2016 के आखिर में नोटबंदी से पीड़ित करोड़ों लोगों के अनुभवों को दिखाने वाले आँकड़ों ने कृषि, निर्माण, सेवा, बुनियादी ढाँचों, रीयल स्टेट, व्यापार और निर्यात जैसे क्षेत्रों में आर्थिक मंदी की बेहद खराब तस्वीर पेश की. ऑल इंडिया मैन्युफैक्चर्स ऑर्गनाइजेशन (एआईएमओ) ने सरकार को तीन सर्वेक्षण रपटें भेजीं जिनमें कहा गया था कि अतिलघु व लघु उत्पादन क्षेत्र में नोटबंदी के शुरुआती 34 दिनों के भीतर ही 35 फीसदी नौकरियाँ समाप्त हो गयीं और आमदनी में 50 फीसदी की गिरावट हुई. बैंक पैसों से भरे पड़े थे पर व्यापार क्षेत्र द्वारा लिए जाने वाला अग्रिम कर 1960 के बाद के न्यूनतम स्तर तक पहुँच गया.

भारत के पूर्व व निवर्तमान सांख्यिकी अधिकारियों और रिजर्व बैंक, बहुत से देशी-विदेशी अर्थशास्त्रियों, विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों-- सभी ने सकल घरेलू उत्पाद के अनुमान को घटा दिया. इन सबने इसके लिए नोटबंदी को ज़िम्मेदार माना. यह सरकार के लिए शर्मनाक था. 8 नवम्बर की मोदी की घोषणा के बाद 'द  कर्स ऑफं कैश' (नकदी का अभिशाप) जैसी प्रभावशाली पुस्तक लिखने वाले केनेथ रोगोफ ने 'इंडिया'ज करेंसी एक्सचेंज गैम्बल एंड द  कर्स ऑफं कैश ' (भारत का नोटबंदी का जुआ और नकदी का अभिशाप) शीर्षक अपने लेख में भारत सरकार के तरीके से अपनी नाइत्तेफाकी जाहिर करते हुए लिखा --

"मैं नकदी को धीरे-धीरे बाहर करने का पक्षधर हूँ, जिसमें नागरिकों को नोट बदलने के लिए सात साल तक का समय मिलना चाहिए और धीरे-धीरे नोट बदलने की प्रक्रिया को कठिन बनाना चाहिए. नोटों को बदलने का यही मानक तरीका है ... लेकिन भारत सरकार ने लोगों को सिर्फ 50 दिन दिए हैं ...

दूसरे मैं बड़े नोटों को पूरी तरह बंद करने का पक्षधर हूँ. लेकिन भारत सरकार इनकी जगह इन्हें नए नोटों से बदल रही है. यही नहीं, पुराने नोटों को 2000 रूपए के नए नोटों से बदला जा रहा है." (द वायर 21.11.2016)रोगोफ 'नकदी का अभिशाप' में जोर देकर कहते हैं कि "उभर रहे बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में नकदी को कम करके अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के आकार को घटाने वाले कदम बेशक शुद्ध मुनाफा देने वाले होंगे"

मशहूर फ़ोर्ब्स पत्रिका के प्रधान सम्पादक स्टीव फ़ोर्ब्स ने सरकार के कदम की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि:

भारत ने अपनी नकदी के साथ जो सलूक किया है, वह घृणास्पद और अनैतिक है दिसम्बर 22, 2016

  • "बग़ैर किसी समुचित प्रक्रिया के उठाया गया भारत सरकार का यह कदम जनता की सम्पत्ति पर बड़े पैमाने पर डाका है. लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई किसी सरकार का यह कदम भयानक है."

  • "...1970 के दशक में छोटे अरसे के लिए चलाए गए जबरन नसबंदी अभियान के बाद अब तक देश की 'बढ़ी हुई आबादी' से निपटने की इस किस्म के नाज़ी तरीके का इस्तेमाल किसी और सरकार ने नहीं किया."

  • "आजकल सरकारों और अर्थशास्त्रियों के बीच जो नकदी-विरोधी सनक फैल रही है, भारत उसका सबसे बड़ा और विनाशकारी उदाहरण है."

  • "दुनिया के तमाम देश नई दिल्ली द्वारा पेश किए गए तर्कों को दोहराते हुए बड़े नोटों पर पाबंदी की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन इसके असली मकसद के बारे में कोई गलतफहमी नहीं रहनी चाहिए. यह आपकी निजता पर हमला है और आपके जीवन पर सरकारी नियंत्रण बढ़ाने की चाल है."

  • "गरीबों की सम्पत्ति पर डाका डालकर, उनकी गरीबी को और बढ़ाकर, सामाजिक भरोसे का खात्मा करके, राजनीति में जहर घोलकर और भावी निवेश को नुकसान पहुँचाकर भारत ने अपनी जनता को बहुत नुकसान पहुँचाया है. ऐसा करके उसने बाक़ी दुनिया के सामने भयानक उदाहरण पेश किया है. ...जहाँ तक मुद्रा के डिजिटलीकरण का सवाल है तो अगर मुक्त बाजारों को इसकी इजाजत दी जाए तो समय आने पर ख़ुद ही ऐसा हो जाएगा."

अब यह साफ हो चुका है कि प्रधानमंत्री ने जिस काम समय के लिए 'तकलीफ' की बात की थी, वैसा नहीं होने वाला. लेकिन सवाल यह है कि काले धन से छुटकारा पाने के 'लम्बे दौर के लाभ' के वादे का क्या हुआ?