2009-10 से भारत की वृद्धि-दर में गिरावट के प्रथम संकेत मिलते ही उच्च वित्त की आर्थिक व राजनीतिक एजेंसियां अपने पुराने खेल पर वापस आ गईं; वे दिल्ली सरकार पर और ज्यादा रियायतों के लिए तथा अर्थतंत्र को और अधिक खोलने के लिए दबाव बनाने लगीं. “नीति लकवाग्रस्तता” कहकर सरकार की आलोचना की गई, व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री को निशाना बनाया गया और ऋण रेटिंग एजेंसियों ने भारत की ऋण-योग्यता को निचले पायदान पर ले जाने की धमकी दी, और उन्होंने वस्तुतः ऐसा किया भी. स्वाभाविक ही था, कि भारतीय बड़े व्यावसायिक समूह और काॅरपोरेट मीडिया ने भी वही राग अलापना शुरू कर दिया. यकीन मानिए, सरकार तो उनकी बात मान लेने के लिए हमेशा तैयार थी, किंतु प्रस्तावित सुधार-उपायों की निपट अलोकप्रियता और यहां तक कि (भाजपा जैसी) उन पार्टियों, जो दरअसल ऐसे उपायों के पक्ष में रहती हैं, और यूपीए के कुछ घटकों के भी नपे-तुले विरोध ने उसके हाथ बांध रखे थे. लेकिन अधिक समय तक नहीं. कुछ हीला-हवाली करने के बाद, वर्ष 2012 के अंत तक कांग्रेस ने बड़ी पूंजी के पक्ष से एक बार फिर धावा बोलने का फैसला कर लिया. यह कई रूपों में जाहिर हुआ: सुधार की बूस्टर खुराक, बजट 2013 और जनविरोधी काॅरपोरेट-परस्त नीति निर्णयों की अंतहीन शृंखला. तत्क्षण, जिसे झिड़कियां पर झिड़कियां दी जा रही थीं, उस पर प्रशंसा के फूल बरसाये जाने लगे: मनमोहन सिंह के बारे में कहा गया – “शेर फिर दहाड़ रहा है”. साधारण लोगों के लिए मुश्किलों भरे दिन फिर आने वाले थे.