काला धन वास्तव में एक प्रवाह है, एक प्रक्रिया है जो बिना लेखे-जोखे वाली आमदनी (जरूरी नहीं कि वह अवैध ही हो) को पैदा करती है और कर वसूलने वालों की निगाह से छिपी रहती है. लेकिन किसी खास समय में हम इस आमदनी की कुल मात्रा के बारे में धारणा बना सकते हैं और उसके परिमाण को मापने की कोशिश भी कर सकते हैं. आप काला धन को किसी भी दृष्टिकोण से देखें, नोटबंदी ने इस मामले में केवल नगण्य और क्षणिक (और कई तरीकों से उलटा नतीजा देने वाले) परिणाम पैदा किये हैं.

इस 'साहसिक कदम' के बारे में सरकारी तौर पर सुखानुभूति पैदा करने की कोशिश के पहले चरण के बाद, सरकार और मीडिया में मोदी के ढोल पीटने वालों ने घोषणा की कि रद्द किये हुए नोटों का बड़ा हिस्सा चलन से बाहर हो जायेगा. इसके चलते (क) अधिकांश काला धन नष्ट हो जायेगा, (ख) काला धन की जमाखोरी करने वालों को भारी नुकसान होगा, यानी उनको इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी और आर्थिक रूप से उनका सफाया ही हो जायेगा, और (ग) वापस न आने वाले नोटों के चलते रिजर्व बैंक की देनदारी घट जायेगी और इस प्रकार राष्ट्रीय खजाने को भारी मुनाफा होगा जिसका इस्तेमाल सार्वजनिक कल्याण के लिये किया जायेगा.

अब, जबकि ठोस आंकड़ा मौजूद है, तो आइये, हम इन दावों की सच्चाई को परखें. सबसे पहले दावे को लें, तो ‘द इकानॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित एक विश्लेषण ("नोटबंदी: रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अपने आंकड़े दिखाते हैं कि रद्द किये गये 15 लाख करोड़ रुपये के नोट वापस आ गये हैं", 14 जनवरी, 2017) में बताया गया है कि रद्द किये गये नोटों का कम-से-कम 96.5 प्रतिशत और सम्भवतः इससे भी ज्यादा हिस्सा पिछले साल के अंत तक बैंकिंग प्रणाली में वापस लौट आया था. दूसरे शब्दों में इन नोटों का केवल 3 प्रतिशत (इससे भी कम हो सकता है) हिस्सा नोटबंदी के जरिए नष्ट किया जा सका है. यह गणना खुद रिजर्व बैंक द्वारा उपलब्ध कराये आंकड़ों पर आधारित है; कई अन्य विश्लेषक भी स्वतंत्र रूप से इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं.

तो इस तरह पहला दावा तो चकनाचूर हो जाता है. इसके अलावा, इस बात को नहीं भूलना चाहिये कि नकदी के रूप में संचित काला धन, समूचे काले धन (जिसमें नकदी, सोना, सिक्योरिटीज, भूसम्पदा, इत्यादि शामिल है) का मात्र तीन प्रतिशत (जेएनयू के भूतपूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार के आकलन के अनुसार) से लेकर 6 प्रतिशत (आयकर विभाग द्वारा आकलन के अनुसार) तक है. इसका अर्थ यह है कि नोटबंदी का निशाना काले धन के अनुमानित भंडार का केवल 3 से 6 प्रतिशत हिस्सा ही था. नोटबंदी ने काले धन का कितना हिस्सा खत्म किया? ज्यादा से ज्यादा नकदी वाला तीन प्रतिशत, जबकि 97 प्रतिशत हिस्सा धुलकर सफेद हो गया.

इसे कैसे मुमकिन किया गया? जाहिर है कि टैक्स बचाने वाले छोटे व्यवसायी और बड़े उद्योगपति, दोनों ने सरकार से ज्यादा चालाकी से काम लिया और तमाम कठोर नियमों को धता बताकर अपने काले धन को सफ़ेद बना लिया. उनमें से कुछेक लोगों को हो सकता है कि कुछ नुकसान या परेशानियाँ उठानी पड़ी हो, लेकिन वे तबाह तो बिल्कुल नहीं हुए. काला धन सफेद करने के कुछेक उपायों (मसलन, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना, जो काला धन के बड़े जमाखोरों के साथ बेशर्मीभरा समझौता थी, और एडवांस में कर चुकाने की योजना) को छोड़कर अधिकांश अन्य उपाय गैरकानूनी थे. इन उपायों में शामिल हैं बेनामी खातों में, अपने मित्रों एवं परिजनों के खातों में और जन-धन खातों में रकमें जमा करा देना, दलालों के माध्यम से कमीशन देकर काले धन को सफेद करना, इत्यादि. इस तरह की गतिविधियों का अर्थ था काले व्यवसाय के दायरे का विस्तार या चारों ओर फैलना, और इस प्रक्रिया में उपजे नये काले धन ने (उदाहरणार्थ, 1000 रुपये के नोट को 800 रुपये में भुनाया गया) वास्तव में पुराने काले धन को फिर से पैदा कर दिया. इन तमाम तरीक़ों ने दूसरे दावे की धज्जियां उड़ा दीं.

तीसरा दावा तो वास्तव में निरर्थक ही बना दिया गया क्योंकि लगभग पूरी-की-पूरी रद्द की गई मुद्रा बड़ी तेजी से भारतीय रिजर्व बैंक की तिजोरियों में वापस आ गई. अगर इसमें से अधिकांश वापस नहीं आती तो क्या होता? क्या इसका अर्थ होता कि सरकार को बहुत मुनाफा होता जिसे वह फिर आम आदमी में बांट देती? नहीं, वैसा होने पर भी रिजर्व बैंक भारत सरकार को कोई विशेष मुनाफा कत्तई नहीं देता. इस बात का स्पष्टीकरण रिजर्व बैंक के गवर्नर ने पिछले साल सात दिसम्बर को ही दे दिया था. इसलिये तीसरा दावा तो जानबूझकर बोला गया झूठ था. इसकी तुलना मोदी द्वारा चुनाव से पहले किये गये झूठे वादे से की जा सकती है कि वे विदेशों से जो बड़ी मात्रा में काला धन स्वदेश वापस लायेंगे और उससे हर भारतीय की जेब में 15 लाख रुपये आ जायेंगे.

इस बीच, काला धन के खिलाफ असली लड़ाई को बिल्कुल भुला दिया गया. इस प्रकार, नोटबंदी से महज तीन दिन पहले मॉरीशस के रास्ते आने वाले धन पर संधि (ट्रिटी ऑन मॉरीशस रूट) की अवधि बढ़ा दी गयी. (यह संधि ‘राउंड ट्रिपिंग’, यानी भारतीयों के काला धन विदेश ले जाने और फिर विदेशी प्रत्यक्ष निवेश या एफडीआई की शक्ल में वापस ले आने, के लिये बदनाम है.)

इस प्रकार 'काले धन के खिलाफ अभियान' एक छलावा निकला, जिसका मकसद भ्रष्टाचार के खिलाफ कारगर लड़ाई चलाने की जनता की ईमानदार आकांक्षा का फायदा उठाना था, इस परियोजना के लिये समर्थन जुटाना था. महत्वपूर्ण तो यह कि इस अभियान का मकसद भ्रष्ट अमीरों के खिलाफ गरीबों के संघर्ष में 'चायवाले' को भ्रष्टाचार के खिलाफ जिहादी, ईमानदार और भरोसेमंद नेता के बतौर पेश करना था.