यह सर्वविदित तथ्य है कि चीन के आजाद होने के दो वर्ष पहले हमारे देश को आजादी मिली थी. उद्योगीकरण तथा कृषि योग्य जमीन और साथ ही कोयला, लोहा जैसे अनेक खनिज संसाधनों की उपलब्धता के लिहाज से उस वक्त भारत बेहतर स्थिति में था. बहरहाल, प्रणव बर्धन हमें कुछ और रोचक सूचनाएं दे रहे हैं:

“अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर प्रति व्यक्ति आय के स्तर के हिसाब से 1870 में, और 1970 के दशक में भी, चीन की तुलना में भारत थोड़ा आगे था, किंतु उसके बाद से, खासकर 1990 से चीन भारत से काफी आगे निकल गया. पिछले दो दशकों में भारत में प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि दर लगभग 4 प्रतिशत रही है; जबकि चीन में यह वृद्धि दर कम से कम इसकी दुगुनी रही है.”प्रणव बर्धन, अवेकनिंग जायंट्स, फीट आॅफ क्ले, एसंसिंग द इकाॅनोमिक राइज आॅफ इंडिया एंड चाइना, प्रिंस्टन 2010, पृष्ठ 12

दूसरे शब्दों में, वैश्वीकरण के जमाने में अर्थतंत्र को खोलने और सुधार के कदम उठाने की रणनीति भारत की अपेक्षा चीन में अतुलनीय रूप से अधिक सफल रही है. इसके कई महत्वपूर्ण कारण हैं, जिसमें यह कारण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान की गई अनेक भूलों और उसके विनाशकारी आर्थिक प्रभावों के बावजूद सुधार-पूर्व के दशकों में चीन ने कहीं अधिक मजबूत आर्थिक बुनियाद खड़ा कर लिया था.

एक आम गलतफहमी यह है कि हाल में, अर्थात् सुधारोत्तर दशकों में, चीन की यह शानदार वृद्धि बिलकुल शुरू से ही निर्यात-प्रेरित रही है. बर्धन दिखाते हैं कि “वृद्धि-आकलन के लिहाज से 1990-2005 के बीच की अवधि में चीन की वृद्धि पर शुद्ध निर्यात का प्रभाव घरेलू निवेश या उपभोग के प्रभाव की तुलना में कमजोर ही रहा है. दूसरे, विदेशी व्यापार और निवेश के मामले में चीन ने बड़े कदम मुख्यतः 1990 के दशक में, और खासकर उसके बाद के दशक में उठाए हैं ; फिर भी, 1978 और 1993 के बीच ही, उन बड़े कदमों के पहले ही, चीन ने लगभग 9 प्रतिशत की काफी ऊंची औसत वार्षिक वृद्धि दर हासिल कर ली थी. 1980-दशक के प्रथमार्ध में ऊंची वृद्धि और परिणामस्वरूप गरीबी में चमत्कारिक गिरावट का अधिकांश श्रेय वैश्वीकरण को नहीं, बल्कि आंतरिक कारकों को जाता है. इन आंतरिक कारकों में कृषि – वह क्षेत्र जहां गरीबी अधिकांशतः संकेंद्रित थी – के संगठन में संस्थागत बदलाव तथा भूमि-जोत अधिकारों का समतामूलक वितरण शामिल हैं, जिसने ग्रामीण आय-सृजन के अवसरों को बढ़ाया और इस प्रकार गरीबी दूर करने में मदद पहुंचाई. 1980-दशक के मध्य के बाद की अवधि में भी ... शिक्षा, कृषि शोध व विकास, तथा ग्रामीण आधारभूत संरचना में घरेलू सार्वजनिक निवेश चीन में ग्रामीण गरीबी को कम करने का प्रधान कारक रहा है.वही, पृष्ठ 17 (जोर हमारा है).

इस प्रकार, 2005 तक सरकारी व्यय की अग्रणी भूमिका के साथ घरेलू निवेश और उपभोग तथा कृषि व ग्रामीण अर्थतंत्र को दिए गए भारी महत्व ने गरीबी उन्मूलन और जीडीपी में वृद्धि, दोनों मोर्चों पर सबसे बड़ा योगदान किया; और भारत के विपरीत, चीन में ये दोनों चीजें कम से कम कुछ हद तक साथ-साथ आगे बढ़ीं. विदेशी पूंजी पर निर्णायक अ-निर्भरता के साथ यह बात हमारे लिए एक सबक है, जो चीनी अनुभव से हम सीख सकते हैं.

दूसरे, बीजिंग ने वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ खुद को अधिकाधिक प्रगाढ़ता से जोड़ने, और विनिर्माण कार्यों के कुछ अंश को चीन की धरती पर स्थानांतरित करने हेतु बहुराष्ट्रीय कंपनियों को रिझाने के लिए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूडीओ) की अनेक शर्तों और मांगों को जरूर स्वीकार किया. लेकिन, उसने यह सब कुछ मजबूत आर्थिक राष्ट्रवाद (इसे समाजवादी निर्माण के अंग के बतौर माना जाए या नहीं, यह बिलकुल भिन्न बहस है) की दीर्घकालिक भविष्य-दृष्टि के साथ अंजाम दिया, जो कि एक के बाद दूसरी बननेवाली सभी भारतीय सरकारों के घोर दलाल रवैये के बिलकुल विपरीत था. प्रायः, जब-न-तब, मनमोहन और चिदंबरम साम्राज्यवाद के एजेंटों/समर्थकोंयह सर्वविदित है कि मनमोहन सिंह ने कितनी हठधर्मिता से संसद में लंबी और तीखी लड़ाई के बाद आधुनिक युग का राष्ट्रीय दासता का दस्तावेज – भारत-अमेरिका परमाणु करार – पारित करवाया और फिर, दुर्घटना होने की स्थिति में रिएक्टर आपूर्तिकर्ता अमेरिकी निगमों का उत्तरदायित्व कम करवाने के लिए कितना पसीना बहाया. वे अतीत के औपनिवेशिक प्रभुओं के प्रति भी कम कृतज्ञ नहीं हैं. दिल्ली में जिला कलेक्टरों के एक सम्मेलन (मई 2005) को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ब्रिटिश साम्राज्य “उद्यमशीलता, साहसिकता और सृजनात्मकता का प्रदर्शन” था. उसी वर्ष आॅक्सफोर्ड में बोलते हुए उन्होंने कहा कि आजादी की लड़ाई ने “अच्छे शासन के ब्रिटिश दावे को खारिज नहीं किया था”, बल्कि वह “स्व-शासन” के लिए एक “स्वाभाविक” प्रयास था. भारत में ब्रिटिश शासन की भूरि-भूरि प्रशंसा और भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर उनका अतिशय उत्साह अनेकों उदाहरणों में से केवल दो दृष्टांत हैं जो भारतीय बड़े पूंजीपति वर्ग – जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं – का स्पष्ट दंभपूर्ण रवैया दिखाता है. जैसा बोलते और आचरण करते मिल जाते थे, और इस देश के वित्तीय प्रतिष्ठानों में अध्किांश नियुक्तियां विश्व बैंक/आइएमएपफ के कुनबों से की जाती रही हैं. इस भिन्नता का व्यावहारिक नतीजा कोई भी देख सकता है: राष्ट्रों के समुदाय में चीन की अत्यंत श्रेष्ठ आर्थिक शक्ति और इसीलिए अत्यंत उत्कृष्ट राजनीतिक हैसियत.

विश्व बैंक/आइएमएफ – नाॅर्थ ब्लाॅक/मिंट स्ट्रीट घूमता दरवाजा

जेम्स पेट्रा ने “वाल स्ट्रीट से वित्त विभाग और वित्त विभाग से पुनः वाल स्ट्रीट तक घूमते दरवाजे” के बारे में लिखा है, जहां निजी वित्तीय संस्थाओं के आला हाकिम अमेरिकी वित्त विभाग में शामिल होेते हैं, ताकि वाल स्ट्रीट को जिन चीजों की जरूरत है वह उसे आसानी से मिल जाए; और फिर वे निजी क्षेत्र में पहले से ऊंचे पदों पर लौट आते हैं. हम लोग अपने देश में ब्रेटन वुड्स संस्थाओं (विश्व बैंक, आइएमएफ और विश्व व्यापार संगठन – अनु.) तथा भारतीय राज्य के आर्थिक उपकरणों के बीच भी कुछ इसी किस्म का “घूमता दरवाजा” देखते हैं.

यह प्रवृत्ति 1990-दशक के बाद सुस्पष्ट हो गई, जब लगभग हर क्षेत्र में अमेरिका की नकल करना भारतीय नीति-निर्माताओं का मानक आचरण बन गया. खुद मनमोहन सिंह 1982 से 1985 तक आइएमएफ के बोर्ड आॅफ गवर्नर में भारत के लिए वैकल्पिक गवर्नर थे. आॅक्सफोर्ड स्नातक मोंटेक सिंह अहलूवालिया, जिन्होंने 1970-दशक की शुरूआत में राॅबर्ट मैकनमारा के अधीन विश्व बैंक में और कुछ समय के लिए आइएमएफ के साथ भी काम किया था, को वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के अधीन ‘आर्थिक मामलों के विभाग’ का सचिव बना दिया गया – जिसके बाद अप्रैल 1993 में वे वित्त सचिव बने – हालांकि, आइएएस अधिकारियों ने इसका प्रतिवाद किया था, क्योंकि वे इस बात से क्षुब्ध थे कि इस तरह का पद गैर-आइएएस अधिकारी को दे दिया गया. श्री अहलूवालिया ने 1998 से 2001 के बीच योजना आयोग के सदस्य के बतौर काम किया और फिर जुलाई 2001 में वे पुनः आइएमएफ में लौट गए. तीन वर्ष के बाद, उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में फिर से भारत लाया गया. अपने मनगढ़ंत आंकड़ों (याद कीजिए, कैसे उन्होंने गरीबी रेखा को नीचे खिसका दिया था) और अन्य तरीकों से आइएमएफ-प्रेरित नव-उदारवादी नीतियों को लादने में उनकी उदाहरणीय सेवा को मान्यता देते हुए उन्हेें वर्ष 2011 में पद्म भूषण पुरस्कार से नवाजा गया.

दूसरी उच्च स्तरीय नियुक्ति थी रघुराम राजन की, जो अक्टूबर 2003 से दिसंबर 2006 तक आइएमएफ में मुख्य अर्थशास्त्री के बतौर सेवारत थे. नवंबर 2008 में मनमोहन सिंह ने उन्हें अवैतनिक (आॅनररी) आर्थिक सलाहकार बनाया और अप्रैल 2012 में उन्हें भारत सरकार का मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया गया. सितंबर 2013 में वे भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बने.

इसका उलटा प्रवाह भी हो रहा है. रघुराम राजन के पहले मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे कौशिक बसु को उसी पद पर लिया गया, जिस पर पहले राजन विराजमान थे – आइएमएफ के मुख्य अर्थशास्त्री. इनके बाद हैं डा. राकेश मोहन, ये पूर्व में भारतीय रिजर्व बैंक के डिपुटी गवर्नर और आर्थिक मामलों के विभाग में सचिव भी थे. संप्रति इन्होंने आइएमएफ के बोर्ड में एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर का पदभार संभाला है. भारत के अलावा, डा. मोहन आइएमएफ बोर्ड में श्रीलंका और भूटान का भी प्रतिनिधित्व करेंगे.

 

इस संदर्भ में तीसरी सर्वाधिक प्रासंगिक चीजें हैं वे त्वरित, लचीले और स्वतंत्र नीति-निर्णय, जो चीनी सरकार राष्ट्रीय हितों में लेती रही है. एक लिहाज से कहिए तो भारत की अपेक्षा चीन के लिए ऐसा करना कहीं ज्यादा कठिन रहा है, क्योंकि वैश्विक अर्थतंत्र – विशेषतः अमेरिकी अर्थतंत्र – के साथ उसका एकीकरण कहीं ऊंचे स्तर का है (इस हद तक, कि इन दो अर्थतंत्रों को “चिनअमेरिकन” नाम दिया गया है).

इस प्रकार, बीजिंग ने 585 अरब डाॅलर का एक आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज शुरू किया. लेकिन, अमेरिका और यूरोप में संकट के लिए जिम्मेदार लोभी बैंकों को दिए गए ‘बेलआउट’ (संकट मोचन) पैकेजों से भिन्न यहां सर्वप्रमुख रूप से दो चीजों पर जोर दिया गया – पहला, घरेलू आधारभूत संरचनाओं को उन्नत बनाना (इसने, कुछ हद तक, निर्यातोन्मुख उद्योगों के बंद होने से उत्पन्न बेरोजगारी के दबाव को कम किया; और साथ ही भविष्य के विकास की व्यापक नींव भी रखी) और दूसरा, मुद्रा विनिमय दर को नीचे लाना (इससे अमेरिका व यूरोपीय संघ द्वारा बदला लेने की धमकियों की अनदेखी करते हुए, तंग बाजार में चीनी सामग्रियों का निर्यात अधिक प्रतियोगी बन सका). इसका नतीजा बहुत शानदार रहा: आसान ऋण नीति के सहारे वृद्धि दर 2009 की पहली तिमाही में 6.6 प्रतिशत से छलांग लगाकर 2010 की पहली तिमाही में 12.1 प्रतिशत हो गई.

लेकिन जल्दी ही सरकार को अतिशय गर्मी के लक्षण भी दिखने लगे, जैसे कि उपभोक्ता कीमतों में वृद्धि और आवास मूल्यों में तेज उछाल. तब, सरकार ने बैंक ऋण पर रोक लगाने तथा सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों द्वारा निवेश व्यय में कटौती करने जैसे कदम उठाए. लेकिन इसके प्रभाव अल्पकालिक थे. इसके अलावा, नई बनी सड़कों व पुलों आदि का ज्यादा इस्तेमाल भी नहीं हो पा रहा था. तब, सरकार ने नीति-ढांचे में बड़ा बदलाव लाने का फैसला लिया: उसने निवेश के बजाए उपभोग पर ज्यादा जोर देना शुरू किया. इस दिशा में कई कदम उठाए गए, जैसे कि संपत्ति की सट्टेबाजी पर सख्त नियंत्रण और पूंजी प्राप्ति कर को पुनः 20 प्रतिशत के स्तर पर ले आना. परिणामस्वरूप, चीन की वृद्धि में निवेश का अंशदान 50 प्रतिशत से घटकर 30 प्रतिशत हो गया, और इसी अनुपात में उपभोक्ता व्यय का अंशदान बढ़ गया. चीनी सरकार ने “वृद्धि की गुणवत्ता और कारगरता सुधारने” की खातिर “वृद्धि की मात्रा” में थोड़ी कटौती को स्वीकारने की तत्परता दिखाई.

वृद्धि के प्रति यह नया रुख असमानता घटाने की ओर भी लक्षित था. चीनी सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, जब वृद्धि दर ऊंची उठी तो असमानता बढ़ी और वृद्धि दर कम होने पर यह घटी. पीपुल्स डेली के आॅनलाइन संस्करण में प्रकाशित एक लेख में कहा गया, “पिछले दशक के लिए चीन द्वारा पहली बार जारी ‘गिनी गुणांक’ ने धनी और गरीब के बीच की खाई को पाटने का सरकारी संकल्प प्रदर्शित किया है.” हालांकि ‘गिनी गुणांक’ गिर रहा है, फिर भी 0.474 का इसका स्तर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित 0.4 के खतरे के स्तर से काफी ऊपर है. इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए नेशनल ब्यूरो आॅफ स्टैटिस्टिक्स के निदेशक मा जियांगतांग ने कहा, “इन आंकड़ों ने संपत्ति की खाई को पाटने के लिए हमारे देश में आय वितरण सुधर में तेजी लाने की फौरी जरूरत दिखा दी है.”देखें, सी.पी. चंद्रशेखर का लेख इज चाइना चेंजिंग? (द हिंदू, 1 फरवरी 2013) इस बीच अधिकांश अन्य देशों के मुकाबले यहां का विदेश व्यापार बेहतर ढंग से फूलता-फलता रहा: 2013 के अंत तक चीन माल व्यापार में दुनिया के सबसे बड़े व्यापारी राष्ट्र अमेरिका से भी आगे निकल गया.

ये सब चीजें चीन को, जहां भ्रष्टाचार और कई अन्य बुराइयां काफी फैल चुकी हैं, वैसा माॅडल नहीं बनाती हैं जिसकी नकल भारत कर सके. किंतु, इतना तो निश्चित है कि हम अपनी परिस्थितियों व प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए सतत परिवर्तनशील चीनी अर्थतंत्र की कुछ खास विशेषताओं अथवा पहलुओं को आलोचनात्मक ढंग से आत्मसात कर सकते हैं. इनमें सर्वप्रमुख चीज है स्वतंत्र आर्थिक नीति, जो जनता के हितों की ओर निर्दिष्ट हो – एक ऐसी नीति, जो वैश्विक वित्तीय पूंजी के संदर्भ में संबंध्ति राज्य की स्वायत्तता पर आधारित हो.