उत्तर प्रदेश चुनाव-प्रचार के दौरान टेलीविजन पर एक साक्षात्कार में भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह से पूछा गया कि नोटबंदी से आम आदमी को क्या फायदा हुआ? उन्होंने जवाब दिया कि इससे वित्तीय प्रणाली में पर्याप्त मात्रा में नकदी आ गयी है (उनका आशय उन खारिज हो चुके नोटों से था जिन्हें नोटबंदी के बाद बैंकों में जमा कराया गया) और जिसके कारण सरकार को बजट में गरीबों के हित में विभिन्न स्कीमें लागू करने में सहूलियत हुई है. अब यह तो साक्षात्कार लेने वाला ही जाने कि उसने शाह द्वारा की जा रही धोखाधड़ी को क्यों नहीं पकड़ा. उसने नहीं कहा कि मोदी का दायां हाथ सफेद झूठ बोल रहा है और देश की जनता को गुमराह कर रहा है. वित्तीय प्रणाली में जिस नकदी का प्रवेश हुआ है वह पूरी तरह  कानूनी मुद्रा है और उसके मालिक सरकार नहीं बल्कि जमाकर्ता हैं. वह सरकार द्वारा अर्जित राजस्व नहीं है जिसका इस्तेमाल बजट की स्कीमों में किया जा सके.

इससे पहले भाजपा ने दावा किया था कि बैंकों को और उनके जरिये सरकार को वित्तीय प्रणाली में वापस न लौटने वाली मुद्रा की छप्परफाड़ आमदनी होगी. और अब, जब लगभग तथाकथित काला धन कही गई मुद्रा समेत सारे के सारे खारिज नोट बैंकों में कानूनी तौर पर वापस लौट चुके हैं, तब शासक पार्टी के बेशरम सिपहसालार गोलपोस्ट बदल कर दूसरी दिशा में ले जा रहे हैं और घोषणा कर रहे हैं कि अब सरकार ठीक इसी वजह से ज्यादा खर्च कर सकती है कि खारिज की गई नकदी वित्तीय प्रणाली में वापस आ गई है!

तो ठीक है. हम इसे वैसा ही एक और चुनावी जुमला समझते हैं, जैसे जुमलों के लिये प्रधानमंत्री समेत भाजपा के नेता पहले से ही मशहूर हैं.

लेकिन ज़िम्मेदार मंत्री और सरकारी एजेंसियाँ अपने आधिकारिक बयानों में हर दिन फर्ज़ी आँकड़े और 'वैकल्पिक तथ्य' पेश कर रहे थे. इसी तरह जब नोटबंदी के ठीक बाद देश में चारों ओर से भयावह खबरें आ रही थीं तब जनवरी की शुरुआत में वित्तमंत्री ने इन खबरों का संज्ञान लेने और उनके अनुरूप कदम उठाने की जगह बहुत ख़ुशनुमा तस्वीर पेश करने की कोशिश की और सरकारी राजस्व में भारी वृद्धि का फर्ज़ी आँकड़ा पेश किया. लेकिन जानकार अर्थशास्त्रियों ने तुरंत ही साबित कर दिया कि वे राजस्व में वृद्धि के वास्तविक कारणों (जैसे कि बंद किए गए नोटों का इस्तेमाल करके अग्रिम आयकर जमा करने के तरीके आदि) और आँकड़ों को छिपा करके के आधे-अधूरे सच के जरिए देश को गुमराह कर रहे हैं.

इससे भी आगे बढ़कर केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने 28 फरवरी को एक प्रेस बयान जारी करके घोषणा की कि पिछले साल की तीसरी तिमाही की तुलना में इस साल सकल घरेलू उत्पाद में वास्तविक अर्थों में सात फीसदी और साथ ही साथ निजी उपभोग खर्च में 11.2 फीसदी की वृद्धि हुई है. सार यह कि तीसरी तिमाही की वृद्धि दर को दूसरी तिमाही की वृद्धि दर से बहुत थोड़ा कम जबकि उपभोग खर्च में भारी वृद्धि दिखाई गयी थी. प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के दुष्परिणामों को नकारने के लिए अपने चुनावी भाषणों में बड़ी अटकलबाजियाँ पेश कीं. लेकिन जाने-माने विशेषज्ञों, यहाँ तक कि भारत के निवर्तमान मुख्य सांख्यिकीविद ने इन आँकड़ों पर संदेह व्यक्त किया और उन तकनीकों का पर्दाफाश किया जिनके जरिए ये आँकड़े जुटाए गए थे.देखें “क्वार्टरली जीडीपी एस्टिमेशन कैन इट पिक यू पी डेमोनेटाइजेशन इम्पैक्ट?” - आर. नागराज, इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, मार्च 11, 2017; “द लेटेस्ट जीडीपी एस्टिमेट्स” - प्रभात पटनायक (पीपुल्स डेमोक्रेसी, Vol. XLI No. 11, मार्च 12, 2017); “ग्रोथ गेस्स्टिमेट्स” (संपादकीय, इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, मार्च 11, 2017). स्वतंत्र संगठनों की कई अन्य रपटों ने औद्योगिक उत्पादन में गिरावट की प्रवृत्ति को दर्ज किया. यह साफ था कि रिजर्व बैंक के बाद सीएसओ भी साहेब के गुणगान में लिप्त था.

इस सबको भी शायद घिसी-पिटी बात मान लिया जाए. आखिर कौन सी सरकार है जो चुनावों में झूठ नहीं बोलती? आइए, सरकार के आधिकारिक दस्तावेज़ों के जरिए ही हम देखें कि सरकार नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था को कैसे संभालेगी?