही कबीलाई बहिष्करण और अलगाववाद को बढ़ावा दिया जाएगा. कार्बी आंदोलन पर हमारी पार्टी का जितना भी प्रभाव है, उससे इस आंदोलन के जनवादीकरण में और अन्य समुदायों के मेहनतकश अवाम के साथ इसकी एकजुटता बढ़ाने में ही मदद मिली है.

कोई शक नहीं कि उल्फा के युवा क्रांतिकारी पेटि बुर्जुआ क्रांतिवादी हैं; और संभवतः आज की परिस्थिति में वे इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकते. लेकिन तब, यह भी है कि वे असम आंदोलन का एक प्रगतिशील रूपांतर प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं; और उन्होंने असमिया युवकों की अदम्य गतिशीलता, साहस और शानदार सांगठनिक क्षमताओं का प्रदर्शन किया है. सवाल है : वास्तविक जीवन मे उन्हें जो सबक सिखाए हैं, क्या वे उन सबकों से माओ की विचारधारा को जोड़कर, खुद को कम्युनिस्टों में रूपांतरित करने की ओर अपना अगला तार्किक कदम उठा सकेंगे? क्या राजनीतिक विकास के किसी मोड़ पर हमारी और उनकी दो धाराएं मिलकर एक हो जाएंगी? मुझे विश्वास है कि इतिहास इन सवालों का जवाब सिर्फ हां में देगा.

उल्फा के कमारेडों ने देश के इस हिस्से में माओ की विरासत और उनकी विचारधारा को पुनर्जीवन प्रदान किया है. मैं उनको अपना लाल सलाम पेश करता हूं.