नव-उदारवादियों का दावा है कि 1990-दशक से ही हमारे देश में आपेक्षिक रूप से ऊंची वृद्धि दर देखी जा रही है. मगर तथ्य इसके विपरीत हैं. दरअसल, भारत की संवृद्धि की कहानी दो भिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरी है, जो अपने समयों की अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्तियों के अनुकूल बिलकुल भिन्न नीति-समूहों से चिह्नित होती हैं – बेशक, 1980 का दशक बीच का संक्रमणकालीन दौर था. दोनों अवस्थाओं के शुरूआती नतीजे अपनी पूर्ववर्ती अवस्था के मुकाबले बेहतर रहे, लेकिन दोनों का अंत देर-सवेर संकटों के साथ ही हुआ, जिससे नीति-समूह में बदलाव की जरूरत महसूस की गई. वस्तुतः, इस मामले में नवीनतम (1991 के बाद की) अवस्था के अनुभव पहले की अवस्थाओं से भिन्न नहीं हैं, जैसा कि हम अगले अध्याय में देखेंगे.