कोई भी पूर्वाग्रह-रहित पर्यवेक्षक इस बात से इनकार नहीं करेगा कि भारत में परिस्थिति सचमुच निराशाजनक है. यह भी नहीं कहा जा सकता है कि अतीत में इससे बेहतर हालात थे. इस फटेहाल स्थिति के लिए इस या उस आर्थिक माॅडल/रणनीति, अथवा इस या उस राजनीतिक दल/गठबंधन पर दोष मढ़ते हुए 60 वर्ष से भी ज्यादा समय बीत चुका है. क्या अब यह स्वीकार करने का सही वक्त नहीं आ गया है कि यह एक गंभीर प्रणालीगत समस्या है, जो बुनियादी रूप से आंतरिक कमजोरियों और विकृतियों से पैदा हुई है, और जिसे वैश्विक आर्थिक हलचल ने और तीखा बना दिया है? और क्या अब समय नहीं आ गया है कि इसका एक सच्चा समाधान खोजा जाय - ऐसा समाधान जो रैडिकल लेकिन व्यवहार्य हो, कठिन व सुदीर्घ किंतु कदम-ब-कदम प्राप्य हो?