गरीबी हटाओ, समतामूलक विकास, वित्तीय प्रणाली में सभी को शामिल करना, औपचारिक कर्ज़ के नेटवर्क तक पहुंच आदि ऐसे कई चमकदार पुलिन्दे हैं जिनके आवरण में लपेटकर डिजिटलीकरण को समूची दुनिया में बेचा जाता है. हम अगले अध्याय में इस पर और चर्चा करेंगे. हर देश की स्थिति के अनुसार उसका अपना विशिष्ट संदर्भ और विशेष जोर भी बदलता रहता है.

देश में, राज्य और कारपोरेट का प्रचार करने वाली मशीनरी कोशिश करती है कि जनता का ध्यान बेरोजगारी, बढ़ते कृषि एवं औद्योगिक संकटों, लगातार गिरती वास्तविक मजदूरी, बढ़ती असमानता, भूमिहीनता और बेदखली या विस्थापन इत्यादि बुनियादी समस्याओं से परे खींचा जाय. इसीलिये वे नकदी के बरक्स डिजिटल मुद्रा के इस्तेमाल के तथाकथित फायदों की तारीफों के पुल बांधते रहते हैं. असलियत तो यह है कि विशाल बहुसंख्यक भारतीय जनता के पास खर्च करने लायक मुद्रा ही इतनी कम होती है, कि मुद्रा के स्वरूप पर, डिजिटल हो या नकदी, बहस करना ही बिल्कुल फिजूल और घिनौना लगता है.

सरकार यह दावा करती है कि डिजिटल मुद्रा औपचारिक अर्थव्यवस्था और पारदर्शिता की ओर ले जायेगी जिससे काले धन का खात्मा हो जायेगा. यह निरी लफ्फाजी है. क्या विकसित और प्रधानतः औपचारिक अर्थव्यवस्थाएँ भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्त हैं? स्विस बैकों में पैसा छिपाने वाले देशों में ब्रिटेन अव्वल नम्बर पर है. उसके बाद अमरीका का नम्‍बर आता है. क्या डिजिटल लेन-देन इस बीमारी को रोक सका? क्या नाइजीरिया, जहां जीडीपी की तुलना में नकदी का अनुपात बेहद कम है, दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में से एक नहीं है?

वास्तव मेंज्यादा नकदी लेन-देन वाले कई देशों में कम भ्रष्टाचार का अनुमान है जबकि कम नकदी लेन-देन वाले कई देशों में अनुमानित भ्रष्टाचार अधिक है. ट्रान्सपेरेंसी इंटरनेशनल का 'भ्रष्टाचार अनुमान सूचकांक' (करप्शन परसेप्शन इंडेक्स) सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार के अनुमान को 0 (बहुत भ्रष्ट) से लेकर 100 (बहुत पारदर्शी) के मानक पर आंकता है. 2015 मेंज्यादा नकदी वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह अनुमान बहुत ऊँचा (जापान और हांकांग के लिए 75, स्विटजरलैंड के लिए 86, जर्मनी के लिए 81 और आस्ट्रिया के लिए 76) था. जबकि कई कम नकदी वाली अर्थव्यवस्थाओं का सूचकांक काफी कम (दक्षिण अफ़्रीका के लिए 44, ब्राज़ील के लिए 38, मैक्सिको के लिए 35, इंडोनेशिया के लिए 36) था.

डिजिटल मुद्रा के रामबाण होने की सरकारी थीसिस की समस्या यह है कि यह मान लेती है कि इससे अर्थतंत्र का स्वतः औपचारिकीकरण हो जायेगा और गरीब वित्तीय प्रणाली में शामिल हो जायेंगे. यह कल्पना बेहद सरलीकृत और अव्यावहारिक है. औपचारिक अर्थतंत्र के विकास के लिये केवल विनिमय का औपचारिकीकरण मात्र पर्याप्त नहीं होता. इससे कहीं ज्यादा जरूरी है- उत्पादक शक्तियों का पर्याप्त विकास (इसमें टेक्नालॉजी और श्रम की कुशलता शामिल है) और साथ ही उसके अनुरूप उत्पादन सम्बंधों में परिवर्तन. इन मामलों में हमारे बेहद पिछड़ेपन को किसी प्लास्टिक मुद्रा, भीम (बीएचआईएम) या पेटीएम के जरिये नहीं समाप्त नहीं किया जा सकता. अतः अगर मान भी लें कि सैकड़ों बाधाओं के बावजूद डिजिटलीकरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हो गई, तो केवल उसके जरिये हम परिपक्व पूंजीवाद के व्यापक आधार वाले औपचारिक अर्थतंत्र में कत्तई प्रवेश नहीं कर जायेंगे.

इसी प्रकार, केवल बड़े पैमाने पर बैंक खाते खुलवा देने अथवा डेबिट/क्रेडिट कार्ड जारी कर देने से ही सबको वित्तीय प्रणाली में शामिल नहीं किया जा सकता. जरूरतमंद लोगों को समय पर और आसान शर्तों में कर्ज़ उपलब्ध कराया जाना जरूरी है और उन्हें कर्जदाता संस्थानों द्वारा कर्ज चुकाने लायक समझा जाना भी जरूरी है. अगर इन शर्तों को पूरा नहीं किया जाता और रोजगार/उत्पादन/ नियमित आमदनी जैसी व्यावहारिक समस्याओं को समुचित ढंग से हल नहीं किया जाता, तो महज बैंकिंग सुविधाएं प्रदान कर देना नाकाफी साबित होगा. आर्थिक सुधारों से पहले के दौर में भी सुधार-पूर्व अवधि में भी राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा किसानों एवं छोटे उद्यमियों को कर्ज़ देने के मामले में (उन दिनों जिसे प्राथमिकता वाले क्षेत्र कहा जाता था) हमारा अनुभव यही रहा है. आज भी इससे बेहतर हालात नहीं हैं. पिछले साल किये गये एफआईआई (फाइनांशियल इन्क्लूजन इनसाइट्स सर्वे) के अनुसार, प्रधानमंत्री  जन-धन योजना के तहत खोले गये 23 फीसदी खाते जीरो बैलेन्स खाते ही बने रहे. (इनमें से कुछ खातों का नोटबंदी के बाद काले धन को सफ़ेद करने में इस्तेमाल किया गया.) इससे पता चलता है कि केवल खाते खोल देने से ही उनका इस्तेमाल वेतन या मजदूरी प्राप्त करने या किसी भी दूसरे किस्म के लेन-देन के लिए सुनिश्चित नहीं किया जा सकता.