इस पुस्तिका के मूल अंग्रेजी संस्करण का लेखन 2013 के अंत में हुआ था और वह फरवरी 2014 में प्रकाशित हुई थी . उसके बाद हमारे देश में सरकार तो बदली लेकिन आर्थिक मोर्चे पर कोई बदलाव नहीं आया . यहां तक कि रंगराजन समिति द्वारा निर्धारित लज्जास्पद रूप से बेहद कम आय की गरीबी रेखा (देहात में 32 और शहरों में 47 रुपए प्रतिदिन) के अनुसार एक तिहाई आबादी अति गरीब बनी हुई है . मुद्रा स्फीति की ऊंची दर, अल्प वृद्धि, अटल बेरोजगारी और बैंकों में बढ़ता हुआ बट्टा खाता जैसी बीमारियां हालांकि पहले की तरह ही अब भी असाध्य बनी हुई हैं फिर भी पिछले दस सालों से जिन कार्पोरेट समर्थक जन विरोधी आर्थिक नीतियों का अनुसरण किया जा रहा था उन पर जोर पहले के मुकाबले बढ़ा ही है . इसका सबसे तकलीफदेह उदाहरण रेल भाड़े और माल भाड़े में हालिया बढ़ोत्तरी और उसकी रक्षा में दिए गए तर्क हैं (कि नई सरकार तो उसी फैसले को लागू कर रही है जो पुरानी सरकार का है) . मुकेश अंबानी की मांग के अनुसार गैस की कीमत बढ़ाने और गरीबों की सब्सिडी में कटौती से ऐसे ही संकेत मिल रहे हैं .

जनता पर इतने बोझ और कार्पोरेट लाबियों के लिए भारी छूट को मोदी सरकार ‘देश के हित’ के नाम पर सही ठहरा रही है जिस तरह पिछली मनमोहन सरकार समेत सभी नव उदारवादी शासन अतीत में करते रहे हैं . देश के अर्थतंत्र को और अधिक खोलने की नीति को जारी रखते हुए सरकार ने रक्षा उपकरण निर्माण और रेलवे जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में विदेशी पूंजी के मुक्त प्रवाह की अनुमति देने का फैसला किया है . ऐसे प्रशासनिक सुधार भी होने हैं जिनका मकसद भूमि अधिग्रहण और खदानों के पट्टों के आसान ‘क्लियरेंस’ के दिनों की वापसी है . सरकार इस बात को अच्छी तरह से जानती है कि इन सबसे जन प्रतिरोध की नई लहर पैदा होगी इसलिए वह जल्दी-जल्दी राजकीय दमनकारी संस्थाओं को मजबूत बनाने पर तुली हुई है . खुफिया ब्यूरो ने ऐसा ब्लू प्रिंट तैयार किया है जिससे पर्यावरणिक और रक्षात्मक नियमों तथा जल, जंगल और जमीन पर जनता के अधिकारों को धता बताते हुए बड़ी परियोजनाओं का रास्ता साफ करने के लिए संघर्षों को कुचला जा सके . ब्यूरो ने तमाम किस्म के जन आंदोलनों पर ‘विकास रोकने वाले विदेशी चंदा लेने वाले एन.जी.ओ.’ होने का आरोप लगाया है: परमाणु बिजली प्लांट (खासकर कुडनकुलम), कोयला आधारित बिजली प्लांटों, आनुवंशिक रूप से परिष्कृत जीवों (जेनेटिकली मोडिफाइड आर्गेनिज्म), उड़ीशा के पोस्को और वेदांता, पूर्वोत्तर का दोहन करने वाले उद्योगों के विरोध में चल रहे आंदोलन और नर्मदा बचाओ आंदोलन इसमें शामिल हैं. मजेदार बात यह है कि ब्यूरो की इस रिपोर्ट का काम मनमोहन सरकार ने दिया था लेकिन उसे नव निर्वाचित मोदी सरकार को दिया गया और इसने ही उसे लीक किया .

‘अच्छे दिन’ का चुनावी नारा चुनाव के बाद ‘कठिन समय’ की सच्चाई में बदल चुका है . इसी के साथ भारत के लोग मजबूती से लड़ने के लिए तैयार हो रहे हैं . इस लड़ाई में इस पुस्तिका को हथियार बन जाने दें .

नई दिल्ली
7 जुलाई 2014